माया तन्त्र पटल ७, मायातन्त्रम् सप्तम: पटलः Maya Tantra Patal 7

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तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से मायातन्त्र के पटल ७ में ग्रहण के समय में सब तीर्थों का जल सामान्य जल में बदल जाता है । उस काल में मन्त्रसिद्धि तथा किसी भी देवता की सिद्धि सरल बतायी है। कलियुग में केवल तीन अक्षरों तथा एक अक्षर वाली विद्या समाराधन के लिये देय है,का वर्णन किया गया है।

अथ सप्तमः पटलः

श्री ईश्वर उवाच

अतः परं प्रवक्ष्यामि अतिगुह्यं परात्परम् ।

सुषुम्णावर्त्ममध्यस्थं यन्मन्त्रं तत् शृणु प्रिये ॥1

एतन्मन्त्रमविज्ञाय यो जपेत् सूर्यपर्वणि ।

तस्य सर्वार्थहानिः स्यादन्ते नरकमाप्नुयात् ॥ 2

श्री पार्वती से कहा कि हे प्रिये ! इसके बाद अब मैं सुषुम्णा नाड़ी के मार्ग में स्थित जो अत्यन्त गुप्त और पर से भी पर मन्त्र है, उसको बताऊंगा अत: तुम उसे सुनो- तथा हे देवि ! जिस मन्त्र को मैं बताऊंगा, उस मन्त्र को न जानकर सूर्य ग्रहण में जो मनुष्य कुछ भी जपेगा, उसकी सब प्रकार के कार्यों में हानि होगी और अन्त में वह नरक को प्राप्त करेगा ॥1-2

शृणु मन्त्रं वरारोहे प्रशस्तं पर्वदर्शने ।

मोक्षकाले च चार्वङ्गि ! प्रशस्तं यत् शृणुष्व तत् ॥3

॥ॐ ॐ ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं ॐ ॥

प्रणवत्रयमुद्धृत्य मायाबीजं समुद्धरेत् ।

ततः प्रणवमुद्धृत्य मायाबीजं सुमद्धरेत ॥4

अतः हे वरारोहे! ग्रहण काल में जो प्रशस्त मन्त्र है, उसको सुनो तथा सुन्दर अंगों वाली पार्वति ! मोक्षकाल में जो प्रशस्त मन्त्र है, उसको सुनो। वह मन्त्र हैं ॐ ॐ ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं ॐ। इसमें तीन प्रणव (ॐ) को सम्यक् प्रकार से लाकर मायाबीज (ह्रीं) को लाना चाहिए और फिर प्रणव ॐ को लाकर मायाबीज को लाना चाहिए । फिर प्रणव (ॐ) को लाकर इन तीनों का लाना अत्यन्त दुर्लभ है। इस प्रकार यह मन्त्र है ॐ ॐ ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं ॐ । इसमें पहले तीन प्रणव हैं, इसके बाद मायाबीज है, फिर प्रणव है, फिर बीजमन्त्र है, फिर प्रणव है। अन्त में फिर तीनों को नहीं लाया गया है ॥3-4

ततः प्रणवमुद्धृत्य त्रयमेतत् सुदुर्लभम् ।

एतत् सप्ताक्षरं मन्त्रं प्रजप्य दशधा प्रिये ॥ 5

यः पश्येद् ग्रहणं देवि प्रायश्चित्तं न विद्यते ।

मोक्षकाले च चार्वङ्गि! देवानामपि दुर्लभम् ॥6

हे देवि ! इस उपर्युक्त सात अक्षर वाले मन्त्र को दश प्रकार पढ़कर जो ग्रहण को देखे, उसको कोई प्रायश्चित नहीं रहता है तथा हे सुन्दरि । मोक्षकाल में यह मन्त्र देवताओं के लिए भी दुर्लभ है ॥5-6

मायाबीजत्रयं लिख्यं प्रणवं तदनन्तरम् ।

पुनर्मायात्रयं देवि ! मन्त्रोद्धारमिदं शुभम् ॥ 7

एतन्मन्त्रद्वयं देवि ! सर्वत्रैव प्रशस्यते ।

वैष्णवेषु च सौरेषु शाक्ते शैवे वरानने ! ॥8

प्रशस्तं चञ्चलापाङ्गि नान्यथा तु कदाचन ।

एतन्मन्त्रमविज्ञाय यः पश्चयेद् ग्रहणं शुभे ॥9

सर्व तस्य वृथा देवि चान्ते शूकरतां व्रजेत् ।

दर्शने मोक्षणे चैव मन्त्रद्वयमितीरितम् ॥10

यन्नोक्तं सर्वतन्त्रेषु चेदानीं प्रकटीकृतम् ।

न तिथिर्न व्रतं होमो ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ॥11

ग्रासादिमोक्षपर्यन्तं जपेन्मन्त्रमन्यधीः ।

यथा बाह्ये महेशानि तथा चैवान्तरात्मनि ॥12

अब शंकर भगवान् शुभ मन्त्रोद्धार को बताते हुए कहते हैं कि हे देवि । तीन माया बीज लिखकर अर्थात् (ह्रीं ह्रीं ह्रीं) यह लिखकर उसके प्रणव (ॐ) लिखना है, फिर उसके बाद फिर तीन मायाबीज (ह्रीं ह्रीं ह्रीं) लिखना है। अतः पूरा मन्त्र हुआ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं । यही शुभ मन्त्रोद्धार मन्त्र है।

हे सुन्दर मुख वाली देवि ! ये दो मन्त्र सभी स्थानों पर प्रकृष्ट रूप से कहे जाते हैं। हे चंचल नेत्रों वाली ! वैष्णव, सौर, शाक्त और शैव इन सब सम्प्रदायों में यह मन्त्र प्रशस्त है, इसके अलावा अन्य कुछ नहीं है।

हे पार्वति ! इस मन्त्र को जो नहीं जानता है, वह यदि ग्रहण को देखे तो हे देवि ! उसके सभी कर्म व्यर्थ हो जाते हैं और अन्त में वह व्यक्ति सूअर की योनि को प्राप्त करता है।

ग्रहण के दिखाई देने पर और उसके समाप्त हो जाने पर ये दो ही मन्त्र बताये गये हैं, जो सब तन्त्रों में नही कहा गया है, वह इस समय प्रकट कर दिया गया है।

सूर्य और चन्द्रमा के ग्रहण के समय न तिथि होती है, न कोई व्रत होता है और न होम होता है अर्थात् उस समय कोई विशेष पूजा पाठ का समय नहीं होता है। फिर भी जब सूर्य अथवा चन्द्रमा को राहु ग्रसे, तब से जब वे छोड़ें, तब तक अर्थात् ग्रहण प्रारम्भ होने से अन्त तक मनुष्य को अन्यत्र बुद्धि न लगाकर जप करना चाहिए॥7- 12

उभयोरेकतां कृत्वा प्रजपेन्मनसा शुचिः ।

राहुर्यदा महेशानि चन्द्रं सूर्यं च धावति ॥ 13

वैरभावमनुस्मृत्य विकलाङ्गस्तुं पार्वति! ।

तदोपरागो भवति सर्वयोगमयं विदुः ॥14

ब्रह्माद्या देवताः सर्वा गङ्गाद्यास्तीर्थकोटयः ।

सूर्यमण्डलमासाद्य प्रजपेदिष्टमन्त्रकम् ॥15

भगवान् ने कहा कि हे पार्वति ! जिस प्रकार बाहरी मन में उसी प्रकार अन्तर्मन में दोनों में एकता करके पवित्र मन से जप करना चाहिए।

महेशानि! जब राहु सूर्य और चन्द्रमा के पीछे दौड़ता है, तब उस समय) वैर भाव को यादकर विकलांग व्यक्ति भी उसके उपराग युक्त तथा सब प्रकार के योगमय हो जाता है तथा हे पार्वति ! जिस समय ग्रहण पड़ता है, उस समय ब्रह्मा आदि सभी देवता गंगा आदि सभी करोड़ों तीर्थ सूर्यमण्डल में पहुंचकर इष्ट मन्त्र का जप करते हैं ॥13-15

अतिरिक्त पाठ है, उसका भी अर्थ किया जा रहा है-

अत एव महेशानि इन्द्राद्यास्तिदिवौकसः ।

चन्द्र पर्व सूर्य पर्व यदा भवति सुन्दरि ॥

स्नानं जनान् त्यक्त्वा त्यक्त्वा ते देवा सूर्यमण्डलम् ।

गत्वा शीघ्रं जपेत् विद्यां कालिकां जगदम्बिकाम् ॥

अत एव महेशानि सामान्यजनमेव च ।

तीर्थोदकं महेशानि सामान्यमुदकं प्रिये ! ॥

इन श्लोकों में भगवान् शिव पार्वती जी से कहते हैं कि जय सूर्यग्रहण होता है, उस समय इन्द्रादि देवतागण स्नान छोडकर और मनुष्यों को छोड़कर सूर्य मण्डल में जाकर शीघ्र ही जगदम्बिका, कालिका और विद्या का जाप करते हैं। इसलिए हे महेशानि ! सामान्य जन को यह ग्रहण तीर्थोदक है तथा सामान्य उदक है अर्थात् यह सबके लिये है।

त दृष्ट्वा सहसा राहुः पलायति महापदि ।

अन्यथा तत्क्षणात् सर्वं ब्रह्माण्डं नाशमाप्नुयात् ॥16

शंकर जी ने कहा कि हे देवि ! सूर्यमण्डल में आये हुए उन ब्रह्मा आदि देवों को देखकर सहसा राहु महा आपत्ति में पड़ जाता है और भाग जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो देवता लोग सूर्यमण्डल में नहीं जाते तो उसी क्षण समस्त ब्रह्माण्ड नाश को प्राप्त हो जाता ॥16

तत्क्षणे सर्वतीर्थानि सामान्यमुदकं प्रिये ।

यान्ति स्वपदमृत्सृज्य सर्वतीर्थोदकं ततः॥ 17

सामान्यमुदकं तनु गङ्गातोयसमं भवेत् ।

तत्क्षणे चञ्चलापाङ्गि तज्जले स्नानमात्रतः ॥18

चर्तुभुजसमाः सर्वे लोका भारतवासिनः ।

तत्क्षणाद् गिरिजे सत्यं मोक्षं ब्रह्मपुरं व्रजेत् ॥19

हे प्रिये ! उस क्षण में सब तीर्थ और सामान्य जल अपने पद स्थान को छोड़कर सब तीर्थो के जल में मिल जाते हैं और सामान्य जल गङ्गा के जल के समान हो जाना चाहिए। अर्थात् जब सूर्य अथवा चन्द्रग्रहण पड़ता है, उस समय सभी सामान्य जल गङ्गा के जल के समान हो जाते हैं। अतः हे चञ्चल नेत्रों वाली पार्वति! उस जल में स्नान मात्र से समस्त भारतवासी विष्णु के समान उसी क्षण मोक्ष प्राप्त कर ब्रह्मपुर को चले जाने चाहिए ॥17-19

भारते त्रिविधा पूजा भारते विविधो जपः ।

तथापि बहुकालेन सिद्ध्यन्ते सङ्गदोषतः ॥20

भारत में तीन प्रकार की पूजा बतायी गयी है और भारत में अनेकों प्रकार के जप कहे गये हैं, फिर भी बहुत अधिक समय में सङ्गदोष से कार्य सिद्ध होते हैं ॥20

मान्दातृप्रमुखाः सर्वे रामो दाशरथिस्तथा ।

प्रजप्य तारिणीं दुर्गां मन्त्रसिद्धिमवाप्नुयुः ॥ 21

मान्धाता आदि प्रमुख राजा तथा दशरथ पुत्र राम ने तारिणी दुर्गा का जप करके मन्त्रसिद्धि प्राप्त की ।। 21।।

अन्यद्वीपेषु वर्षेषु नानातीर्थानि सन्ति च ।

नानाभोगयुता लोका देववत् सर्वथा प्रिये ॥22

अन्य द्वीवों और देशों में अनेको तीर्थ हैं। अतः हे प्रिये ! अनेकों भोगों से युक्त लोग सब प्रकार से देवता के समान हैं ॥22

ते सर्वे देवताप्राया नानाभोगविलासिनः ।

नित्यसुखमयाः सर्वे दिव्यस्त्रीशतसेविताः ॥23

वे सभी देवता प्रायः अनेकों प्रकार के भोग विलासों में लगे रहते हैं। अतः वे सभी नित्य सुखमय रहते हैं और नित्य सैकड़ों दिव्य स्त्रियों से सेवित रहते हैं। अर्थात् सैकड़ों सुन्दरियां उनकी सेवा करती हैं ॥23

तेषां गेहे महेशानि! नानातीर्थानि सन्ति वै ।

ग्रहणं चन्द्रदेवस्य सूर्यदेवस्य सुन्दरि ! ॥24

शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि हे महेशानि! उन अन्य द्वीपों के पुरुषों के घर में अनेको तीर्थस्थान हैं तथा हे सुन्दरि ! वहाँ चन्द्रदेव और सूर्यदेव का ग्रहण पड़ता रहता है ॥ 24।।

बहुभाग्येन चार्वङ्गि ! लोका भारतवासिनः।

प्राप्तिमात्रेण यज्जप्तं तत्सर्वमक्षयं भवेत् ॥25

हे सुन्दर शरीर वाली पार्वति ! बहुत बड़े भाग्य से भारत में रहने वाले लोग चन्द्र और सूर्य ग्रहण प्राप्त कर पाते हैं। सूर्य-चन्द्रग्रहण के प्राप्ति मात्र से जो जल है, वह सब अक्षय हो जाता है अर्थात् सूर्य अथवा चन्द्रग्रहण पड़ते समय जो जल ग्रहण देखता है, वह जल बहुत गुणकारक हो जाता है, इसमें अवश्य कुछ वैज्ञानिक रहस्य छिपा हुआ है।।25।।

चतुर्दशी पौर्णमासी सोममङ्गलसंयुता।

यदा भवति लोकेऽस्मिन् तदा सूर्यग्रहेण किम् ॥26

अब शंकर पार्वती से कहते है कि पार्वति ! चतुर्दशी और पूर्णमासी सोमवार और मंगलवार को पड़ जाय और उसी समय चन्द्रग्रहण हो, तो उसके समक्ष सूर्यग्रहण भी कोई महत्त्व नहीं रखता अर्थात् यदि सोमवार को चतुर्दशी मंगलवार को पूर्णिमा हो जाये तो चन्द्रग्रहण सूर्यग्रहण से अधिक गुणकारी होता है। हे चञ्चल नेत्रों वाली पार्वति ! यह चौदश, पूर्णिमा तो करोड़ों सूर्यग्रहणों के समान पुण्यदायक होता है ॥26

एषा तु चञ्चलापाङ्गि ! कोटिसूर्यग्रहैः समा ।

शुक्लाष्टम्यां नवम्यां वा चतुर्दश्यां तथैव च ॥27

शुक्लपक्ष की अष्टमी, नवमी उसी प्रकार चतुर्दशी और संक्रान्ति तथा ग्रहणकाल में पूजा का लोप नहीं करना चाहिए अर्थात् इन दिनों में पूजा अवश्य करनी चाहिए। संक्रान्ति का अर्थ है- प्रत्येक माह की 14 तारीख को एक राशि की संक्रान्ति होती है। जहाँ सूर्यदेव प्रत्येक राशि में क्रमशः संक्रमण करते हैं। अत: उस काल में पूजा अवश्य करनी चाहिए ॥27

संक्रान्त्यां पर्वदिवसे पूजालोपं न कारयेत् ।

नावश्यं पूजयेद् यस्तु तत्त्वहीनो भवेत् प्रिये ! ॥28

तत्त्वहीनस्य देवेशि ! जपयज्ञादि निष्फलम् ।

शाम्भवी कुप्यते तेभ्यो ब्रह्महत्या पदे पदे ॥ 29

भगवान् शंकर कहते हैं कि हे पार्वति ! उक्त अवसरों पर पूजा करनी चाहिए। जो उक्त अवसरों पर पूजा नहीं करता, वह तत्त्वहीन हो जाता है अर्थात् जप तप सिद्धि इन्ही उपर्युक्त अवसरों पर करनी चाहिए जो इन अवसरों पर न करके अन्य अवसरों पर करता है, उसकी पूजा अवश्य तत्त्वहीन हो जाती है तथा हे देवेशि ! तत्त्वहीन पुरुष के जप यज्ञ आदि सब निष्फल होते है। उस पर शाम्भवी (दुर्गा माँ) क्रोधित हो जाती हैं और पद-पद पर उन्हें ब्रह्महत्या का पाप लगता है ॥28-29

यद् यत् पूर्वकृत् कर्म जपहोमादिकं च यत् ।

तत् सर्वं नाशमायाति मम तुल्यो भवेद् यदि ॥30

शंकर जी कहते हैं कि यदि जो व्यक्ति उक्त अवसरों पर जप- होम आदि नहीं करता और मेरे समान हो जाता है, जैसे मैं कुछ नहीं करता, वैसे ही वह नहीं करता है तो सब कर्मनाश को प्राप्त हो जाते हैं ॥30

चन्द्रसूर्यग्रहे देवि ! न चन्द्रं गणयेत् प्रिये! ।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्तथा शूद्रश्च पार्वति ! ॥ 31

शंकर भगवान् ने कहा कि हे देवि ! हे प्रिये ! सूर्य और चन्द्रग्रहणकाल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह नहीं गिनना चाहिए। अर्थात् सभी को जपादि करने चाहिए ॥31

सूर्यग्रहणकालाद्धि नान्यः कालः प्रशस्यते ।

स कालः परमेशानि ! परंब्रह्मस्वरूपवान् ॥32

सूर्यग्रहण के काल के समान अन्य काल अधिक प्रशंसनीय नहीं है अर्थात् सूर्यग्रहण काल के समान अन्य कोई काल अच्छा नहीं है, वह काल हे पार्वति! परब्रह्म के स्वरूप के समान पवित्र है ॥32

ग्रहणे चन्द्रसूर्यस्य न जपेद् यदि दीक्षितः ।

सर्वं पुण्यं परित्यज्य विष्ठायां जायते कृमिः ॥33

तस्माद् यत्नेन कर्तव्यं ग्रहणे जपपूजनम् ।

न तिथिर्नाम गोत्रं वा न च संकल्पमाचरेत् ॥34

सूर्य और चन्द्रग्रहण के समय यदि कोई दीक्षित जप और पूजन नहीं करता है तो वह सब पुण्य छोड़कर विष्ठा के कीड़ा के रूप में जन्म लेता है। अर्थात् दूसरे जन्म में विष्ठा का कीड़ा बनता है। इसलिए ग्रहण के समय यत्नपूर्वक जप पूजन करना चाहिए, उस समय न तिथि का न नाम का अथवा न गोत्र का विचार करना चाहिए ॥33-34

कलिकाले तु देवेशि ! यवना बलवत्तमाः ।

मत्स्यमांसरताः सर्वे सर्वदा मद्यसेविनः ॥35

अनाचाररतास्ते न सिद्ध्यन्ति यवनाः कलौ ।

यवनानां महेशानि त्र्यक्षरीं ब्रह्मरूपिणीम् ॥36

निगदामि वरारोहे सावधानाऽवधारय ।

अब भगवान् शंकर कहते हैं कि हे देवेशि ! पार्वति ! कलियुग में तो यवन ही सबसे अधिक बलवान् हैं, वे सभी सदा मछली और मांस खाने में शराब पीने में मस्त रहते हैं। वे सब अनाचार (भ्रष्टाचार, अत्याचार) करने में लगे रहते हैं। इसलिए कलियुग में यवन सिद्धि प्राप्त नहीं करते। हे महेशानि! यवनों की ब्रह्मरूप वाली तीन अक्षरों वाली देवी है। उसे मैं तुम्हें बता रहा हूँ। अतः हे वरारोहे! तुम सावधान होकर सुनो ॥35-36

कलावतीं समुद्धृत्य वज्रिणी तदनन्तरम् ॥37

रतिबीजं ततो देवि! ततस्तु रुद्रयोगिनीम् ।

एषा तु त्र्यक्षरी विद्या भवनेषु प्रतिष्ठिता ॥38

संयुक्तौषा यदा विद्या तदैवैकाक्षरी भवेत् ।

साचारा ब्राह्मणाद्यास्तु सिद्ध्यन्ति बहुकालतः ॥39

अनाचाराः प्रणश्यन्ति सत्यमेतन्न संशयः ।

उस त्र्यक्षरी विद्या में कलावती को उद्धृत कर उसके बाद वज्रिणी है, उसके बाद रति बीज रुद्रयोगिनी है। इस प्रकार त्र्यक्षरी विद्या तीन लोकों में प्रतिष्ठित हैं तथा जब यह विद्या संयुक्त अक्षरों वाली हो जाती है, तब यह एकाक्षरी हो जाती है। जो ब्राह्मणादि सदाचारी होते हैं, वे बहुत समय से सिद्ध करते हैं तथा वे सिद्ध पुरुष होते हैं तथा जो अनाचारी (अत्याचारी) होते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥37-39।।

उपाया ब्राह्मणादीनां तेनोक्ताः शतशो मया ॥40

सिद्धयन्ति ते यथोक्तेन नियमैश्च यथाविधि ।

इति ते कथितं देवि ! रहस्यं परमाद्भुतम् ।

न कस्मैचित् प्रवक्तव्यं यदि तेऽस्ति दया मयि ॥41

अतः हे देवि ! मैंने ब्राह्मण आदि के सैकड़ों उपाय तुम्हें बताये हैं, वे ब्राह्मणादि जैसे मैंने नियम बताये हैं, उन नियमों से यथाविधि कार्य करें तो अवश्य सिद्धि प्राप्त करते हैं। इस प्रकार हे देवि ! मैंने तुम्हें परम आश्चर्यजनक रहस्य बताया है। अतः कृपया इस रहस्य को किसी को भी मत बताना ॥40-41

।। इति श्री मायातन्त्रे सप्तमः पटलः ।।

।। इस प्रकार मायातन्त्र में सातवां पटल समाप्त हुआ ।।

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