ऐसे कर्म करना यज्ञ कराने से प्राप्‍त होने वाले फल के समान है

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हम देखते हैं कि अधिकतर मनुष्य सुख कैसे मिले, इसी भावना से कर्म करते हैं। वह उस समय यह नहीं देखते कि मेरे इस कार्य से दूसरे को कोई दुख या हानि तो नहीं पहुंच रही है। इसी स्वार्थपूर्ति के कारण वे पाप कर्म भी कर लेते हैं और कर्म बंधन में पड़ जाते हैं। दूसरी तरफ कर्मयोगी यह भाव रखकर कर्म करता है कि मेरे कर्म से दूसरों को सुख कैसे मिले। उसका उद्देश्य स्वार्थ रहित होकर अपना कर्तव्य पूरा करने का रहता है।

जब हम सभी एक-दूसरे की हित की बात सोचकर निस्वार्थ भाव से अपना-अपना कर्म करते हैं, तब उसमें सभी का स्वाभाविक हित ही होता है और सभी का कल्याण होता है। विवेक से रहित पशु-पक्षी, वृक्ष, लताएं भी अपना-अपना कर्तव्य पालन करते हुए मनुष्यों का उपकार ही करते हैं, लेकिन विवेक प्रधान मनुष्य अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दूसरों का अहित करता रहता है। गीता के अनुसार कर्तव्य का नाम यज्ञ है। दूसरों को सुख पहुंचाने और उनका हित करने की भावना रखते हुए जो कर्म किए जाते हैं, वह सब यज्ञार्थ कर्म है।

गीता में भगवान कहते हैं कि ‘यज्ञ, यानी कर्तव्यपालन के लिए किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त कर्म। यानी अपने लिए किए जाने वाले कर्मों में लगा हुआ मनुष्य कर्मों से बंधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभांति कर्तव्य कर्म कर।’ यज्ञ संपादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म भली भांति विलीन हो जाते हैं, यानी वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।

आज के समय में जब मानव जाति कोविड के संक्रमण के कारण विकट समस्या का सामना कर रही है, ऐसे समय में भी हम दो प्रकार के स्वभाव वाले मनुष्यों को देख रहे हैं। कुछ निस्वार्थ भाव से अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार एक-दूसरे की मदद करके मानव जाति की सेवा कर रहे हैं। दूसरी तरफ, कुछ मनुष्य ऐसे समय में भी अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए जरूरी पदार्थों की कालाबाजारी में लगकर केवल कुछ धन की प्राप्ति के लिए अनजाने में और अज्ञानता के कारण पाप कर्म में लगे हुए हैं। इसका परिणाम उन्हें स्वयं ही भुगतना पड़ेगा।

गीता में भगवान कहते हैं कि ‘ऐसे मूढ़ मनुष्य मुझे न प्राप्त होकर आसुरी शरीर को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं, यानी घोर नरक में पड़ते हैं।’ इस प्रकार हम दैवी संपदा और आसुरी संपदा वाले दोनों प्रकार के मनुष्यों का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। जब दूसरों का हित करने की भावना से कर्म होता है, तब हमारा हित तो स्वयं ही होता है। गीता में आता है कि ब्रह्मा जी मनुष्यों से कहते हैं कि तुम लोग अपने-अपने कर्तव्यपालन से सबकी वृद्धि करो, उन्नति करो। दूसरों के हित के लिए ही अपने-अपने कर्तव्यकर्म करने से हम सबकी लौकिक और पारलौकिक उन्नति हो सकती है।

इसलिए हमें अपना प्रत्येक कर्म करने में बड़ा सावधान रहना चाहिए। हमें स्वयं ही विचार करना है कि हम जो कर्म कर रहे हैं, वह निष्काम भाव से हो रहा है, या उसके पीछे हमारा कोई स्वार्थ छिपा हुआ है। अपनी तरफ से किए जाने वाले सभी कर्मों का अच्छा, बुरा या मिला-जुला फल हमें स्वयं ही भुगतना पड़ेगा। इसके लिए किसी अन्य को दोष नहीं देना चाहिए।

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