Moti Lal Nehru Autobiography | पंडित मोतीलाल नेहरू का जीवन परिचय : एक प्रसिद्ध अधिवक्ता एवं ब्रिटिशकालीन राजनेता थे

भारत की आजादी की लड़ाई में लाखों ने बलिदान किया। परंतु इस बलिदान से भी हमें स्वतंत्रता नहीं मिल सकती थी, यदि हमें अपने स्वतंत्रता संग्राम में साहसी, त्यागी और बुद्धिमान देशभक्तों का नेतृत्व प्राप्त न होता | इन नेताओं में पंडित मोतीलाल नेहरू Motilal Nehru का प्रमुख स्थान है। वे भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के आरंभिक कार्यकर्ता मे से एक थे | भारत के इतिहास में उनका नाम स्मरणीय रहेगा |

पंडित मोतीलाल नेहरू का जन्म ६ मई, १८६१ को आगरा में हुआ। इससे पहले नेहरू परिवार दिल्ली में बसा हुआ था। उनके पिता का नाम गंगाधर और माता का नाम जेओरानी था | मोतीलाल नेहरू के दो भाई थे नंदलाल, वंशीधर और दो बहने पटरानी और महारानी

संक्षिप्त विवरण (Summary)

मोतीलाल नेहरू का जीवन परिचय
पूरा नाम पंडित मोतीलाल नेहरू
जन्म तारीख ६ मई, १८६१
जन्म स्थान आगरा (उत्तरप्रदेश)
धर्म हिन्दू
पिता का नाम गंगाधर
माता का नाम जेओरानी
पत्नि का नाम स्वरूप रानी
भाई / बहन कुल ४ भाई व बहन,
दो भाई नंदलाल,वंशीधर
और दो बहने पटरानी
और महारानी
संतान ३ एक पुत्र और दो पुत्री
पिता का कार्य दिल्ली में कोतवाल
माता का कार्य गृहणी
शिक्षा बारह वर्ष तक दिल्ली के पाठशाला,
हाई स्कूल,
हाईकोर्ट के वकील की
परीक्षा पास की,
कैम्ब्रिज से
“बार एट लाँ” की उपाधि
कार्य वकालत(कानपुर),
वकालत(इलाहाबाद),
भारत के स्वतन्त्रता
संग्राम के आरंभिक कार्यकर्ता,
कांग्रेस अध्यक्ष (१९१९-१९२९),
अंग्रेजी दैनिक “लीडर” के संपादक,
अंग्रेजी दैनिक “इंडिपेंडेंट” के संपादक
आमतौर पर लिए जाने वाला नाम मोतीलाल नेहरू
मृत्यु तारीख ६ फरवरी, १९३१
मृत्यु स्थान लखनऊ
उम्र ७० वर्ष
मृत्यु की वजह बीमार रहने के कारण
भाषा हिन्दी, अँग्रेजी
उल्लेखनीय सम्मान कैम्ब्रिज से
“बार एट लाँ” की उपाधि

उनके पिता गंगाधर दिल्ली में कोतवाल थे बारह वर्ष तक दिल्ली के पाठशाला में ही उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और बाद में कानपुर के एक अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए। उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और उसके बाद म्योर सेंट्रल कालेज, इलाहाबाद में दाखिल हुए। बी.ए. की परीक्षा में एक पर्चा बिगड़ जाने की वजह से उन्होंने परीक्षा ही नहीं दी। इस कारण वह डिग्री न पा सके, परंतु बाद में उन्होंने हाईकोर्ट के वकील की परीक्षा सम्मान के साथ पास की और कैम्ब्रिज से “बार एट लाँ” की उपाधि ली |

उन्होंने कानपुर में वकालत करना शुरू किया था। फिर वह प्रयाग चले गए, जहां उनके बड़े भाई पहले से ही वकालत कर रहे थे। जब इलाहाबाद हाईकोर्ट में एडवोकेट बनने का रिवाज चला, तो वह पहले-पहल चुने जाने-वाले चार में से एक थे और उनमें सबसे छोटे भी थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनकी वकालत खूब चमकी और उन्होंने इलाहाबाद में एक राजा का बंगला खरीद लिया जो बाद में “आनंद भवन” के नाम से मशहूर हुआ।

आनंद भवन का एक हिस्सा देशकार्य के लिए दे दिया गया और वह अब “स्वराज्य भवन” कहलाता है।

वकालत में पंडित मोतीलाल नेहरू की तीक्ष्ण बुद्धि की प्रशंसा उस समय के चीफ जस्टिस सर ग्रिमवुड ने स्वयं की थी।

मोतीलाल नेहरू का विवाह स्वरूप रानी से हुआ था, जिनसे उनके तीन संतान थे, एक पुत्र और दो पुत्री | पुत्र का नाम जवाहर लाल नेहरू था, जो हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे | बड़ी पुत्री का नाम विजयालक्ष्मी था, जो विजयलक्ष्मी पंडित के नाम से जानी जाती है और दूसरी पुत्री कृष्णा थी, जो कृष्णा हठीसिंह कहलाती है |

पंडित मोतीलाल नेहरू बड़े वाकूपट थे। किसी राजनीतिक विषय पर बोलते हुए जब पंडित मदनमोहन मालवीय शुरू से उसके इतिहास की चर्चा करने लगे तो पंडित मोतीलाल ने व्यंग्य किया। जब मालवीय जी इस पर नाराज हुए तो उन्होंने उत्तर दिया – मालवीय जी मुझसे उम्र में छः महीने छोटे हैं, इसलिए उनका दृष्टिकोण भी मुझसे छः महीना पिछड़ा रहता है।

इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं। एक चुनाव सभा में जब वह स्वराज्य पार्टी के एक उम्मीदवार के समर्थन में भाषण दे रहे थे तो विरोधी दल के एक समर्थक ने उनसे प्रश्न किया – क्या ब्राह्मण होते हुए भी आप अंड़ा और मांस खाते हैं ?

उन्होंने उत्तर दिया – मैं दोनों चीजें खाता हूं। मेरे दादा-परदादा भी खाते थे, परंतु आपके उम्मीदवार ने उन्हें गवर्नमेंट हाउस की मेज पर ही चखना शुरू किया।

उनके व्यंग्य में न केवल बुद्धि की ही तीक्ष्णता होती थी, बल्कि उससे साहस और निर्भीकता का परिचय भी मिलता था। साहस और निर्भीकता के साथ उदार देशभक्ति भी उनके चरित्र का एक विशेष गुण था। केंद्रीय असेंबली में पब्लिक सेफ्टी बिल का विरोध करना था। परंतु उस समय पंजाब के नेता लाला लाजपतराय ने स्वराज्य पार्टी से पृथक होकर अपनी अलग पार्टी बना ली थी और दोनों के सम्मिलित विरोध के बिना काम सफल नहीं हो सकता था। उस समय व्यक्तिगत भावनाओं को छोड़कर वह स्वयं असेंबली भवन के दरवाजे पर लाला जी की प्रतीक्षा करते रहे और उनके आते ही उन्होंने उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा और उनको अपने साथ कर लिया।

१८८१ में पंडित मोतीलाल नेहरू कांग्रेस में शामिल हुए जब कि उस पर नरम दल का नेतृत्व था, परंतु गांधी जी के प्रभाव में आकर उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन में योगदान किया। तब से लेकर मृत्युकाल तक उन्होंने ब्रिटिश शासन का डट कर मुकाबला किया। प्रयाग से अंग्रेजी दैनिक “लीडर” के निकालने में उनका भी बड़ा हाथ था।

“लीडर” के बाद की नीति से मतभेद होने के कारण उन्होंने स्वयं अपना पत्र “इंडिपेंडेंट” निकाला। पंजाब में ब्रिटिश शासन के दमन की जांच कांग्रेस की ओर से पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुई। वह दो बार कांग्रेस के सभापति चुने गए। भारत के लिए सुधारों के प्रस्ताव “साइमन कमीशन” के बायकाट में उन्होंने काफी प्रेरणा दी। साथ ही अंग्रेजों को मुंहतोड़ उत्तर देने के लिए उन्होंने एक सर्वदलीय कांफ्रेंस बुलाई जिससे नेहरू रिपोर्ट तैयार कर भारतीय शासन विधान का एक नमूना मसविदे के रूप में उपस्थित किया। जब लाहौर कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य की घोषणा की तब उन्हें बड़ी खुशी हुई।

वह बड़े निर्भीक और अपनी बात पर अटल रहने वाले व्यक्ति थे। राय कृष्णदास जी ने घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है – “जिस घटना के कारण उनका तेज पहले-पहल मेरे हृदय पर अंकित हुआ था, वह उनका प्रयाग के कलेक्टर से एक झगड़ा था, जो आनंद भवन की चहारदीवारी के कारण हुआ था। शायद सन १९०२ की बात है। उन दिनों कलेक्टर ही म्युनिसिपल बोर्ड का चेयरमैन भी हुआ करता था। उस हैसियत से उसका कहना था कि पंडित जी ने अपनी दीवार म्युनिसिपैलिटी की जमीन पर बना ली है। पंडित जी ने ऐसा नहीं किया था, किंतु उसे इसी बहाने उनको दबाना था |एक ओर तो कलेक्टर तुला हुआ था कि दीवार गिरवाकर और पंडित जी को जेल भिजवाकर ही सांस लूंगा, दूसरी और पंडित जी भी दृढ़ थे कि देखें कैसे दीवार गिरती है। इसी बात को लेकर झगड़ा यहां तक बढ़ा कि सारे नगर में आतंक छा गया। उन दिनों कलेक्टर से बैर करना मानो यमराज से शत्रुता मोल लेना था। किंतु पंडित जी भी टस से मस न हुए और अंत में कलेक्टर को मुंह की खानी पड़ी। दीवार उसी स्थान पर रही और अब तक है, जहां उसकी नींव पड़ी थी।

पंडित जी अंग्रेजी सभ्यता में सराबोर थे इतना ही नहीं, अंग्रेजों को योग्यता और कार्यक्षमता में भी उनका दृण विश्वास था, किंतु उनकी तेजस्विता के कारण प्रयाग निवासी सदा उन्हें अपना समझते थे और आदर करते थे, क्योंकि वे जानते थे कि चाहे वे कितने ही अंग्रेज भक्त क्यों न हों, किंतु कभी ऐसी बात न करेंगे जिससे उनका या उनके नगर की सिर नीचा हो।

पंडित मोतीलाल जहां एक ओर वज्र से भी अधिक कठोर थे, वहां फूलों से अधिक कोमल भी थे। यदि उनको गुस्सा चढ़ जाता तो किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनके सामने चला जाता। परंतु वह गुस्सा थोड़ी देर में शांत भी हो जाता। उनकी हंसी फव्वारे के पानी की तरह फूटती थी। उनका रोबदाब और राजाओं का सा ठाठ आज भी दुर्लभ है। उनकी तेजस्विता का वर्णन करते हुए इंद्र विद्यावाचस्पति ने एक दिलचस्प घटना का इस प्रकार वर्णन किया है –

“घटना अत्यंत साधारण है, परंतु उससे पंडित मोतीलाल जी के स्वभाव की विशेषताएं भली प्रकार प्रकट होती हैं। रात की गाड़ी से मैं दिल्ली से लखनऊ जा रहा था। गाडी के चलने का समय हो रहा था। गार्ड ने सीटी दे दी और लाइन क्लियर मिल गया सब मुसाफिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठे, परंतु गाड़ी चली नहीं। पांच मिनट, दस मिनट, आधा घंटा गाड़ी ने प्लेटफार्म पर से हिलने का नाम न लिया, तब मुसाफिर उतर-उतर कर देखने लगे कि माजरा क्या है? देखते क्या हैं कि प्लेटफार्म पर पंडित मोतीलाल नेहरू अपने सेक्रेटरी के साथ टहल रहे हैं और उनका सामान प्लेटफार्म पर ही रखा हुआ है। मैंने कुछ पास जाकर देखा तो पंडित जी की आंखों में लाली दिखाई दी। समझ लिया कि इस समय शिवजी की तीसरी आंख सक्रिय है। कुछ घबराहट हुई, फिर भी साहस करके पास गया और नमस्कार के बाद बाहर खड़े रहने का कारण पूछा। पंडित जी ने अत्यंत शांत भाव से उत्तर दिया – मैंने अपने और सेक्रेटरी के लिए सीटें रिजर्व कराई थीं। इन मूढ़मग्जों ने अपर वर्थ रिजर्व कर दी हैं । मैंने उन्हें लेने से इंकार कर दिया है। गाड़ी स्टेशन से नहीं जा सकती, जब तक मेरे लिए लोअर बर्थ का प्रबंध न हो। आप लोगों को कष्ट हो रहा है इसका मुझे दुख है, परंतु इनका दिमाग सीधा करना भी जरूरी है। यह कह कर पंडित जी जोर से हंस पड़े । इतने में स्टेशन सुपरिटेंडेंट भागा हुआ आया और हाथ जोड़ कर बोला – महाराज, स्टेशन पर इस समय कोई छोटा डिब्बा नहीं है। बहुत बड़ी बड़ी बोगियां हैं, परंतु गाड़ी पहले ही सीमा से लंबी हो चुकी है। अभी स्टेशन सुपरिटेंडेंट इतना ही कह पाया था कि पंडित जी ने गर्म होकर कहा – तो डिब्बा किसी और स्टेशन से मंगवाओ। मेरे लिए सीट की व्यवस्था हुए बिना गाड़ी नहीं जा सकती। बेचारा सरकारी अधिकारी कांप रहा था। अंत में बोला – अच्छा तो एक पहले दर्जे की पूरी स्पेशल बोगी विद्यमान है, उसे लगा देता हूं।“

पंडित जी मुख्यमंत्री या मंत्री नहीं थे, बल्कि विरोधी दल के नेता थे। थोड़ी देर में पहले दर्जे की एक पूरी बोगी ट्रेन के पिछले भाग में लगाई गई, तब पंडित जी और उनके साथी गाडी में सवार हो गए और गाड़ी लगभग एक घंटा देर से स्टेशन से रवाना हुई। गाड़ी पर चढ़ने के समय पंडित जी ने फिर एक बार हाथ जोड़ कर गाड़ी के यात्रियों से विलंब करने के लिए क्षमा याचना की।

मोतीलाल नेहरू योद्धा थे और जब मुश्किलें पडती थीं तो उनका यह रूप और ज्यादा निखरता था। देश के उद्धार के लिए पंडित मोतीलाल नेहरू ने अपना सारा वैभव त्याग कर एक तपस्वी का जीवन अपना लिया था। कई बार उन्हें जेल दंड भुगतना पड़ा। सन १९३१ के प्रारंभ में अधिक बीमार पडने के कारण वह कारागार से मुक्त किए गए। बीमार होने पर भी, उनके आग्रह करने पर, उन्हीं के निवास स्थान पर प्रयाग में कांग्रेस कार्यसमिति की मीटिंग बुलाई गई। उनकी बीमारी बढ़ने लगी और वह इलाज के लिए लखनऊ ले जाए गए।

वहीं ६ फरवरी, १९३१ को उनका देहांत हो गया |

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