Vinayak Damodar Savarkar Autobiography | विनायक दामोदर सावरकर का जीवन परिचय : एक स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, वकील, समाज सुधारक और हिंदुत्व के दर्शन के सूत्रधार

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वीर सावरकर की जीवनी विनायक दामोदर सावरकर का जीवन परिचय [माफ़ीनामा पत्र, माफ़ी का सच, शिक्षा, जयंती, बायोग्राफी, कविता, पुस्तकें, योगदान, काला पानी, मृत्यु कैसे हुई] [Freedom Fighter Veer Savarkar Real Name Biography In Hindi] (Birthday, Jayanti, Caste, Died, Movie, Books, Quotes]

भारत के वीर सेनानी जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए अपना जी जान दांव पर लगा दिया था आज भी उन्हें उनके नाम से जाना जाता है और उनका नाम लेकर गर्व से सीना चौड़ा किया जाता है। आज भी उनके जीवन से भारतीय प्रेरणा लेते हैं और उनके मार्गदर्शन पर चलने की सदैव कोशिश करते हैं। ऐसा ही एक नाम जो भारतीय इतिहास में बहुत ही गर्व के साथ लिया जाता है, “विनायक दामोदर सावरकर” जो एक भारतीय राष्ट्रवादी के रूप में आज भी देखे जाते हैं।  आइए आज उनके जीवन को बहुत ही करीब से जानते हैं और पढ़ते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ रोचक तथ्य:-

वीर सावरकर जन्म, जाति, परिचय (Birthday, Caste and Introduction)

पूरा नाम (Full Name) विनायक दामोदर सावरकर
अन्य नाम (Other Name) वीर सावरकर
निक नाम (Nick Name) वीर सावरकर
पेशा (Profession) वकील, राजनीतिज्ञ, लेखक और कार्यकर्ता
शैली (Genre) वकालत करना, हिंदुत्व का प्रचार करना
जन्म (Birth) 28 मई 1883
मृत्यु (Death) 26 फरवरी 1966
जन्म स्थान (Birth Place)  नासिक, मुंबई, भारत
राष्ट्रीयता (Nationality) भारतीय
गृहनगर (Hometown) नासिक
जाति (Caste) हिंदू, ब्राह्मण
खाने में पसंद (Food Habit) शाकाहारी
पसंद (Hobbies) भारत देश को हिंदुत्व की ओर ले जाना
शैक्षिक योग्यता (Educational Qualification) वकालत
वैवाहिक स्थिति (Marital Status) मैरिड
पत्नी का नाम (Wife’s name) यमुनाबाई
प्रेरणा स्त्रोत (Role Model) बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चंद्र पाल
बालों का रंग (Hair Color) ब्लैक
आँखों का रंग (Eye Color) ब्लैक

कौन है वीर सावरकर

वीर सावरकर एक ऐसा नाम जो एक राजनीतिक दल और राष्ट्रवादी संगठन हिंदू महासभा के प्रमुख सदस्य रहकर अपने सभी कर्तव्यों को भलीभांति निभाते रहे। वे पेशे से तो वकील थे लेकिन अपने जीवन के अनुभव से वे एक भावुक लेखक के रूप में भी उभर कर आए। उन्होंने कई सारी कविताओं और नाटकों को अपने शब्दों में व्यक्त किया। उनके लेखन ने सदैव ही लोगों को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की और जाने के लिए प्रेरणा भरे संदेशो से हमेशा ही लोगों को सामाजिक और राजनैतिक एकता के बारे में समझाते रहते थे।

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वीर सावरकर प्रारंभिक जीवन

नासिक जिले के भागलपुर में एक साधारण से हिंदू ब्राह्मण परिवार में 28 मई 1883  को एक महान व्यक्ति ने जन्म लिया था जिनका नाम विनायक दामोदर सावरकर रखा गया। बचपन से ही देश भक्ति भाव मन लिए सावरकर ने अपने भाई बहन जिनका नाम गणेश मैना भाई और नारायण के साथ अपना बचपन बिताया।  उन्होंने अपने जीवन का पहला वीर परचम तो 12 साल की उम्र में ही लहरा दिया था जब सावरकर ने 1 छात्रों के समूह को मुसलमानों की भीड़ में भगा दिया जिन्होंने पुरे शहर में अफरा-तफरी मचा रखी थी।उनके उस साहस और बहादुरी के लिए उनकी बहुत प्रशंसा हुई और बाद में उन्हें वीर व्यक्ति का नाम दिया गया तभी से उन्हें वीर दामोदर सावरकर कहा जाने लगा। बचपन से ही देश के लिए कुछ करने की लगन ने उन्हें क्रांतिकारी युवा बना दिया। उनके इस कदम में उनके बड़े भाई गणेश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे एक युवा खिलाडी के रूप में सबके सामने उभर कर आए धीरे धीरे उन्होंने युवा समूह का आयोजन किया जिससे बाद में मित्र मेला का नाम दिया गया।

वीर सावरकर परिवारिक जानकारी (Family Details)

पिता का नाम (Father’s Name)  दामोदर सावरकर
माता का नाम (Mother’s Name) राधाबाई सावरकर
पत्नी का नाम (Wife’s Name) यमुनाबाई
बच्चे (Children) विश्वास, प्रभाकर और प्रभात चिपलनकर
भाई/ बहन (Brother/Sister) गणेश, मैनाबाई और नारायण

वीर सावरकर शिक्षा

वे क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए सदैव तत्पर रहा करते थे जिसमें भाग लेने के लिए उन्होंने अपना एक खुद का संगठन बना लिया क्योंकि अपने जीवन में बहुत बड़े-बड़े क्रांतिकारी नेता जैसे लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, और विपिन चंद्र पाल से बहुत ज्यादा प्रेरित थे। क्रांतिकारी गतिविधियों को चालू रखते हुए उन्होंने fergusson कॉलेज में दाखिला लिया और अपनी डिग्री पूरी कर ली। देश के लिए समर्पण रखते हुए दिन उन्होंने अपनी पढ़ाई में बहुत अच्छे अंको से पास होकर कॉलेज की छात्रवृत्ति प्राप्त की। छात्रवृत्ति के अनुसार उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाने का प्रस्ताव मिला।  उनके आगे की कानून की पढ़ाई पूरी करने के लिए उन्हें सामाजिक कृष्ण वर्मा में उनकी मदद की और उन्हें आगे की पढ़ाई इंग्लैंड भेज दिया।  इंग्लैंड में जाकर सुनाने मन लगाकर पढ़ाई तो थी लेकिन साथ ही उतरी लंदन में 1 छात्र निवास में रहते हुए उन्होंने वहां पर रहने वाले सभी भारतीयों  छात्रों को प्रेरणा दी और फ्री इंडिया सोसाइटी नामक एक संगठन का निर्माण कर लिया। वीर सावरकर ने उन छात्रों को भी अंग्रेजी सरकार से स्वतंत्रता के लिए प्रेरणा दी थी।

वीर सावरकर किताब (1857 का विद्रोह) [Book]

1857 के विद्रोह के गुरिल्ला युद्ध के बारे में उन्होंने इतना गहन विचार किया कि उस युद्ध पर एक किताब लिख डाली। उस किताब का नाम द हिस्ट्री ऑफ द वॉर ऑफ द इंडियन इंडिपेंडेंस रखा गया था उनकी इस किताब को देखकर  अंग्रेजी सरकार के बीच खलबली मच गई इसलिए अंग्रेजी सरकार ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया।  इसके बावजूद भी बिहार करती यह किताब बहुत लोकप्रिय हुई बाद में उन्होंने अपने दोस्तों के बीच इस किताब को बांट दिया।

वीर सावरकर काला पानी की सजा

भारत में वापस आकर सावरकर ने अपने भाई गणेश के साथ मिलकर “इंडियन कॉउन्सिल एक्ट 1909” (मिंटो- मोर्ली फॉर्म्स)  के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना आरंभ किया।  ब्रिटिश पुलिस ने विनायक सावरकर को अपराधी घोषित कर दिया उन्होंने कहा कि अपराध की साजिश रचने के जुल्म में इनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाता है। उस गिरफ्तारी से बचने के लिए  सावरकर पैरिस चले गए। हालांकि बाद में सन 1910 में सावरकर को ब्रिटिश पुलिस द्वारा पकड़ लिया गया। उन्हें अपराधी ठहराते हुए उनके खिलाफ अदालत में केस दर्ज कराया गया, जिस की सुनवाई के लिए उन्हें मुंबई भेज दिया गया वहां पर उन्हें 50 साल की सजा सुनाई गई।  उनकी सजा के लिए उन्हें 4 जुलाई 1911 में अंडमान निकोबार द्वीप समूह काला पानी की सजा के तौर पर सेल्यूलर जेल में बंद कर दिया।  उस सजा के दौरान लगातार उन्हें प्रताड़ना का सामना करना पड़ा लेकिन फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी।

वीर सावरकर माफ़ीनामा (माफ़ी का सच)

जब वीर सावरकर को काला पानी की सजा हुई थी तब उन्होंने अंग्रेज सरकार के सामने एक याचिका दी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि – ‘यदि उन्हें छोड़ दिया जाये तो वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलनों से अलग हो जायेंगे, और ब्रिटिश सरकार के प्रति एक दम वफादार रहेंगे’. और जब वे अपनी सजा पूरी करके जेल से बाहर निकले तब उन्होंने अपने वादे की तोड़ा नहीं और वे किसी भी क्रांतिकारी गतिविधि में शामिल नहीं हुए. हालांकि इस माफीनामा का सच क्या है इसकी जानकारी किसी को भी नहीं है क्योकि इसका कोई भी रिकॉर्ड नहीं है. इस बात को लेकर काफी विवाद भी होता रहा है. विवाद इसलिए होता रहा है क्योकि केंद्र सरकार वीर सावरकर को भारत रत्न देना चाहती है. लेकिन कांग्रेस द्वारा केंद्र सरकार के ऊपर यह हर बार निशाना साधा गया है कि वीरे सावरकर भारत रत्न के काबिल नहीं है. इस मुद्दे पर काई बार काफी विवाद भी हुआ है.

वीर सावरकर पुस्तकालय

वहां पर रहने वाले कैदियों को उन्होंने पढ़ना-लिखना शुरू कर दिया और अपने समय का सदुपयोग करना आरंभ कर दिया। कुछ समय पश्चात  उन्होंने उस जेल के अंदर एक बुनियादी पुस्तकालय शुरु करने के लिए सरकार से अर्जी की। सरकार द्वारा उनकी अर्जी मान ली गई और जेल में ही पुस्तकालय शुरु कर दिया गया।

भारत के क्रांतिकारी के नाम यहाँ पढ़ें.

वीर सावरकर जेल में फैलाया हिंदुत्व

जेल में रहकर भी उन्होंने अपने हिंदुत्व को पूरे देश में फैला दिया था क्योंकि जेल में बैठकर वे हिंदुत्व:एक हिंदू कौन है नामक वैचारिक पर्चे लिखा करते थे ,और उन्हें चुपचाप जेल के बाहर किसी के हाथ बटवा दिया करते थे, जिससे धीरे-धीरे वे पर्चे पूरे देश में प्रकाशित होते चले गए और सबके बीच फेल गए। सावरकर के समर्थकों ने उनका बहुत सयोग दिया और हिंदुत्व से कई हिंदुओं को अपनी और आकर्षित करके प्रेरित की वे भारतवर्ष के एक ऐसे देश भक्तों बने जो सब धर्मों को एक समान माने।

वे खुद को हिंदू कहलवाने में बहुत गर्व महसूस करते थे. उन्होंने सदैव अपनी एक राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान बना ली जिसे वे हिंदू के रूप में देखा करते थे। उन्होंने सदैव हिंदू, बोद्ध, जैन और से धर्म के एकीकरण के लिए उपदेश दिए।  मुसलमान और ईसाई लोग उनके खिलाफ थे क्योंकि उन्होंने मुसलमानों और ईसाईयो के अस्तित्व का कभी भी समर्थन नहीं दिया. उन्हें भारत में मिसफिट के नाम से भी जाना जाता था।

वीर सावरकर हिन्दू सभा का निर्माण

वीर सावरकर 6 जनवरी 1924 को काला पानी की सजा से रिहा हो गए, जिसके बाद उन्होंने भारत में रत्नागिरी हिंदू सभा के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके अनुसार इस सभा का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को पूरी तरह से संरक्षण प्रदान करना था। सन 1937 में विनायक सावरकर की प्रतिभावान छवि को देखकर हिंदू सभा के सदस्यों द्वारा उन्हें हिंदू सभा का अध्यक्ष बना दिया गया।

उसी समय के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेस के शासन को हिंदू राज के रूप में घोषित कर दिया। पहले से ही हिंदू और मुसलमान के बीच झगडे चल रहे थे उनके इस कदम ने उनके बीच चल रहे तनाव को और अधिक बढ़ा दिया। उनकी कोशिश सदैव यहीं थी कि वे एक हिंदू राष्ट्र का निर्माण करें, इसलिए विनायक सावरकर ने इस प्रस्ताव पर ध्यान दिया और इसके लिए उनके साथ कई सारे भारतीय राष्ट्रवादी भी जुड़ गए, जिनके बीच सावरकर की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी।

वीर सावरकर गांधीजी विरोधक

वे भारत देश को हिंदुत्व की ओर ले जाना चाहते थे जबकि महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के घोर आलोचक थे।  उन्होंने गांधी जी  कि अपनाई गई मुख्य गतिविधियों का विरोध किया जिनमें से भारत छोड़ो आंदोलन महत्वपूर्ण गतिविधि रही। सावरकर कभी भी नहीं चाहते थे कि भारत को दो राष्ट्रों में बांट दिया जाए इसलिए वे विभाजन के लिए कभी भी सहयोग में नहीं रहे।  उनका मानना यह था कि एक देश में दो राज्यों के सह अस्तित्व का प्रस्ताव रखा जाए ना कि एक राशि को दो राष्ट्रों में बाट कर उसके टुकड़े कर दिए जाएं। वे गांधीजी की किसी भी बात से सहमत नहीं हुआ करते थे उन्होंने खिलाफत आंदोलन के दौरान मुसलमानों के साथ तुष्टिकरण की महात्मा गांधी की नीति हे आलोचना की।  उनके द्वारा लिखे गए कई लेखो में तो ऐसा भी कहा गया है कि गांधी जी को वे पाखंडी कहा करते थे।  और साथ ही वे गांधीजी के बारे में यह कहते थे कि वे एक अपरिपक्व मुखिया हैं,  जिन्होंने छोटी सोच रखते हुए देश का सर्वनाश कर दिया।

सावरकर के जीवन से जुड़े कुछ रोचक तथ्य (वीर सावरकर के योगदान) (Quotes in Hindi)

  • वीर सावरकर ने खुद को नास्तिक घोषित कर दिया था, इसके बावजूद भी हिंदू धर्म को वे पूरे दिल के साथ निभाते थे। और लोगों को उसकी और बढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया करते थे। क्योंकि राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान के रूप में वे खुद को हिंदू मानते थे और यदि कोई उनको हिंदू बुलाता था तो उन्हें बहुत ज्यादा गर्व महसूस हुआ करता था।
  • वे कभी भी हिंदुत्व को धर्म के रूप में नहीं मानते थे. बे अपनी पहचान के रूप में हिंदुत्व को देखा करते थे वही उन्होंने हजारों रुढ़िवादी मान्यताओं को खारिज कर दिया था जो हिंदू धर्म से जुड़ी हुई थी, लेकिन व्यक्ति के जीवन में उन मान्यताओं का कोई भी आधार नहीं था।
  • अपने जीवन का राजनैतिक रूप भी बखूबी निभाया, उन्होंने राजनैतिक रूप में मूल रूप से मानवतावाद, तर्कवाद, सार्वभौमिक, प्रत्यक्षवाद, उपयोगितावाद और यथार्थवाद का एक मुख्य मिश्रण अपने जीवन में अपनाया।
  • देश भक्ति के साथ-साथ भारत की कुछ सामाजिक बुराइयों के खिलाफ दोनों ने अपनी आवाज उठाई जैसे जातिगत भेदभाव औऱ अस्पृश्यता जो उनके समय में बह प्रचलित प्रथा मानी जाती थी।
  • उनका कहना था कि उनके जीवन का सबसे अच्छा और प्रेरित भरा समय वह था जो समय उन्होंने काला पानी की सजा के दौरान जेल में बिताया था।  काला पानी की सजा के दौरान जेल में रहते हुए उन्होंने काले पानी नामक एक किताब भी लिखी थी जिसमें भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं के संघर्षपूर्ण जीवन का संपूर्ण वर्णन है।

वीर सावरकर की मृत्यु कैसे हुई

  • वीर सावरकर ने अपने जीवन में इच्छा मृत्यु का प्रण ले लिया था इसलिए उन्होंने पहले ही सबको बोल दिया था कि वे अपनी मृत्यु तक उपवास रखेंगे अन्न का एक दाना भी मुंह में नहीं रखेंगे।
  • अपने अंतकाल में लिए गए उपवास को लेकर उन्होंने यही कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने की पूरी अनुमति प्राप्त होनी चाहिए कि वह अपना जीवन कैसे समाप्त करना चाहता है और किस प्रकार अपने जीवन का वहन करना चाहता है इस बात की पूरी अनुमति उस व्यक्ति को मिलनी चाहिए।
  • उन्होंने जैसे ही अपने प्रण के अनुसार उपवास आरंभ किए उस दौरान अपनी मृत्यु से पहले एक लेख लिखा जिसका नाम “यह आत्मह्त्या नहीं आत्मतर्पण है” रखा गया।
  • 1 फरवरी 1966 को सावरकर ने यह घोषणा कर दी थी कि आज से वह उपवास रखेंगे और भोजन करने से बिल्कुल परहेज करेंगे। उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि जब तक उनकी मौत नहीं आएगी तब तक वह अन्न का एक दाना मुंह में नहीं रखेंगे।
  • उनके इस प्रण के बाद लगातार वे अपने उपवास का पालन करते रहे और आखिरकार अपने मुंबई निवास पर 26 फरवरी 1966 में उन्होंने अंतिम सांस ली और वे दुनिया को अलविदा कह गए।
  • सावरकर का घर और उन से जुड़ी सभी वस्तुएं अब सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए संरक्षित रखी गई है।

वीर सावरकर जयंती (Jayanti)

हर साल एक क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर को याद करने के लिए उनके जन्मदिन के दिन यानि कि 28 मई को उनकी जयंती मनाई जाती है.

वीर सावरकर के जीवन पर बनी फिल्में

  • वीर सावरकर के जीवन पर सन 1996 में पहली फिल्म बनी थी जिसमें अन्नू कपूर मुख्य रोल में नजर आए थे। वह मलयालम और तमिल 2 भाषाओं में रिलीज हुई थी उसका नाम काला पानी था।
  • 2001 में फिर से सावरकर के जीवन पर वीर सावरकर नामक फिल्म बनाना शुरू किया गया जिसे बाद में रिलीज भी किया गया और बेहद पसंद भी किया गया।

वीर सावरकर जो देश का एक ऐसा नेता था जिन्होंने राजनीति के साथ-साथ संस्कृति को भी अपने जीवन में महत्वपूर्ण स्थान दिया। यहां तक की हिंदुत्व की रक्षा के लिए उन्होंने स्वयं ही आत्मतर्पण करके खुद को भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया उनका जीवन बेहद प्रेरणादायक जीवन है जिनसे हमें सदैव प्रेरणा लेते रहना चाहिए।

विनायक दामोदर सावरकर ने 23 वर्ष की उम्र में 9 जून, 1906 को नासिक से अपनी पत्नी यमुना और छोटे बेटे प्रभाकर को अलविदा कहा और कानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड जाने के लिए बॉम्बे में एसएस पर्सिया जहाज पर सवार हुए. जब वे यात्रा कर रहे थे तो बॉम्बे सरकार के विशेष विभाग से स्टेनली एगरले ने सावरकर के बारे में इंडिया ऑफिस, लंदन में आर. रिची को एक गोपनीय पत्र (14 जून) भेजा.

एगरले ने कहा कि सावरकर की कुछ हद तक वैसी ही राय थी जैसी क्रांतिकारी दामोदर हरि चापेकर की थी. जिन्होंने 22 जून, 1897 को पुणे में प्लेग कमिश्नर डब्ल्यूसी रैंड की हत्या की थी. चापेकर डब्ल्यूसी रैंड के प्लेग महामारी से निपटने के अत्याचारी और असंवेदनशील तरीकों का विरोध कर रहे थे. अंग्रेजों ने जो अंदाजा लगाया था वो जल्द ही स्पष्ट हो गया. स्टीमशिप पर सवार होकर, सावरकर ने हरनाम सिंह और उनके कुछ युवा सह-यात्रियों को अपने अंडरग्राउंड संगठन ‘अभिनव भारत’ में शामिल किया.

लंदन जाने के बाद क्या किया?

जुलाई में लंदन पहुंचने के बाद, सावरकर ने ग्रेज इन में दाखिला लिया और राष्ट्रवादी श्यामजी कृष्णवर्मा की ओर से संचालित इंडिया हाउस में रुके. सावरकर ने इतालवी राष्ट्रवादी ग्यूसेप मैज़िनी की जीवनी लिखी, जो पूर्व-साम्यवाद युग में क्रांतिकारी युवाओं के लिए एक आइकन थे और इसके बाद 1857 के विद्रोह पर एक किताब लिखी. इस बुक को हिंदू-मुस्लिम एकता के उदाहरण के रूप में सराहा गया. लंदन में सावरकर ने अपनी लड़ाई को ब्रिटिश साम्राज्य के केंद्र में ले लिया.

उन्होंने इंग्लैंड की राजधानी में स्कॉटलैंड यार्ड को धोखा देने में कामयाबी हासिल की थी. ये उन्होंने अपने अनुयायी एसपी गोखले को दशकों बाद बताया. 1 जुलाई, 1909 को, सावरकर के सहयोगी मदनलाल ढींगरा ने सर कर्जन वायली की हत्या कर दी, जो कट्टर साम्राज्यवादी थे. सावरकर ने 20 ब्राउनिंग पिस्तौलें और एक बम बनाने वाली बुकलेट भी भेजीं जो रूसी निहिलिस्टों से मिली थी.

सेल्यूलर जेल भेजा गया

सावरकर को बंबई के गवर्नर ने भारत के सबसे खतरनाक पुरुषों में से एक बताया था. सावरकर को 1909 में गिरफ्तार किया गया. उनपर विभिन्न अधिकारियों की हत्याओं का आयोजन करके भारत में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश में भाग लेने का आरोप लगाया गया था. उन्हें 25-25 साल की सजा के दो टर्मों के साथ अंडमान द्वीप समूह में सेल्यूलर जेल भेज दिया गया था. ये सजाएं साथ-साथ नहीं, बल्कि एक के बाद एक चलती. इसका मतलब यह था कि वह 23 दिसंबर, 1960 को ही जेल से रिहा हो पाते. इस जेल को सबसे क्रूर जेल में गिना जाता था. किसी भी तरह के उल्लंघन पर कड़ी सजा दी जाती थी.

जेल से लिखी याचिकाओं पर होता है विवाद

ब्रिटिश साम्राज्य के ग्वांतानामो बे के अनुसार, सावरकर ने जेल से अधिकारियों को कई याचिकाएं लिखा. जिसके परिणामस्वरूप उन्हें जनवरी 1924 में इस शर्त पर रिहा कर दिया गया कि वे रत्नागिरी जिले में निवास करेंगे और राजनीति में भाग नहीं लेंगे. ये प्रकरण सावरकर के जीवन के सबसे विवादास्पद पहलुओं में से एक है. लगभग एक सदी बाद, इस मुद्दे ने महाराष्ट्र की राजनीति में हलचल मचा दी.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी के इस मुद्दे पर दिए गए बयानों पर एमवीए उथल-पुथल का सामना कर रहा है. राहुल गांधी ने इन क्षमादान याचिकाओं को सावरकर की ओर से किया गया कायरतापूर्ण कार्य बताया है. सावरकर के पक्षकारों का दावा है कि ये दया याचिकाएं जेल से बाहर आने और ब्रिटिश विरोधी संघर्ष को जारी रखने की एक चाल थी. वहीं शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) ने सावरकर का अपमान करने को लेकर राहुल गांधी को चेतावनी दी.

अंडमान से रिहा होने के बाद आया बदलाव

अंडमान से जिस सावरकर को रिहा किया गया था, वह उस व्यक्ति से अलग था, जो वहां गया था. पुराने सावरकर हिंदू-मुस्लिम भाईचारे और एकता के प्रबल समर्थक थे, जैसा कि 1857 की उनकी पुस्तक में कहा गया है, लेकिन नए सावरकर में मुसलमानों के प्रति क्रोध और प्रतिशोध की भावना भरी हुई थी. सेल्युलर जेल से रिहा होने के बाद, सावरकर ने अपनी ऊर्जा अंग्रेजों के बजाय मुसलमानों और बाद में महात्मा गांधी और कांग्रेस के विरोध में लगाई.

इस कड़वाहट का श्रेय अंडमान में सावरकर के अनुभवों को दिया जाता है, जहां जेल में मुस्लिम वार्डरों ने कथित तौर पर प्रलोभन और बल से गैर-मुस्लिम कैदियों का धर्म परिवर्तन किया. सावरकर ने दावा किया कि हिंदुओं के बीच एकता और रूढ़िवादी विश्वासों की कमी के कारण युवा और कमजोर कैदियों का धर्मांतरण करने के लिए शारीरिक और यौन शोषण किया गया था. हालांकि किसी अन्य राष्ट्रवादी का मुस्लिम वार्डरों की ओर से परिवर्तित करने या उनके साथ दुर्व्यवहार करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है.

सावरकर की मुसलमानों के लिए नफरत वास्तविक थी और अंग्रेजों के साथ खुद को मिलाने के लिए ऐसा दिखावा नहीं था. जैसा कि सावरकरवादी डी.एन. गोखले कहते हैं कि सावरकर एकमात्र भारतीय विचारक प्रतीत होते हैं जिन्होंने बदले की भावना रखी. रत्नागिरी में, सावरकर ने अपना सेमिनल ‘एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व’ लिखा, जिसने एक विचारधारा के रूप में हिंदुत्व की नींव रखी. इसने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर जोर दिया और कहा कि भारत केवल हिंदुओं के लिए है न कि मुसलमानों या ईसाइयों के लिए.

जातिवाद को लेकर क्या कहते थे?

सावरकर ने जातिवाद को हिंदुओं की एकता को रोकने वाले कारक के रूप में भी पहचाना. हालांकि सावरकर महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर की तरह एक कट्टरपंथी, जाति-विरोधी सुधारक नहीं थे, लेकिन वे दलितों और निचली जातियों के प्रति साथी ब्राह्मणों के रवैये को नरम करने में मदद करते रहे. अपने जटिल स्वभाव के कारण, सावरकर ने कुछ ब्राह्मणवादी, उच्च-वर्गीय पूर्वाग्रहों को बरकरार रखा. उनका मानना था कि परिवार नियोजन का अभ्यास शिक्षित वर्ग की ओर से नहीं बल्कि गरीबों के जरिए किया जाना चाहिए.

विद्वान-लेखक वाई.डी. फड़के के अनुसार, सावरकर ने केवल उन सुधारों की वकालत की जो उनकी हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा में फिट बैठते हैं और इसके खिलाफ जाने वाली किसी भी पहल का समर्थन नहीं करते. उदाहरण के लिए, हिंदू जातियों में अंतर-विवाह की वकालत करते हुए, सावरकर ने अंतर-धार्मिक संघों का विरोध किया.

आरएसएस के गठन को प्रेरित किया

सावरकर के 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लॉन्च को प्रेरित किया. सावरकर के बड़े भाई गणेश (बाबराव), डॉ. के.बी. हेडगेवार, डॉ. बी.एस. मुंजे, डॉ. एल.वी. परांजपे और डॉ बी बी ठोलकर सह-संस्थापकों में शामिल थे. उनके सबसे छोटे भाई नारायणराव संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी थे और कहा जाता है कि 1940 में हेडगेवार के निधन के बाद आरएसएस प्रमुख के रूप में उनका स्थान लेने वाले संभावित नामों में से एक थे. 1937 में, सावरकर को बंबई धनजीशाह कूपर-जमनादास मेहता मंत्रालय की ओर से नजरबंदी से रिहा कर दिया गया और इसके तुरंत बाद वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने. उन्होंने महासभा को, जो मुख्य रूप से एक सांस्कृतिक निकाय था, एक राजनीतिक दल में परिवर्तित कर दिया.

डॉ अंबेडकर उन लोगों में से थे जिन्होंने (1927 में) मांग की थी कि सावरकर को रत्नागिरी जिले से आगे जाने की अनुमति दी जाए. इसी तरह की मांग गैर-ब्राह्मणों और दबे-कुचले वर्गों के नेताओं की ओर से की गई थी और एक मुस्लिम नेता रफीउद्दीन अहमद ने भी मांग की थी कि सावरकर को बिना शर्त रिहा किया जाए. 1928 में, अतिरिक्त सचिव, गृह (विशेष) ने कहा कि अगर सावरकर को रिहा किया गया था तो उन्हें इस बात का पूरा अहसास होना चाहिए कि “तेंदुआ अपने धब्बे नहीं बदल सकता,” और कहा कि वह अभी भी “ब्रिटिश विरोधी” हैं.

ब्रिटिश सरकार का क्या कहना?

ब्रिटिश सरकार के रिकॉर्ड के अनुसार, रत्नागिरी में कारावास के दौरान सावरकर ने मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह दिखाना जारी रखा और सरकार के खिलाफ असंतोष की भावनाओं को बढ़ावा दिया. ब्रिटिश सरकार का कहना था कि वे हरिजन उत्थान कार्य के बहाने अपने क्रांतिकारी उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए अपने आसपास के गैर-जिम्मेदार युवाओं को इकट्ठा कर रहे थे. ये दस्तावेज ये भी स्पष्ट करते हैं कि रत्नागिरी में उनकी दखलअंदाजी को जारी रखने का अंग्रेजों का निर्णय लेने का एक कारण यह भी था कि इन गतिविधियों में उनकी भागीदारी को आपत्तिजनक करार दिया गया था. 1930 के दशक के एक गुप्त नोट में उन्हें तीन सावरकर भाइयों में सबसे खतरनाक बताया गया है.

सावरकर पर 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में अपने पहले भाषण में टू-नेशन थ्योरी का प्रचार करने का आरोप है. हालांकि हिंदुओं और मुसलमानों के दो अलग-अलग, राष्ट्र का विचार सर सैयद अहमद खान (1888) की ओर से लाया गया था और लाला लाजपत राय (1899 और 1924), और सर ‘अल्लामा’ मुहम्मद इकबाल और चौधरी रहमत अली (1930 के दशक की शुरुआत) की ओर से स्पष्ट किया गया था.

अलीगढ़ आंदोलन के मूलभूत सिद्धांतों में से एक ये था कि हिंदू और मुसलमान एक अलग दृष्टिकोण और दो अलग-अलग राजनीतिक संस्थाएं बनाएं. लेकिन ये निश्चित है कि अपने ध्रुवीकरण और विभाजनकारी एजेंडे के साथ, सावरकर उन लोगों में से थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के अंतिम विभाजन में सहायता की. जैसा कि राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि देश का विभाजन करने वाली ताकतों में से एक हिंदू कट्टरता थी.

महात्मा गांधी की हत्या के बाद बदले समीकरण

हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में, सावरकर ने अपने प्रारंभिक वर्षों में संघ के विकास में एक मौलिक भूमिका निभाई. दुर्भाग्य से, महात्मा गांधी की हत्या के बाद बनाए गए पदाधिकारियों ने आरएसएस के लॉन्च और विकास में सावरकर बंधुओं की भूमिका को खत्म कर दिया गया. 1940 के दशक में सावरकर की कार्रवाइयां एक सवाल उठाती हैं, जिस पर इतिहासकारों को विचार करना चाहिए- क्या उनकी राजनीति उनकी दुश्मनी का विस्तार थी या शायद महात्मा गांधी के प्रति ईर्ष्या की भावना थी, न कि अंग्रेजों या मुसलमानों का विरोध?

कांग्रेस के विपरीत, जिसने मुस्लिम लीग को दूर रखने का काम किया, हिंदू महासभा बंगाल और सिंध में लीग के साथ गठबंधन सरकारों का हिस्सा थी. 1945-46 के चुनावों में हिंदू महासभा की पराजय के बाद उनकी राजनीति की सीमाएं, जो कभी-कभी लोकप्रिय मनोदशा के खिलाफ जाती थीं, जैसे भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करना और द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों के साथ लड़ने के लिए हिंदुओं की भर्ती की वकालत करना, उजागर हो गईं. 1948 में, नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी और सावरकर को सह-आरोपी के रूप में गिरफ्तार कर लिया गया.

गोडसे से थे क्या संबंध?

सावरकर और गोडसे के बीच संबंध 1929 से थे, जब गोडसे उनसे रत्नागिरी में एक प्रभावशाली 19 वर्षीय युवक के रूप में मिले थे. अदालत में, सावरकर ने दावा किया कि गोडसे और उनके सह-साजिशकर्ता नारायण आप्टे न तो विशेष रूप से चुने गए थे, न ही विशेष रूप से भरोसेमंद थे. सावरकर को विशेष अदालत ने बरी कर दिया था और इसे केंद्र सरकार ने उच्च न्यायालय में चुनौती नहीं दी थी.

न्यायमूर्ति जेएल कपूर जांच आयोग (1969) की रिपोर्ट ने सावरकर को दोषी ठहराया था. ये सावरकर के सचिव गजानन दामले और अंगरक्षक अप्पा कसार की ओर से  डीसीपी जेडी ‘जिमी’ नागरवाला के नेतृत्व वाली बॉम्बे पुलिस टीम को दिए गए बयानों पर आधारित था. लेकिन तब तक सावरकर नहीं रहे, उन्होंने स्वेच्छा से 1966 में आत्मार्पण (स्वेच्छा से मृत्यु को गले लगाने का कार्य) के एक अधिनियम में भोजन, पानी और दवाओं का त्याग कर दिया था.

संघ परिवार ने कब से बनाई दूरी

महात्मा गांधी की हत्या के बाद की अवधि में आरएसएस को कुछ समय के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था और भारतीय जनसंघ (बीजेएस) को अपनी राजनीतिक शाखा के रूप में लॉन्च किया था. ये वो समय था जब संघ परिवार ने धीरे-धीरे खुद को महासभा और सावरकर से दूर करना शुरू कर दिया. हालांकि, मर्ज़िया कासोलारी जैसे विद्वानों ने सावरकर के महासभा के अध्यक्ष रहते हुए संघ और हिंदू महासभा के बीच विभाजन के दावे को खारिज कर दिया है.

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