मुण्डमालातन्त्र पटल १२ भाग २ – Mundamala Tantra Patal 12 Bhag 2

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मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित षष्ठपटल) पटल १२ के भाग २ में शिवत्व-लाभ का उपाय, दुर्गा-नाम की महिमा का वर्णन, विद्या-सिद्धि के उपाय का वर्णन, कालीमाहात्म्य कीर्तन, त्रैलोक्य वशीकरण मन्त्र, जनमोहन तारा स्तोत्र एवं दुर्गाकवच का वर्णन है।

|| मुण्डमालातन्त्रम् द्वादश: पटलः ||

मुंडमाला तंत्र पटल १२

रसिक मोहन विरचितम् मुण्डमालातन्त्रम् षष्ठः पटलः

रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल ६ भाग २

भोगः स्वर्गश्च मोक्षश्च करस्थश्चैव शङ्करि !।

शाक्तानां त्रिपुरेशानि! सत्यं वच्मि न संशयः ।।101॥

हे शङ्करि ! हे त्रिपुरेशानि ! शाक्तगणों के लिए भोग, स्वर्ग एवं मोक्ष करतलस्थित है। यह मै सत्य कह रहा हूँ। इसमें कोई संशय नहीं है ।।101।।

श्रीपार्वत्युवाच –

नीलकण्ठ! महादेव ! महेश्वर ! जगद्गुरो !।

पृच्छामि परमं तत्त्वं ब्रूहि नाथ । जगत्-प्रभो ! ।।102।।

श्री पार्वती ने कहा – हे नीलकण्ठ ! हे महादेव ! हे महेश्वर ! हे जगद्गुरो ! मैं परम तत्त्व की जिज्ञासा कर रही हूँ। हे नाथ ! हे प्रभो! आप बतावें ।।102।।

कथं वा जायते भक्तिर्मुक्ति(क्तिर्महेश्वरः ।

जीवः शिवत्वं लभते केन रूपेण शङ्कर ! 103।।

हे महेश्वर ! किस प्रकार से भोग, भक्ति एवं मुक्ति उत्पन्न होती है। हे शङ्कर ! जीव किस प्रकार से शिवत्व का लाभ करता है ।।103।।

श्री शिव उवाच –

विश्वेश्वरि ! जगद्धात्रि ! महामाये ! महेश्वरि !।।

गुह्याद् गुह्यतरं वाक्यं शृणुष्व नगनन्दिनि ! 104॥

श्री शिव ने कहा – हे विश्वेश्वरि ! हे जगद्धात्रि ! हे महामाये ! हे महेश्वरि ! हे नगनन्दिनि ! गुह्य से गुह्यतर वाक्य का श्रवण करें ।।104।।

शान्तं दान्तं कुलीनञ्च सर्व-शास्त्रार्थ-कोविद्म।

एवं गुरुं महेशानि! आश्रयेत् भक्तिभावतः ॥105॥

हे महेश्वरि ! जो शान्त, दान्त, कुलीन एवं समस्त शास्त्रार्थ में पण्डित है, एतादृश व्यक्ति को भक्तिभाव से गुरु बनाकर (मानकर) उनका आश्रय लें ।।105।।

ततः प्रथमतो लब्ध्वा गुरूं परमकारणम् ।

गृह्णीयात् परमं मन्त्रं देव्याश्च वरवर्णिनि ! 106॥

हे वरवर्णिनि ! उसके बाद पहले परमकारण-गुरु का लाभ कर, देवी के श्रेष्ठ मन्त्र को, उन गुरु के निकट से ग्रहण करें ।।

सेतुं च कुल्लुकां कृत्वा मन्त्रसङ्केतकं तथा।

समयाचार-सङ्केतं ज्ञानभावं समभ्यसेत् ।।107॥

सेतु, कुल्लुका, मन्त्र-सङ्केत एंव समयाचार-सङ्केत करके ज्ञान-भाव का अभ्यास करें ।।107।।

पूजयेत् परया भक्त्या पार्वती पटलक्रमात् ।

यथा गुरु-विधानेन गूजयेत् परदेवताम् ।।108॥

तन्त्रों के क्रमानुसार परम भक्ति के साथ पार्वती की पूजा करें। गुरु के विधान के अनुसार, यथाविधि पर-देवता की पूजा करें ।।108।।

चतुर्भुजां दशभुजां सहस्रभुज-संयुताम् ।

लोलजिह्वां करालास्यां मुण्डमाला-विभूषिताम् ।।109॥

चतुर्भुजा, दशभुजा अथवा सहस्रभुजा, लोलजिह्वा करालास्या मुण्डमालाविभूषिता देवी की पूजा करें एवं ध्यान करें ।।

प्रणमेत् प्रजपेद् ध्यायेद् देवी द्रव्यैः प्रपूजयेत् ।।

जवापराजिता-द्रोण-करबीरैर्मनोहरैः ।।110॥

उन्हें नाना द्रव्यों के द्वारा एवं जवा, अपराजिता, द्रोणपुष्प एवं मनोहर करबीर पुष्प के द्वारा पूजा करें एवं प्रणाम करें तथा उनके मन्त्र का जप करें ।।110।।

पूजयेद् रक्तकुसुमैः : सुगन्धैश्चारुशोभनेः ।

नानापुष्पैश्च देवेशि ! पूजयेद् भक्ति-भावतः ।।111॥

हे देवेशि ! भक्तिभाव से मनोहर, सुन्दर, सुगन्ध रक्तपुष्प के द्वारा एवं अन्यान्य नाना प्रकार के पुष्पों के द्वारा देवी की पूजा करें ।।111।।

पाद्यार्थ्याचमनीयाधैर्नानाद्रव्यैर्मनोहरैः

गन्धैः पुष्पैश्च धूपैश्च दीपैरम्बर-भूषणैः ।।112॥

पाद्य, अर्घ्य, आचमन प्रभृति के द्वारा मनोहर नाना द्रव्यों के द्वारा, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप वस्त्र एवं भूषण के द्वारा जगदम्बिका की पूजा करें ।।112।।

नैनिद्यैर्विविधैर्द्रव्यैस्तम्बूलैश्चर्वणोत्कटैः ।

पुनराचमनीयैश्च पूजयेद् जगदम्बिकाम् ॥113॥

विविध द्रव्ययुक्त अनेक नैनेद्य, चर्वण काल में तीव्र गन्ध देनेवाले अनेक ताम्बुलों के द्वारा एवं आचमनीय के द्वारा जगदम्बिका की पूजा करें ।।113 ।।

पातं जा तिक्षातल्या राशा प्राच्या माने।।

एवं पूजा विधातव्या यथा शक्त्या वरानने!।

पूजयित्वा च प्रणमेत् पार्वती तन्त्रजैस्तवैः ।।114॥

हे वरानने ! शक्ति के अनुसार इस प्रकार जगदम्बिका की पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार पूजा कर प्रणाम करें एवं तन्त्रोक्त स्तव के द्वारा स्तुति करें ।। 114।।

स्तोत्रस्य कवचस्यापि पठनाद् जगदम्बिके !।

भक्ति-मुक्ति-प्रदा चण्डी भक्तिदा सर्वमङ्गला 115॥

हे जगदम्बिके! स्तोत्र एवं कवच के पाठ से सर्वमङ्गला भक्तिप्रदा चण्डी प्रसन्न होकर भक्ति एवं मुक्ति-प्रदा बन जाती है ।

वाह्यपूजा प्रकर्त्तव्या गुरुवाक्यानुसारतः ।

अन्तर्यागात्मिका पूजा बाह्यपूजा महेश्वरि !।

सर्व पूजा विधातव्या यावद् ज्ञानं न जायते ।।116।।

गुरु के वाक्य के अनुसार बाह्य-पूजा उत्तमरूप में करनी चाहिए । हे महेश्वरि ! जब तक तत्त्वज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, तब तक बाह्य पूजा, अन्तर्यागात्मिका पूजा – समस्त पूजा ही करनी चाहिए ।।116।।

एवं विधि-प्रमाणेन जपेन तपसापि वा ।

माहेशी सा प्रसन्नाऽभूत् स्तवेन कवचेन च ।।117॥

इस विधि प्रमाणक स्तव, कवच, जप एवं तपस्या के द्वारा वह मेहश्वरी प्रसन्न हुई थीं ।।117।।

ततो देवी महेशानि ! सिद्धविद्या यदा भवेत् ।

तदैव पूजया सिद्धिः क्रियया बुद्धियुक्तया ॥118॥

हे महेशानि ! उसके बाद देवी जब सिद्धविद्या बनती हैं, तभी बुद्धियुक्त (ज्ञान के साथ) पूजा-क्रिया के द्वारा सिद्धि प्राप्त होती है ।।118।।

एवं देव्यनुग्रहतो ज्ञानमुत्पद्यते खलु।

तदा कालात्यये चण्डि ! या भक्तिः सा च निष्फला।

केवला प्रेयसी भक्तिर्महादेवस्य भाविनी ॥119॥

तब एवंविध देवी के अनुग्रह से निश्चय ही तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है। हे चण्डि ! कालातीत में (अकाल में) जो भक्ति है, वह भक्ति सम्पूर्ण निष्फल है । महादेव के प्रति भावयुक्ता भक्ति ही केवल प्रेयसी बनती है ।। 119।।

श्री पार्वत्युवाच –

श्रुतं परम-तन्त्रं वै सारात् सारं परात् परम् ।

यच्छ्रुत्वा मोक्ष्माप्नोति कर्मपाश- निकृन्तनात् ।।120॥

श्री पार्वती ने कहा – सार से सार, श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ, परम तत्त्व का श्रवण कर चुकी हूँ। जिसका श्रवण करके जीवगण कर्मपाश को छेदनपूर्वक मोक्ष का लाभ करते हैं ।।120।।

श्री शिव उवाच –

शृणु देवि ! वरारोहे ! ममैव निश्चितं वचः ।

विना दुर्गा-परिज्ञानाद् विफलं पूजनं जपः ।।121।।

श्री शिव ने कहा – हे वरारोहे ! हे देवि ! मेरे निश्चित वाक्य का श्रवण करें । दुर्गा के परिज्ञान के बिना पूजा एवं जप विफल है ।।121 ।।

दुर्गा हि परमो मन्त्रो दुर्गा हि परमो जपः ।

दुर्गा हि परमं तीर्थं दुर्गा हि परमा क्रिया।

दुर्गा हि परमा भक्तिदुर्गामूतिर्महीतले ॥122।।

दुर्गा ही परम मन्त्र है, दुर्गा ही परम जप है। दुर्गा ही परम तीर्थ है । दुर्गा ही श्रेष्ठ क्रिया है । दुर्गा ही परम भक्ति है । इस महीतल पर दुर्गा ही परम मुक्ति है ।।122।।

बुद्धिर्निद्रा क्षुधा छाया शक्तिस्तृष्णा तथा क्षमा ।

दया तुष्टिश्च पुष्टिश्च शान्तिर्लक्ष्मीर्मतिश्च या ।।123॥

बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षमा, दया, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति, लक्ष्मी एवं मति – ये सभी दुर्गा हैं ।।123 ।।

क्रिया सर्वा वरिष्ठा च वैदिकी तान्त्रिकी च या।

एतत् सर्वं हि दुर्गा हि दुर्गाभिन्नं न तज्जपः ।।124।।

वैदिक एवं तान्त्रिक – जो समस्त क्रियाएँ सभी की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, वे समस्त क्रियाएँ ही दुर्गा, दुर्गा से भिन्न नहीं है। उनका जप भी दुर्गा से भिन्न नहीं है ।।124।।

भजेद् दुर्गापद-द्वन्द्वं स्मरेद् दुर्गामहर्निशम् ।

प्रजपेद् ! देवि! दुर्गेति मन्त्रं परम-कारणम् ।।125।।

दुर्गा के पदयुगल की वन्दना करें । दिवारात्रि दुर्गा का स्मरण करें । हे देवि ! परम कारण ‘दुर्गा’ इस मन्त्र का जप करें ।।125।।

य एवं भक्तिमास्थाय प्रकरोति क्रियां शिवे !।

य एवं भक्तिमास्थाय प्रकरोति क्रियां शिवे !।

सर्वसिद्धियुतो भूत्वा विहरेत् क्षितिमण्डले ।।126॥

हे शिवे ! इस प्रकार भक्ति का अवलम्बन कर जो पूजादि क्रिया को सुन्दर रूप से करता है, वह समस्त सिद्धियों से युक्त होकर क्षितिमण्डल पर विचरण करता है ।।126।।

नानातन्त्रे पृथक् चेष्टा मयोक्ता गिरिनन्दिनि !।

ऐक्यं ज्ञानं यदा देवि ! तदा सिद्धिमवाप्नुयात् ।।127॥

हे गिरिनन्दिनि ! नाना तन्त्रों में मैंने पृथक्-पृथक क्रियाओं को बताया है। जब ऐक्य का ज्ञान होता है, तभी (साधक) सिद्धि-लाभ करता है ।।127।।

स्थावरे जङ्गमे चैव यदा तुल्यमना भवेत् ।

किन्न सिद्धयति विश्वेशि! परत्रेह च पार्वति ! 128।।

स्थावर एवं जंगम में जो (साधक) जब तुल्यमना बन जाता है, अर्थात् जब स्थावर एवं जंगम को समान-रूप से जानता है, हे विश्वेशि ! हे पार्वति ! उसके इहलोक में एवं परलोक में क्या सिद्धि नहीं होता है अर्थात् समस्त ही सिद्धि होता है ।।

एवं भक्तिश्श भक्तिश्च मक्तिश्च जगदम्बिके ।।

तत्त्वज्ञानं तदैवान्ते ततो निर्वाणमाप्नुयात् ।

एवं वै कथितं चण्डि ! किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।।129॥

हे जगदम्बिके ! एवं विध प्रकार से तब उस (साधक) की भक्ति, भोग एवं मुक्ति होती है एवं उसे तत्त्वज्ञान भी होता है। उसके बाद देहान्त होने पर वह निर्वाणलाभ करता है। हे चण्डि ! इस प्रकार मैंने सब कुछ बताया है । पुनः आप क्या सुनने की इच्छा रखती है ? ।। 129।।

श्री पार्वत्युवाच –

श्रुतं परम-तत्त्वं वै श्रुतं परम-सादरात् ।

श्रुतं काल्याश्च चरितं तारायाश्च श्रुतं मया ॥130॥

श्री पार्वती ने कहा – मैं परम आदर के साथ परम तत्त्व का श्रवण कर चुकी हूँ। श्री काली के चरित्र एवं तारा के चरित्र का श्रवण कर चुकी हूँ ।। 130।।

इदन्तु श्रोतुमिच्छामि मन्त्रसिद्धिः कथं भवेत् ।

विद्यासिद्धिः कथं देव ! तद वदस्व दयानिधे! 131।

सम्प्रति मन्त्रसिद्धि किस प्रकार से होती है – इसे सुनने की इच्छा करती हूँ। हे दयानिधे ! विद्यासिद्धि किस प्रकार से होती है, उसे बताइये ।।131।।

श्री शिव उवाच

इदानीं शृणु देवेशि ! मन्त्र-सिद्धेस्तु कारणम् ।

मन्त्रार्थं मन्त्रचैतन्यं जामले कथितं मया ॥132॥

श्री शिव ने कहा – हे देवेशि ! सम्प्रति मन्त्र सिद्धि के कारण को बता रहा हूँ, श्रवण करें। मन्त्रार्थ एवं मन्त्रचैतन्य को मैंने जामलतन्त्र में बताया है ।।132।।

डामरे च श्रुतं चण्डि ! कुलोड्डीशे कुलार्णवे।

संक्षेपेण वदिष्यामि मन्त्रसिद्धेस्तु कारणम् ।।133॥

हे चण्डि ! डामर तन्त्र में, कुलोड्डीश तन्त्र में एवं कुलार्णव तन्त्र में मन्त्रसिद्धि के कारण को मैंने बताया है। यहाँ पर संक्षेप में मन्त्रसिद्धि के कारण को मैं बताऊँगा ।।133 ।।

किं बहकत्या महेशानि ! गुरु-भक्तया च सिद्धयति ।

कुलवारे महेशानि! सहस्रमयुतं जपेत् ॥134।।

हे महेशानि ! अधिक और क्या बताये ? गुरुभक्ति के द्वारा मन्त्रसिद्धि होती है। हे महेशानि ! कुलवार में एक हजार या दस हजार मन्त्र जप करें ।।134।।

शनैश्चरे चतुर्दश्याममायां कुजवासरे।

स्थित्वा कुलासने ज्ञानी मन्त्रसिद्धि-परायणः ।।135।।

अयुतं भक्तिभावेन सहस्रं वा वरानने!।

अन्तर्यागं ततः कृत्वा सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ।।136।।

हे वरानने ! मन्त्रसिद्धि-परायण ज्ञानी व्यक्ति कुलासन पर उपवेशन कर, चतुर्दशी या अमावस्या को, शनिवार या मंगलवार को दस हजार या भक्तिभाव से एक हजार मन्त्र जप करें। उसके बाद अन्तर्याग करके (वह) सर्वसिद्धियों की अधिपति बन सकता है ।। 135-136।।

अश्वत्थे वटमूले वा निम्ब-बिल्वमूलेऽथवा।

पूजयेत् परया बुद्ध्या मन्त्रसिद्धिं जनो लभेत् ॥137॥

अश्वत्थ वृक्ष के मूल में, वटवृक्ष के मूल में, निम्ब अथवा बिल्व वृक्ष के मूल में एकाग्र मन से जगदम्बिका की पूजा करें। वैसा करने पर साधक मन्त्रसिद्धि लाभ करता है ।।137।।

विश्वेश्वरि ! महामाये ! सर्वविघ्नविनाशिनि !।

एवं मासत्रयं कुर्यादन्तर्यागेन । सुन्दरि ।

तदा सिद्धिमवाप्नोति सत्यं सत्यं न संशयः ।।138।।

हे विश्वेश्वरि ! हे महामाये ! हे सर्वविध्न-विनाशिनि ! हे सुन्दरि! इस प्रकार तीन महीने तक अन्तर्याग के द्वारा देवी की आराधना करें। वैसा करने पर (साधक) सिद्धि लाभ करता है। यह सत्य, सत्य है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।138।।

सुषुम्नान्तः स्थितां देवीं पद्मकिञ्जल्क-वासिनीम् ।

ध्यायेन्नाड़ी-विशुद्धेन मन्त्रासिद्धिरनुत्तमा ।।139॥

सुषुम्ना के मध्य में अवस्थिता पद्म के सर-वासिनी देवी का ध्यान नाड़ी विशुद्धि के द्वारा करें । वैसा करने पर, अति उत्तम मन्त्रसिद्धि होती है ।।139।।

अथवा शृणु चार्वङ्गि! क्रियाहीनं मतं मम ॥

केवलं ध्यानमास्थाय मन्त्रसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।।140॥

अथवा हे चार्वङ्गि! मेरे क्रियाहीन मत का श्रवण करें। केवल ध्यान को आश्रय करके निश्चय ही मन्त्रसिद्धि हो सकती है ।

कालिकां हृदयाम्भोजे ध्यायेत् परमदेवताम् ।

योग-सिद्धिं समास्थाय मन्त्रसिद्धिर्भवेन् नृणाम् ॥141॥

योगशक्ति का आश्रय करके हृत्पद्म में पर देवता कालिका का ध्यान करें। वैसा करने पर, मनुष्यों को मन्त्रसिद्धि प्राप्त होती है ।।141।।

पुराऽवस्था निगदिता दुर्लभा या महीतले ।

सा पृच्छा ते निगदिता किन्न सिध्यति भूतले ॥142॥

इस पृथिवीतल पर, मन्त्रसिद्धि की पूर्वावस्था को मैंने प्रकट किया है (= बताया है)। जो दुर्लभ है, मैंने उन प्रश्नों के उत्तरों को बता दिया है । इस पृथिवीतल पर क्या सिद्धि नहीं होता ? अर्थात् समस्त ही सिद्धि होता है ।

शक्ति-जामलके सिद्धेश्वरतन्त्रे कुलाचले।

विद्यासिद्धिर्निगदिता दुर्लभा धरणीतले ।।143।।

इस पृथिवी पर दुर्लभ विद्यासिद्धि को मैंने शक्तियामल में, सिद्धेश्वर-तन्त्र में एवं कुलाचल में बताया है ।।143।।

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी ।

भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ।।144।।

बगला सिद्धविद्या च मातङ्गी कमलात्मिका।

एता दश महाविद्याः सिद्धिविद्याः प्रकीर्तिताः ।।145॥

काली, तारा, महाविद्या षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, महाविद्या धूमावती, बगला, सिद्धविद्या मातङ्गी एवं कमला ये दस महाविद्या ‘सिद्धविद्या’ के नाम से कीर्त्तिता हैं ।।144-145।।

एषा विद्या प्रकटिता सर्वतन्त्रेषु गोपिता।

सर्वसिद्धि-प्रदा नित्या नित्यानन्द-मयी शिवा ।।146।।

समस्त तन्त्रों में गुप्ता यह विद्या प्रकृष्ट रूप से कहा गया। यह नित्य आनन्दमयी विद्या सर्वसिद्धिप्रदा एवं शिवा (कल्याणकारिणी) है ।।146।।

विद्यासिद्धिर्महेशानि! भविष्यति यदा भवेत् ।

इन्द्रत्वं चन्द्रवदने! चन्द्रत्वं वा वरानने ! ॥147॥

हे महेशानि! हे वरानने ! जब विद्यासिद्धि होती है, तब हे चन्द्रवदने ! इन्द्रत्व या चन्द्रत्व उत्पन्न होता है ।।147।।

कुबेरत्वं शिवत्वं वा विष्णत्वं विश्वमोहिनि !।

तत्क्षणाद् देव-देवेशि! जायते नात्र संशयः ।।148॥

हे विश्वमोहिनि ! हे देवदेवेशि ! जब विद्या सिद्ध होती है, तब कुबेरत्व, शिवत्व या विष्णुत्व उत्पन्न होता है। इसमें कोई संशय नहीं है ।। 148।।

विद्यासिद्धिः प्रकरणं पूर्वोक्तं त्रिपुरेश्वरि !।

इदानीं कथयाम्यत्र विद्यासिद्धिमनुत्तमाम् ॥149॥

हे त्रिपुरेश्वरि ! पहले विद्या-सिद्धि का प्रकरण कहा गया है। सम्प्रति यहाँ पर अति उत्तम विद्या-सिद्धि को बता रहा हूँ ।।

श्मशानेऽश्वत्थमूले वा शवे वा शून्य-मन्दिरे ।

प्रजपेत् कालिकां तारां महाविद्या प्रसीदति ।।150॥

श्मशान में, अश्वत्थमूल में अथवा शव में अथवा शून्य मन्दिर में कालिका तारा के मन्त्र का जप करें। इससे महाविद्या प्रसन्न होती हैं ।। 150।।

जपेन तपस्या स्तोत्रैरन्तर्यागैर्मनोहरैः।

पूजनैः कवचैर्देवि! महाविद्या प्रसीदति ।।151 ।।

हे देवी ! जप के द्वारा, स्तोत्रों के द्वारा, मनोहर अन्तर्यागों के द्वारा, पूजाओं के द्वारा, कवचों के द्वारा महाविद्या प्रसन्न होती हैं ।।151 ।।

अनेनैव विधानेन पूजनं यः करोत्यहो ।

सुप्रसन्ना जगद्धात्री महामाया प्रसिद्ध्यति ।

कथितं मे जगद्धात्रि! किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥152।।

जो साधक इस विधान के द्वारा देवी की पूजा करता है, महामाया जगद्धात्री उसके प्रति प्रसन्न हो जाती हैं, विद्या भी सिद्ध हो जाती है। हे देवि ! जप के द्वारा, तपस्या मन्त्रसिद्धि के कारण एवं महाविद्या-सिद्धि के कारण को आगे कहा जा रहा है । हे जगद्धात्रि ! मेरे निकट पुनः किस विषय को सुनने की इच्छा आप रखती हैं ? ।।152 ।।

पार्वत्युवाच –

श्रुतं सिद्धेः कारणन्तु सर्वसिद्धिकरं परम् ।

यजज्ञात्वा मोक्षमाप्नोति जीवः परम-कोविदः ॥153।।

पार्वती ने कहा – उन सर्वसिद्धि-कारी श्रेष्ठ मन्त्रसिद्धि के कारण को मैंने सुना है । श्रेष्ठ पण्डित जीव जिसे जानकर मोक्षलाभ कर लेता है ।।153।।

मन्त्रसिद्धर्महाविद्या-सिद्धेः कारणमग्रतः ।

नानातन्त्रं श्रुतं देव-देव ! विश्वेश्वर ! प्रभो ! 154॥

इदानीं श्रोतुमिच्छामि नीलकण्ठ ! सदाशिव !।

माहात्मयं कालिकायाश्च तारायाश्च सुरेश्वर ! 155॥

हे प्रभो ! हे देवदेव ! हे विश्वेश्वर ! मन्त्रसिद्धि एवं महाविद्यासिद्धि के कारण को मैंने पहले सुना है, नाना तन्त्रों को भी सुना है । हे नीलकण्ठ ! हे सदाशिव ! हे सुरेश्वर ! सम्प्रति कालिका एवं तारा के महात्म्य को सुनने की इच्छा कर रही हूँ ।।154-155।।

श्रोतुमिच्छाम्यहं नाथ ! यतस्तं कालिकापतिः ।

तारापतिस्त्वं देवेश! वद शीघ्रं सदाशिव ! 156॥

हे नाथ ! सम्प्रति मैं (इसे) सुनने की इच्छा करती हूँ। चूँकि आप कालिकापति तारा के पति हैं । हे देवेश्वर सदाशिव! आप शीघ्र बतावें ।। 156।।

श्री शिव उवाच –

धन्यासि पतिभक्तासि चार्वङ्गि! शृणु मद्वचः।।

कालिकायाश्च ताराया माहात्म्यं सिद्धिदायकम् ।।157।।

श्री शिव ने कहा – हे चार्वति! आप धन्या पतिभक्ता है, आप मेरे वाक्यों का श्रवण करें । सिद्धिदायिका कालिका एवं तारा के माहात्म्य का श्रवण करें ।। 157।।

यथा काली तथा तारा एकदैव हि भिन्नता।

दक्षांशा चैव वामांशा यथानुक्रम-सारतः ।।158।।

काली जैसी हैं, तारा भी वैसी हैं । दक्ष स्कन्ध एवं वाम स्कन्ध जिस प्रकार क्रमानुसार से भिन्न है, काली एवं तारा भी उसी प्रकार एक ही समय में भिन्न हैं ।। 158।।

न हि काली-समा पूज्या न हि काली-समं फलम् ।

न हि काली-समं ज्ञानं न हि काली-समं तपः ।।159॥

काली के समान पूज्या नहीं है। काली के समान फल नहीं है। काली के समान ज्ञान नहीं है। काली के समान तपस्या नहीं है ।।159।।

तस्यैव धन्या जननी धन्यस्तस्य पितामहः ।

धन्यं कुलं यशश्चण्डि ! येन काली समर्चिता ।।160॥

हे चण्डि ! जिन्होंने काली की अर्चना सम्यक्रूप में किया है, उन्हीं की जननी धन्या हैं, उनके पितामह धन्य हैं। उनका कुल धन्य है, उन्हीं का यश धन्य है ।।160।।

काली तारा समा विद्याचारे स्तुति-विचारणे ।

यन्त्रे मन्त्रे फलं तुल्यं न विशेषः कथञ्चन ।।161।।

काली एवं तारा की विद्या तुल्या हैं । आचार में, स्तुति के विचार में, मन्त्र में एवं यन्त्र में फल तुल्य हैं, कोई विशेष (भिन्नता) नहीं है ।।161।।

इत्येवं भेदबुद्ध्या तु कथितं चरितं प्रिये !।

अभेदबुद्धया देवेशि सर्वास्तुल्या न संशयः ।।162।।

हे प्रिये ! इस प्रकार भेदबुद्धि के अनुसार, उनके चरित को कहा गया है। हे देवेशि! अभेदबुद्धि में समस्त ही तुल्य हैं, इसमें संशय नहीं है ।।162।।

श्रीमदेकजटा देवि! उग्रतारा सरस्वती।

व्यालानां दमने कृष्ण-रक्षणे यमुना-जले ।।163॥

पपात तारिणी विद्या नीलवर्णा सरस्वती ।

देवैश्चैव हि देवेन्द्रैर्योगेन्द्रैः साधकोत्तमैः ।।164॥

साधकैर्मुनिभिः सर्वैर्गन्धर्वैः किन्नरैः खगैः ।

विद्याधरैर्नर्त्तकैश्च नाना ऋषिगणैरपि ।

आराधिता महाकाली महानील-सरस्वती ।।165।।

हे देवि ! श्रीमत् एकजटा उग्रतारा सरस्वती सर्प के दमन से यमुना के जल पतिता हो गयीं थीं। इससे कृष्ण के द्वारा रक्षा किये जाने से नीलवर्णा सरस्वती तारिणी विद्या का आविर्भाव हुआ था । देवगण, देवेन्द्र, साधकोत्तम योगीन्द्रगण, साधक मुनिगण, समस्त गन्धर्व, किन्नर, पक्षिगण, विद्याधरगण, नर्तकगण एवं नाना ऋषिगण – इन सभी के द्वारा महाकाली नील सरस्वती आराधिता हुई ।। 163-165।।

वदन्ति साधकाः सर्वे काली कालविनाशिनीम् ।

नीलां सरस्वती विद्यामुग्रतारां मनोहराम् ।।166।।

सभी साधक काली को ‘काल-विनाशिनी’ कहते हैं। मनोहर महाविद्या उग्रतारा को ‘नीलसरस्वती’ कहते हैं।

कालिकायाश्च ताराया माहात्म्यं देवदुर्लभम् ।

कः शक्नोति महीमध्ये तस्या माहात्म्य-कोविदः ।।167।।

कालिका एवं तारा का महात्म्य देव-दुर्लभ है। महात्म्यवित् कौन ऐसा पंडित है, जो इस महीतल पर उनके माहात्म्य को कह सकता है ? ।। 167 ।।

दशविद्याष्टादशधा-विद्यारूपां सुरेश्वरि !।

भजते यः साधकेन्द्रो भवत्येवं सुरेश्वरि ! ॥168।।

हे सुरेश्वरि ! दशविद्यारूपा या अष्टादशविद्यारूपा सुरेश्वरी की भजना जो अधिक श्रेष्ठ करता है, वह इस प्रकार (देवीस्वरूप) बन जाता है ।।168 ।।

इत्येवं शृणु देवेशि ! माहात्म्यं भुवि दुर्लभम् ।

यासां विज्ञानमात्रेण जीवन्मुक्तः प्रजायते ।।169॥

हे देवेशि ! जिन देवियों के विज्ञान-मात्र से साधक जीवन्मुक्त हो जाता है, उनका महात्म्य भूमण्डल पर दुर्लभ है – ऐसा जानें ।।169।।

यथा शिवस्तथा जीवो जीवस्तु शिव एव हि।

जायते परमं ज्ञानं भावज्ञानाद् वरानने ! ॥170॥

शिव जैसे हैं, जीव भी वैसा है । जीव शिव ही है । हे वरानने ! भावज्ञान से परम ज्ञान उत्पन्न होता है ।।170।।

अपरं शृणु चार्वङ्गि! सावधानाऽवधारय ।

स्तोत्रञ्च कवचं देव्याः कालिकाया महेश्वरि ! ॥171॥

हे चार्वङ्गि ! अन्य विषय का श्रवण करें । हे महेश्वरि ! सावधान होकर कालिका देवी का स्तोत्र एवं कवच का अवधारण करें ।।171।।

ताराया न श्रुतं चण्डि ! सर्वमोहन-कारणम् ।

षट्-कर्मसिद्धिदं मन्त्रं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् ॥172॥

हे चण्डि ! सभी के आनन्द के कारण, षट्कर्मों में सिद्धिप्रद, तारा के मन्त्र, स्तोत्र एवं उत्तम कवच का श्रवण आपने (अभी तक) नहीं किया है ।।172।।

न प्रकाश्यञ्च कुत्रापि सर्व सम्पत्-प्रदं प्रिये !।

इदानीं कथयाम्यत्र जीवमोहन-कारणम ॥173॥

हे प्रिये ! सम्प्रति यहाँ पर मैं जीव के आनन्द के कारण, सर्वसम्पत् प्रद, उत्तम स्तोत्र एवं कवच को बता रहा हूँ। यह कहीं पर भी प्रकाश्य नहीं है ।।173 ।।

इससे आगे श्लोक १७४ से २०० में तारा स्तोत्र दिया गया है –

जनमोहन तारा स्तोत्रम् – मुंडमाला तंत्र पटल १२

यं यं मन्त्रेण देवेशि! परमाकर्षयत्यहो !।

स तत्र वशतां याति देवराजसमो यदि।

इत्येवं कथितं स्तोत्रमधुना कवचं शृणु ॥201॥

हे देवेशि ! जो जो मन्त्र के द्वारा पर को आकर्षित करता है, यदि वह देवराज के समान भी हो, तो भी वह वश्य बन जाता है । इस प्रकार, यह स्तोत्र कहा गया । सम्प्रति कवच को सुनें ।।201।।

अब इससे आगे श्लोक २०२ से २१० में पुनः एक दुर्गा कवच दिया गया है

॥दुर्गाकवचम् ॥

रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल ६

पूजया वरया भक्त्या क्रियया च विना शिवे ! ।

केवलं जपमात्रेण सिद्धयत्येव न संशयः ॥211॥

हे शिवे! पूजा, परा भक्ति एवं आराधना-क्रिया के बिना केवल जपमात्र के द्वारा सिद्धि हो सकती है। इसमें संशय नहीं है ।

या पृच्छा ते निगदिता कथिता वरवर्णिनि !।

इदानीं देवदेवेशि ! किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥212॥

हे वरवर्णिनि ! आपकी जो जिज्ञासा है, उसका उत्तर मैंने आपको दिया है । हे देव देवेशि ! अब पुनः क्या सुनने की इच्छा रखती है, बतावें ।।212।।

इति मुण्डमालातन्त्र पार्वतीश्वर-संवादे षष्ठः पटलः ॥6॥

मुण्डमालातन्त्र में पार्वतीश्वर-संवाद में षष्ठ पटल का अनुवाद समाप्त ॥6॥

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