मुण्डमालातन्त्र पटल १२ – Mundamala Tantra Patal 12

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मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित षष्ठ पटल) पटल १२ के भाग-१ में दुर्गाकवच, शरीरस्थ नाड़ी का वर्णन, पिण्ड पद एवं रूप का स्वरूप, भेदज्ञान की निन्दा, अभेद ज्ञान का फल का वर्णन है।

|| मुण्डमालातन्त्रम् द्वादश: पटलः ||

मुंडमाला तंत्र पटल १२

रसिक मोहन विरचितम् मुण्डमालातन्त्रम् षष्ठः पटलः

रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल ६ भाग-१

श्रीदेव्युवाच –

पुरा श्रुतं महादेव ! शवसाधनमेव च ।

श्मशान-साधनं नाथ! श्रुतं परममादरात् ।।1।।

श्री देवी ने कहा – हे महादेव ! पहले शवसाधन को मैंने सुना है । हे नाथ ! आदर के साथ श्रेष्ठ श्मशान-साधन को भी मैंने सुना है ।

न स्त्रोतं कवचं नाथ ! श्रुतं न शवसाधने ।

कवचेन महादेव ! स्त्रोत्रेणैव च शङ्कर ! ।

कथं सिद्धिर्भवेद् देव ! क्षिप्रं तद् ब्रूहि साम्प्रतम् ।।2।।

हे नाथ ! शवसाधन (प्रकरण) में मैंने स्तोत्र नहीं सुना है, कवच भी नहीं सुना है। हे महादेव! हे देव ! हे शङ्कर ! कवच के द्वारा एवं स्तोत्र के द्वारा किस प्रकार सिद्धि प्राप्त होती है, सम्प्रति इसे शीघ्र बतावें ।

शिव उवाच –

शृणु देवि ! वरारोहे ! दुगे! परमसुन्दरि ! ।

सिद्ध्यर्थे विनियोगः स्यात् शङ्करस्य नियन्त्रणात् ।।3।।

श्री शिव ने कहा – हे वरारोहे ! हे परम-सुन्दरि ! हे दुर्गे, सुनें । शङ्कर के शासन (उपदेश) के अनुसार सिद्धिलाभ के लिए कवच का प्रयोग किया जाता है ।

इससे आगे श्लोक ४ से १६ में दुर्गा कवच दिया गया है

दुर्गाकवचम्

रसिक मोहन विरचितम् मुण्डमालातन्त्रम् षष्ठः पटलः

शून्यागारे श्मशाने ना कामरूपे महाघटे ।

स्ववामा-मन्दिरे कालेऽप्यथवा काममन्दिरे ।

मन्त्री मन्त्रं जपेद् बुद्ध्या भक्त्या परमया युतः ॥17॥

मन्त्री विहितकाल (=बताये गये समय) में परम भक्ति-युक्त होकर शून्यागार में, श्मशान में, कामरूप में, महाघट में, निज स्त्री के मन्दिर में अथवा काममन्दिर में ज्ञानपूर्वक मन्त्र जप करें ।

मूले दले फले वाप्यनले कालेऽनिलेऽनले ।

जले पठेत् प्राणबुद्धया मनसा साधकोत्तमः ॥18॥

साधकोत्तम मूल में, दल में, फल में, अनल में अथवा अनिल में एवं जल में, शुद्ध काल (= समय) में, प्राण-बुद्धि से (‘प्राण’-ऐसा समझकर) मन के द्वारा जप करें ।

नाडीशुद्धिं ततः कृत्वा भावशुद्धिं महेश्वरि !।

विहरेद् धरणी-मध्ये सर्वशास्त्रार्थकोविदः।

चितामारुह्य सिद्धेशो नीलकण्ठत्वमाप्नुयात् ॥19॥

हे महेश्वरि ! सर्वशास्त्रार्थवित् मन्त्री उसके बाद नाड़ीशुद्धि एवं भावशुद्धि करके पृथिवी पर विचरण करें । देहान्त हो जाने पर (साधक) सिद्धेश्वर बनकर नीलकण्ठत्व का लाभ करता है ।

वामे चलति कालिन्दी दक्षिणे खलु जाह्नवी ।

मध्ये कुलाचला नाड़ी दुर्लभा धरणीतले ॥20॥

देह के वामभाग में कालिन्दी, दक्षिण में जाह्नवी, मध्य में कुलाचला नाड़ी विद्यमान है। वह पृथिवी में दुर्लभ है ।

चित्रिणी पद्मिनी शङ्खा विजृम्भा शोणदा तथा।

कङ्काला कूटजा वीणा कपोला शोणजा खला।

निजदेहे वसन्त्येता ब्रह्मनाड़ी समाश्रिताः ॥21॥

चित्रिणी, पद्मिनी, शङ्खा, विजृम्भा, शोणदा, कङ्काला, कूटजा, वीणा, कपोला, शोणजा, खला – ये नाड़ियाँ अपने देह में ब्रह्मनाड़ी का आश्रय कर अवस्थित हैं ।।21 ।।

सर्वासां धारणी मध्ये गौरी सूक्ष्मा च चित्रिणी।

घण्टाकर्णा लोलजिह्वा विकटा चन्द्रवल्लभा ॥22॥

महानीला वीरभद्रा सुलज्जा नखदा शुभा।

वलाका काकिनी राका कालघण्टा शिवा सिता ॥23॥

दर्दुरा च दुराराध्या विशोका वदनाऽनघा।

जम्भिनी पुकवशा शोणा यशोदा नखदा नदा ॥24॥

खगा खगवती नाड़ी कोला हेला हलाहला।

इड़ा च पिङ्गला चैव सुषुम्ना प्राणरूपिणी ॥25॥

यह ब्रह्मनाड़ी समस्त नाड़ियों की धारणकर्ती है । इन नाड़ियों में गौरी, सूक्ष्मा, चित्रिणी, घण्टाकर्ण, लोलजिह्वा, विकटा, चन्द्र, वल्लभा, महानीला, वीरभद्रा, सुलज्जा, नखदा, शुभा, वलाका, काकिनी, राका, कालघण्टा, शिवा, सिता, दर्दुरा, दुराराध्या, विशोका, वदना, अनघा, जम्भिनी, पुकवशा, शोणा, यशोदा, नखदा, नदा, खगा, खगवती, कोला, हेला एवं हलाहला–ये नाड़ियाँ अवस्थित हैं। इनमें इड़ा, पिङ्गला एवं सुषुम्ना – प्राणरूपिणी अर्थात् प्रधान हैं ।।22-25।

गान्धारी कोटराक्षी च कुलजा कुलपण्डिता।

सव्ये कनखला नाड़ी दक्षिणे कामपालिका ।।26।।

वाम में गान्धारी, कोटराक्षी, कुलजा एवं कुलपण्डिता नाड़ी अवस्थित है एवं दक्षिण में कनखला, कामपालिका नाड़ी अवस्थित है ।126।।

विहारं नीलकण्ठस्य देवानामपि दुर्लभम् ।

क्रोड़े विश्वम्भरा कामा कराला पद्मवाहिनी ।।27।।

घनभा घनदा चण्डी सुशीला वरपण्डिता ।

विश्वाख्या विश्वरमणी बहुपादा कटाक्षजा ।

नन्दिनी शोणदा गङ्गा काशी कमलवासिनी ।।28।।

नीलकण्ठ का विहार-स्थान देवगणों के लिए भी दुर्लभ है। क्रोड़ में विश्वम्भरा, कामा, कराला, पद्मवाहिनी, घनभा, घनदा, चण्डी, सुशीला, वरपण्डिता, विश्वाख्या, विश्वरमणी, बहुपादा, कटाक्षजा, नन्दिनी, शोणदा, गङ्गा, काशी एवं कमलवासिनी अवस्थित है ।।27-28 ।

एवं यदि महामाये ! भावयेत् सुरपूजिताम् ।

तदैव जायते सिद्धिः सत्यं सत्यं न संशयः ॥29॥

हे महामाये ! सुरपूजिता देवी की भावना इसी प्रकार करें। तभी सिद्धि उत्पन्न होती है। यह सत्य, सत्य है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।29।।

बहुपादकटा घोरा निर्जिता घनभेदिनी।

नाड़ी-विहार-सम्पर्काज्जीवन्मुक्तो न संशयः ।।30।।

बहुपदा, कटा, घोरा, निर्जिता एवं घनभेदिनी – इन सभी नाड़ियों के विहार के सम्बन्ध में (सम्बन्धित होने पर) जीव जीवन्मुक्त हो जाता है। इसमें कोई शय नहीं है ।।30 ।।

शृणु देवेशि ! घोराभे! करालास्ये! दिगम्बरे ! ।

चिन्तामणि-प्रसादेन किं न सिद्ध्यति भूतले ॥31॥

हे देवेशि ! हे घोराभे ! हे करालास्ये ! हे दिगम्बरे ! सुनें । इस पृथिवी पर, चिन्तामणि के प्रसाद से कौन-सी सिद्धि नहीं होती है अर्थात् समस्त ही सिद्ध जाती है ।।31।।

मूले चतुईले पद्मे स्वाधिष्ठाने च षड्दले ।

मणिपुरेऽनाहते च विशुद्धाज्ञाख्यके प्रिये ! ॥32॥

एवं चक्रं परिन्यस्तं दश-द्वादश-षोडशैः।

दलैस्तु शङ्करं वर्णं न्यस्तं परमतत्त्वतः ।।33 ।।

हे प्रिये ! मूलाधार में चतुर्दल पद्म में, स्वाधिष्ठान में षड्दलपद्म में, मणिपुर में दशदल पद्म में, अनाहत में, विशुद्ध में एवं आज्ञाचक्र में परमतत्त्व शङ्कर की पूजा करें । ऊर्ध्वाधःक्रम से ये चक्र विन्यस्त हैं एवं दश, द्वादश तथा षोडश दलों के द्वारा युक्त हैं एवं वर्गों के द्वारा व्याप्त हैं ।।32-33।।

यजेत् कालीपूरं देवि ! ब्रह्माद्यैः परिसेवितम् ।

नीलकण्ठं त्रिलोकेशं सहस्राब्ज-निवासिनम् ।।34॥

हे देवि ! ब्रह्मादि देववृन्द के द्वारा परिसेवित कालीपुर की पूजा करें । सहस्रार पद्म-निवासी त्रिलोकेश नीलकण्ठ की पूजा करें ।34।।

कोटीशं कुलकोटीशं साधकेन्द्रैः सुशोभितम् ।

ध्यायेत् परम-निर्विण्णो देवः परम-पावनः ॥35॥

परम निर्वेदयुक्त होकर, साधकेन्द्रों के द्वारा सुशोभित कोटीश एवं कुलकोटीश का ध्यान करें। वह देव परम पवित्र कारक हैं ।।35।।

जीवः शिवस्तु विज्ञेयो विशेषः सर्वदा रतिः ।

ब्रह्मतत्त्वं वरारोहे! देवानामपि दुर्लभम् ।।36॥

जीव को शिवरूप जानें । उनमें सर्वदा रति को ही विशेष (बात-रूप में) जानें । हे वरारोहे ! ब्रह्मतत्त्व देवगणों के लिए भी दुर्लभ है ।।36।।

स्वरादि-निष्ठितं लिङ्गं स्वर-व्यञ्जन-भूषितम्।।

वर्णमाला-परिन्यस्तं लिङ्गं भुवन-शोभितम् ।।37॥

स्वरादिवर्ण में अधिष्ठित लिङ्ग स्वर एवं व्यञ्जन के द्वारा भूषित है । भुवनशोभित लिङ्ग, वर्णमाला के द्वारा परिव्याप्त है ।।37।।

महाबीजं महोत्साहै दितं परमार्थकम् ।।

नीलकण्ठं महादेवं सदा शक्ति-समन्वितम् ।

ध्यायेत् तु पूजयेद् देवं मनसा वचसा तथा ।।38॥

महा उत्साह के साथ परमार्थ-साधक महाबीज के नादित (=अव्यक्त शब्द में प्रकाशित) अर्थात् अस्पष्टरूप में प्रकाशित करें । शक्ति-समन्वित नीलकण्ठ महादेव का सर्वदा ध्यान करें एवं वाक्य तथा मन के द्वारा देवदेव की पूजा करें ।।38।।

तदैव साधको लोके चान्तर्याग परायणः ।

अन्तर्यागं महामाये साधकानामगम्यकम् ।।39।।

तभी इस लोक में साधक अन्तर्याग-परायण बन जाते हैं। हे महामाये! अन्तर्याग को साधकों के लिए अगम्य जानें।

ब्रह्माण्डं वै शरीरन्तु सर्वेषां प्राण-धारिणाम् ।

ब्रह्माण्डे ये गुणा सन्ति ते तिष्ठन्ति कलेवरे ।।40।।

समस्त जीवों का यह शरीर ब्रह्माण्ड स्वरूप है। इस ब्रह्माण्ड में तो समस्त गुण हैं, इस शरीर में वे समस्त गुण हैं।

शरीरं तत्त्वघटितं नानारस-परिप्लुतम् ।

चन्द्रबिन्दु-समायुक्तं नादबिन्दु-विभूषितम् ।।41।।

यह शरीर तत्त्वघटित नाना रसों के द्वारा परिप्लुत है, चन्द्रबिन्दु के द्वारा समायुक्त है एवं नादतत्त्व तथा बिन्दुतत्त्व से विभूषित है ।।41 ।।

शरीरं शङ्करस्थापि दुर्लभं मुक्तिदायकम् ।

यावन्मुक्तिर्महामाये! तावदेव हि साधकः ।।42॥

तावत् क्रिया च भक्तिश्च मुक्तिरव्यभिचारिणी।

महाघोरे समाक्लेशे शरीरं ब्रह्मणः पद्म ।

पारिजात-प्रसूनञ्च देहजं सर्वमङ्गलम् ॥43॥

यह मुक्तिदायक शरीर शङ्कर के लिए दुर्लभ है । हे महामाये ! जब तक मुक्ति नहीं होती है, तब तक साधक है, तब तक क्रिया है, तब तक भक्ति है । उसके बाद अव्यभिचारी मुक्ति है। महाघोर में एवं महाकष्ट में इस शरीर की ब्रह्मस्थान-रूप में भावना करें ।।42-43।।

गृहीत्वा कालिकां देवीं मुण्डमालाविभूषिताम् ।

पूजयेत् परया भक्त्या शिव एव न संशयः ।।44।।

देहजात सर्वमङ्गला पारिजात-कुसुम को ग्रहण कर, मुण्डमाला-विभूषिता कालिका देवी की पूजा परम भक्ति के साथ करें। इससे शिव बन जाते हैं । इसमें संशय नहीं है ।।44।।

ब्रह्माण्ड-घटितां मूर्ति मूर्द्धजैश्च विभूषिताम् ।

चतुर्भुजां लोलजिह्यां नानाशक्ति-समन्विताम् ।

पूजयेत् परमानन्दो निजशक्ति-समन्वितः ।।45।।

परमानन्द साधक निज शक्ति से समन्वित होकर, केश-विभूषिता, चतुर्भुजा, लोलाजिह्वा, नानाशक्ति-समन्विता, ब्रह्माण्ड-घटिता मूर्ति की पूजा करें ।।45।।

वामे स्ववामां देवेशि! नालालङ्कार-भूषिताम् ।

कचावाक्रम्य देवेशि! प्रजपेत् तु समः शिवः ।।46॥

हे देवेशि ! अपने वाम भाग में, नानालङ्कारों से भूषिता अपनी स्त्री को बैठाकर उसके स्तनद्वय का आक्रमण कर, जप करें। वैसा करने पर, शिवतुल्य बन जावेंगे ।।46।।

निज-चक्रे करालास्यां मुक्तकेशो दिगम्बरः।

सहस्रं वायुतं वापि जपेन्मदन-मन्दिरे ॥47।।

मुक्त केश एवं दिगम्बर होकर, काम-मन्दिर में अपने चक्र में कराल-वदना महाकाली की पूजा करें अथवा दस हजार या एक हजार जप करें ।।47।।

श्वेतं वा लोहितं वापि कुसुमं पञ्चमान्वितम् ।

एवं विधि-विधानेन महाकाल्यै निवेदयेत् ॥48।।

इस प्रकार विधि-विधान के द्वारा महाकाली को पञ्चमान्वित श्वेत या लोहित पुष्प निवेदन करें ।।48।।

दिवा पूजा विधातव्या निशि पूजा महेश्वरि ! ।

सन्ध्या पूजा प्रकर्त्तव्या सदा सिद्धिमवाप्नुयात् ।।49॥

हे महेश्वरि ! दिवा में पूजा का अनुष्ठान करें । रात्रि में भी पूजा करें एवं सन्ध्या में भी पूजा करें। वैसा करने पर सिद्धिलाभ कर लेते हैं ।।49।।

न दिवा न निशाभागे न सन्ध्यायां कदाचन ।

पूजयेन्न जगद्धात्रीं मोहेन परिपूजयेत् ।।50॥

कदापि जगद्धात्री की पूजा दिन में न करें, निशाभाग में पूजा न करें, सन्ध्या में भी पूजा न करें। लोग मोहवश पूजा करते हैं ।।50।।

दिवा न पूजयेद् देवीं रात्रौ नैव च नैव च।

सर्वदा पूजयेद देवीं दिवारात्रौ न पूजयेत् ।।51।।

दिन में जगद्धात्री की पूजा न करें । रात्रि में तो कदापि नहीं। सर्वदा देवी की पूजा करें। किन्तु दिवारात्रि में पूजा न करें ।।

यथा इड़ा पिङ्गला च सुषुम्ना ब्रह्म-भेदिनी ।

नाड़ीभ्रमण-सम्पर्कान्मुक्तिं प्राप्नोति साधकः ॥52॥

जिस प्रकार इड़ा, पिङ्गला एवं सुषुम्ना ब्रह्मनाड़ी का भेदन करती हुई गयी है, साधक उन नाड़ियों के भ्रमण के ज्ञान से मुक्तिलाभ करता है ।।52।।

विना नाड़ी-परिज्ञानं विना नाड़ी निषेवणम् ।

विना बिल्वकरं देवि ! न हि सिद्ध्यति भूतले ।।53॥

हे देवि ! इन सभी नाड़ियों के ज्ञान, इन सभी नाड़ियों की भावना एवं बिल्वकर के बिना भूतल पर कोई सिद्धिलाभ नहीं करता है ।।53।।

सव्ये बिल्वं करे दक्षे मालां संगृह्य साधकः ।

प्रजपेत् पार्वती-मन्त्रं सर्व-कार्यार्थ-सिद्धये ।।54॥

साधक वाम हस्त में बिल्व एवं दक्षिण हस्त में माला का ग्रहण कर, समस्त कार्यार्थों की सिद्धि के लिए पार्वतीमन्त्र का जप करें ।।54।।

घोरदंष्ट्रांग करालास्यामट्टहासां दिगम्बराम्।

प्रणम्य भक्त्या देवेशी जपेच्चिन्तामणिं मनुम् ।।55॥

घोरदंष्ट्रा, करालास्या, अट्टहासा, दिगम्बरा देवेशी को भक्ति के साथ प्रणाम कर, चिन्तामणि-मन्त्र का जप करें ।

चिन्तामणि-प्रसादेन किं न सिद्ध्यति भूतले ।

चिन्तामणिं कल्पलतां गृहीत्वा परमां शिवाम् ।

जपत्वा महामनुं चण्डि ! देव-देवेश्वरो भवेत् ।।56।।

चिन्तामणि के अनुग्रह से भूतल पर क्या सिद्ध नहीं होता है अर्थात् समस्त ही सिद्ध होता है । हे चण्डि ! कल्पलता, चिन्तामणि-तुल्या, परमा शिवा को ग्रहण कर, महामन्त्र का जप करके (साधक) देवदेवेश्वर बन सकता है ।।56।।

जीवः शिवत्वं लभते ज्ञानात् तु वर वर्णिनि ।

गुरुपादाब्जकं देवि! रहस्यं परमाद्भुतम् ।।57॥

हे वरवर्णिनि ! ज्ञान से जीव शिवत्व का लाभ करता है । हे देवि ! गुरु का पादपद्म परम अद्भुत रहस्यमय है ।

विचित्रं चारुपादाब्जं पार्वत्या शङ्करस्य च।

भजेदैक्यं विधानेन जीवन्मुक्तः स एव हि ।।58।।

जो (साधक) विधान के अनुसार पार्वती एवं शङ्कर के विचित्र एवं सुन्दर पादपद्म में ऐक्य की भावना करता है, वही जीवन्मुक्त हो जाता है ।।58।।

पिण्डे युक्ताः पदे युक्ता रूपे युक्ता वरानने !।

गुणातीताश्च ये भक्तास्ते मुक्ता नात्र संशयः ।।59॥

हे वरानने ! जो भक्तगण पिण्ड में (कुलकुण्डलिनी शक्ति में) युक्त (रत) है, जो भक्त, पद में (परम शिव में) युक्त है, जो भक्त, उनके रूप में (=ध्यान में) युक्त है, वे भक्तगण मुक्त हैं, इसमें संशय नहीं है ।।59।।

श्री पार्वत्युवाच –

न पिण्डं न पदं रूपं न जानामि सुरोत्तम् !।

कथ्यतां में दयासिन्धो ! निश्चितं मतमुत्तमम् ॥6॥

श्री पार्वती ने कहा – हे सुरोत्तम ! मैं पिण्ड को नहीं जानता, पद को नहीं जानता, रूप को भी नहीं जानता । हे दयासिन्धो ! इस विषय में उत्तम निश्चित मत को मुझे बतावें ।।60।।।

श्री शिव उवाच –

गुह्याद् गुह्यतरं देवि सारमेकं वदाम्यहम् ।

पिण्डं कुण्डलिनीशक्तिः पदो हंसः प्रकीर्तितः।

रूपञ्चापि वरारोहे! ध्यानमेव न संशयः ॥61॥

श्री शिव ने कहा – हे देवि ! गुह्य से गुह्यतर एक सार तत्त्व को मैं बताऊँगा । पिण्ड हैं कुण्डलिनी शक्ति । पद हंस (परमशिव) कहे गये हैं। हे वरारोहे ! ध्यान ही रूप है, इसमें संशय नहीं है ।।61 ।।

महाकुण्डलिनी देवीं यो भजेत् तु भुजङ्गिनीम् ।

स कृतार्थः स धन्यश्च स देवो वीरसत्तम ।।62।।

जो भुजङ्गिनी महाकुण्डलिनी की भजना करता है, वह कृतार्थ है, वह धन्य है, वह देव है एवं वह वीरसत्तम है ।

स गुणी साधको ज्ञानी स मानी स च पण्डितः ।

स कृती सर्व-ब्रह्माण्डे देवत्वं लभते धूवम् ।।63 ।।

वह गुणी है, वह साधक है, वह ज्ञानी है। वह मानी है, वह पण्डित है। वह समस्त ब्रह्माण्ड में कृती है। वह निश्चय ही देवत्व का लाभ करता है ।।63।।

ये दिव्याः साधकेन्द्राश्च ये वीराः साधकोत्तमाः ।

पशवः पशवो ज्ञेयाः सर्वशास्त्रार्थ-कोविदाः ॥64॥

जो व्यक्ति दिव्य हैं, वे साधकेन्द्र हैं। जो व्यक्ति वीर हैं, वे साधकोत्तम हैं । पशुगण समस्त शास्त्रार्थ में पण्डित होने पर भी उन्हें ‘पशु’ ही जानें ।।64।।

भावशुद्धिं समास्थाय सर्वशास्त्रार्थ-कोविदः ।

साधको मुक्तिमाप्नोति सत्यं सत्यं वरानने ! ॥65।।

हे वरानने ! समस्त शास्त्रार्थवित् साधक व्यक्ति भावशूद्धि का आश्रय करके मुक्ति को प्राप्त होते हैं। यह सत्य सत्य है ।।

शृणु देवि! जगद्धात्रि! सर्वमङ्गल-मङ्गलम् ।

तन्त्रञ्च शृणुयाद् देवि! ब्रह्मनिर्वाणमाप्नुयात् ।।66।।

हे देवि ! हे जगद्धात्रि ! समस्त मङ्गलों के मङ्गल तन्त्र का श्रवण करें। वैसा करने पर, बह्मनिर्वाण का लाभ करें।

निशाभागे जपेन्मन्त्रं वामायुक्तो महेश्वरि !।

अयुतं भक्ति-भावेन जीवन्मुक्तः स एव हि ॥67।।

हे महेश्वरि ! स्त्री-युक्त होकर निशाभाग में जो भक्तिमान् साधक, भक्तिभाव से दस हजार मन्त्र का जप करता है, वह जीवनमुक्त होता है ।।67।।

सहस्रमयुतं वापि कुजवारे निशामुखे ।

जपेच्चिन्तामणिं मन्त्रं क्ष्मातले नात्र संशयः।

चिन्तामणि-प्रसादेन किं न सिद्ध्यति भूतले ।।68।।

इस पृथिवी पर, मङ्गलवार को निशा-मुख में एक हजार या दस हजार चिन्तामणितन्त्र का जप करें। इसमें कोई संशय नहीं है कि, चिन्तामणि के अनुग्रह से इस पर भूतल क्या सिद्ध नहीं होता है ? अर्थात् सब कुछ सिद्ध होता है ।।68।।

यथाविधि-विधानञ्च कृत्वा च मन्मथालयम्।

व्रजेत् तु भक्तिभावेन स गच्छेत् परमां गतिम् ॥69।।

जो साधक यथाविधि अनुष्ठान कर, भक्तिभाव से मन्मथ-गृह (काम-मन्दिर) में गमन करता है, वह परम गति का लाभ करता है ।।69।।

नभोगतं महापद्मं सर्वदेवैः सुपूजितम् ।

तन्मध्यस्थं महादेवं नीलकण्ठं सदाशिवम् ।।70

महाशक्ति-युतं देवि! सर्वानन्दं मनोहरम् ।

शुक्लं रक्तं नीलवर्णं पीतादिवर्ण-शोभितम् ।।71॥

मनसा चिन्तितं देवि! देवं परम-कारणम् ।

ध्यानञ्च मनसा देवि! मनसा परिपूजितम् ।

मनसा पूजयेल्लिङ्गं मनसा तर्पणादिकम् ॥72।।

नभोगत (= मस्तकगत) महापद्म सर्वदेवों के द्वारा सूपूजित है । हे देवि! महाशक्तियुक्त सवीनन्दमेय शुक्ल, रक्त, नील, एवं पीतादि वर्णशोभित मन के द्वारा चिन्तनीय है, मन के द्वारा पूजनीय है, मन के द्वारा ध्येय, परम कारणों के कारण, मनोहर, नीलकण्ठ, महादेव, सदाशिव देव की पूजा करें, मन के द्वारा तर्पणादि करें ।

मनसा कालिकां तारां मनसा तु भुजङ्गिनीम् ।

मनसा ब्रह्मनाड़ी वै विद्ध्यात् सर्वकामदाम् ।।73॥

मन के द्वारा तारा एवं कालिका की पूजा करें । मन के द्वारा भुजङ्गिनी कुलकुण्डलिनी की पूजा करें । समस्त कामप्रदा ब्रह्मनाड़ी के भावना मन के द्वारा करें ।।73 ।।

इत्येवं ध्यानयोगेन मनसा जगदम्बिकाम्।

पूजयेत् परया बुद्ध्या स विश्वेशो भवेद् ध्रुवम् ॥74॥

जो साधक एकाग्रचित से मन के द्वारा एवं विधि ध्यान करने के साथ ही साथ जगदम्बिका की पूजा करता है, वह निश्चय ही विश्वेश्वर बन जाता है ।।74।।

सुषुम्ना-मध्यगां काली करालवदनां शिवाम् ।

प्रणमेत् पार्वती देवीं महानील-सरस्वतीम् ॥75॥

सुषुम्ना नाड़ी के मध्यगत कराल-वदना काली को, शिवगृहिणी पार्वती देवी को एवं महानील सरस्वती देवी को प्रणाम करें ।।75।।

उग्रतारा क्रमं वक्ष्ये देवानामपि दुर्लभम् ।

त्रिकोण वलयाम्भोजे महानील-सरस्वतीम्।

महाबुद्धि-स्वरूपेण भावयेत् तामहर्निशम् ॥76।।

(सम्प्रति) देवताओं के लिए दुर्लभ उग्रतारा देवी की पूजा के क्रम को बताऊँगा। त्रिकोण वलय पद्म में उन महानील सरस्वती देवी की भावना, महाबुद्धि-स्वरूप में करें ।।76।।

हृत्पद्मे भावयेच्चण्डी हृत्पद्ये भावयेच्छिवम् ।

हृत्पद्ये भावमासाद्य पूजयेद् वरवर्णिनि ! 77।।

हृत्पद्म में चण्डी की भावना करें । हृत्पद्म में शिव की भावना करें । हे वरवर्णिनि ! भाव का अवलम्बन कर हृत्पद्म में पूजा करें ।।77।।

यावन्नानात्व-भावञ्च तावदेवं पृथविधम्।

तावत् क्रिया पृथग् भावा तावन्नानाविधा मता ॥78॥

जब तक भेदभाव रहता है, तब तक समस्त ही पृथक्-पृथक् है । तब तक पृथक-पृथक् भावों की क्रिया भी नानारूप होती हैं-ऐसा कहा गया है ।।78।।

तावद्भिन्नाश्च देवाश्च ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वराः।

गणेशञ्च दिनेशञ्च वह्निं वरुणमेव च।

कुबेरञ्चापि दिकपालमेतत् सर्वं पृथक्-पृथक् ॥79॥

तब तक ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर प्रभृति देवगण भिन्न-भिन्न हैं । गणेश, सूर्य, वरुण, वह्नि, कुबेर एवं दिक्पालगणों को (साधक ऐसा) सोचते हैं कि- ये भिन्न भिन्न हैं ।।79।।

तावन्नानाविधाश्चेष्टाः स्त्री-नपुंसक-पुङ्गवाः।

तावद् बिल्वदलं भिन्नं देवेशि ! तुलसी-दलात् ।।80॥

तब तक नानारूप चेष्टाएँ की जाती है। स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक में भेद (भावना) रहती है । हे देवेशि ! तब तक तुलसीपत्र से बिल्वपत्र को (साधक) भिन्न (रूप में) सोचता है ।।80।।

तावज्जवा-द्रोण-कृष्णा-करबीराणि भूतले।

विभिन्नानि च देवेशि ! सत्यं वै तुलसीदलात् ॥81॥

हे देवेशि ! भूतल पर, तब तक जवा, द्रोण, अपराजिता एवं करबीर में तुलसी-पत्र से, सत्य सत्य ही भेद (भावना) रहती है ।।81।।

तावद् दिव्यश्च वीरश्च तावत् तु पशुभावकः ।

तावत् मन्त्रे भेदबुद्धिस्तावद् देवे पृथक् क्रिया ॥82॥

तब तक ही दिव्य एवं वीर हैं, तब तक ही पशु हैं । तब तक ही तन्त्र में भेदबुद्धि है । तब तक ही देवताओं के लिए पृथक्-पृथक् पूजा-क्रिया की जाती ।।82।।

हरौ हरे भेदबुद्धिर्जायते जगदम्बिके ।

करालवदना काली श्रीमदेकजटा शिवा ।।83।।

हे जगदम्बिके ! तब तक ही हरि एवं हर में, मनुष्यों में भेदबुद्धि उत्पन्न होती है। करालवदना काली, श्रीमत् एकजटा शिवा से भिन्न रहती हैं ।।83 ।।

षोडशी भैरवी भिन्ना भिन्ना च भुवनेश्वरी ।

छिन्ना भिन्नाऽन्नपूर्णा च भिन्ना च बगलामुखी ॥84।।

(तब तक) षोडशी एवं भैरवी भिन्ना हैं । (तब तक) भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, अन्नपूर्णा भिन्ना हैं। (तब तक) बगलामुखी भी भिन्ना हैं ।।84।।

मातङ्गी कमला भिन्ना भिन्ना वाणी च राधिका ।

भिन्ना चेष्टा क्रिया भिन्ना भिन्न आचार-संग्रहः ॥85॥

(तब तक) मातङ्गी एवं कमला भिन्ना हैं; वाणी एवं राधिका भिन्ना हैं; चेष्टाएँ भिन्ना हैं, क्रियाएँ भिन्ना हैं; आचार समूह भी भिन्न हैं ।।85।।

यावन्नैक्यं पादपद्मे भवान्या नैव जायते ।

अद्वैते – तारिणीपाद-पद्ये परम-पावने ॥86।।

जब तक भवानी के पादपद्म में ऐक्य-ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है; जब तक परम पावन तारिणी के अद्वैत (एक) पादपद्म में ऐक्य-ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, तब तक यह भेद रहता है ।।86।।

ज्ञानपारे समुत्पन्ने हृत्पद्म-निलये तथा।

ऐक्यं भवति चार्वङ्गि! सर्वं ब्रह्ममयात्मकम् ॥87।।

हे चार्वङ्गि ! हृत्पद्म-गृह में ज्ञान का पार (= पराकाष्ठा) उत्पन्न होने पर, समस्त ही ब्रह्ममय है – एवं विध ऐक्य-ज्ञान उत्पन्न होता है ।।87।।

(ऐक्यं भवति देवेशि !) सर्वजीवेषु शङ्करि!।

न च पापं न वा पुण्यं न यमो नरकं न च ।

न सुखं नापि दुःखञ्च न रोगोभ्यो भयं तथा ॥88।।

हे देवेशि ! समस्त जीव को यह ऐक्यज्ञान (प्राप्त) हो सकता है। हे शङ्करि ! यह ऐक्यज्ञान उत्पन्न होने पर, पाप नहीं है, पुण्य नहीं है, यम (मृत्यु) नहीं है, नरक नहीं है, सुख नहीं है, दुःख नहीं है। उसी प्रकार, रोग से भय भी नहीं है ।।88।।

न भयं नापि शोकश्च सर्वं ब्रह्ममयात्मकम् ।

ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या वैश्यजा शूद्रजाऽन्त्यजा ॥89॥

(तब) भय नहीं है, शोक भी नहीं है । तब समस्त ही ब्रह्ममयस्वरूप हैं। जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हैं, उसी प्रकार वैश्यजात, शूद्रजात एवं अन्त्यज भी हैं अर्थात् उस समय उनमें कोई भेद नहीं रहता ।।89।।

तथैव तारिणी-विद्या यथा विद्या तथा तथा।

एवं ज्ञानं महेशानि! यथा वै जायते प्रिये ! ॥90॥

तथैव विद्या देवेशि! विद्या-विद्या-विरोधिनी।

जायते नात्र सन्देहो ब्रह्मनन्दमयो भवेत् ॥91।।

अन्यान्य विद्याएँ जिस प्रकार हैं, यह तारिणी विद्या भी उसी प्रकार है, उनमें कोई भेद नहीं है। हे महेशानि ! हे प्रिये ! एवं विधिज्ञान जिस प्रकार उत्पन्न होता है, हे देवेशि ! उसी प्रकार अपराविद्या एवं अविद्या विरोधिनी विद्या भी उत्पन्न होती है। इस विषय में कोई सन्देह नहीं है। उस समय समस्त ही ब्रह्मानन्दमय बन जाता है।

अद्वैतञ्च गुणातीतं निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।

परमानन्द-संयुक्तो मुक्तिं यास्यति निश्चितम् ॥92॥

परमानन्द संयुक्त साधक निर्गुण गुणातीत अद्वैत को प्रकृति से भिन्न जानकर निश्चय ही मुक्तिलाभ कर लेते हैं ।

इति सत्यं पुनः सत्यं सत्यं चण्डि ! वरानने!।

तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति नास्ति देवः सदाशिवात् ॥93॥

हे वरानने ! हे चण्डि ! यह सत्य है, यह सत्य है। यह सत्य है कि तत्त्वज्ञान से श्रेष्ठ ज्ञान नहीं है और सदाशिव से श्रेष्ठ देवता कोई नहीं है ।।93।।

नास्ति भावस्तु मध्यस्थान् नास्ति दुर्गा-समं पद्म ।

सोऽहं सोऽहं पुनः सोऽहं सोऽहमित्येव जायते ॥94।।

मध्यस्थ भाव से श्रेष्ठ भाव नहीं है। दुर्गा के तुल्य स्थान भी नहीं है। मैं वही हूँ। वही मैं हूँ । एवं विधि ‘सोऽहं’ ज्ञान बार-बार उत्पन्न होता है ।।94।।

तदेव चिरकालेन सोऽहं ज्ञानं प्रजायते ।

नानात्वबुद्धिं कृत्वा वै सात्त्विकी परमात्मिकाम् ॥95॥

गृहीत्वा च वरारोहे! जायते पमार्थवित् ।

ज्ञानात् परतरं नास्ति नास्ति नास्ति वरानने ! 96।।

चिरकाल के लिए वह ‘सोऽहं’ ज्ञान उत्पन्न होता है । हे वरारोहे ! परमात्मविषयक सात्त्विक नानात्व बुद्धि का परित्याग कर, ऐक्य बुद्धि को ग्रहण कर, (साधक) परमार्थवित् बन जाता है । हे वरानने ! ज्ञान से श्रेष्ठतर और कुछ भी नहीं है, नहीं है ।।95-96।।

लब्ध्वा हि तत्त्वं परमं मुच्यते देह-बन्धनात् ।

कुलवारे कुलीनस्तु कुलधर्मं कुलव्रतम् ।।97॥

(साधक) परम-तत्त्व का लाभ करके देह-बन्धन से मुक्त हो जाता है। कुलीन कुलवार में कुलधर्म का एवं कुलव्रत का आश्रय लें ।।97।।

आश्रयेत् परमानन्दः परमानन्दमेव च।

न कुलीने परा बुद्धिर्न कुलीने परा गतिः ।।98।।

परमानन्द का साधक परमानन्द का आश्रय लें । कुलीन में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं है। कुलीन में श्रेष्ठ गति नहीं है ।।98।।

न कुलीने परा मुक्तिर्न कुलीने परा क्रिया।

एवं वदति यो जन्तुः स मुक्तिं न च याति वै ॥99॥

कुलीन में श्रेष्ठ मुक्ति नहीं है। कुलीन में श्रेष्ठ क्रिया नहीं है। – इस प्रकार की बातें जो जीव करता है, वह मुक्तिलाभ नहीं करता ।।99।।

इहैव स्वर्गो देवेशि! इह कैलास-मन्दिरम्।

इहैव भुक्तिर्भक्तिश्च मुक्तिरव्यभिचारिणी 100॥

हे देवेशि ! इस पृथिवी पर ही स्वर्ग है । इस पृथिवी पर ही कैलास मन्दिर है। इस पृथिवी पर ही भोग, भक्ति एवं अव्यभिचारी मुक्ति विद्यमान है ।।100।।

1 thought on “मुण्डमालातन्त्र पटल १२ – Mundamala Tantra Patal 12

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