मुण्डमालातन्त्र पटल ७ – Mundamala Tantra Patal 7
मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित प्रथम पटल) पटल ७ में परमा विद्या के विषय में कहा गया है।
|| मुण्डमालातन्त्रम् (रसिक मोहन विरचितम्)प्रथमः पटलः ||
ॐ नमो गणेशाय ।।
कैलास-शिखरे रम्ये गन्धर्व-गण-सेविते ।
हर-वक्षः-स्थिता देवी पप्रच्छ सुर-सुन्दरी ॥1॥
गन्धर्व-गण-सेवित मनोहर कैलास पर्वत के शिखर पर, हर-वक्षःस्थिता शक्ति सुरसुन्दरी हिमालय कन्या पार्वती ने देवी-रूप में महादेव से प्रश्न किया ।।1।।
श्रीदेव्युवाच –
देवदेव! महादेव ! सृष्टि-स्थित्यन्त-कारक !।
नीलकण्ठ ! जगद्वन्द्य ! प्रभो ! शङ्कर ! भोहर ! ॥2॥
नमस्तुभ्यं जगन्नाथ ! मम नाथ ! मम प्रभो!।
शरणागत-दीनार्त्त-परित्राण-परायण !॥3॥
सर्वाधार! निराधार! साधार-धारणी-धर!।
वेद-विद्या-धराधार ! गङ्गाधर ! नमोऽस्तु ते ॥4॥
श्री देवी बोलीं – हे देवदेव ! हे महादेव ! हे सृष्टि-स्थिति-लय-कारक! नीलकण्ठ ! हे जगद्वन्ध ! हे प्रभो ! हे शङ्कर! हे हर ! हे जगन्नाथ ! हे मेरे स्वामी ! हे मेरे प्रभु! हे शरणागत, दीन एवं आर्त्तगणों के परित्राण-परायण! सर्वाधार! हे निराधार ! हे साधार धरणीधर ! हे वेद विद्याधर ! हे धराधर ! गङ्गाधर ! आपको नमस्कार ।।2-4।।
श्रुतं परम-मन्त्रं वै सारात्सारं परात्परम् ।।
यं श्रुत्वा शीघ्रमायान्ति शिवलोकमनामयम् ।।5।।
सारात्सार परात्पर परम मन्त्र को आप से मैंने सुना है। जिसका श्रवण (= विचार करने से उत्पन्न ज्ञान लाभ) करके, जीव अनामय शिवलोक में आगमन करता है ।5।।
कालीतन्त्रे कुब्जिकायां तथा काली-विलासके।
डामरे जामले काली-सर्वस्वे योनितन्त्रके ।।6।।
सम्मोहने विशुद्धे च तन्त्रे चैव कुलार्णवे।
मातृकाभेदतन्त्रे च समयाचार-तन्त्रके ।।7।।
वीरतन्त्रे तोडले च तन्त्रे भैरव-तन्त्रके।
ज्ञानतन्त्रे च निर्वाणे श्रुतं परममादरात्।।8।।
कालीतन्त्र में, कुब्जिकातन्त्र में, कालीविलास-तन्त्र में, डामरतन्त्र में, मामलतन्त्र में, कालीसर्वस्वतन्त्र में, योनितन्त्र में, सम्मोहन तन्त्र में, विशुद्धतन्त्र में, कुलार्णव तन्त्र में, मातृकाभेद तन्त्र में, समयाचार तन्त्र में, वीरतन्त्र में, तोड़लतन्त्र में, भैरवतन्त्र में, ज्ञानतन्त्र में एवं निर्वाणतन्त्र में आदर के साथ परम तत्त्व-श्रेष्ठ विषयों का श्रवण कर चुकी हूँ ।।6-8।।
इदानीं श्रोतुमिच्दामि गुह्यात् गुह्यतरं परम् ।
सारात्सारतरं देव! पावनं सर्वदेहिनाम् ।
श्रुत्वा जीवः शिवत्वञ्च लभते नात्र संशयः ॥9॥
हे देव ! सम्प्रति समस्त जीवों के लिए पवित्र-कारक, गुह्य से गुह्यतर एवं सार से सारतर, श्रेष्ठ विषय को सुनने की इच्छा कर रही हूँ । इसे सुनकर जीव शिवत्व का लाभ करता है, इस विषय में कोई संशय नहीं है ।।9।।
श्री शिव उवाच –
धन्यासि पतिभक्तासि प्राणतल्यासि शङ्कर!।
योषिच्चपलभावत्वात् पुरा नोक्तं त्वयि प्रिये !।
इदानीं स्थिरतां ज्ञात्वा कथयामि त्वयि प्रिये ! ॥10॥
श्री शिव ने कहा – हे शङ्कर ! आप धन्या हैं । आप पतिभक्ता हैं एवं आप मेरे लिए प्राणतुल्या हैं । हे प्रिये ! स्त्रीजनों की चपलता से प्रयुक्त होने से, इससे पूर्व इस विषय को आपसे नहीं कहा था । सम्प्रति आपको स्थिर (एकाग्र) जानकर आपको इस गुह्य विषय का श्रवण करा रहा हूँ ।
अस्ति चैकं मुण्डमालातन्त्रं परम-साधनम् ।
ज्ञात्वा जीवः शिवो भूत्वा विहरेत् क्षिति-मण्डले ।।11।।
परम साधन मुण्डमाला नामक एक तन्त्र है। जीव इसे जानकर, इस क्षितिमण्डल पर शिव बन कर विचरण कर सकता है।
अतिगोप्यं महेशानि! तन्त्रराजं मनोहरम् ।
मुण्डे मुण्डे च कथितं मण्डमालेति कीर्त्तितम् ।
शृणु गुह्यं वरारोहे ! किं पृच्छसि नगात्मजे ! ॥12॥
हे महेशानि ! यह मनोहर श्रेष्ठ तन्त्र अति गोपनीय है यह एक-एक मुण्ड (=मुख) में कहा गया है, इसलिए मुण्डमाला’ नाम से कीर्त्तित हुआ है। हे वरारोहे ! हे नगात्मजे ! क्या आप गुह्य विषय की जिज्ञासा कर रही हैं ? इसे श्रवण करें ।।
श्रीपार्वत्युवाच –
‘देवदेव! महादेव! विश्वनाथ! महेश्वर !।
त्रयाणामेवमाचारं त्रयाणां भावशोधनम् ।
त्रयाणां समयाचारं येन दुर्गा प्रसीदति ॥13॥
श्री पार्वती ने कहा – हे देवदेव ! हे महादेव ! हे महेश्वर ! जिससे दुर्गा प्रसन्न हों, इस प्रकार दिव्य, वीर एवं पशु – इन तीनों का आचार, इन तीनों का भाव-शोधन एवं इन तीनों का समयाचार इन्हें बतावें ।।13।।
श्री शिव उवाच –
यथा काली तथा तारा तथा त्रिपुरसुन्दरी ।
भैरवी भुवना विद्या छिन्ना च बगलामुखी ॥14॥
धूमावती चान्नपूर्णा दुर्गा च कमलात्मिका ।
मातङ्गी धनदा पद्मावती सर्वार्थसिद्धिदा ॥15॥
श्री शिव ने कहा – काली जैसी हैं, तारा भी वैसी हैं, त्रिपुर-सुन्दरी भी उसी प्रकार हैं। इनमें कुछ भी तारतम्य नहीं है। महाविद्या भैरवी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, धूमावती, अन्नपूर्णा, दुर्गा, कमला, मातङ्गी, धनदा पद्मावती – ये सभी समस्त विषयों में सिद्धि प्रदान करती हैं ।।14-15।।
नाना देवि ! महाविद्या चोपविद्या पृथक्-पृथक् ।
नानातन्त्रे महेशानि कथिता शिव-सुन्दरि !।।16।।
हे महेशानि ! जिस प्रकार महाविद्या अनेक हैं एवं भिन्न-भिन्न हैं, उपविद्या भी उसी प्रकार भिन्न-भिन्न हैं। हे शिव सुन्दरि ! इसे नाना तन्त्रों में मैं बता चुका हूँ ।।16।।
आचारं त्रिविधं दिव्यं दक्षिणं दक्षिणेतरम् ।
मुण्डमाला-महातन्त्रं सर्वेषां ज्ञानसाधनम् ।।17।।
दिव्याचार, दक्षिणाचार एवं वामाचार-भेद से आचार त्रिविध है। यह मुण्डमालातन्त्र समस्त जीवों के लिए ज्ञान का साधन है ।।17।।
एका दुर्गा महेशानि! एको देवः सदाशिवः ।
अहमेकः शिवो देवो नान्यो देवः कथञ्चन ।।18।।
हे महेश्वरि ! देवी दुर्गा एक हैं, देव भी एक हैं – सदाशिव । मैं ही एक शिव हूँ, देव हूँ। अन्य कोई किसी प्रकार से देव नहीं है ।।18||
सा वै भवानी में पत्नी सर्वदा ज्ञानमालभेत् ।
तदैव जायते सिद्धिर्भक्तिरव्यभिचारिणी ॥19॥
मेरी पत्नी ही वह भवानी है – इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सदा यत्नशील बनो । जब इस ज्ञान को प्राप्त करते हैं, तभी सिद्धि एवं अव्यभिचारिणी भक्ति उत्पन्न होती है ।
ज्ञानं विना परं तत्त्वं न जानामि महीतले ।
अत एव परं ज्ञानं भावयेत् सर्वकोविदः ।।20।
इस भूमण्डल पर ज्ञान के अतिरिक्त किसी को भी श्रेष्ठ तत्त्व के रूप में मैं नहीं जानता हूँ। समस्त विज्ञ व्यक्ति ज्ञान को श्रेष्ठ तत्त्व के रूप में जानते हैं। अतः समस्त विद्वान् व्यक्ति श्रेष्ठ ज्ञान का उत्पादन करें ।
दुर्लभं शृणु देवेशि! मम साधन-कारणम् ।
अतः परतरं देवि! दुर्जेयं पर-साधनम् ।।21 ।।
हे देवेशि ! सुनें, मेरी सिद्धि का कारण दुर्लभ है । हे देवि ! इसकी अपेक्षा श्रेष्ठतर परा-सिद्धि और भी दुर्जेय है ।
सर्वशान्ति-करञ्चैव सर्वदुःखहरं परम् ।
सर्वरोग-क्षयकरं सर्वसाधन-शोधनम् ।।22 ।।
समस्त साधनों की शुद्धि ही सभी के लिए शान्तिकारक है, सर्वदुःखों का श्रेष्ठ नाशक एवं सर्वरोगों का श्रेष्ठ क्षयकारक है ।।22 ।।
ब्रह्मादीनाञ्च दुर्लभ्यं सर्वेषां शिवदुर्लभम् ।
यः शाक्तो धरणीमध्ये स शिवो नात्र संशयः ।।23 ।।
इन समस्त साधनों की शुद्धि ब्रह्मादि समस्त देवताओं के लिए दुर्लभ है, शिव के लिए भी दुर्लभ है। इस पृथिवी पर, जो शाक्त है, वही शिव है- इस विषय में कोई संशय नहीं है ।।23।।
यासां विज्ञानमात्रेण जीवन्मुक्तः प्रजायते ।
भक्त्या भक्त्या जपेन्मन्त्रं साधको धरणीतले ।
जीवनमुक्तः सदा मुक्तः सर्वकर्मसु कोविदः ॥24॥
इन समस्त विद्याओं के ज्ञानमात्र से ही (साधक) जीवन्मुक्त हो जाता है। साधक इस पृथिवीतल पर, उन समस्त विद्याओं के मन्त्र को अत्यन्त भक्ति के साथ जप करें। वैसा करने पर, वह साधक समस्त कर्मों में पण्डित बन जायेंगे; बाद में जीवन्मुक्त होकर सदा के लिए मुक्त हो जायेंगे ।।24।।
योडन्येभ्यो दर्शनेभ्यश्च भक्तिं मुक्तिञ्च काङ्क्षति ।
स्वप्नलब्ध-धनेनैव धनवान् जायेत यदि ।।25।।
शुक्तौ रजत-विभ्रान्तिर्यथा जायेत पार्वति !।
तथाऽन्यदर्शनेभ्यश्च भक्तिं मुक्तिञ्च काङ्क्षति ॥26॥
जो व्यक्ति अन्य दर्शन से भक्ति एवं मुक्ति की आकाङ्क्षा करता है, यदि स्वप्नलब्ध धन के द्वारा धनवान् बन सकते हैं, तब अन्य दर्शन से भी वह भक्ति एवं मुक्ति प्राप्त कर सकता है । हे पार्वति ! शक्ति में जिसप्रकार लोगों को रजत की विभ्रान्ति होती है, उसी प्रकार अन्य दर्शन से भक्ति एवं मुक्ति की आकाङ्क्षा होती है ।।25-26।।
विना दुर्गा न मे ज्ञानं विना दुर्गा न मे रतिः।
विना दुर्गा न निर्वाणं सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।।27।।
दुर्गा के अतिरिक्त मेरा ज्ञान नहीं है, दुर्गा को छोड़कर मेरी अन्यत्र रति भी नहीं है। दुर्गा को छोड़कर मेरा निर्वाण मुक्ति भी नहीं है – यह मैं सत्य, सत्य बता रहा हूँ ।
न त्याज्या भक्तिरमला प्रेयसी परमा क्रिया ।
शक्तिद्वयं समाश्रित्य शक्तेः परम-पूजकः ॥28॥
शक्ति के परम पूजक साधक दो शक्तिओं (= क्रियाशक्ति एवं ज्ञानशक्ति) को आश्रय करके रहें। अतिप्रिय परमक्रिया-रूप अतुलनीया भक्ति का कदापि त्याग न करें ।।28।।
आद्यं देवि! सुदेर्जेयं मध्यं पञ्चविभूषितम् ।
शेष कुलमये ! लेशं नास्ति नास्ति वरानने ! ॥29॥
हे देवि ! आद्य तत्त्व अतीव दुर्जेय है। मध्य तत्त्व पाँच के द्वारा विभूषित हैं । हे कुलमये ! हे वरानने ! अन्त्य (तत्त्व) लेश मात्र भी नहीं है – नहीं है ।
सत्यं वच्मि हितं वच्मि पूर्ववमि वरानने !।
विना दुर्गा-परिज्ञानात् को वा तरति कोविदः ॥30॥
हे वरानने ! मैं सत्य बता रहा हूँ, हित को बता रहा हूँ। मैं पुनः बता रहा हूँ – दुर्गा के तत्त्वज्ञान के बिना कोई पण्डित संसार-दुःख से उत्तीर्ण हो सकता है क्या ? अर्थात् कोई नहीं हो सकता है ।
को वेद परमं तत्वं को वेद निखिलं पद्म ।
को वेद भैरवाचारं यो वेद स च कोविदः ।
स कुलीनः स शूरश्च स पञ्चम-विभूषितः ॥31॥
कौन परम तत्त्व को जान सकता है ? अर्थात् कोई नहीं। सभी के गन्तव्य स्थान को कौन जानता है ? अर्थात् कोई नहीं जानता । कौन भैरवाचार जानता है? जो जानता है, वह पण्डित है ।।311
यो जानाति जगद्धात्रि! जगदीशे! जयावहे !।
मध्यस्थं पार्वती-तत्त्वं न पुनर्देहभाग् भवेत् ।।32।।
वह कुलीन है, वही वीर है, वही पञ्चम के द्वारा विभूषित है । हे जगद्धात्रि ! हे जगदीशे ! हे जयावहे ! जो मध्यवर्ती पार्वती-तत्त्व को जानता है, वह पुनः देहधारण नहीं करता है ।।32।।
आदौ गुरुं समभ्यर्च्य अन्ते परम-साधनम् ।
क्रियाशक्तिरतो जन्तुः सर्वभाग जायते खलु ॥33॥
जीव क्रियाशक्ति से युक्त होकर पहले गुरु की सम्यक् रुप में अर्चना करके, अन्त में, परम साधन पार्वती-तत्त्व की अर्चना एवं भावना करें । वैसा करने पर, वह सर्वभाग (सर्वशाली) बनकर जन्मग्रहण करता है ।
निदानं नास्ति दुर्गाया ममैव जगदम्बिके !।
अन्येषामस्ति वै सर्गो धरणीतल-केतने ॥34॥
हे जगदम्बिके ! दुर्गा में निदान (=मूलकारण) नहीं है, मेरा भी निदान नहीं है। इस धरणीतल-रूप गृह में अन्य सभी की अवश्य ही सृष्टि होती है ।
अतः सत्यं पुनः सत्यं पुनः सत्यं वदाम्यहम् ।
भावाभाव-समायुक्ताः यन्ति मोक्षं निरामयाः ।।35।।
मैं बारम्बार सत्य, सत्य, सत्य बता रहा हूँ कि-जीवगण भावाभाव-युक्त होने पर, निरामय बनकर मोक्षलाभ करते हैं ।
या पृच्छा ते निगदिता सर्वं जानामि शङ्करि!।
विदिता परमा विद्या कराल-वदना शिवा ।।36।।
हे शङ्करि ! मैं सब कुछ जानता हूँ। आपकी जो जिज्ञासा है, वह आपसे बता चुका हूँ। करालवदना शिवा, आपने परमा-विद्या को जान लिया है ।।36।।
एतस्याश्चरितं यत्तु एतस्याः साधकस्य च ।
चरितं दुर्लभं लोके तेषां मध्ये वदाम्यहम् ।।37।।
इस परमा-विद्या का जो चरित है, एवं इनके साधक का जो चरित है, वह इस लोक में दुर्लभ है। उसी में मैं कुछ बता रहा हूँ ।
गुरुरेकः शिवः साक्षात् गुरुः सर्वार्थसाधकः ।
गुरुरेव परं तत्त्वं सर्वं गुरुमयं जगत् ।।38।।
गुरु एक हैं एवं साक्षात् शिवस्वरूप हैं। गुरु समस्त पुरुषार्थों के साधक हैं। गुरु ही परम तत्त्व हैं। यह समस्त जगत् गुरुमय है ।
विना गुरु-प्रसादेन कोटिपुश्चरेण किम् ।
गुरुपूजां विना देवि ! न हि सिध्यति भूतले ॥39॥
गुरु के प्रसाद (अनुग्रह) के बिना कोटि पुरश्चरणों से क्या होता है ? अर्थात् कुछ नहीं होता है । हे देवि ! गुरुपूजा के बिना भूतल पर कुछ भी सिद्ध नहीं होता है ।
गुरुपूजां विना देवि! इष्ट-पूजां करोति यः।
मन्त्रस्य तस्य तेजांसि हरते भैरवः स्वयम् ।।40॥
हे देवि ! जो व्यक्ति गुरुपूजा को छोड़कर इष्ट देवता की पूजा करता है । स्वयं भैरव उसके मन्त्र के तेज (शक्ति) का हरण कर लेते हैं ।।40।।
देवता-गुरु-मन्त्रणामैक्यं सम्भावयन् धिया ।
तदा सिद्धो भवेन्मन्त्रः प्रकटे हानिरेव च ।।41।।
साधक निज बुद्धि के द्वारा देवता, गुरु एवं मन्त्र में ऐक्य की भावना करते हुए देवता की आराधना करें। वैसा करने पर, मन्त्र सिद्धि होता है। देवता, गुरु एवं मन्त्र प्रकट (= विभिन्नरूप में व्यक्त) रहने पर, मन्त्र की हानि होती है अर्थात् सिद्धि नहीं होती है ।।41 ।।
श्रीपार्वत्युवाच –
ऐक्यज्ञानं महादेव ! कथमुत्पद्यते प्रभो!।
नराकृतिं गुरुं मन्ये देवता ध्यान-रूपिणी।
मन्त्रश्चाक्षर-रूपेण कथमैक्यं भवेच्छिव ! 142।।
श्रीपार्वती ने कहा – हे महादेव ! हे प्रभो ! देवता, गुरु एवं मन्त्र में ऐक्यज्ञान किस प्रकार उत्पन्न होता है ? गुरु को मनुष्याकार जानता हूँ। देवता को ध्यानरूपिणी अर्थात् ध्यान में जिस रूप या आकार को कहा गया है, देवता को तदाकार मानता हूँ। मन्त्र तो अक्षर-रूप में वर्तमान है ही। हे शिव ! इनमें ऐक्य किस प्रकार होता है ।।42।।
श्री शिव उवाच –
धन्यासि प्राणतुल्यासि पतिभक्तासि पार्वति !।
एकजाति-स्वरूपेण स्वभावादेक-जन्मतः ।।43।।
श्री शिव ने कहा – हे पार्वति ! आप धन्या है। आप पतिभक्ता हैं । आप मेरे लिए प्राणतुल्या हैं । स्वभावतः जो कुछ एक (=मूल) व्यक्ति से उत्पन्न होता है, वे सभी एक से उत्पन्न होने के कारण एकजाति-रूप में एक ही होता है ।।43 ।।
एतेषां भावयोगे तु एक-साधनमेव हि ।
गुरोर्जातश्च मन्त्रश्च मन्त्राज् जाता तु सुन्दरी ॥44॥
एवंविध भावना का योग होने पर ही गुरु, देवता एवं मन्त्र में ऐक्य की सिद्ध होती है। गुरु से मन्त्र उत्पन्न हुआ है। मन्त्र से देवता की उत्पत्ति हुई है ।।44।।
अत एव वरारोहे! देवतायाः पितामहः ।
पितुश्च भावना चैव तथा चैव पितुः पितुः।
तदुद्भवस्तोषमेति विपरीते विपर्ययः ॥45॥
इसलिए हे वरारोहे ! देवता के पितामह हैं गुरु । हे देवि! पुत्र के साथ पिता की एक्य-भावना होने पर, पितृजात पुत्र जिस प्रकार सन्तोष-लाभ करता है, उसी प्रकार पिता के साथ पिता के पिता- पितामह की ऐक्य भावना होने पर भी तदुत्पन्न पुत्र सन्तोष लाभ करता है। अर्थात् पिता के साथ पुत्र अभिन्न होने पर, पितामह के साथ पुत्र भी अभिन्न ही होगा। वैसा होने पर, सभी एक ही हुए। इसके विपरित होने पर,विपर्यय (असन्तोष) होता है।
गुरुः कर्त्ता गुरुहर्ता गुरुः पाता महीतले।।
गुरु-सन्तोषमात्रेण तुष्टा स्युः सर्वदेवताः ॥46॥
इस भूमण्डल पर गुरु कर्ता हैं, गुरु हर्ता (ध्वंसकारी) हैं एवं गुरु पाता (पालनकारी) हैं। गुरु के सन्तोषमात्र से ही समस्त देवता सन्तुष्ट हो जाते हैं ।
गुरौ तुष्टे शिवस्तुष्टो रुष्टे रुष्टस्त्रिलोचनः ।
गुष्टौ तुष्टे शिवा तुष्टा रुष्टे रुष्टा तु सुन्दरि ! ॥47।।
गुरु सन्तुष्ट होने पर शिव सन्तुष्ट होते हैं। गुरु रुष्ट होने पर, त्रिलोचन रुष्ट हो जाते हैं । हे सुन्दरि ! गुरु तुष्ट होने पर, शिवा तुष्टा होती हैं, गुरु रुष्टा होने पर शिवा रुष्टा होती हैं ।
अतो गुरुर्महेशानि संसारार्णव-लङ्कने ।
कर्ता हर्ता च पाता च गुरुर्मोक्ष-प्रदायकः ॥48।।
इसलिए हे महेशानि ! संसार-समुद्र के लङ्घन करने में गुरु एकमात्र अवलम्बन हैं। गुरु ही कर्ता, हर्ता एवं पाता हैं। गुरु ही मोक्षदाता हैं ।।48 ।।
जीवः शिवः शिवो देवः स जीवः केवलः शिवः ।
पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः ।।49।।
जीव (वस्तुतः) शिव है। शिव हैं देव । वह जीव केवल शिव-स्वरूप है। पाशबद्ध होने पर पर जीव होता है, पाश-मुक्त होने पर सदाशिव बन जाते हैं ।।49।।
प्रणम्य गुरु-पादाब्जं ध्यात्वा च गुरु-पादुकाम् ।
ज्ञात्वा च परमं तत्त्वं यो यजेद् कुलचण्डिकाम् ।।50।।
श्रीगुरु के पादपद्म को प्रणाम कर, श्रीगुरु पादुका का ध्यान कर, परम तत्त्व को जानकर जो व्यक्ति कुलचण्डिका की अर्चना करता है।
स कृतार्थः स धन्यश्च स कुलज्ञः स पण्डितः ।
स भावज्ञो महादेवि ! जायते नात्र संशयः ।।51॥
वह व्यक्ति कृतार्थ है, वह व्यक्ति धन्य है, वह व्यक्ति कुलज्ञ है एवं वह व्यक्ति पण्डित है। हे महादेवि ! वह व्यक्ति भावज्ञ होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।
ध्यातः स्मृतः पूजितो वा नमितो वापि यत्नतः।
ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि पूजकानां विमुक्तिदः ।।52।।
इष्टदेव का यत्नपूर्वक ध्यान करने पर या स्मरण करने पर या पूजा करने पर या यत्नसहित ज्ञानपूर्वक अथवा अज्ञानपूर्वक प्रमाण करने पर वह साधकों के लिए मुक्तिदाता बन जाते हैं ।
चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिणः ।
उपासकानां सिद्धयर्थं ब्रह्मणो रूपकल्पना ।।53॥
उपासकों की सिद्धि के लिए अशरीर, निष्कल (निरवयव), चिन्मय, अद्वितीय ब्रह्म के नाना रूपों की (मूर्तियों की) कल्पना की गयी है ।।53 ।।
सर्वदेवमयीं देवीं सर्वदेवमयीं पराम् ।
आत्मानं चिन्तयेद् देवीं परब्रह्म-स्वरूपिणीम्।।54॥
देवी को सर्वदेवमयी के रूप में चिन्तन करें । सर्वदेवमयी को परादेवता के रूप में चिन्तन करें। आत्मा को परब्रह्म-स्वरूपिणी देवी के रूप में चिन्तन करें ।।54।।
विद्या च निष्कलङ्का च निराधारा निराश्रया ।
सर्वाधारा निराधारा विजया च जयावहा ।।55।।
विद्यारूपा वह महामाया निष्कलङ्का हैं अर्थात् उनमें कोई दोष नहीं है, उनका कोई आधार नहीं है, इसलिए वह निराधार हैं, उनका कोई आश्रय नहीं है, इसलिए वह निराश्रया हैं। वह निराधार होकर भी सभी के लिए आधार हैं। वह विजया बनकर सभी को जय प्रदान करती हैं ।।55।।
सगुणा निर्गुणा चेति महामाया द्विधा मता।
सगुणा मायया युक्ता तया हीना च निर्गुणा ।।56॥
सगुणा एवं निर्गुणा भेद से महामाया दो प्रकार की हैं-ऐसा कहा गया है। महामाया जब माया के द्वारा युक्त हो जाती हैं, तब वह सगुणा हैं, जब वह माया रहित बन जाती हैं, तब वह निर्गुणा हैं ।
सगुणा च यदा देवी सगुणोऽहं सदाशिवः ।
निर्गुणा त्वं महामाये! निर्गुणोऽहं न संशयः ॥57।।
जब महादेवी सगुणा बनती हैं, तब मैं सदाशिव भी सगुण बन जाता हूँ। हे महामाये ! जब आप निर्गुणा बनती हैं, तब मैं भी निर्गुण बन जाता हूँ। इसमें कोई संशय नहीं है ।
त्वमेव निर्गुणा शक्ति रहमेव च निर्गुणः ।
यो भजेत् सगुणो देवि ! चाचिरात् सोऽपि निर्गुणः ।।58॥
आप ही निर्गुण शक्ति हैं और मैं भी निर्गुण ब्रह्म हूँ। जो सगुण होकर भी देवी की भजन करते हैं, वह शीघ्र ही निर्गुण बन जाते हैं ।।58 ।।
गुणातीतं परं ब्रह्म निरीहं वर्णवर्जितम् ।
तदेव परमा विद्या काल्यादि-सगुणात्मिका ।।59॥
परब्रह्म को गुणातीत, निरीह (= निर्व्यापार) एवं वर्ण (= जाति) -रहित जानें । वही परमा विद्या हैं । काली प्रभृति सगुण-सरूपा हैं ।।59।।
साधकस्य हितार्थाय शाक्तस्यानुग्रहाय च ।
अत्थिता परमा विद्या सगुणा नात्र संशयः ।।60॥
साधक के हित के लिए एवं शाक्त साधक के अनुग्रह के लिए परमा विद्या, महाविद्या काल्यादि सगुणा-रूपों में आविर्भूता हई हैं। इसमें कोई संशय नहीं है ।
इति मुण्डमालातन्त्र पार्वतीश्वर-सम्वादे प्रथमः पटलः ।।1।।
हरपार्वती के संवाद-रूप मुण्डमालातन्त्र के प्रथम पटल का अनुवाद समाप्त ।।1।।