नृसिंह स्तोत्र – Nrisinha Stotra

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जो मनुष्य इस नृसिंह स्तोत्र का जितेन्द्रिय होकर पाठ करता है, भगवान् श्रीनृसिंह निश्चित ही उसके दुःखसमूह को नष्ट कर देते हैं और उसके समस्त मनोरथ को पूर्ण करते हैं।

अन्धकासुर का विनाश करने के लिये भगवान् शंकर ने जिन मातृकाओं की सृष्टि की थी, उन्हें त्रैलोक्य का भक्षण करते देख करके कि- पहले इन मातृकाओं की सृष्टि करके अब स्वयं मैं कैसे इनका विनाश करूँ? यह मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। यह सोचकर शिवजी ने भगवान् नृसिंह का ध्यान किया

नृसिंहस्तोत्रम्

अनादिनिधनं देवं सर्वभूतभवोद्भवम् ।

विद्युज्जिह्वं महादंष्ट्रं स्फुरत्केसरमालिनम् ॥ १ ॥

जो आदि-अन्त से रहित एवं समस्त चराचर जगत्के कारण हैं, विद्युत्के समान लपलपाती हुई जिनकी जिह्वा है, जिनके बड़े-बड़े महाभयंकर दाँत हैं, जिनकी ग्रीवा देदीप्यमान केसर(सिंह की ग्रीवा के ऊपरी भाग के केशसमूह को केसरकहते हैं।) से सुशोभित है।

रत्नाङ्गदं समुकुटं हेमकेसरभूषितम् ।

खोणिसूत्रेण महता काञ्चनेन विराजितम् ॥ २ ॥

जो रत्नजटित अङ्गद एवं मुकुट से सुशोभित हैं। जिनका शिरोभाग सोने के समान दिखायी देनेवाली जटाओं से युक्त है, जिनके कटिप्रदेश में सोने की करधनी है।

नीलोत्पलदलश्यामं रत्ननूपुरभूषितम् ।

तेजसाक्रान्तसकलब्रह्माण्डोदरमण्डपम् ॥ ३ ॥

जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण के हैं, जो रत्नखचित पायल धारण किये हुए हैं। जिनके तेज से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्याप्त है।

आवर्तसदृशाकारैः संयुक्तं देहरोमभिः ।

सर्वपुष्पैर्योजिताञ्च धारयंश्च महास्त्रजम् ॥ ४ ॥

जिनका शरीर आवर्ताकार रोमसमूह से युक्त है और जो देव श्रेष्ठतम पुष्पों से गूँथी गयी एक विशाल माला को धारण किये हुए हैं।

स ध्यातमात्रो भगवान्प्रददौ तस्य दर्शनम् ।

यादृशेन रूपेण ध्यातो रुद्रैस्तु भक्तितः ॥ ५ ॥

इस तरह भगवान् रुद्र ने भक्तिपूर्वक जिस रूप में नारायण का ध्यान किया था, उसी रूप में ध्यान करने मात्र से नृसिंहदेव श्रीविष्णु ने उन्हें अपना दर्शन दिया।

तादृशेनैव रूपेण दुर्निरीक्ष्येण दैवतैः ।

प्रणिपत्य तु देवेशं तदा तुष्टाव शङ्करः ॥ ६ ॥

यह रूप देवताओं के द्वारा भी दुर्निरीक्ष्य था । शिव ने देवेश नृसिंह को प्रणाम करके उन्हें तुष्ट किया और वे इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे।

नृसिंह स्तोत्रम्

शङ्कर उवाच ।

नमस्तेऽस्त जगन्नाथ नरसिंहवपुर्धर ।

दैत्येश्वरेन्द्रसंहारिनखशुक्तिविराजित ॥ ७ ॥

शंकरजी ने कहा- हे समस्त संसार के स्वामी! हे नृसिंहरूपधारिन् ! हे दैत्यराज हिरण्यकशिपु के वक्षःस्थल को विदीर्ण करनेवाले ! शुक्तियों के समान चमकीले नाखूनों से सुशोभित देव ! आपको नमस्कार है।

नखमण्डलसभिन्नहेमपिङ्गलविग्रह ।

नमोऽस्तु पद्मनाभाय शोभनाय जगद्गुरो ।

कल्पान्ताम्भोदनिर्घोष सूर्यकोटिसमप्रभ ॥ ८ ॥

हे नखमण्डल की कान्ति से मिश्रित सुवर्ण के समान देदीप्यमान शरीरवाले! हे जगद्वन्द्य! हे शोभासम्पन्न भगवान् पद्मनाभ! प्रलय कालीन मेघ के सदृश गर्जना करनेवाले, करोड़ों सूर्य के समान प्रभासम्पन्न देव! आपको नमन है।

सहस्रयमसंत्रास सहस्रेन्द्रपराक्रम ।

हसस्त्रधनदस्फीत सहस्रचरणात्मक ॥ ९ ॥

दुष्ट पापियों को हजारों यमराज के समान भयभीत करनेवाले! हजारों इन्द्र की शक्ति अपने में संनिहित रखनेवाले! हजारों कुबेर के सदृश धनसम्पन्न! हजारों चरण से युक्त हे देव! आपको नमस्कार है।

सहस्रचन्द्रप्रतिम ! सहस्रांशुहरिक्रम ।

सहस्ररुद्रतेजस्क सहस्रब्रह्मसंस्तुत ॥ १० ॥

हजारों चन्द्र के समान शीतल कान्तिवाले! हजारों सूर्य के सदृश पराक्रमशाली! हजारों रुद्र की भाँति तेजस्वी ! हजारों ब्रह्मा से स्तुत्य हे देव! आपको मेरा नमन है।

सहस्ररुद्रसंजप्त सहस्राक्षनिरीक्षण ।

सहस्रजन्ममथन सहस्रबन्धनमोचन ॥

सहस्रवायुवेगाक्ष सहस्राज्ञकृपाकर ॥ ११ ॥

हजारों रुद्र देवताओं के द्वारा मन्त्ररूप में जप करने योग्य महामहिम ! इन्द्र के हजारों नेत्रों से देखे जानेवाले! हजारों जन्म के पाप-पुण्यों का मन्थन करनेवाले! संसार के हजारों जीवों का बन्धन काटकर उन्हें मुक्त करनेवाले! हजारों वायुदेवों के समान वेगवान् और हजारों मूर्ख प्राणियों पर कृपा करनेवाले हे दयानिधान! आपको मेरा नमस्कार है।

नृसिंहस्तोत्र फलश्रुति:

नारसिंहमिदं स्तोत्रं यः पठेन्नियतेन्द्रियः ।

मनोरथप्रदस्तस्य रुद्रस्येव न संशयः ॥ १ ॥

जो मनुष्य नियमपूर्वक इस नारसिंहस्तोत्र का जितेन्द्रिय होकर पाठ करता है, निश्चित ही भगवान् हरि उसके समस्त मनोरथ को वैसे ही पूर्ण करते हैं जैसे उन्होंने शिव के मनोरथ को पूर्ण किया था।

ध्यायेन्नृसिंहं तरुणार्कनेत्रं सिदाम्बुजातं ज्वलिताग्निवत्क्रम् ।

अनादिमध्यान्तमज पुराणं परापरेशं जगतां निधानम् ॥ २ ॥

मध्याह्नकालीन प्रचण्ड सूर्य के समान तेजस्वी नेत्रोंवाले, श्वेत वर्ण के कमल में स्थित प्रज्वलित अग्नि के सदृश भयंकर, अनादि, मध्य और अन्त से रहित पुराणपुरुष, परात्पर, जगदाधार भगवान् नृसिंह का ध्यान करना चाहिये ।

जपेदिदं सन्ततदुः खजालं जहाति नीहारमिवांशुमाली ।

समातृवर्गस्य करोति मूर्तिं यदा तदा तिष्ठति तत्समीपे ॥ ३ ॥

जो मनुष्य इस स्तोत्र का निरन्तर जप करता है, उसके दुःखसमूह को श्रीनृसिंह उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं जिस प्रकार अंशुमाली सूर्य कुहरे की राशि को अपने सामने से हटा देते हैं। जब साधक कल्याणकारी मातृवर्ग से युक्त नृसिंहदेव की मूर्ति का निर्माण करके उनकी पूजा करता है, तब वह सदैव उन परात्परदेव के समीप में ही रहता है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे नृसिंहस्तोत्रं संपूर्णम् ॥

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