पितृस्त्रोत || PITRI STOTRA

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यह पितृस्त्रोत PITRI STOTRA श्रीमार्कण्डेय पुराण ९७ अध्याय श्लोक ३-१३ में वर्णित है । इस स्तोत्र की महिमा और फल को स्वयं पितृगण ने महर्षि रूचि से इस प्रकार कहा है – इस स्तोत्र से जो मनुष्य भक्ति पूर्वक हमारी स्तुति करेगा उससे सन्तुष्ट होकर हम उसे भोग और उत्तम आत्मज्ञान शरीर की आरोग्यता, धन, पुत्र, पौत्रादिक देंगे। जिन लोगों को कुछ आकांक्षा हो उन्हें निरन्तर इस स्तोत्र से हमारी स्तुति करनी चाहिये। हमको प्रसन्न करने वाले इस स्तोत्र को यदि मनुष्य श्राद्ध में भोजन करते हुए ब्राह्मणों के आगे खड़ा होकर भक्तिपूर्वक पढ़े तो इस स्तोत्र के सुनने को हम प्रसन्न होकर वहाँ रहेंगे और हमारा वह श्राद्ध अक्षय होगा, इसमें सन्देह नहीं। चाहे श्राद्ध में पण्डित न हो, अथवा कोई विघ्न हो जाय, अथवा अन्याय से संचित धन से श्राद्ध किया जाय तथा चाहे श्राद्ध के अयोग्य थौर जूठे पदार्थों से उसको सम्पन्न किया जाय और उसे कुसमय, कुदेश और बिना विधि के ही किया जाय अथवा चाहे उसे श्रद्धा के बिना, दम्भ का आश्रय लेकर ही किसी मनुष्य ने किया हो परन्तु ऐसे श्राद्ध से भी यदि उसमें यह स्तोत्र पढ़ा जायगा तो हमारी तृप्ति हो जायगी। हमको सुख देने वाला यह स्तोत्र जिस श्राद्ध में पढ़ा जाता है उससे हमारी बारह वर्ष तक तृप्ति रहती है। हेमन्त ऋतु में श्राद्ध करके इस स्तोत्र को पढ़ने से हमारी बारह वर्ष तक तृप्ति रहती है तथा शिशिर ऋतु में ऐसा करने से यह स्तोत्र चौबीस वर्ष तक हमको तृप्त रखता है। बसन्त ऋतु में श्राद्ध करके इस स्तोत्र को पढ़ने से सोलह वर्ष तक और उसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु में भी ऐसा करने से यह स्तोत्र हमको सोलह वर्ष तक तृप्त रखता है। हे रुचि ! यदि श्राद्ध में कर्ता को विफलता होजाय, तो भी इस स्तोत्र की साधना से और वर्षा ऋतु में श्राद्ध करके इसको पढ़ने से हमारी अक्षय तृप्ति होती है। शरद ऋतु में श्राद्ध-समय पढ़ा हुआ यह स्तोत्र हम लोगों को पन्द्रह वर्ष तक तृप्ति-कारक है। जिस घर में कि इस स्तोत्र को लिख कर रक्खा जायगा वहाँ हम श्राद्ध में हर समय समीप रहेंगे। इसलिये हे महाभाग ! तुमको श्राद्ध में भोजन करते हुए ब्राह्मणों के आगे खड़े होकर इस स्तोत्र को हमारी पुष्टि के लिये सुनाना चाहिये।

पितृस्त्रोत PITRI STOTRA

अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्। नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।

इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा। सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान्।।

मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा। तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि।।

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा। द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।

देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्। अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येहं कृताञ्जलि:।।

प्रजापते: कश्पाय सोमाय वरुणाय च। योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।

नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु। स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।

सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा। नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।

अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्। अग्रीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्रिमूर्तय:। जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।

तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतामनस:। नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज।।

इतिश्री पितृस्त्रोत PITRU STOTRA

पितृस्त्रोत PITRI STOTRA

पितृस्तोत्र

रुचिरुवाच

(सप्तार्चिस्तपम्) अमूर्त्तानां च मूर्त्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् । नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।

रुचि बोले- मैं अर्चित, अमूर्त, दीप्त-तेज वाले ध्यानी और दिव्यचक्षु वाले पितरों को नमस्कार करता हूँ॥ ३॥

इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा। सप्तर्षीणां तथान्येषां तान्नमस्यामि कामदान्।।

मैं उन अभिलाषा पूर्ण करने वाले पितरों को/ नमस्कार करता हूँ जो इन्द्र, दक्ष, मारीच, सप्तर्षि तथा अन्य देवताओं तक ले जाते हैं ॥४॥

मन्वादीनां मुनींद्राणां (च नेतारः) सूर्य्याचन्द्रमसोस्तथा । तान्नमस्याम्यहं सर्वान् पितरश्चार्णवेषु च (पितरनप्युदधावपि) ।।39।।

मनु आदि मुनीन्द्रों और सूर्य चन्द्रमा तक ले जाने वाले तथा जल श्रीर समुद्र में रहनेवाले पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ॥५॥

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा। द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।।

में हाथ जोड़कर उन पितरों को प्रणाम करता हूं जो नक्षत्र, गृह, वायु, अग्नि, श्राकाश, स्वर्ग और पृथ्वी श्रादि प्राप्त कराते हैं।

देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्। अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येहं कृताञ्जलि:।।

मैं हाथ जोड़ कर उन पितरों को प्रणाम करता है जो देवता और ऋषियों के पिता हैं तथा जिनको सब जगत् नमस्कार करता है और जो अक्षयफल के देनेवाले हैं॥७॥

प्रजापते: कश्पाय सोमाय वरुणाय च। योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।

मैं हाथ जोड़ कर प्रजापति, काश्यप, सोम, वरुण और योगेश्वर पितरों को प्रणाम करता हूँ ॥८॥

नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु। स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।

मैं सातों लोक के सातो गणों तथा स्वायम्भुव और योगचक्षु ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ ॥ ९ ॥

सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा। नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।

मैं सोम और योगमूर्ति को धारण करने वाले पितरों तथा समस्त संसार के पितर चन्द्रमा को प्रणाम करता हूं ॥१०॥

अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्। अग्रीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।

मैं अग्नि रूप उन दूसरे पितरों को नमस्कार करता हूं जिनसे कि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नीपोममय हो रहा है ॥११ ॥

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्रिमूर्तय:। जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।

वे पितर जो कि तेज में चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के समान हैं तथा जगत्त्वरूपी और ब्रह्मस्वरूपी हैं॥१२ ॥

तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतामनस:। नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज:।।

उन सब योगी, नियतात्मा और स्वधाभोजी पितरों को मैं वार-वार नमस्कार करता हूँ, वे मुझ पर प्रसन्न हों॥१३॥

इति श्रीमार्कण्डेय पुराण में रौच्य मन्वन्तर में पितृवर-प्रदान नाम ९७ वाँ अध्याय पितृस्तोत्र समाप्त ।

इस प्रकार पितृस्त्रोत PITRU STOTRA समाप्त हुआ।

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