राधा कृष्ण बलराम नाम व्याख्या || Radha Krishna Balaram Naam Vyakhya
।। राधा कृष्ण बलराम नाम व्याख्या ।।
श्री राधाकृष्णाय नम:
राधा कृष्ण बलराम नाम व्याख्या
श्री गर्गाचार्यजी ने नन्दबाबा से राधा कृष्ण बलराम नाम की व्याख्या करते हैं कि-
कृष्ण नाम व्याख्या
पूर्णब्रह्मस्वरूपोऽयं शिशुस्ते मायया महीम् ।
आगत्य भारहरणं कर्ता धात्रा च सेवितः ।।
गोलोकनाथो भगवाञ्छ्रीकृष्णो राधिकापतिः ।।
तुम्हारा यह शिशु पूर्ण ब्रह्मस्वरूप है और माया से इस भूतल पर अवतीर्ण हो पृथ्वी का भार उतारने के लिये उद्यमशील है। ब्रह्मा जी ने इसकी आराधना की थी। अतः उनकी प्रार्थना से यह भूतल का भार हरण करेगा। इस शिशु के रूप में साक्षात राधिकावल्लभ गोलोकनाथ भगवान श्रीकृष्ण पधारे हैं।
नारायणो यो वैकुंठे कमलाकांत एव च ।।
श्वेतद्वीपनिवासी यः पिता विष्णुश्च सोऽप्यजः ।।
वैकुण्ठ में कमलाकान्त नारायण हैं तथा श्वेतद्वीप में जो जगत्पालक विष्णु निवास करते हैं, वे भी इन्हीं में अन्तर्भूत हैं।
कपिलोऽन्ये तदंशाश्च नरनारायणावृषी ।।
सर्वेषां तेजसां राशिर्मूर्तिमानागतः किमु ।।
महर्षि कपिल तथा इनके अन्यान्य अंश ऋषि नर-नारायण भी इनसे भिन्न नहीं हैं। ये सबके तेजों की राशि हैं। वह तेजोराशि ही मूर्तिमान होकर उनके यहाँ अवतीर्ण हुई है।
तं वसुं दर्शयित्वा च शिशुरूपो बभूव ह ।।
सांप्रतं सूतिकागारादाजगाम तवालयम् ।।
भगवान श्रीकृष्ण वसुदेव को अपना रूप दिखाकर शिशुरूप हो गये और सूतिकागार से इस समय तुम्हारे घर में आ गये हैं।
अयोनिसंभवश्चायमाविर्भूतो महीतले ।।
वायुपूर्णं मातृगर्भे कृत्वा च मायया हरिः ।।
ये किसी योनि से प्रकट नहीं हुए हैं; अयोनिज रूप में ही भूतल पर प्रकट हुए हैं। इन श्रीहरि ने माया से अपनी माता के गर्भ को वायु से पूर्ण कर रखा था।
आविर्भूय वसुं मूर्तिं दर्शयित्वा जगाम ह ।।
युगेयुगे वर्णभेदो नामभेदोऽस्य बल्लव ।।
फिर स्वयं प्रकट हो अपने उस दिव्य रूप का वसुदेव जी को दर्शन कराया और फिर शिशुरूप हो वे यहाँ आ गये। गोपराज! युग-युग में इनका भिन्न-भिन्न वर्ण और नाम है;
शुक्लः पीतस्तथा रक्त इदानीं कृष्णतां गतः ।।
शुक्लवर्णः सत्ययुगे सुतीव्रतेजसा वृतः ।।
ये पहले श्वेत, रक्त और पीतवर्ण के थे। इस समय कृष्णवर्ण होकर प्रकट हुए हैं। सत्ययुग में इनका वर्ण श्वेत था। ये तेजःपुंज से आवृत होने के कारण अत्यन्त प्रसन्न जान पड़ते थे।
त्रेतायां रक्तवर्णोऽयं पीतोऽयं द्वापरे विभुः ।।
कृष्णवर्णः कलौ श्रीमांस्तेजसां राशिरेव च ।।
त्रेता में इनका वर्ण लाल हुआ और द्वापर में ये भगवान पीतवर्ण के हो गये। कलियुग के आरम्भ में इनका वर्ण कृष्ण हो गया। ये श्रीमान तेज की राशि हैं,
परिपूर्णतमं ब्रह्म तेन कृष्ण इति स्मृतः ।।
ब्रह्मणो वाचकः कोऽयमृकारोऽनंतवाचकः ।।
परिपूर्णतम ब्रह्म हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं। ‘कृष्णः’ पद में जो ‘ककार’ है, वह ब्रह्मा का वाचक है। ‘ऋकार’ अनन्त (शेषनाग)– का वाचक है।
शिवस्य वाचकः षश्च नकारो धर्मवाचकः ।।
अकारो विष्णुवचनः श्वेतद्वीपनिवासिनः ।।
मूर्धन्य ‘षकार’ शिव का और ‘णकार’ धर्म का बोधक है। अन्त में जो ‘अकार’ है, वह श्वेतद्वीप निवासी विष्णु का वाचक है
नरनारायणार्थस्य विसर्गो वाचकः स्मृतः ।।
सर्वेषां तेजसां राशिः सर्वमूर्तिस्वरूपकः ।।
सर्वाधारः सर्वबीजस्तेन कृष्ण इति स्मृतः ।।
तथा विसर्ग नर-नारायण-अर्थ का बोधक माना गया है। ये श्रीहरि उपर्युक्त सब देवताओं के तेज की राशि हैं। सर्वस्वरूप, सर्वाधार तथा सर्वबीज हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं।
कर्मनिर्मूलवचनः कृषिर्नो दास्यवाचकः ।।
अकारो दातृवचनस्तेन कृष्ण इति स्मृतः ।।
कृषिर्निश्चेष्टवचनो नकारो भक्तिवाचकः ।।
अकारः प्राप्तिवचनस्तेन कृष्ण इति स्मृतः ।।
कृषिर्निर्वाणवचनो नकारो मोक्षवाचकः ।।
अकारो दातृवचनस्तेन कृष्ण इति स्मृतः ।।
‘कृष्’ शब्द निर्वाण का वाचक है, ‘णकार’ मोक्ष का बोधक है और ‘अकार’ का अर्थ दाता है। ये श्रीहरि निर्वाण मोक्ष प्रदान करने वाले हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं। ‘कृष्’ का अर्थ है निश्चेष्ट, ‘ण’ का अर्थ है भक्ति और ‘अकार’ का अर्थ है दाता। भगवान निष्कर्म भक्ति के दाता हैं; इसलिये उनका नाम ‘कृष्ण’ है। ‘कृष्’ का अर्थ है कर्मों का निर्मूलन, ‘ण’ का अर्थ है दास्यभाव और ‘अकार’ प्राप्ति का बोधक है। वे कर्मों का समूल नाश करके भक्ति की प्राप्ति कराते हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं।
नाम्नां भगवतो नंद कोटीनां स्मरणेन यत् ।।
तत्फलं लभते नूनं कृष्णेति स्मरणे नरः ।।
यद्विधं स्मरणात्पुण्यं वचनाच्छ्रवणात्तथा ।।
नन्द! भगवान के अन्य करोड़ों नामों का स्मरण करने पर जिस फल की प्राप्ति होती है, वह सब केवल ‘कृष्ण’ नाम का स्मरण करने से मनुष्य अवश्य प्राप्त कर लेता है।‘कृष्ण’ नाम के स्मरण का जैसा पुण्य है, उसके कीर्तन और श्रवण से भी वैसा ही पुण्य होता है।
कोटिजन्मांहसो नाशो भवेद्यत्स्मरणादिकात् ।।
विष्णोर्नाम्नां च सर्वेषां सारात्सारं परात्परम् ।।
श्रीकृष्ण के कीर्तन, श्रवण और स्मरण आदि से मनुष्य के करोड़ों जन्मों के पाप का नाश हो जाता है। भगवान विष्णु के सब नामों में ‘कृष्ण’ नाम ही सबकी अपेक्षा सारतम वस्तु और परात्पर तत्त्व है।
कृष्णेति सुंदरं नाम मंगलं भक्तिदायकम् ।।
ककारोच्चारणाद्भक्तः कैवल्यं मृत्युजन्महम् ।।
‘कृष्ण’ नाम अत्यन्त मंगलकारी, सुन्दर तथा भक्तिदायक है। ‘ककार’ के उच्चारण से भक्त पुरुष जन्म-मृत्यु नाश करने वाले कैवल्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
ऋकाराद्दास्यमतुलं षकाराद्भक्तिमीप्सिताम् ।।
नकारात्सहवासं च तत्समं कालमेव च ।।
तत्सारूप्यं विसर्गाच्च लभते नात्र संशयः ।।
‘ऋकार’ के उच्चारण से भगवान का अनुपम दास्यभाव प्राप्त होता है। ‘षकार’ के उच्चारण से उनकी मनोवांछित भक्ति सुलभ होती है। ‘णकार’ के उच्चारण से तत्काल ही उनके साथ निवास का सौभाग्य प्राप्त होता है और विसर्ग के उच्चारण से उनके सारूप्य की उपलब्धि होती है, इसमें संशय नहीं है।
ककारोच्चारणादेव वेपंते यमकिंकराः ।।
ऋकारोक्तेर्न तिष्ठंति षकारात्पातकानि च ।।
नकारोच्चारणाद्रोगा अकारान्मृत्युरेव च ।।
‘ककार’ का उच्चारण होते ही यमदूत काँपने लगते हैं। ‘ऋकार’ का उच्चारण होने पर वे ठहर जाते हैं, आगे नहीं बढ़ते। ‘षकार’ के उच्चारण से पातक, ‘णकार’ के उच्चारण से रोग तथा ‘अकार’ के उच्चारण से मृत्यु- ये सब निश्चय ही भाग खड़े होते हैं;
ध्रुवं सर्वे पलायंते नामोच्चारणभीरवः ।।
स्मृत्युक्तिश्रवणोद्योगात्कृष्णनाम्नो व्रजेश्वर ।।
रथं गृहीत्वा धावंति गोलोकात्कृष्णकिंकराः ।।
पृथिव्या रजसः संख्यां कर्तुं शक्ता विपश्चितः ।।
क्योंकि वे नामोच्चारण से डरते हैं। व्रजेश्वर! श्रीकृष्ण-नाम के स्मरण, कीर्तन और श्रवण के लिये उद्योग करते ही श्रीकृष्ण के किंकर गोलोक से विमान लेकर दौड़ पड़ते हैं। विद्वान लोग शायद भूतल के धूलिकणों की गणना कर सकें;
नाम्नः प्रभावसंख्यानं संतो वक्तुं न च क्षमाः ।।
पुरा शंकरवक्त्रेण नाम्नोऽस्य महिमा श्रुतः ।।
परंतु नाम के प्रभाव की गणना करने में संतपुरुष भी समर्थ नहीं हैं। पूर्वकाल में भगवान शंकर के मुख से मैंने इस ‘कृष्ण’ नाम की महिमा सुनी थी।
गुणान्नामप्रभावं च किंचिज्जानाति मद्गुरुः ।।
ब्रह्माऽनंतश्च धर्मश्च सुरर्षिमनुमानवाः ।।
वेदाः संतो न जानंति महिम्नः षोडशीं कलाम् ।।
मेरे गुरु भगवान शंकर ही श्रीकृष्ण के गुणों और नामों का प्रभाव कुछ-कुछ जानते हैं। ब्रह्मा, अनन्त, धर्म, देवता, ऋषि, मनु, मानव, वेद और संतपुरुष श्रीकृष्ण-नाम-महिमा की सोलहवीं कला को भी नहीं जानते हैं।
नन्द! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पुत्र की महिमा का अपनी बुद्धि और ज्ञान के अनुसार वर्णन किया है। इसे मैंने गुरुजी के मुख से सुना था।
कृष्णः पीतांबरः कंसध्वंसी च विष्टरश्रवाः ।।
देवकीनंदनः श्रीशो यशोदानंदनो हरिः ।।
सनातनोऽच्युतोऽनंतः सर्वेशः सर्वरूपधृक् ।।
सर्वाधारः सर्वगतिः सर्वकारणकारणम् ।।
राधाबंधू राधिकात्मा राधिकाजीवनं स्वयम् ।।
राधाप्राणो राधिकेशो राधिकारमणः स्वयम् ।।
राधिकासहचारी च राधामानसपूरणः ।।
राधाधनो राधिकांगो राधिकासक्तमानसः ।।
राधिकाचित्तचोरश्च राधाप्राणाधिकः प्रभुः ।।
परिपूर्णतमं ब्रह्म गोविंदो गरुडध्वजः ।।
नामान्येतानि कृष्णस्य श्रुतानि मन्मुखाद्धृदि ।।
कृष्ण, पीताम्बर, कंसध्वंसी, विष्टरश्रवा, देवकीनन्दन, श्रीश, यशोदानन्दन, हरि, सनातन, अच्युत, विष्णु, सर्वेश, सर्वरूपधृक्, सर्वाधार, सर्वगति, सर्वकारणकारण, राधाबन्धु, राधिकात्मा, राधिकाजीवन, राधिकासहचारी, राधामानसपूरक, राधाधन, राधिकांग, राधिकासक्तमानस, राधाप्राण, राधिकेश, राधिकारमण, राधिकाचित्तचोर, राधाप्राणाधिक, प्रभु, परिपूर्णतम, ब्रह्म, गोविन्द और गरुड़ध्वज– नन्द! ये श्रीकृष्ण के नाम जो तुमने मेरे मुख से सुने हैं, हृदय में धारण करो।
शुभेक्षण! ये नाम जन्म तथा मृत्यु के कष्ट को हर लेने वाले हैं। तुम्हारे कनिष्ठ पुत्र के नामों का महत्त्व जैसा मैंने सुना था, वैसा यहाँ बताया है।
राधा कृष्ण बलराम नाम व्याख्या
अब ज्येष्ठ पुत्र हलधर के नाम का संकेत मेरे मुँह से सुनो।
बलराम नाम व्याख्या
बलराम नाम व्याख्या
गर्भसंकर्षणादेव नाम्ना संकर्षणः स्मृतः ।।
नास्त्यंतोऽस्यैव वेदेषु तेनानंत इति स्मृतः ।।
ये जब गर्भ में थे, उस समय उस गर्भ का संकर्षण किया गया था; इसलिये इनका नाम ‘संकर्षण’ हुआ। वेदों में यह कहा गया है कि इनका कभी अन्त नहीं होता; इसलिये ये ‘अनन्त’ कहे गये हैं।
बलदेवो बलोद्रेकाद्धली च हलधारणात्।।
शितिवासा नीलवासान्मुसली मुसलायुधात् ।।
रेवत्या सह संभोगाद्रेवतीरमणः स्वयम् ।।
रोहिणीगर्भवासात्तु रौहिणेयो महामतिः ।।
इनमें बल की अधिकता है; इसलिये इनको ‘बलदेव’ कहते हैं। हल धारण करने से इनका नाम ‘हली’ हुआ है। नील रंग का वस्त्र धारण करने से इन्हें ‘शितिवासा’ (नीलाम्बर) कहा गया है। ये मूसल को आयुध बनाकर रखते हैं; इसलिये ‘मुसली’ कहे गये हैं। रेवती के साथ इनका विवाह होगा; इसलिये ये साक्षात ‘रेवतीरमण’ हैं। रोहिणी के गर्भ में वास करने से इन महाबुद्धिमान संकर्षण को ‘रौहिणेय’ कहा गया है।
इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्र का नाम जैसा मैंने सुना था, वैसा बताया है।
राधा कृष्ण बलराम नाम व्याख्या
राधा नाम व्याख्या
राधा नाम व्याख्या
श्रीगर्ग जी बोले – नन्द! सुनो। मैं पुरातन इतिहास बता रहा हूँ। यह वृत्तांत पहले गोलोक में घटित हुआ था। उसे मैंने भगवान शंकर के मुख से सुना है। किसी समय गोलोक में श्रीदामा का राधा के साथ लीलाप्रेरित कलह हो गया। उस कलह के कारण श्रीदामा के शाप से लीलावश गोपी राधा को गोकुल में आना पड़ा है। इस समय वे वृषभानु गोप की बेटी हैं और कलावती उनकी माता हैं। राधा श्रीकृष्ण के अर्धांग से प्रकट हुई हैं और वे अपने स्वामी के अनुरूप ही परम सुन्दरी सती हैं। ये राधा गोलोकवासिनी हैं; परंतु इस समय श्रीकृष्ण की आज्ञा से यहाँ अयोनिसम्भवा होकर प्रकट हुई हैं। ये ही देवी मूल-प्रकृति ईश्वरी हैं। इन सती-साध्वी राधा ने माया से माता के गर्भ को वायुपूर्ण करके वायु के निकलने के समय स्वयं शिशु-विग्रह धारण कर लिया। ये साक्षात कृष्ण-माया हैं और श्रीकृष्ण के आदेश से पृथ्वी पर प्रकट हुई हैं। जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है, उसी प्रकार व्रज में राधा बढ़ रही हैं। श्रीकृष्ण के तेज के आधे भाग से वे मूर्तिमती हुई हैं। एक ही मूर्ति दो रूपों में विभक्त हो गयी है। इस भेद का निरूपण वेद में किया गया है। ये स्त्री हैं, वे पुरुष हैं, किंवा वे ही स्त्री हैं और ये पुरुष हैं।
इसका स्पष्टीकरण नहीं हो पाता। दो रूप हैं और दोनों ही स्वरूप, गुण एवं तेज की दृष्टि से समान हैं। पराक्रम, बुद्धि, ज्ञान और सम्पत्ति की दृष्टि से भी उनमें न्यूनता अथवा अधिकता नहीं है। किंतु वे गोलोक से यहाँ पहले आयी हैं, इसलिये अवस्था में श्रीकृष्ण से कुछ अधिक हैं। श्रीकृष्ण सदा राधा का ध्यान करते हैं और राधा भी अपने प्रियतम का निरन्तर स्मरण करती हैं। राधा श्रीकृष्ण के प्राणों से निर्मित हुई हैं और ये श्रीकृष्ण राधा के प्राणों से मूर्तिमान हुए हैं। श्रीराधा का अनुसरण करने के लिये ही इनका गोकुल में आगमन हुआ है। पूर्वकाल में गोलोक में श्रीहरि ने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे सार्थक बनाने के लिये कंस के भय का बहाना लेकर इनका गोकुल में आगमन हुआ है। केवल प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये ही ये व्रज में आये हैं। भय तो छलनामात्र है। जो भय के स्वामी हैं, उन्हें किससे भय हो सकता है।
सामवेद में ‘राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति बतायी गयी है। पहले नारायणदेव ने अपने नाभि-कमल पर बैठे हुए ब्रह्मा जी को वह व्युत्पत्ति बतायी थी। फिर ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक में भगवान शंकर को उसका उपदेश दिया। नन्द! तत्पश्चात पूर्वकाल में कैलास-शिखर पर विराजमान महेश्वर ने मुझको वह व्युत्पत्ति बतायी, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। मैं उसका वर्णन करता हूँ। ‘राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति देवताओं, असुरों और मुनीन्द्रों को भी अभीष्ट है तथा वह सबसे उत्कृष्ट एवं मोक्षदायिनी है।
रेफो हि कोटिजन्माघं कर्मभोगं शुभाशुभम् ।।
आकारो गर्भवासं च मृत्युं च रोगमुत्सृजेत् ।।
धकार आयुषो हानिमाकारो भवबंधनम् ।।
श्रवणस्मरणोक्तिभ्यः प्रणश्यति न संशयः ।।
राधा का ‘रेफ’ करोड़ों जन्मों के पाप तथा शुभाशुभ कर्म भोग से छुटकारा दिलाता है। ‘आकार’ गर्भवास, मृत्यु तथा रोग को दूर करता है। ‘धकार’ आयु की हानि का और ‘आकार’ भवबन्धन का निवारण करता है। राधा नाम के श्रवण, स्मरण और कीर्तन से उक्त सारे दोषों का नाश हो जाता है; इसमें संशय नहीं है।
रेफो हि निश्चलां भक्तिं दास्यं कृष्णपदांबुजे ।।
सर्वेप्सितं सदानंदं सर्वसिद्धौघमीश्वरम् ।।
धकारः सहवासं च तत्तुल्यकालमेव च ।।
ददाति सार्ष्टिसारूप्यं तत्त्वज्ञानं हरेः समम्।।
राधा नाम का ‘रेफ’ श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में निश्चल भक्ति तथा दास्य प्रदान करता है। ‘आकार’ सर्ववांछित, सदानन्दस्वरूप, सम्पूर्ण सिद्धसमुदायरूप एवं ईश्वर की प्राप्ति कराता है। ‘धकार’ श्रीहरि के साथ उन्हीं की भाँति अनन्त काल तक सहवास का सुख, समान ऐश्वर्य, सारूप्य तथा तत्त्वज्ञान प्रदान करता है।
आकारस्तेजसां राशिं दानशक्तिं हरौ यथा ।।
योगशक्तिं योगमतिं सर्वकालं हरिस्मृतिम् ।।
श्रुत्युक्तिस्मरणाद्योगान्मोहजालं च किल्बिषम् ।।
रोगशोकमृत्युयमा वेपंते नात्र संशयः ।।
‘आकार’ श्रीहरि की भाँति तेजोराशि, दानशक्ति, योगशक्ति, योगमति तथा सर्वदा श्रीहरि की स्मृति का अवसर देता है। श्रीराधा नाम के श्रवण, स्मरण और कीर्तन का सुयोग मिलने से मोहजाल, पाप, रोग, शोक, मृत्यु और यमराज सभी काँप उठते हैं; इसमें संशय नहीं है।
राधा नाम की व्याख्या करते हुए स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
राशब्दं कुर्वतस्त्रस्तो ददामि भक्तिमुत्तमाम् ।
धाशब्दं कुर्वतः पश्चाद्यामि श्रवणलोभतः ।।
‘रा’ शब्द का उच्चारण करने वाले मनुष्य को मैं भयभीत-सा होकर उत्तम भक्ति प्रदान करता हूँ और ‘धा’ शब्द का उच्चारण करने वाले के पीछे-पीछे इस लोभ से डोलता फिरता हूँ कि पुनः ‘राधा’ शब्द का श्रवण हो जाये।
ये सेवन्ते च दत्त्वा मामुपचारांश्च षोडश ।
यावजीवनपर्यन्तं या प्रीतिर्जायते मम ।।
सा प्रीतिर्मम जायेत राधाशब्दात्ततोऽधिका ।
प्रिया न मे तथा राधे राधावक्ता ततोऽधिकः ।।
जो जीवनपर्यन्त सोलह उपचार अर्पण करके मेरी सेवा करते हैं, उन पर मेरी जो प्रीति होती है, वही प्रीति ‘राधा’ शब्द के उच्चारण से होती है। बल्कि उससे भी अधिक प्रीति ‘राधा’ नाम के उच्चारण से होती है। राधे! मुझे तुम उतनी प्रिया नहीं हो, जितना तुम्हारा नाम लेने वाला प्रिय है। ‘राधा’ नाम का उच्चारण करने वाला पुरुष मुझे ‘राधा’ से भी अधिक प्रिय है।
ब्रह्मानन्तः शिवो धर्मो नरनारायणावृषी ।
कपिलश्च गणेशश्च कार्त्तिकेयश्च मत्प्रियः ।।
लक्ष्मीः सरस्वती दुर्गा सावित्री प्रकृतिस्तथा।
मम प्रियाश्च देवाश्च तास्तथापि न तत्समाः ।।
ब्रह्मा, अनन्त, शिव, धर्म, नर-नारायण ऋषि, कपिल, गणेश और कार्तिकेय भी मेरे प्रिय हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, प्रकृति– ये देवियाँ तथा देवता भी मुझे प्रिय हैं; तथापि वे राधा नाम का उच्चारण करने वाले प्राणियों के समान प्रिय नहीं हैं।
ते सर्वे प्राणतुल्या मे त्वं मे प्राणाधिका सती ।
भिन्नस्थानस्थितास्ते च त्वं च वक्षःस्थले स्थिता ।।
उपर्युक्त सब देवता मेरे लिये प्राण के समान हैं; परंतु सती राधे! तुम तो मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर हो। वे सब लोग भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित हैं; किंतु तुम तो मेरे वक्षःस्थल में विराजमान हो।
या मे चतुर्भुजा मूर्तिर्बिभर्त्ति वक्षसि प्रियाम् ।
सोऽहं कृष्णस्वरूपस्त्वां विवहामि स्वयं सदा ।।
जो मेरी चतुर्भुज मूर्ति अपनी प्रिया को वक्षःस्थल में धारण करती है, वही मैं श्रीकृष्णस्वरूप होकर सदा स्वयं तुम्हारा भार वहन करता हूँ।
।। राधा कृष्ण बलराम नाम व्याख्या ।।