रघुवंशम् सर्ग १२ || Raghuvansham Sarga 12
इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग ११ में राम विवाह और परशुराम संवाद तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग १२ (बारहवें सर्ग) में राजतिलक, माँ कैकेयी द्वारा वर माँगना, राम-लक्ष्मण व सीता का वनप्रस्थान, शूर्पणखा के नाक-कान काटना, सीता हरण, वानरराज सुग्रीव का राज्याभिषेक, राम-रावण युद्ध एवं रावण की राम के द्वारा पराजय कथा है। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ सहित और पश्चात् हिन्दी में संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।
रघुवंशमहाकाव्यम् द्वादशः सर्ग:
रघुवंशं सर्ग १२ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् बारहवां सर्ग
रघुवंश
॥ रघुवंशं सर्ग १२ कालिदासकृतम् ॥
निर्दिष्टविषयस्नेहः स दशान्तमुपेयिवान् ।
आसीदासन्ननिर्वाणः प्रदीपार्चिरिवोषसि ॥ १२ -१॥
भा०-विषयरूपी स्नेह चुक जाने से दशा के अंत को प्राप्त होता हुआ वह (राजा) प्रातः समय के दीपक की लौ के समान निर्वाण के निकट हुआ ॥१॥
तं कर्णमूलमागत्य रामे श्रीर्न्यस्यतामिति ।
कैकेयीशङ्कयीवाह पलितच्छद्मना जरा ॥ १२ -२॥
भा०-वृद्ध अवस्था कैकेई के भय से जैसे श्वेतबालों के बहाने से कान के निकट जाकर रामचन्द्र को यौवराज्य दो इस प्रकार उस (राजा) को कहती हुई ॥२॥
सा पौरान्पौरकान्तस्य रामस्याभ्युदयश्रुतिः ।
प्रत्येकं ह्रादयांचक्रे कुल्येनोद्यानपादपान् ॥ १२ -३॥
भा०-वह पुरवासियों के प्यारे रामचन्द्र के अभिषेक की वार्ता पानी की नाली बगीचे के वृक्षों के समान प्रत्येक पुरवासियों को प्रसन्न करती हुई ॥ ३॥
तस्याभिषेकसंभारे कल्पितं क्रूरनिश्चया ।
दूषयामास कैकेयी शोकोष्णैः पार्थिवाश्रुभिः ॥ १२ -४॥
भा.-कुटिल मनोरथवाली कैकेयी उसकी संग्रह की हुई राजा की सामग्री को राजा के गरम २ शोक के आसुओं से दूषित करती हुई ॥४॥
सा किलाश्वासिता चण्डी भर्त्रा तत्संश्रुतौ वरौ ।
उद्ववामेन्द्रसिक्ता भूर्बिलमग्नाविवोरगौ ॥ १२ -५॥
भा०-क्रोध करनेवाली स्वामी के अनुनय करने पर उसकी प्रतिज्ञा किये हुए दो वर दान, इन्द्र की सींची हुई पृथ्वी के बिल में बैठे हुए दो सांप के समान उगलती भई ॥५॥
तयोश्चतुर्दशैकेन रामं प्राव्राजयत्समाः ।
द्वितीयेन सुतस्यैच्छद्वैधव्यैकफलां श्रियम् ॥ १२ -६॥
भा०-वह उनमें से एक वर से तो रामचन्द्र को चौदह वर्ष को वन में भेजती हुई और दूसरे से पुत्र के निमित्त केवल अपने को विधवारूपी फल देनेवाली लक्ष्मी मांगी॥६॥
पित्रा दत्तं रुदन्रामः प्राङ्महीं प्रत्यपद्यत ।
पश्चाद्वनाय गच्छेति तदाज्ञां मुदितोऽग्रहीत् ॥ १२ -७॥
भा० रामचन्द्र पहिले पिता की दी हुई पृथ्वी को रोते हुए स्वीकार करते हुए, पीछे ‘वन को जाओ’ इस आज्ञा को प्रसन्न हो ग्रहण करते हुए ॥७॥
दधतो मङ्गलक्षौमे वसानस्य च वल्कले ।
ददृशुर्विस्मितास्तस्य मुखरागं समं जनाः ॥ १२ -८॥
भा०-आनन्द के रेशमी वस्त्र पहने हुए और वृक्ष की छाल धारण किये हुए रामचंद्र के मुख की कान्ति लोग चकित होकर एक सी देखते हुए ॥ ८॥
स सीतालक्ष्मणसखः सत्याद्गुरुमलोपयन् ।
विवेश दण्डकारण्यं प्रत्येकं च सतां मनः ॥ १२ -९॥
भा०-वह अपने पिता को सत्य से न भ्रष्ट करके सीता लक्ष्मणसहित दण्डकारण्य में और प्रत्येक सत्पुरुष के मन में प्रवेश करते हुए ॥९॥
राजापि तद्वियोगार्तः स्मृत्वा शापं स्वकर्मजम् ।
शरीरत्यागमात्रेण शुद्धिलाभमन्यत ॥ १२ -१०॥
भा०-उनके वियोग से दुःखी हुआ राजा भी अपने कर्म से उत्पन्न हुए शाप को स्मरण ‘करके शरीर त्यागमात्र से ही शुद्धिलाभ को मानता हुआ ॥ १०॥
(शरवन के शाप की कथा पीछे लिख चुके हैं),
विप्रोषितकुमारं तद्राज्यमस्तमितेश्वरम् ।
रन्ध्रान्वेषणदक्षाणां द्विषामामिषततां ययौ ॥ १२ -११॥
भा०-गये हुए पुत्रों और मृतक राजावाला वह राज्य, छिद्र देखने में चतुर शत्रुओं का भोजन हुआ॥ ११॥
अथानाथाः प्रकृतयो मातृबन्धुनिवासिनम् ।
मौलैरानाययामासुर्भरतं स्तम्भिताश्रुभिः ॥ १२ -१२॥
भा०- इसके उपरान्त दीन प्रजा मामा के घर वसते हुए भरत को आंसू रोके विश्वस्त मंत्रियों से बुलवाती हुई॥१२॥
श्रुत्वा तथाविधं मृत्युं कैकेयीतनयः पितुः ।
मातुर्न केवलं स्वस्याः श्रियोऽप्यासीत्पराङ्मुखः ॥ १२ -१३॥
भा०-कैकई के पुत्र (भरत ) पिता का इस प्रकार मृत्यु सुनकर केवल अपनी माता ही से नही किन्तु राजलक्ष्मी से भी विमुख होते हुए ॥ १३ ॥
ससैन्यश्चान्वगाद्रामं दर्शितानाश्रमालयैः ।
तस्य पश्यन्ससौमित्रेरुदश्रुर्वसतिद्रुमान् ॥ १२ -१४॥
भा०-वनवासियों के दिखाये हुए उन लक्ष्मण के सखा (रामचन्द्र) के निवास स्थानों के वृक्षों को देखकर आंसू त्यागते हुए सेना सहित राम के पीछे गये ॥ १४ ॥
चित्रकूटवनस्थं च कथितस्वर्गतिर्गुरोः ।
लक्ष्म्या निमन्त्रयांचक्रे तमनुच्छिष्टसंपदा ॥ १२ -१५॥
भा०-वह भरत चित्रकूट में स्थित उन रामचन्द्र से स्वर्ग में गये पिता की गति कह कर, विना स्पर्श की हुई राजलक्ष्मी भोगने के निमित्त लौटने को कहते हुए.॥ १५ ॥
स हि प्रथमजे तस्मिन्नकृतश्रीपरिग्रहे ।
परिवेत्तारमात्मानं मेने स्वीकरणाद्भुवः ॥ १२ -१६॥
भा०-वह भरत रामचन्द्र के लक्ष्मी स्वीकार न करने पर पृथ्वी के स्वीकार करने से अपने को परिवेत्ता मानते हुए॥ १६ ॥
(बडे भाई के व्याह न होने पर जो छोटा-भाई व्याह कर ले वह परिवेत्ता कहलाता है, उसे दोष लगता है)
तमशक्यमपाक्रष्टुं निदेशात्स्वर्गिणः पितुः ।
ययाचे पादुके पश्चात्कर्तुं राज्याधिदेवते॥ १२ -१७॥
भा०-वह भरत स्वर्ग में गये पिता की आज्ञा से लौटाने में अशक्य उन रामचन्द्र में पीछे राज्य का अधिदेवता बनाने के लिये खडाऊं मांगता हुआ ॥ १७ ॥
स विसृष्टस्तथेत्युक्त्वा भ्रात्रा नैवाविशत्पुरीम् ।
नन्दिग्रामगतस्तस्य राज्यं न्यासमिवाभुनक् ॥ १२ -१८॥
भा०-भाई से “यों ही” हो ऐसा कहकर बिदा किये भरत पुरी में प्रवेश न करते हुए, नन्दीगाव में जाकर उनके राज्य की धरोहर की नाईं रक्षा करने लगे ॥ १८॥
दृढभक्तिरिति ज्येष्ठे राज्यतृष्णापराङ्मुखः ।
मातुः पापस्य भरतः प्रायश्चित्तमिवाकरोत् ॥ १२ -१९॥
भा०-ज्येष्ठ भाई दृढ प्रीति के कारण राज्य को तृष्णा से विमुख हुए भरतजी इस प्रकार माता के पाप का प्रायाश्चित्त करते हुए ॥ १९ ॥
रामोऽपि सह वैदेह्या वने वन्येन वर्तयन् ।
चचार सानुजः शान्तो वृद्धेक्ष्वाकुव्रतं युवा ॥ १२ -२०॥
भा०- लक्ष्मण सहित शान्तात्मा रामचन्द्र भी जानकी के संग इनके पदार्थों से जीविका करके वन में जाते हुए वृद्ध इक्ष्वाकुवंशियों के व्रत को युवा ( अवस्था में) ही करते हुए ॥ २०॥
प्रभावस्तम्भितच्छायमाश्रितः स वनस्पतिम् ।
कदाचिदङ्के सीतायाः शिश्ये किंचिदिव श्रमात् ॥ १२ -२१॥
भा०-वह रामचन्द्र किसी समय प्रभाव से स्थित की हुई छायावाले वृक्ष का सहारा लिये कुछेक श्रमित हुए से जानकी की गोदी में सो गये ॥२१॥
ऐन्द्रः किल नखैस्तस्या विददार स्तनौ द्विजः ।
प्रियोपभोगचिह्नेषु पौरोभाग्यमिवाचरन् ॥ १२ -२२॥
भा० प्रसिद्ध है कि ऐन्द्रि पक्षी (काकरूप बनाये हुए इन्द्र के पुत्र जयन्त) ने उसके तनों को पति के नख के चिह्नों में खोटा आचरण करके कुरेदा ॥२२॥
तस्मिन्नस्थदिषीकास्त्रं रामो रामावबोधितः ।
आत्मानं मुमुचे तस्मादेकनेत्रव्ययेन सः ॥ १२ -२३॥
भा०-जानकी से जगाये हुए रामचन्द्र उस पर इषीकास्त्र चलाते हुए, वह (भ्रमता हुआ) एक नेत्र देकर उससे मुक्त हुआ॥२३ ॥
रामस्त्वासन्नदेशत्वाद्भरतागमनं पुनः ।
आशङ्क्योत्सुकसारङ्गां चित्रकूटस्थलीं जहौ ॥ १२ -२४॥
भा०-रामचन्द्र तो देश के निकट होने से फिर भरत के आगमन की आशंका करके उत्कंठित हरिणोंवाली चित्रकूट की भूमि को त्यागते हुए ॥ २४ ॥
प्रययावातिथेयेषु वसन्नृषिकुलेषु सः ।
दक्षिणां दिशमृक्षेषु वार्षिकेष्विव भास्करः ॥ १२ -२५॥
भा०-वह (रामचन्द्र) अतिथि सत्कार करनेवाले मुनियों के आश्रमों में वर्षा के नक्षत्रों में सूर्य के समान बसते हुए दक्षिण दिशा को गये ॥२५॥
बभौ तमनुगच्छन्ती विदेहाधिपतेः सुता ।
प्रतिषिद्धापि कैकेय्या लक्ष्मीरिव गुणोन्मुखी ॥ १२ -२६॥
भा०-उनके पीछे जाती हुई जनकसुता केकई की निषेधकरी भी गुणग्राहिणी राजलक्ष्मी के समान शोभित हुई ॥
अनसूयातिसृष्टेन पुण्यगन्धेन काननम् ।
सा चकाराङ्गरागेण पुष्पोच्चलितषट्पदम् ॥ १२ -२७॥
भा०-वह जानकी अनसूया के दिये हुए सुगन्धि भरे अंगराग से भौंरों का वन के फूलों से चलनेवाला करती हुई (अर्थात् उसकी सुगंधि से भौंरे वन के फूल छोड उसके निकट आये)॥ २७॥
संध्याभ्रकपिशस्तस्य विराधो नाम राक्षसः ।
अतिष्ठन्मार्गमावृत्य रामस्येन्दोरिव ग्रहः ॥ १२ -२८॥
भा०-संध्या के वादल के ‘समान लाल विराधनाम राक्षस, चन्द्रमा का राहु जैसे उन राम का मार्ग रोकता हुआ॥
स जहार तयोर्मध्ये मैथिलीं लोकशोषणः ।
नभोनभस्ययोर्वृष्टिमवग्रह इवान्तरे ॥ १२ -२९॥
भा०-लोक के सुखानेवाले उस दैत्य ने दोनों के वीच में जानकी को सावन और भादों के बीच में से वर्षा के समान हरण की ॥ २९ ॥
तं विनिष्पिष्य काकुत्स्थौ पुरा दूषयति स्थलीम् ।
गन्धेनाशुचिना चेति वसुधायां निचख्नतुः ॥ १२ -३०॥
भा०-राम लक्ष्मण उसको मारकर अपवित्र गंघि से आश्रम भूमि को आगे दूषित करेगा इस कारण उसे पृथ्वी में गाड़ते हुए ॥ ३०॥
पञ्चवट्यां ततो रामः शासनात्कुम्भजन्मनः ।
अनपोढस्थितिस्तस्थौ विन्ध्याद्रिः प्रकृताविव ॥ १२ -३१॥
भा०-इसके उपरान्त मर्यादा न उलंघन करनेवाले रामचन्द्र अगस्त्य की आज्ञा से पंचवटी में, प्रथम अवस्था में विंध्याचल पर्वत के समान स्थित हुए ॥ ३१॥
(एक समय विन्ध्याचल पर्वत सूर्य का मार्ग रोकने के निमित्त ऊंचा बढ़ने लगा तब देवताओं के कहने से अगस्त्यजी उस विन्ध्याचल अपने शिष्य के निकट गये, उस समय इसने प्रणाम किया, तब अगस्त्यजी ने कहा जब तक हम दक्षिण दिशा से लौटकर आवें तब तक तुम इसी प्रकार रहो, उसने स्वीकार किया अगस्त्यजी आज तक दक्षिण दिशा से नहीं लौटे)
रावणावरजा तत्र राघवं मदनातुरा ।
अभिपेदे निदाघार्ता व्यालीव मलयद्रुमम् ॥ १२ -३२॥
भा०-तहां कामपीडित रावण की भगिनी (शूर्पणखा) रामचन्द्र के निकट (आई) मानों गरमी से पीडित हुई सर्पिणी मलयाचल के वृक्ष के निकट प्राप्त हुई ॥ ३२॥
सा सीतासंनिधावेव तं वव्रे कथितान्वया ।
अत्यारूढो हि नारीणामकालज्ञो मनोभवः ॥ १२ -३३॥
भा०-वह जानकी के निकट ही अपना वंश वर्णन करके उनसे वरने को कहती हुई, कारण कि प्रबल हुआ स्त्रियों का कामदेव समय का न जानलेवाला होता है ॥ ३३॥
कलत्रवानहं बाले कनीयांसं भजस्व मे ।
इति रामो वृषस्यन्तीं वृषस्कन्धः शशास ताम् ॥ १२ -३४॥
भा०-वृष के समान स्कंधवाले रामचन्द्र ने उस पुरुष की चाहना करनेवाली से ‘हे बाले मैं स्त्रीवाला हूं तू मेरे छोटे भाई को भज” ऐसा कहा ॥ ३४ ॥
ज्येष्ठाभिगमनात्पूर्वं तेनाप्यनभिनन्दिताम् ।
साऽभूद्रामाश्रया भूयो नदीवोभयकूलभाक् ॥ १२ -३५॥
भा ०-प्रथम वडे भाई के निकट जाने से उन ( लक्ष्मण) से भी न स्वीकार की हुई वह फिर राम की ओर आती हुई, दोनों किनारों की ओर जाती नदी के समान हुई ॥ ३५॥
संरम्भं मैथिलीहासः क्षणसौम्यां निनाय ताम् ।
निवातस्तिमितां वेलां चन्द्रोदय इवोदधेः ॥ १२ -३६॥
भा०-जानकी का हँसना उस क्षणमात्र को सौम्य हुई को मानो चंद्रमा का उदय सागर की पवन रहित निश्चल मर्यादा के समान क्षुभित करता हुआ (माया से सुशील रूप धारण कर लिया था अब जानकी के हँसने से कुपित हुई ) ॥ ३६॥
फलमस्योपहासस्य सद्यः प्राप्स्यसि पश्य माम् ।
मृग्याः परिभवो व्याघ्र्यामित्यवेहि त्वया कृतम् ॥ १२ -३७॥
भा०-इस उपहास का फल शीघ्र ही प्राप्त करेगी, मुझे देख, इस अपने किये हुए को, बाधिन्में हरिणी के किये हुए तिरस्कार के समान जान ॥ ३७॥
इत्युक्त्वा मैथिलीं भर्तुरङ्के निविशतीं भयात् ।
रूपं शूर्पणखा नाम्नः सदृशं प्रत्यपद्यत ॥ १२ -३८॥
भा०-डर के मारे पति की गोदी में जाती हुई जानकी को यह कहकर शूर्पणखा नाम के समान रूप को धारती हुई ।। ३८ ॥ (इसके नख छाज से थे)
लक्ष्मणः प्रथमं श्रुत्वा कोकिलामञ्जुवादिनीम् ।
शिवाघोरस्वनां पश्चाद्बुबुधे विकृतेति ताम् ॥ १२ -३९॥
भा०-लक्ष्मण ने प्रथम कोकिला के समान मनोहर वचन बोलनेवाली पीछे शिवा (गीदडनी ) के समान घोरशब्द करती हुई को श्रवण कर मायाविनी है ऐसा जाना ॥ ३९॥
पर्णशालामथ क्षिप्रं विकृष्टासिः प्रविश्य सः ।
वैरूप्यपौनरुक्त्येन भीषणां तामयोजयत् ॥ १२ -४०॥
भा ०-इसके उपरान्त वह (लक्ष्मण) खड्ग निकाले हुए शीघ्र पर्णशाला में प्रवेश कर उस कुरूपिणी को दुगुनी कुरूपिणी करते हुए ॥४०॥
सा वक्रनखधारिण्या वेणुकर्कशपर्वया ।
अङ्कुशाकारयाङ्गुल्या तावतर्जयदम्बरे ॥ १२ -४१॥
भा०-वह कुटिलनख धारण करनेवाली वांस के समान कठिन पोरोंवाली अंकुश के सदृश उंगलीवाली उन दोनों को आकाश में धमकाती हुई ॥४१॥
प्राप्य चाशु जनस्थानं खरादिभ्यस्तथाविधम् ।
रामोपक्रममाचख्यौ रक्षःपरिभवं नवम् ॥ १२ -४२॥
भा०-(वह शूर्पणखा) शीघ्र जनस्थान में प्राप्त होकर खरादि राक्षसों से इस प्रकार से रामचन्द्र से ही प्रथम किए हुए उस राक्षस के नये तिरस्कार को कहती हुई ॥४२॥
मुखावयवलूनां तां नैरृता यत्पुरो दधुः ।
रामाभियायिनां तेषां तदेवाभूदमङ्गलम् ॥ १२ -४३॥
भा०—राक्षसों ने जो उस नाक कान कटी हुई को आगे किया, वही रामचन्द्र पर चढाई करनेवाले उन्ही का अमंगल हुआ॥ ४३॥
उदायुधानात्पततस्तान्दृप्तान्प्रेक्ष्य राघवः ।
निदधे विजयाशंसां चापे सीतां च लक्ष्मणे ॥ १२ -४४॥
भा०-आयुध उठाकर आते हुए अहंकारी उन ( राक्षसों को) देखकर रामचंद्र जय की आशा को धनुष में और सीता को लक्ष्मण में सोंपने हुए ॥ ४४ ॥
एको दाशरथिः कामं यातुधानाः सहस्रशः ।
ते तु यावन्त एवाजौ तावांश्च ददृशे स तैः ॥ १२ -४५॥
भा०-रामचन्द्र एक ही और राक्षस सहस्रों थे परन्तु उन्हे वे (राम) संग्राम में वे जितने थे तितने ही दिखे ॥ ४५ ॥
असज्जनेन काकुत्स्थः प्रयुक्तमथ दूषणम् ।
न चक्षमे शुभाचारः स दूषणमिवात्मनः ॥ १२ -४६॥
भा०-तब अच्छे आचरणवाले रामचन्द्र वरियों के घेरे हुए दूषण (नामराक्षस ) को अपने दूषण के समान न सहते हुए ॥ ४६ ॥
तं शरैः प्रतिजग्राह खरत्रिशिरसौ च सः ।
क्रमशस्ते पुनस्तस्य चापात्सममिवोद्ययुः ॥ १२ -४७॥
भा०-वह रामचन्द्र उसे और खर त्रिशिरा को वाणों द्वारा क्रम से ग्रहण करते हुए वे (बाण ) उन ( रामचन्द्र) के धनुष से (आगे पीछे छूटे हुए) एक संग ही मेरे हुए से गये ॥४७॥
तैस्त्रयाणां शितैर्बाणैर्यथापूर्वविशुद्धिभिः ।
आयुर्देहातिगैः पीतं रुधिरं तु पतत्रिभिः ॥ १२ -४८॥
भा०-देह को वेधकर जैसे पूर्व थे उसी प्रकार निकले हुए तीक्ष्ण वाणों ने उन तीनों की आयु पान कर ली, रुधिर का पान पक्षियों ने किया ॥ ४८॥
तस्मिन्रामशरोत्कृत्ते बले महति रक्षसाम् ।
उत्थितं ददृशेऽन्न्यच्च कबन्धेभ्यो न किंचन ॥ १२ -४९॥
भा०-उन रामचन्द्र के वाण से काटी हुई उस बडी राक्षसों की सेना में रुंडों के सिवाय और कुछ स्थित हुआ न दीखा ॥४९॥
सा बाणवर्षिणं रामं योधयित्वा सुरद्विषाम् ।
अप्रबोधाय सुष्वाप गृध्रच्छाये वरूथिनी ॥ १२ -५०॥
भा०-वह राक्षसों की सेना वाणवर्षाने वाले राम से युद्ध करके गृध्रां की छाया में फिर न उठने के निमित्त शयन कर गई ॥५०॥
राघवास्त्रविदीर्णानां रावणं प्रति रक्षसाम् ।
तेषां शूर्पणखैवैका दुष्प्रवृत्तिहराऽभवत् ॥ १२ -५१॥
भा०-एक शूर्पणखा ही रावण के प्रति राम के अस्व से विदीर्ण हुए राक्षसों का बुरा वृत्तान्त रावण के निकट ले जानेवाली हुई ॥५१॥
निग्रहात्स्वसुराप्तानां वधाच्च धनदानुजः ।
रामेण निहितं मेने पदं दशसु मूर्धसु ॥ १२ -५२॥
भा०-बहन के ताडित होने और सुहृदों के वध से कुबेर का छोटा भाई रामचंद्र से अपने दशों शिरों में चरण रक्खा मानता हुआ॥५२॥
रक्षसा मृगरूपेण वञ्चयित्वा स राघवौ ।
जहार सीतां पक्षीन्द्रप्रयासक्षणविघ्नितः ॥ १२ -५३॥
भा०-वह मृगरूपी राक्षस (मारीच) द्वारा रामचंद्र को ठगाकर पक्षिराज जटायु के समर का क्षणमात्र विघ्न सहकर जानकी को हर ले गया ॥५३॥
तौ सीतावेषिणौ गृध्रं लूनपक्षमपश्यताम् ।
प्राणैर्दशरथप्रीतेरनृणं कण्ठवर्तिभिः ॥ १२ -५४॥
भा०-सीता को ढूंढते हुए उन दोनों ने पंख नुचे और कंठगत प्राणों से दशरथ की मित्रता का ऋण चुकाते हुए जटायु को देखा ॥ ५४॥
स रावणहृतां ताभ्यां वचसाचष्ट मैथिलीम् ।
आत्मनः सुमहत्कर्म व्रणैरावेद्य संस्थितः ॥ १२ -५५॥
भा०-यह (जटायु) रावण द्वारा हरी हुई जानकी को वचन से कहकर और अपने चडे पराक्रम को घावों से निवेदन कर मृतक हुआ ॥ ५५ ॥
तयोस्तस्मिन्नवीभूतपितृव्यापतिशोकयोः ।
पितरीवाग्निसंस्कारात्परा ववृतिरे क्रियाः ॥ १२ -५६॥
भा–नवीन हुए पिता मरण के शोकवाले उन दोनों ने उसका पिता की नाई अग्निसंस्कार करके पीछे के भी शव कर्म किये ॥ ५६ ॥
वधनिर्धूतशापस्य कबन्धस्योपदेशतः ।
मुमूर्च्छ सख्यं रामस्य समानव्यसने हरौ ॥ १२ -५७॥
भा०-मरकर शाप से छुटे हुए कवंध के उपदेश से रामचंद्र के समान दुःखवाले सुग्रीव से मित्रता हुई ।। ५७ ॥
(श्रिया का पुत्र दनु अत्यन्त सुन्दर था वह कौतुक से भयंकर रूपधर ऋषियों को डराता था,एक दिन उसने स्थूलशिरा नामक ऋषि को डराया,तब उन्होंने क्रोध कर शाप दिया, कि तेरा ऐसा ही रूप हो जाय, पीछे प्रार्थना करने पर कहा कि जब रामचन्द्र तेरी सुजा छेदन करेंगे तव तू अपने रूप को प्राप्त होगा, तब यह इसी शरीर से महा तपकर ब्रह्मा से दीर्घ आयु का वर ले इन्द्र से लड़ने चला, इन्द्र ने वज्र मारा जिसमें इसका शिर छाती में प्रवेश कर गया, पीछे भोजन के निमित्त इन्द्र ने इसकी योजन भर की भुजा कर दी और तीक्ष्ण दांत कर दिये अब राम के भुजा छेदन करने पर अपने रूप को प्राप्त हुआ जैसा लिखा है-
” दनुर्नाम श्रियः पुत्रः शापाद्राक्षसतां गतः ।
इन्द्रास्त्रकृतकावन्ध्यः पूतोस्मि भवतां श्रयात् ॥”
रावण जानकी को हर ले गया है तुम सुग्रीव के पास जाओ वालि को मार उसे राज्य दो सीता मिलेगी यह कह यह गया (आरण्यक वाल्मी०)
स हत्वा वालिनं वीरस्तत्पदे चिरकाङ्क्षिते ।
धातोः स्थान इवादेशं सुग्रीवं संन्यवेशयत् ॥ १२ -५८॥
भा०-यह वीर वालि को मारकर बहुत दिनों से इच्छावाले उसके स्थान में धातु के स्थान में आदेश की नाई सुग्रीव को स्थापित करते हुए ॥ ५८ ॥
(जब धातु को आदेश होता है तो उसका रूप सर्वथा वदल जाता है, जैसे अत् धातु को आदेश उसके स्थान में भू हो जाता है) सुग्रीव ! “श्रूयतां तात क्रोधश्च व्यपनीयताम् ॥ कारणं येन वाणोयं स मया न विसर्जितः॥१॥ अलंकारेण वेषेण प्रमाणेन गतेन च ॥ त्वं च सुग्रीव वाली च सदृशौ स्तः परस्परम् ॥२॥ स्वरेण वर्चसा चैव प्रेक्षितेन च वानर ॥ विक्रमेण च वाक्यैश्च व्यक्ति वां नोपलक्षये ॥३॥ ततोऽहं रूपसादृश्यान्मोहितो वानरोत्तम ॥ नोत्सृजामि महावेगं शरं शत्रुनिवहणम् ॥ ४॥”
मन्ये कविना द्वयोरेव भ्रात्रोः वालिसुग्रीवयोः सौसादृश्यदर्शनात धातोः स्थाने आदेशमिव इत्युपमा समुद्भाविता । यथा वैयाकरणः लडादिषु लकारचतुष्टयेपु लब्धावसरम् अस्थातुं निरस्य तत्स्थाने लिडादिषु भूधातुं प्रयुङ्क्ते स च सर्वथा तमनुकुर्वन अशेषं तत्कार्यं करोति तथा रामः प्राक् प्रबलं व्यापिनं बालिनं हत्वा चिरकांक्षिते तत्पदे आकारतः गुणतः क्रियातः तत्सदृशं सुग्रीवं संस्थापितवान्, स्थापितश्चासौ वालि. चन्निखिलकार्याण्यकादिति विवृतार्थः)
इतस्ततश्च वैदेहीमन्वेष्टुं भर्तृचोदिताः ।
कपयश्चेरुरार्तस्य रामस्येव मनोरथाः ॥ १२ -५९॥
भा०-इसके उपरान्त जानकी के ढूँढने को स्वामी (सुग्रीव) के भेजे हुए वानर, व्याकुल राम के मनोरथ के समान जहां तहां गये ॥ ५९॥
प्रवृत्तावुपलब्धायां तस्याः संपातिदर्शनात् ।
मारुतिः सागरं तीर्णः संसारमिव निर्ममः ॥ १२ -६०॥
भा०-संपाति के देखने से उस (सीता) का समाचार पाय महावीरजी सागर तर गये, जैसे इच्छा रहित, संसार को (तर जाता है ) ॥ ६०॥
दृष्टा विचिन्वता तेन लङ्कायां राक्षसीवृता ।
जानकी विषवल्लीभिः परितेव महौषधिः ॥ १२ -६१॥
भा०-लंका में ढूंढते हुए उन ( महावीरजी) ने राक्षसियों से घिरी हुई जानकी विपवेलों से घिरी हुई महौषधि के समान, देखी ॥ ६१॥
तस्यै भर्तुरभिज्ञानमङ्गुलीयं ददौ कपिः ।
प्रत्युद्गतमिवानुष्णैस्तदानन्दाश्रुबिन्दुभिः ॥ १२ -६२॥
भा०-महावीरजी रामचन्द्र की अंगूठी जानकी के निमित्त देते हुए (जो कि )शीतल उनके आनन्द के आंसुओं की बूंदों से आदर पाई की समान स्थित हुई ॥ ६२ ।।
निर्वाप्य प्रियसंदेशैः सीतामक्षवधोद्धतः ।
स ददाह पुरीं लङ्कां क्षणसोढारिनिग्रहः ॥ १२ -६३॥
भा०-प्यारे (के) संदेशा से सीता को समझाकर अक्ष (रावण के वेटे) के वध से उद्धत हो क्षणमात्र शत्रुबंध को सहकर पुरी लंका को जलाते हुए ॥ ६३ ॥
प्रत्यभिज्ञानरत्नं च रामायादर्शयत्कृती ।
हृदयं स्वयमायातं वैदेह्या इव मूर्तिमत् ॥ १२ -६४॥
भा०-कार्य करने हारे स्वयं आये हुए (हनुमान्) मूर्तिमान् जानकी के हृदय की नई स्थित तिन्ही का पहचान चिह्न (चूडामणि) राम को दिखाते हुए॥ ६४॥
स प्राप हृदयन्यस्तमणिस्पर्शनिमीलितः ।
अपयोधरसंसर्गां प्रियालिङ्गननिर्वृतिम् ॥ १२ -६५॥
भा०-हृदय में रक्खी हुई मणि के स्पर्श से मोहित हो वह ( रामचंद्र ) विना स्तन के स्पर्शवाले प्यारी के आलिंगन का सुख मानते हुए ॥६५॥
श्रुत्वा रामः प्रियोदन्तं मेने तत्सङ्गमोत्सुकः ।
महार्णवपरिक्षेपं लङ्कायाः परिखालघुम् ॥ १२ -६६॥
भा०-प्रिया का वृत्तान्त सुनकर उसके संगम के उत्साही रामचंद्र ने लंका के महासमुद्ररूपी वेष्टन को खाई समान लघु माना ॥ ६६ ॥
स प्रतस्थेऽरिनाशाय हरिसैन्यैरनुद्रुतः ।
न केवलं भुवः पृष्ठे व्योम्नि संबाधवर्तिभिः ॥ १२ -६७॥
भा०- केवल पृथ्वी तल पर ही नहीं किन्तु आकाश में भी संकोच से गमन करती हुई वानरों की सेना के सहित वह राम शत्रुनाश करने को चले ॥ ६७ ॥
निविष्टमुदधेः कूले तं प्रपाद बिभीषणः ।
स्नेहाद्राक्षसलक्ष्म्येव बुद्धिमाविश्य चोदितः ॥ १२ -६८॥
भा०-सागर के किनारे उतरे हुए रामचंद्र को विभीषण राक्षस लक्ष्मी द्वारा स्नेह से बुद्धि में प्रविष्ट हो प्रेरे हुये के समान मिला ॥६८॥
(अर्थात विभीषण क्या आया मानो राक्षसों की लक्ष्मी और बुद्धि आई)
तस्मै निशाचरैश्वर्यं प्रतिशुश्राव राघवः ।
काले खलु समालब्धाः फलं बध्नन्ति नीतयः ॥ १२ -६९॥
भा०-रामचंद्र उसके प्रति राक्षसों का राज्य देने की प्रतिज्ञा करते हुए, कारण कि समय पर वर्तीहुई नीति फल देती ही है ॥ ६९॥
स सेतुं बन्धयामास प्लवगैर्लवणाम्भसि ।
रसातलादिवोन्मग्नं शेषं स्वप्नाय शार्ङ्गिणः ॥ १२ -७०॥
भा०-वह रामचंद्र क्षारसमुद्र में वानरों से विष्णु के शयन करने को रसातल से भायें हुए शेषनाग के समान, पुल बँधवाते हुए ॥ ७० ॥
तेनोत्तीर्य पथा लङ्कां रोधयामास पिङ्गलैः ।
द्वितीयं हेमप्राकारं कुर्वद्भिरिव वानरैः ॥ १२ -७१॥
भा०-वह राम उसी मार्ग से सागर को स्थित हुए वानों से लकापुरी को घिरतवाते हुए॥७१॥
रणः प्रववृते तत्र भीमः प्लवगरक्षसाम् ।
दिग्विजृम्भितकाकुत्स्थपौलस्त्यजयघोषणः ॥ १२ -७२॥
भा०-तहां वानर और राक्षसों का भयंकर दिशाओं में फैलनेवाले राम और रावण के जय शब्दों सहित संग्राम हुआ॥
पादपाविद्धपरिघः शिलानिष्पिष्टमुद्गरः ।
अतिशस्त्रनखन्यासः शैलरुग्णमतंगजः ॥ १२ -७३॥
भा०-(जो कि संग्राम ) वृक्षों से परिध भंगवाला, शिलाओं से मुद्गर चूर्ण होनेवाला, नाखूनों से शस्त्रों का तिरस्कार करनेवाला, पर्वतों से हाथी मारनेवाला हुआ॥७३॥
(द्वाभ्यां तु युग्मकं प्रोक्तं त्रिभिः स्यात्तु विशेषकम् । कलापकं चतुर्मिः स्यात्तध्व कुलकं स्मृतम् ॥ १॥)
अथ रामशिरश्छेददर्शनोद्भ्रान्तचेतनाम् ।
सीतां मायेति शंसन्ती त्रिजटा समजीवयत् ॥ १२ -७४॥
भा०-इसके उपरान्त राम के कटे शिर के देखने से व्याकुलचित्त हुई जानकी को त्रिजटा ने ‘यह माया है। ऐसा कह कर उसे जीवित किया ॥७४॥
कामं जीवति मे नाथ इति सा विजहौ शुचम् ।
प्राङ्मत्वा सत्यमस्यान्तं जीवितास्मीति लज्जिता ॥ १२ -७५॥
भा०-वह (जानकी) मेरे स्वामी जीते हैं इस कारण शोक को त्याग करती हुई (किन्तु) प्रथम उनका मरण सत्य मान कर जीवित रही इस कारण लज्जित हुई॥७५ ॥
गरुडापातविश्लिष्टमेघनादास्त्रबन्धनः ।
दाशरथ्योः क्षणक्लेशः स्वप्नवृत्त इवाभवत् ॥ १२ -७६॥
भा०-गरुड के आने से शिथिल होनेवाले मेघनाद के अस्त्रबंधन का क्षणमात्र क्लेश राम लक्ष्मण को स्वप्नावस्था के समान हुआ ॥ ७६ ।।
ततो बिभेद पौलस्त्यः शक्त्या वक्षसि लक्ष्मणम् ।
रामस्त्वनाहतोऽप्यासीद्विदीर्णहॄदयः शुचा ॥ १२ -७७॥
भा०-इसके उपरान्त रावण ने शक्ति से लक्ष्मण का हृदय विदीर्ण किया, रामचंद्र तो विना मारे ही शोक से विदीर्ण हृदय हो गये । ७७ ।।
स मारुतिसमानीतमहौषधिहतव्यथः ।
लङ्कास्त्रीणां पुनश्चक्रे विलापाचार्यकं शरैः ॥ १२ -७८॥
भा०-उन्होंने महावीरजी की लाई हुई औषधि से व्यथारहित हो बाणों के द्वारा लंका की स्त्रियों के विलाप आचार्य का कार्य फिर कराया ॥ ७८ ॥
स नादं मेघनादस्य धनुश्चेन्द्रायुधप्रभम् ।
मेघस्येव शरत्कालो न किञ्चित्पर्यशेषयत् ॥ १२ -७९॥
भा०-उसने मेघनाद का शब्द और इन्द्रधनुष की कान्तिवाले धनुष को किंचित भी शेष नहीं रक्खा जिस प्रकार शरत्काल मेघ को ( नहीं रखता) ॥ ७९ ॥
कुम्भकर्णः कपीन्द्रेण तुल्यावस्थः स्वसुः कृतः ।
रुरोध रामं शृङ्गीव टङ्कच्छिन्नमनःशिलः ॥ १२ -८०॥
भा०-सुग्रीव से भगिनी की तुल्य अवस्था किया हुआ कुंभकर्ण टंक से कटे मनसिल के पर्वत के समान, राम को रोकता हुआ ॥ ८०॥
अकाले बोधितो भ्राता प्रियस्वप्नो वृथा भवान् ।
रामेषुभिरितीवासौ दीर्घनिद्रां प्रवेशितः ॥ १२ -८१॥
भा०-निद्राप्रिय तुमको वृथा भाई ने वे समय जगाया, इस कारण यह रामचंद्र के बाणों से दीर्घ निद्रा में प्राप्त हुआ। ८१॥ .
इतराण्यपि रक्षांसि पेतुर्वानरकोटिषु ।
रजांसि समरोत्थानि तच्छोणितनदीष्विव ॥ १२ -८२॥
भा०-दूसरे राक्षस भी वानरों के दल में पतित हुए, मानों समर में उठी हुई रज उनकी लोहू की नदी में पड़ी ।।
निर्ययावथ पौलस्त्यः पुनर्युद्धाय मन्दिरात् ।
अरावणमरामं वा जगदद्येति निश्चितः ॥ १२ -८३॥
भा०-इसके उपरान्त रावण आज जगत् रावण रहित वा राम रहित होगा ऐसा विचार कर फिर युद्ध करने को मन्दिर से निकला ।। ८३ ।।
रामं पदातिमालोक्य लङ्केशं च वरूथिनम् ।
हरियुग्यं रथं तस्मै प्रजिघाय पुरंदरः ॥ १२ -८४॥
भा०-रामचंद्र को पैदल और रावण को रथी देखकर इन्द्र सुनहरी घोडे जुते हए रथ को उनके निमित्त भेजता हुआ॥ ८४ ॥
तमाधूतध्वजपटं व्योमगङ्गोर्मिवायुभिः ।
देवसूतभुजालम्बी जैत्रमध्यास्त राघवः ॥ १२ -८५॥
भा०-रामचन्द्र आकाशगंगा की लहरों के वायु से चलायमान-ध्वजावाले उस जय’ शील (रथ पर ) इन्द्र के सारथी (मातली)का हाथ पकडकर चढे ॥८५॥
मातलिस्तस्य माहेन्द्रमामुमोच तनुच्छदम् ।
यत्रोत्पलदलक्लैब्यमस्त्राण्यापुः सुरद्विषाम् ॥ १२ -८६॥
भा०-मातलि उन (रामचंद्र ) को इन्द्र का बख्तर पहनाता हुआ, जिसमें असुरों के अस्त्र कमलदल की समान विफलता को प्राप्त हुए थे॥८६॥
अन्योन्यदर्शनप्राप्तविक्रमावसरं चिरात् ।
रामरावणयोर्युद्धं चरितार्थमिवाभवत् ॥ १२ -८७॥
भा०-बहुतकाल से परस्पर के दर्शन से बल का समय पाकर राम और रावण का युद्ध, चरितार्थ (सफलता को प्राप्त ) हुआ॥ ८७॥
भुजमूर्धोरुबाहुल्यादेकोऽपि धनदानुजः ।
ददृशे ह्ययथापूर्वो मातृवंश इव स्थितः ॥ १२ -८८॥
भा०-पहली दशा से विरुद्ध अकेला भी कुवेर का भाई (रावण ) भुजा चरण और शिरों की बहुलता से माता के कुल में खड़ा हुआ सा विदित हुआ (पहली दशा के विरुद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि उसके पास सेना न रही, माता का कुल यों कहा है कि उसकी माता राक्षसी थी) ॥ ८८॥
जेतारं लोकपालानां स्वमुखैरर्चितेश्वरम् ।
रामस्तुलितकैलासमारातिं बह्वमन्यत ॥ १२ -८९॥
भा०-लोकपालों के जीतनेवाले, अपने शिरों से महादेव के पूजनेवाले, कैलास के उठानेवाले उस वैरी को राम ने वहुत माना ॥ ८९ ॥
तस्य स्फुरति पौलस्त्यः सीतासंगमशंसिनि ।
निचखानाधिकक्रोधः शरं सव्येतरे भुजे ॥ १२ -९०॥
भा०-अधिक क्रोधी रावण ने फडकती हुई, जानकी का संगम जनानेवाली, उनकी दक्षिण भुजा में बाण मारा ॥
रावणस्यापि रामास्तो भित्त्वा हृदयमाशुगः ।
विवेश भुवमाख्यातुमुरगेभ्य इव प्रियम् ॥ १२ -९१॥
भा०-राम से छोडा हुआ वाण रावण के हृदय को विदीर्ण कर सर्पों को प्रिय बात कहने को मानों पृथ्वी में प्रवेश कर गया ॥९१ ॥
वचसैव तयोर्वाक्यमस्त्रमस्त्रेण निघ्नतोः ।
अन्योन्यजयसंरम्भो ववृधे वादिनोरिव ॥ १२ -९२॥
भा०-वाणी को वाणी से अस्त्र को अस्त्र से काटनेवाले उन दोनों का क्रोध शास्त्रार्थ करनेवालों के समान अपनी जय के लिये वृद्धि को प्राप्त हुआ॥९२॥
विक्रमव्यतिहारेण सामान्याऽभूद्द्वयोरपि ।
जयश्रीरन्तरा वेदिर्मत्तवारणयोरिव ॥ १२ -९३॥
भा०-जयलक्ष्मी पराक्रम के उलट पलट होने से दोनों ही को, दो युद्ध करनेवाले मत्तहाथियों को बाच की भीत की नाई सामान्य हुई ॥ ९३ ॥
कृतप्रतिकृतप्रीतैस्तयोर्मुक्तां सुरासुरैः ।
परस्परशरव्राताः पुष्पवृष्टिं न सेहिरे ॥ १२ -९४॥
भा०-अस्त्र प्रहारों से और प्रतिकारों से प्रसन्न होकर देवता और दैत्यों की त्यागी हुई फूलों की वर्षा उन दोनों की परस्पर शरवृष्टि ने न सही (अर्थात् वाणों पर से ही इधर उधर हो गई ) ९४ ॥
अयःशङ्कुचितां रक्षः शतघ्नीमथ शत्रवे ।
हृतां वैवस्वतस्येव कूटशाल्मलिमक्षिपत् ॥ १२ -९५॥
भा०-तब राक्षस ने लोहे की कीलों से खचित शतघ्नी, यमराज की बल से लाई हुई कूटशाल्मली की समान शत्रु पर चलाई ॥९५ ।।
(कूटशाल्मली सेंमल की बनी हुई लोहे के कांटों से जड़ी खोटाकर्म करनेवालों को दुःख देने की एक यम की यष्टि है)
राघवो रथमप्राप्तां तामाशां च सुरद्विषाम् ।
अर्धचन्द्रमुखैर्बाणैश्चिच्छेद कदलीसुखम् ॥ १२ -९६॥
भा०-रामचन्द्र उस रथ पर न प्राप्त हुई शतघ्नी और राक्षस की आशा को अर्द्धचन्द्रमुखवाले बाणों से केले के समान सुख से काट देते हुए ॥ ९६॥
अमोघं संदधे चास्मै धनुष्येकधनुर्धरः ।
ब्राह्ममस्त्रं प्रियाशोकशल्यनिष्कर्षणौषधम् ॥ १२ -९७॥
भा०-( वह ) एक धनुर्धारी प्यारी के शोकरूपी कांटे निकालने को ओपधीरूप सफल ब्रह्मास्त्र को रावण के (वध के) लिए धनुष पर चढाते हुए ॥९॥
तद्व्योम्नि शतधा भिन्नं ददृशे दीप्तिमन्मुखम् ।
वपुर्महोरगस्येव करालफलमण्डलम् ॥ १२ -९८॥
भा०-अकाश में सौ प्रकार से भिन्न हुआ, कान्तिमान् मुखवाला वह (ब्रह्मास्त्र ) तीक्ष्ण फणमण्डलवाले शेषनाग के शरीर के समान दीखा ॥ ९८॥
तेन मन्त्रप्रयुक्तेन निमेषार्धादपातयत् ।
स रावणशिरःपङ्क्तिमज्ञातव्रणवेदनाम् ॥ १२ -९९॥
भा०-वह (राम) मंत्र से प्रेरे हुए उस ब्रह्मास्त्र से घावों का कष्ट सहे विना ही रावण के शिरों की पंक्ति को आधे निमेष में गिरा देते हुए ॥ ९९॥ .
बालार्कप्रतिमेवाप्सु वीचिभिन्ना पतिष्यतः ।
रराज रक्षःकायस्य कण्ठच्छेदपरम्परा ॥ १२ -१००॥
भा०-गिरते हुए राक्षस के देह की मुंडों की पंक्ति तरंगों से पृथक २ की हुई जल में प्रातःकाल के सूर्य की प्रतिमा की समान शोभित हुई ॥ १००॥
मरुतां पश्यतां तस्य शिरांसि पतितान्यपि ।
मनो नातिविशस्वास पुनःसंधानशङ्किनाम् ॥ १२ -१०१॥
भा०-गिरे हुए उसके शिरों को देखते हुए भी मरुतों के मन ने फिर जुड़जाने की शंका से पूर्ण विश्वास न किया ॥ १०१॥
(ततः क्रोधान्महाबाहूः रघूणां कीर्तिवर्द्धनः । सन्धाय धनुषा रामः शरमाशीविषो’पमम् ॥ रावणस्य शिरोऽच्छिन्दच्छीमज्ज्वलितकुण्डलम् ॥ तच्छिरः पतितं भूमौ दृष्टं लोकैस्त्रिभिस्तदा । तस्मै तत्सदृशश्चान्यद्रावणस्योत्यितं शिरः ॥ (वाल्मी०)
इत्थं रामशरनिकृत्तानां रावणशिरसाम् असकृत् सन्धान पश्यन्ती देवाः ब्रह्मास्त्रच्छिन्नान्यपि अपुनरुत्थानाय पतितान्यपि शिरांसि कदाचित्पुनःसंधानं गच्छेयुः इति शंकिताः कियन्तं कालमविश्वासनिबन्धनं कष्टमनुबभूवरिति विवृतार्थः) ।
अथ मदगुरुपक्षैलोकपालद्विपाना
मनुगतमलिवृन्दैर्गण्डभित्तीर्विहाय ।
उपनतमणिबन्धे मूर्ध्नि पौलस्त्यशत्रोः
सुरभि सुरविमुक्तं पुष्पवर्षं पपात ॥ १२ -१०२॥
भा०-इसके उपरान्त मद से भरा हुए पंखोंवाले भौंरो द्वारा लोकपालों के हाथियों की विदीर्ण गण्डस्थली त्याग कर सेवन किये देवताओं से त्याग हुए सुगंधित फूलों की वर्षा मुकुट रखने के समय रावण के शत्रु (राम ) के शिर पर गिरी ॥ १०२ ॥
यन्ता हरेः सपदि संहृतकार्मुकज्य
मापृच्छ्य राघवमनुष्ठितदेवकार्यम् ।
नामाङ्करावणशराङ्कितकेतुयष्टि
मूर्ध्वं रथं हरिसहस्रयुजं निनाय ॥ १२ -१०३॥
भा०-इन्द्र सारथि शीघ्र ही धनुष से प्रत्यञ्चा त्यागे हुए और देवताओं का कार्य सिद्ध किये हुए रामचन्द्र से पूछकर रावण के नाम से अंकित ध्वजावाले, सहस्र घोडे जुते रथ को स्वर्ग को ले गया ॥ १०३॥
रघुपतिरपि जातवेदोविशुद्धां प्रगृह्य प्रियां
प्रियसुहृदि बिभीषणे संगमय्य श्रियं वैरिणः ।
रविसुतसहितेन तेनानुयातः ससौमित्रिणा
भुजविजितविमानरत्नाधिरूढः प्रतस्थे पुरीम् ॥ १२ -१०४॥
भा०-रामचन्द्र भी अग्नि से शुद्ध की हुई जानकी को ग्रहण कर प्यारे विभीषण सुहृद को शत्रु की लक्ष्मी देकर सुग्रीव विभीषण और लक्ष्मणसहित, अपनी भुजा से जीते हुए श्रेष्ठ विमान पर चढकर अपनी पुरी को चले ॥ १०४॥
(जानकी की परीक्षा अग्नि में की, वे अग्नि में प्रवेशकर शुद्ध निकल आई)
॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ रावणवधो नाम द्वादशः सर्गः ॥
इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग १२ सम्पूर्ण हुआ॥ १२ ॥
रघुवंशमहाकाव्यम् द्वादशः सर्गः
रघुवंशं सर्ग १२ कालिदासकृत
रघुवंश बारहवां सर्ग संक्षिप्त कथासार
लंकेश- वध
जैसे प्रात: काल के समय दीपक की शिखा क्षीण होकर नष्ट प्राय हो जाती है, वैसे ही दशरथ भी अपने जीवन की अन्तिम दशा में पहुंच गया । मानो कैकेयी के डर से बुढ़ापे ने सफेद बालों के बहाने कानों के पास आकर अपना सन्देश दिया कि अब राज्यलक्ष्मी राम को दे दो । जैसे नदी से निकली हुई नहर उद्यान के वृक्षों को हरा- भरा कर देती है, राम के अभिषेक की चर्चा ने नगरवासियों को वैसे ही हर्षित कर दिया । अभिषेक के अवसर पर राम के स्नान के लिए आए हुए पवित्र जल को कठोर हृदयवाली कैकेयी ने अपने शोक सूचक पार्थिव आंसुओं से अपवित्र कर दिया । महाराज ने जब उसे मनाने का यत्न किया तो उसने पहले दिए हुए दो वर उगल दिए मानो वर्षा होने पर पृथ्वी ने किसी बिल से दो सांप उगल दिए हों । उसने पहले वर से राम को चौदह वर्षों के लिए वन में भिजवा दिया, और दूसरे वर से भरत के लिए राज्यलक्ष्मी मांग ली – वह राज्यलक्ष्मी तो मिल गई परन्तु उसका परिणाम इतना भयंकर हुआ कि पुत्र -वियोग में महाराज की मृत्यु हो गई, जिससे कैकेयी को राज्यलक्ष्मी के स्थान पर वैधव्य प्राप्त हुआ । राम को जब राज्याभिषेक की आज्ञा मिली, तब यह सोचकर कि पिता वन को चले जाएंगे, उनके आंसू निकल आए, तदंनतर जब उन्हें वन जाने की आज्ञा मिली, तो आज्ञा पालन करने का अवसर मिलने से प्रसन्नतापूर्वक उसे अंगीकार कर लिया । लोगों ने आश्चर्यान्वित होकर देखा कि पहले मंगलसूचक बहुमूल्यवान् वस्त्र और पीछे वल्कल पहनते समय राम के मुख की छवि में कोई भेद नहीं आया । पिता के सत्य की रक्षा के लिए वे सीता और लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्य में चले गए । वन – प्रवेश के साथ ही वे सज्जनों के मन में भी प्रविष्ट हो गए। राम के वियोग में राजा ने बहुत दु: खी होकर श्रवणकुमार के माता-पिता के शाप का स्मरण करते हुए शरीर-त्याग कर दिया । राजा की मृत्यु हो गई । बड़े राजकुमार को वनवास हो गया । जिस राज्य में राजा न रहे, वह राष्ट्र के धूर्त शत्रुओं का शिकार बन जाता है। यह सोचकर अनाथ प्रजाजनों ने ननिहाल में गए हुए भरत को बुलाने के लिए दूतों को भेज दिया । उन दूतों ने किसी तरह अपने दु: ख के आंसुओं को थामकर भरत को अयोध्या चलने का सन्देश दिया परन्तु पिता की मृत्यु का समाचार नहीं सुनाया । भरत को राजधानी में पहुंचकर जब सब समाचार प्राप्त हुए तब वह न केवल अपनी माता के विमुख हो गया, बल्कि राज्यश्री से भी विमुख हो गया । तब राम ने वनयात्रा में जिन वृक्षों के नीचे निवास किया था, उनको अश्रुभरे नेत्रों से देखता हुआ, भरत सेनाओं के साथ चित्रकूट में राम के आश्रम में पहुंचा, और पिता के स्वर्गगमन का वृत्तान्त सुनाकर यह निवेदन किया कि मैंने आपकी छोड़ी हुई राज्य- लक्ष्मी को अब तक छुआ भी नहीं है, आप ही चलकर उसका उपभोग करें । भरत को ऐसा अनुभव हो रहा था कि बड़े भाई के अधिकार को छीनकर मानो वह वही असभ्यता करेगा जो कि बड़े भाई के रहते हुए विवाह करके छोटा भाई अपने बड़े भाई के प्रति करता है। जब भरत के बहुत आग्रह करने पर भी पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने वापस जाना स्वीकार नहीं किया, तो राज्य का अधिदेवता बनाने के लिए भरत ने राम की खड़ाऊं मांग ली । राम ने उसकी इच्छा पूरी कर दी । भरत खड़ाऊं लेकर राजधानी में प्रविष्ट न हुआ और नन्दिग्राम में रहकर राम की धरोहर समझकर राज्य की रक्षा करने लगा । मानो वह अपनी तपस्या द्वारा माता के पाप का प्रायश्चित्त कर रहा था । उधर राम वैदेही के साथ रहते हुए भी उस कठोर ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कर रहे थे, जिसका पालन इक्ष्वाकुवंश के राजा वृद्धावस्था में किया करते थे । एक दिन जंगल के भ्रमण से कुछ थककर राम सीता की गोद में सिर रखकर एक वृक्ष की छाया में सोए हुए थे कि एक दुष्ट कौए ने आकर सीता को आहत कर दिया । राम के जागने की आशंका से सीता ने हिलना उचित न समझा । कौए ने अवसर पाकर उनके चरणों पर चोंच से घाव कर दिए । तब राम की नींद खुली । क्रुद्ध होकर राम ने कौए पर एक सरकंडे का प्रहार किया, जिससे उस आततायी की आंख जाती रही । चित्रकूट अयोध्या के समीप ही था, राम को यह आशंका हुई कि कहीं भरत उससे घर लौटने का आग्रह करने के लिए फिर न आ जाए, इस कारण उन्होंने उस सुन्दर हरिणोंवाले चित्रकूट प्रदेश को छोड़कर आगे जाने का निश्चय किया । जैसे शीत ऋतु में सूर्य दक्षिण की ओर प्रयाण करता है वैसे राम ने भी मार्ग में ऋषियों के आश्रमों पर पड़ाव करते हुए दक्षिण दिशा की यात्रा आरम्भ की । कैकेयी के निषेध करने पर भी मानो जानकी के रूप में राज्यलक्ष्मी उनके पीछे-पीछे चलती हुई शोभायमान हो रही थी । मार्ग में अगस्त्याश्रम पड़ा जहां देवी अनसूया ने सीता को उपदेश और आदेश दिया । जंगल में जाते हुए एक दिन राम ने देखा कि चन्द्र को ग्रसनेवाले राहु के सदृश भयानक राक्षस रास्ते को रोककर खड़ा है । वह राक्षस आगे बढ़ा और दोनों भाइयों के बीच में से सीता को उठाकर ले चला । दोनों भाइयों ने उस आततायी को मार डाला और इस विचार से कि लाश से दुर्गन्ध न फैले, उसे भूमि में गाड़कर दबा दिया । मुनि अगस्त्य की आज्ञा से वे वन के दक्षिण की ओर बढ़ गए और पंचवटी में पहुंचकर ठहर गए । सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम वहीं आश्रम बनाकर रहने लगे। जैसे भयानक नागिन गर्मी से व्याकुल होकर चन्दन के वृक्ष की ओर भागती है, वैसे ही कामदेव के वशीभूत होकर रावण की छोटी बहिन शूर्पणखा राम के पास जा पहुंची, और सीता के सामने ही राम से कहने लगी कि मुझसे शादी कर ले क्योंकि मैं अतिसुन्दरी हूं । कामी व्यक्ति अवसर-अनवसर को नहीं देखता। संयमी राम ने कामान्ध राक्षसी को समझाते हुए आज्ञा दी कि हे बाले, मैं विवाहित हूं, अन्य विवाह नहीं कर सकता। तू मेरे छोटे भाई के पास जाकर प्रार्थता कर। दोनों किनारों का उपभोग करने का यत्न करनेवाली नदी को जैसे दोनों के बीच में मंडराना पड़ता है वैसे ही शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा भी तिरस्कृत होकर फिर राम की ओर भागी। सीता को यह देखकर हंसी आ गई । इससे राक्षसी का क्रोध भड़क उठा और वह यह कहती हुई सीता पर झपटी कि तू हरिणी होकर व्याघ्री का मज़ाक बनाती है, तो इसका फल पा । सीता पर आक्रमण करते समय विक्षोभ के कारण उसके नख सूप की तरह फैल गए, जिससे उसका वह रूप प्रकट हो गया, जिसके कारण वह शूर्पणखा कहलाती थी । जब लक्ष्मण ने उसका क्रोध में भरा श्रृंगाली-सा भयानक स्वर सुना तो वह समझ गया कि उसका पहला कोयल के सदृश मधुर स्वर केवल ढोंग था । राक्षसी की चिल्लाहट सुनकर हाथ में तलवार ले लक्ष्मण राम की झोंपड़ी में पहुंचे, और नाक – कान आदि काटकर उस कुरूपा को और अधिक कुरूपा बना दिया । तब वह लम्बे नखोंवाली और बांस की भांति कठोर गांठोंवाली अंकुश जैसी अंगुलियों से राम और लक्ष्मण को धमकाकर अपने जनस्थान की ओर भागी। जनस्थान में पहुंचकर उसने खर-दूषण आदि राक्षसों को राम द्वारा राक्षसों के पराजय की यह नई कहानी सुनाई। इस पर राक्षसों ने राम पर चढ़ाई करने का निश्चय किया, परन्तु उस समय उनके सामने शूर्पणखा की नाक-कान कटी सूरत आ गई, यह भारी अमंगल हो गया । राम ने जब हजारों राक्षसों की सेना को आक्रमण करते देखा तो सीता की रक्षा के लिए लक्ष्मण पर और विजय-प्राप्ति के लिए अपने धनुष पर भरोसा किया । लक्ष्मण सीता को लेकर सुरक्षित स्थान में चले गए और राम राक्षसों का संहार करने लगे । राम अकेले थे और राक्षस हजारों – परन्तु डर के मारे प्रत्येक राक्षस को अपने सामने एक – एक राम दिखाई दे रहा था । पहले राम ने अवगुण के समान नाशयोग्य दूषण की सुध ली । फिर उन्होंने खर और त्रिशिरा को भी शर -वर्षा का लक्ष्य बनाया । राम के तीर उनके शरीर में इतने वेग और लाघव से घुस गए कि जिस समय शरों के मुंह राक्षसों का जीवन नष्ट कर रहे थे, उनके पृष्ठभाग रुधिर का पान कर रहे थे। राम ने सभी राक्षसों को मार डाला, फलत: रणभूमि में कबन्ध ही कबन्ध दिखाई दे रहे थे । देवताओं के शत्रुओं की वह सेना राम के साथ युद्ध करके, मानो थककर सदा के लिए गृध्रों की छाया में सो गई । जनस्थान के सब राक्षस मारे गए । उनके नाश के समाचार को रावण तक पहुंचाने के लिए केवल शूर्पणखा ही शेष बची थी । बहिन के अंगच्छेद और प्रतिष्ठित राक्षसों के नाश का वृत्तान्त सुनकर रावण को ऐसा प्रतीत हुआ मानो राम ने उसके दशों मस्तकों पर पांव रख दिया हो । मृग का रूप धारण किए हुए मारीच की सहायता से मायावी रावण ने सीता का अपहरण कर लिया । मार्ग में जटायु ने विघ्न डाला तो रावण ने उसे घायल कर डाला । जिस समय राम और लक्ष्मण सीता को आश्रम में न पाकर उसे ढूंढ़ने के लिए निकले, तब उन्होंने देखा कि उनके पिता दशरथ के मित्र जटायु ने अपने प्राण देकर मित्रता का ऋण चुकाया है । उसने अन्तिम श्वास लेते हुए बतलाया कि जानकी को रावण ले गया है। उसने जानकी की रक्षा के लिए जो महान यत्न किया वह तो उसके गहरे घावों से प्रकट हो रहा था । दोनों भाइयों के हृदयों में जटायु की मृत्यु से अपने पिता का सारा दु:ख फिर से जाग उठा और उन्होंने उसकी अन्तिम क्रियाएं पिता के समान ही कीं। जंगल में कबन्ध नाम का राक्षस विघ्नकारी हुआ तो राम ने उसका वध कर दिया । राम द्वारा आहत किए जाने पर सद्गति को प्राप्त होते हुए राक्षस ने राम को सुग्रीव का परिचय दिया । उसने बतलाया कि अपने भाई बालि द्वारा राज्य का अधिकार और स्त्री के छिन जाने से सुग्रीव भी दु: खी है। एक-से दु:खवाले सुग्रीव के साथ स्वभावत: राम के हृदय में सहानुभूति उत्पन्न हो गई, जो गहरी मित्रता के रूप में परिणत हो गई। राम ने बालि को मारकर सुग्रीव को उसका छिना हुआ राज्य और स्त्री तारा, दोनों ही वापस दिला दिए । सुग्रीव के भेजे हुए दूत सीता की तलाश में पृथ्वी पर चारों ओर घूमने लगे । सम्पाति से यह समाचार पाकर कि रावण सीता को लेकर लंका में चला गया है, हनुमान समुद्र को ऐसे तैर गए, जैसे योगी संसार को तैर जाते हैं । लंका में घुसकर हनुमान ने विषेली लताओं से घिरी हुई जीवनौषधि की भांति राक्षसियों से घिरी हुई सीता को देखा। हनुमान ने जानकी के सामने प्रकट होकर, परिचय के लिए राम द्वारा उंगली से उतारकर दी हुई अंगूठी दी । उस समय वह अंगूठी ऐसी लग रही थी मानो पति का समाचार पाकर सीता की आंखों से निकले हुए शीतल आंसू ही स्थूल रूप में आ गए हों । इस प्रकार अपने सफल दौत्यकर्म से जानकी को प्रसन्न करके हनुमान ने लंका का नाश करने का संकल्प किया और राजकुमार अक्ष का वध कर के ब्रह्मास्त्र द्वारा पकड़े जाने पर, रावण की सुनहली लंका को जलाकर राख कर दिया । हनुमान ने लंका से लौटकर सीता की दी हुई निशानी राम को दी तो राम को ऐसा प्रतीत हुआ मानो सीता का हृदय स्थूल रूप धारण करके उन्हें प्राप्त हो गया है। प्रिया का समाचार प्राप्त करके, उसका उद्धार करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ राम को मार्ग का समुद्र खाई के समान सुगम प्रतीत होने लगा । वे सुग्रीव की विशाल वानर सेना को लेकर, पृथ्वी और आकाश के मार्गों से समुद्रतट की ओर प्रस्थित हुए । वहां समुद्रतट पर रावण का भाई विभीषण, सुमति से प्रेरित होकर राम से जा मिला, मानो लंका की राज्यलक्ष्मी ने अपनी रक्षा के लिए विभीषण के मस्तक में प्रवेश करके उसे राम की शरण में जाने के लिए प्रेरित कर दिया था । राम ने उसे यह आश्वासन दे दिया कि रावण को मारकर लंका का राज्य तुम्हें दे दंगा । समय – समय पर प्रयोग की गई नीति प्राय: सफलता प्राप्त करती है । राम ने वानरों की सहायता से समुद्र पर पुल तैयार कर दिया । वह सेतु ऐसा प्रतीत होता था मानो विष्णु के सोने के लिए, समुद्र में से निकलकर साक्षात् वासुकि बिछ गया हो । वानर – सेना द्वारा बनाए गए सेतु से समुद्र को पार करके राम के सुनहरे रंग के सैनिकों ने लंका को घेरकर उसके चारों ओर दूसरा प्राकार- सा बना दिया । तब राक्षसों और वानरों की सेना का युद्ध आरम्भ हुआ । वानर – सेना राम के जयकारों से और राक्षस – सेना रावण के जयकारों से आकाश को गुंजा रही थी । वह युद्ध अद्भुत था । परिघ का जवाब उखाड़ कर फेंके हुए पेड़ से दिया जा रहा था, मुद्गर शिला से पिस रहा था, नाखूनों के आघात शस्त्रों के आघात को मात कर रहे थे, और हाथी का प्रहार पहाड़ से तोड़ा जा रहा था । रावण ने युद्ध में हार होते देखकर सीता को अपने वश में लाने का प्रयत्न किया, परन्तु त्रिजटा नाम की राक्षसी ने सीता की दशा पर तरस खाकर उसे सच्ची बात बता दी । यह भ्रम हो जाने पर कि राम नहीं रहे, सीता को अपना जीवन बोझ-सा प्रतीत होने लगा था । जब त्रिजटा के कथन से उनका भ्रम दूर हो गया तो वे सन्तुष्ट होकर राम की विजय की प्रतीक्षा करने लगीं । रावण का पुत्र मेघनाद शस्त्रास्त्रों में परम प्रवीण था । उसने सर्पास्त्र का प्रयोग करके राम और लक्ष्मण को बांधने का प्रयत्न किया, परन्तु गरुड़ास्त्र के प्रयोग ने इनके बन्धन खोल दिए और अस्त्र द्वारा बंधने की घटना स्वप्नमात्र रह गई । सर्पास्त्र के व्यर्थ हो जाने पर मेघनाद ने लक्ष्मण पर शक्ति का प्रहार किया, जिसने लक्ष्मण को तो मूर्छित किया ही, उस दु:ख में राम को भी मूर्छित त कर दिया । यह बताने पर कि पर्वत से उत्पन्न होनेवाली महौषधि से लक्ष्मण की मूर्छा जा सकती है, वीर हनुमान पर्वत से औषधि ले आया, जिससे लक्ष्मण की मूर्छा दूर हो गई, और वे फिर लंका के राक्षसों का संहार करने लगे। जैसे शरद्- ऋतु बादलों के गर्जन और उन पर दीखने वाले इन्द्रधनुष को समाप्त कर देती है, लक्ष्मण ने भी मेघनाद को मारकर उसके वीर गर्जन और धनुष दोनों का ही अन्त कर दिया तब रावण का भाई कुम्भकर्ण रणक्षेत्र में उतरा। जब सुग्रीव ने कान-नाक काटकर उसे शूर्पणखा के समान कर दिया, तब रक्त बहने से लाल शिलाओंवाले पर्वत के समान वह राक्षस राम पर टूटा । भाई रावण ने तुम्हें व्यर्थ ही नींद से जगाने का कष्ट दिया – मानो यह कहते हुए राम के बाणों ने उसे शीघ्र ही अटूट नींद में सुला दिया । राक्षसों की अन्य सेनाएं भी युद्धक्षेत्र में आकर, वानरों की सेना में ऐसे विलीन होती गईं, जैसे राक्षसों के रुधिर – जल में पड़कर युद्धभूमि की धूलि । तब इस हठ से साथ कि संसार में रावण ही रहेगा या राम, रावण स्वयं युद्ध के लिए उद्यत -होकर राजभवन से बाहर निकला। रावण रथ पर आरूढ़ होकर मैदान में आया था और राम पैदल थे। यह देखकर देवताओं के राजा इन्द्र ने अपना कपिलवर्ण के घोड़ोंवाला विशाल रथ राम के लिए भेज दिया । आकाशगंगा के जल के सम्पर्क से शीतल पवन की सी आन्दोलित ध्वाजावाला वह देवरथ जब रणक्षेत्र में पहुंचा तो राम उसके सारथि मातलि के कन्धे पर हाथ रखकर उस पर चढ़ गए। मातलि महेन्द्र का असुरजयी कवच भी लाया था । उसने कवच राम को पहना दिया । चिरकाल से राम और रावण के पराक्रमों की प्रतिस्पर्धा- सी चल रही थी । आज युद्ध- भूमि में जय -पराजय का निर्णय होने का अवसर आने से मानो उस परस्पर दर्शन में सफलता आ गई । भाई, पुत्र और अन्य सहायकों के मर जाने से अकेला भी रावण मुंह, भुजा और पांव की अनेकता के कारण मानो राक्षसी माता के वंश के सदृश दिखाई दे रहा था । जिसने सब लोकपालों को जीत लिया था और अपने मुखों की बलि देकर जिसने शिव को प्रसन्न किया था, उस पराक्रमी रावण को युद्ध के लिए सामने खड़ा देखकर राम के हृदय में आदर का भाव उत्पन्न हुआ । युद्ध आरम्भ हुआ । मानो युद्ध की समाप्ति और सीता-प्राप्ति की सूचना देने के लिए फड़कती हुई राम की दाहिनी भुजा पर रावण ने बाण का प्रहार किया । उत्तर में राम ने जो बाण रावण के हृदय को लक्ष्य करके चलाया, वह अपना काम करके मानो सर्पलोक में रावण के अनिष्ट का समाचार सुनाने के लिए पृथ्वी में प्रविष्ट हो गया । जैसे वाद -विवाद में वादी और प्रतिवादी एक दूसरे के वाक्य को काटते हैं, वैसे ही युद्ध में उनके घात – प्रतिघात होने लगे, और युद्ध का आवेग बढ़ गया । मस्त हाथियों की भांति जय के अभिलाषी उन दोनों वीरों का जोर बारी -बारी से घटता और बढ़ता था, जिससे उनके मध्य में जयश्री डावांडोल हो रही थी । रावण ने राम पर फौलाद की बनी हुई शक्ति का प्रहार किया । राम ने रास्ते में ही अपने अर्धचन्द्राकार बाणों से उसे और राक्षसों की आशा को एक ही साथ ऐसे सुख से काट डाला जैसे केले के तने को काट डालते हैं । संसार के उस सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी राम ने सीता के वियोग से होनेवाली दु: खरूपी कील को निकालने वाली महौषधि के सदृश ब्रह्मास्त्र को धनुष पर चढ़ाया और रावण की ओर छोड़ दिया । खुले हुए विकराल फण -मण्डल से युक्त सर्पराज के समान ज्योति को उगलता हुआ वह ब्रह्मास्त्र क्षण- भर में आकाश में सैकड़ों धाराओं में बंटकर फैलता हुआ दिखाई दिया और आधे क्षण में ही उसने अनायास ही रावण के सिर काटकर भूमि पर गिरा दिए । रावण के कटे, रक्त में सने और सिसकते हुए वे सिर भूमि पर पड़कर ऐसे दिखाई दे रहे थे, मानो प्रभात के सूर्य के प्रतिबिम्ब जल में चमक रहे हों । वे सिर कटकर भी ऐसे तेजस्वी रहे कि देवताओं को उनके जीवित होने का सन्देह बना रहा । संसार को पीड़ा देने वाले रावण के वध से प्रसन्न होकर देवता राम पर पुष्पों की वर्षा करने लगे। इन्द्र का सारथि मातलि युद्ध समाप्त होने पर दाशरथि की आज्ञा प्राप्त करके देवरथ वापस ले गया और राम ने भी अग्निपरीक्षा द्वारा सीता की विशुद्धता घोषित करके सीता, सुग्रीव तथा लक्ष्मण के साथ अपने भुजबल से जीते हुए पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया । प्रस्थान करने से पूर्व लंका का राज्य प्रिय मित्र विभीषण को सौंप दिया ।
रघुवंश महाकाव्य बारहवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ १२ ॥