रघुवंशम् सर्ग १३ || Raghuvansham Sarga 13

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इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग १२ में रावण वध तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग १३ में राम-सीता व लक्ष्मण के पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या प्रत्यागमन तथा भरत मिलन का चित्रण है। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ सहित और पश्चात् हिन्दी में संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।

रघुवंशमहाकाव्यम् त्रयोदशः सर्ग:

रघुवंशं सर्ग १३ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् तेरहवां सर्ग

रघुवंश

त्रयोदशः सर्गः।

॥ रघुवंशं सर्ग १३ कालिदासकृतम् ॥

अथात्मनः शब्दगुणं गुणज्ञः पदं विमानेन विगाहमानः ।

रत्नाकरं वीक्ष्य मिथः स जायां रामाभिधानो हरिरित्युवाच ॥ १३ -१॥

भा०-इसके अनन्तर गुण के जाननेवाले वह रामनामक विष्णु अपने शब्दगुणवाले पद (आकाश) में विमान द्वारा फिरते हुए समुद्र को देखकर एकान्त में इस प्रकार भार्या (सीता) से बोले ॥१॥

वैदेहि पश्यऽऽमलयाद्विभक्तं मत्सेतुना फेनिलमम्बुराशिम्

छायापथेनेव शरत्प्रसन्नमाकाशमाविष्कृतचारुतारम् ॥ १३ -२॥

भा०-हे विदेहकुमारि ! मलयाचल पर्वत तक विभाग किये अंगोंवाले सागर को, छायापथ के विभाग किये हुए, शरद के समान उज्ज्वल, प्रकाशमान तारों से युक्त आकाश की नाई देखो ॥२॥

(छायापथ को आकाशगंगा और नागवीथी भी कहते हैं जो शरदऋतु में आकाश के मध्य श्वेत रेखा दिखाई देती है)

गुरोर्यियक्षोः कपिलेन मेध्ये रसातलं संक्रमिते तुरंगे ।

तदर्थमुर्वीमवधारयद्भिः पूर्वैः किलायं परिवर्धितो नः ॥ १३ -३॥

भा०-यज्ञ करनेवाले पिता के पवित्र घोडे को कपिल द्वारा पाताल में पहुंचाने पर उसक निमित्त पृथ्वी खोदते हुए हमारे पुरुखाओं ने इसे बढाया है ॥३॥

गर्भं दधत्यर्कमरीचयोऽस्माद्विवृद्धिमत्राश्नुवते वसूनि ।

अबिन्धनं वह्निमसौ बिभर्ति प्रह्लादनं ज्योतिरजन्यनेन ॥ १३ -४॥

भा०-सूर्य की किरणें इससे जल प्राप्त करती हैं, रत्न इसमें वृद्धि को प्राप्त होते हैं, पाना भक्षण करनेवाली (वडवा) अग्नि को यह धारण करता है, इसी से आनन्ददायक ज्योति (चन्द्रमा) उत्पन्न हुआ है ॥ ४॥

तां तामवस्थां प्रतिपद्यमानं स्थितं दश व्याप दिशो महिम्ना ।

विष्णोरिवास्यानवधारणीयमीदृक्तया रूपमियत्ताया वा ॥ १३ -५॥

भा०-अनेक दशाओं को प्राप्त होनेवाला महिमा से दशों दिशाओं में व्याप्त होकर ठहरे हुए इसका विष्णु के समान, रूप ऐसापन तथा इतनापन से अकथनीय है ।। ५ ॥

नाभिप्ररूढाम्बुरुहासनेन संस्तूयमानः प्रथमेन धात्रा ।

अमुं युगान्तोचितयोगनिद्रः संहृत्य लोकान्पुरुषोऽधिशेते ॥ १३ -६॥

भा०-प्रलय में योगनिद्रा को प्राप्त होनेवाले विष्णु भगवान् लोकों को संहारकर, नाभि से उत्पन्न हुए कमल पर बैठनेवाले प्रथम ब्रह्मा से स्तुति को प्राप्त हो इसमें शयन करते हैं ॥६॥

पक्षच्छिदा गोत्रभिदात्तगन्धाः शरण्यमेनं शतशो महीध्राः ।

नृपा इवोपप्लविनः परेभ्यो धर्मोत्तरं मध्यममाश्रयन्ते ॥ १३ -७॥

भा०-पंख छेदन करनेवाले इन्द्र से अहंकारहीन हो सैकडों पर्वत, शरण देनेवाले इस सागर को शत्रुओं से भयभीत हुए राजा श्रेष्ठ धर्मवाले मध्यस्थ राजा के समान, आश्रय करते हैं ॥ ७॥

(पुरा कृतयुगे तात पव्वताः पक्षिणोऽभवन् । तेपि जग्मुर्दिशः सर्वाः गरुडा इव वेगिनः।। ततस्तेषु प्रयातेषु देवसंघा महर्षिभिः। भूतानि च भयं जग्मुस्तेषां पतनश: कया ॥ ततः क्रुद्धः सहस्राक्षः पर्वतानां शतक्रतुः । पक्षांश्चिच्छेद वज्रेण ततः शतसहस्रशः॥)(वाल्मी०)

अत एव इन्द्रः गोत्रभित् उच्यते इति बोध्यम्

भा०-इन्द्र का नाम गोत्रभित् तब से हुआ जब से उसने पर्वतों के पंख काटे, जो कि गरुड की नाई उडा करते थे)

रसातलादादिभवेन पुंसा भुवः प्रयुक्तोद्वहनक्रियायाः ।

अस्याच्छमम्भः प्रलयप्रवृद्धं मुहूर्तवक्त्राभरणं बभूव ॥ १३ -८॥

भा०-आदिवराह द्वारा पाताल से लाई हुई पृथ्वी का, इसका प्रलय में बढा हुआ स्वच्छ जल, क्षणमात्र को घूंघट हुआ था ॥८॥

मुखार्पणेषु प्रकृतिप्रगल्भाः स्वयं तरंगाधरदानदक्षः ।

अनन्यसामान्यकलत्रवृत्तिः पिबत्यसौ पाययते च सिन्धुः ॥ १३ -९॥

भा०-स्त्रियों में औरों से निराले व्यवहारवाला, तरंगरूपी अधर दान करने में चतुर यह ( सागर )मुख अर्पण करने में ढीठ प्रकृतिवाली नदियों को स्वयं पीता है और पिवाता है ॥९॥

ससत्वमादाय नदीमुखाम्भः संमीलयन्तो विवृताननत्वात् ।

अमी तिरोभिस्तिमयः सरन्ध्रैरूध्वं वितन्वन्ति जलप्रवाहान् ॥ १३ -१०॥

भा०-यह तिमिजाति के मच्छ खुले मुख के कारण जीवो सहित नदी के जल को निगलकर पीछे मुख बंदकर छिद्रवाले शिरों से जल के प्रवाहों को ऊपर फेंकते हैं॥१०॥

मातंगनक्रैः सहसोत्पतद्भिर्भिन्नान्द्विधा पश्य समुद्रफेनान् ।

कपोलसंसर्पितया य एषां व्रजन्ति कर्णक्षणचामरत्वम् ॥ १३ -११॥

भा०-एक साथ उठते हुए मतंग के आकार मगरमच्छों से दो भाग किये हुए समुद्र के फेनों को देख, जो उनके कपोलों पर फैलकर क्षणमात्र को मीनों की चामरता को प्राप्त होते हैं ॥ ११॥

वेलानिलाय प्रसृता भुजंगा वहोर्मिविस्फूर्जथुनिर्विशेषाः ।

सूर्यांशुसंपर्कविवृद्धरागैर्व्यज्यन्त एते मणिभिः फणस्थैः ॥ १३ -१२॥

भा०-किनारे की पवन पीने के निमित्त निकले हुए, बडी तरंगों के फैलाव के समान यह सर्प सूर्य की किरणों के संगम से बढी हुई कान्तिवाली फणों में धरी हुई मणियों से जाने जाते हैं ॥ १२॥

तवाधरस्पर्धिषु विद्रुमेषु पर्यस्तमेतत्सहसोर्मिवेगात् ।

ऊर्ध्वाङ्कुरप्रोतमुखं कथंचित्क्लेशादपक्रामति शङ्खयूथम् ॥ १३ -१३॥

भा०-तेरे अधर की हिरस करनेवाले विद्रुम (मूंगों) में सहसा ‘तरङ्गों के वेग से फैका हुआ स्थित अंकुरो से मुख छिदा हुआ यह शंखों का ढेर कैसे कष्ट से पीछे को लौटता है॥ १३॥

प्रवृत्तमात्रेण पयांसि पातुमावर्तवेगाद्भ्रमता घनेन ।

आभाति भूयिष्ठमयं समुद्रः प्रमथ्यमानो गिरिणेव भूयः ॥ १३ -१४॥

भा०-जल पीने को प्रवृत्त हुए ही आवर्त (जल भ्रमण) के वेग से घूमते हुए वादलों से यह समुद्र फिर भी पर्वत से मंथन होता हुआ सा विदित होता है ॥ १४॥

दूरादयश्चक्रनिभस्य तन्वी तमालतालीवनराजिनीला ।

आभाति वेला लवणाम्बुराशेर्धारानिबद्धेव कलङ्करेखा ॥ १३ -१५॥

भा०-लोहे के चक्र की समान खारी समुद्र की वेला दूर होने के कारण सूक्ष्म और तमालताल वनों की पंक्ति से नीली, चक्र में स्थित कलंकरेखा (काई) की समान शोभित होती है ॥ १५ ॥

वेलानिलः केतकरेणुभिस्ते संभावयत्याननमायताक्षि ।

मामक्षमं मण्डलकालहानेर्वेत्तीव बिम्बाधरबद्धतृष्णम् ॥ १३ -१६॥

भा०-हे कमललोचनि ! किनारे की पवन केतकी की रेणुओं से तेरे मुख की रचना करती है, मानों कंदूरी के समान (लाल) अधर में तृष्णा बांधे हुए मुझको सिंगार करने के समय विताने की हानि में असमर्थ जानती है ॥ १६ ॥

एते वयं सैकतभिन्नशुक्तिपर्यस्तमुक्तापटलं पयोधेः ।

प्राप्ता मुहूर्तेन विमानवेगात्कूलं फलावर्जितपूगमालम् ॥ १३ -१७॥

भा०-यह हम रेत में फटी हुई सीपियों के फैले हुए मोतियों के ढेरवाले तथा फलों से झुके हुए पूग (सुपारी) की लतावाले सागर के किनारे पर विमान के वेग से मुहूर्त मात्र में प्राप्त हो गये ॥ १७ ॥

कुरुष्व तावत्करभोरु पश्चान्मार्गे मृगप्रेक्षिणि दृष्टिपातम् ।

एषा विदूरीभवतः समुद्रात्सकानना निष्पततीव भूमिः ॥ १३ -१८॥

भा०-हे करभोरु हे मृगलोचनी ! पहले पीछे के मार्ग को तो देखो, यह वनसहित भूमि दूर रहते हुए सागर से निकलती हुई सी ( दीखती है)॥१८॥

क्वचित्पथा संचरते सुराणां क्वचिद्घनानां पततां क्वचिच्च ।

यथाविधो मे मनसोऽभिलाषः प्रवर्तते पश्य तथा विमानम् ॥ १३ -१९॥

भा०-(हे देवि) यह विमान मेरे मन की इच्छा जैसी (होती है) वैसा ही चलता है, देख कभी देवताओं के, कभी मेघों के, और कभी पक्षियों के मार्ग में चलता है॥१९॥

असौ महेन्द्रद्विपदानगन्धिस्त्रिमार्गगावीचिविमर्दशीतः ।

आकाशवायुर्दिनयौवनोत्थानाचामति स्वेदलवान्मुखे ते ॥ १३ -२०॥

भा०-इन्द्र के हाथी के मद की गन्धवाली, आकाशगंगा की तरंगों के लगने से शीतल यह आकाश की पवन दुपहरी में उठे हुए तेरे मुख की पसीने की बूंदों को सुखाती है॥२०॥

करेण वातायनलम्बितेन स्पृष्टस्त्वया चण्डि कुतूहलिन्या ।

आमुञ्चतीवाभरणं द्वितीयमुद्भिन्नविद्युद्वलयो घनस्ते ॥ १३ -२१॥

भा०-हे कोपनस्वभाववाली कुतूहल करनेवाली तुझसे झरोखे में लम्वायमान बाँह से छुआ हुआ, चमकती हुई बिजली के कंकनवाला बादल तेरे निमित्त मानो दूसरा गहना देता है ॥२१॥

अमी जनस्थानमपोढविघ्नं मत्वा समारब्धनवोटजानि ।

अध्यासते चीरभृतो यथास्वं चिरोज्झितान्याश्रममण्डलानि ॥ १३ -२२॥

भा०-यह चीर धारण करनेवाले तपस्वी जनस्थान को विघ्न रहित मानकर नई बनाई पर्णकुटीवाले, बहुतकाल से छोडे हुए आश्रममण्डलों में सुखपूर्वक बसते हैं।॥२२॥

सैषा स्थली यत्र विचिन्वता त्वां भ्रष्टं मया नूपुरमेकमुर्व्याम् ।

अदृष्यत त्वच्चरणारविन्दविश्लेषदुःखादिव बद्धमौनम् ॥ १३ -२३॥

भा०-यह वह स्थान है जहां तुझे ढूंढते हुए मैंने तेरे चरणारविन्द के वियोग दुःख से मौन साधे, पृथ्वी में पडे हुए, एक नूपुर को (मंजीर जिसे स्त्री पैर में पहरती हैं) पाया था ॥ २३ ॥

त्वं रक्षसा भीरु यतोऽपनीता तं मार्गमेताः कृपया लता मे ।

अदर्शयन्वक्तुमशक्नुवत्यः शाखाभिरावर्जितपल्लवाभिः ॥ १३ -२४॥

भा०-हे डरनेवाली ! राक्षस तुझको हरकर जिस ओर को ले गया था, उस मार्ग के कहने को असमर्थ यह लताएं झुके हुए पत्तों की डालियों से दयाकर मुझको बताती हुई॥ २४॥

मृग्यश्च दर्भाङ्कुरनिर्व्यपेक्षास्तवागतिज्ञं समबोधयन्माम् ।

व्यापारयन्त्यो दिशि दक्षिणस्यामुत्पक्षराजीनि विलोचनानि ॥ १३ -२५॥

भा०-कुशांकुर भोजन में इच्छा छोडे हरिणी ऊंचे पलकोंवाले नेत्र दक्षिण दिशा में चलाती हुई तेरे मार्ग के न जाननेवाले मुझको समझाती हुई ॥२५॥

एतद्गिरेर्माल्यवतः पुरस्तादाविर्भत्यम्बरलेखि शृङ्गम् ।

नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्विप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम् ॥ १३ -२६॥

भा०-माल्यवान् पर्वत का आकाश छूनेवाला यह शृंग आगे दिखाई देता है, जहां बादलों ने नवीन जल और मैंने तेरे वियोग के आंसू बराबर ही छोड़े थे ॥ २६ ॥

गन्धश्च धाराहतपल्वलानां कादम्बमर्धोद्गतकेसरं च ।

स्निग्धाश्च केकाः शिखिनां बभूवुर्यस्मिन्नसह्यानि विना त्वया मे ॥ १३ -२७॥

भा०-जिसमें वर्षा से छिड़की हुई पोखरों की संगग्धि और आधी खिली मंजरियोंवाले कदम्ब के फूल और मोरों के मनोहर शब्द मुझे तेरे विना असह्य हुए थे॥२७॥

पूर्वानुभूतं स्मरता च यत्र कम्पोत्तरं भीरु तवोपगूढम् ।

गुहाविसारीण्यतिवाहितानि मया कथंचिद्घनगर्जितानि ॥ १३ -२८॥

भा०-हे भीरु ! जिसमें पूर्वकाल में भोगे हुए तेरे कांपने सहित आलिंगनों को स्मरण करते हुए मैंने गुहाओं में वृद्धि को प्राप्त हुई बादलों की गर्जना किसी प्रकार से बिताई थी॥ २८॥

आसारसिक्तक्षितिबाष्पयोगान्मामक्षिणोद्यत्र विभिन्नकोशैः ।

विडम्ब्यमाना नवकन्दलैस्ते विवाहधूमारुणलोचनश्रीः ॥ १३ -२९॥

भा०-जहां वर्षा की सींची पृथ्वी की भाफ का संयोग पाकर खिली कलीवाली नई कन्दलियों से होड करती हुई विवाह के धुंए से लालपन को प्राप्त हुई तेरे नेत्रों की शोभा ने (स्मरण करनेवाले ) मुझको कष्ट दिया था ॥ २९ ॥

उपान्तवानीरवनोपगूढान्यालक्षपारिप्लवसारसानि ।

दूरावतीर्णा पिबतीव खेदादमूनि पम्पासलिलानि दृष्टिः ॥ १३ -३०॥

भा-किनारे के वानीर वनों से ढंके, कुछेक दीखते चंचल सारसों वाले इन पंपासरोवर के जलों को दूर गई हुई दृष्टि मानों दुःख से पान करती है ॥ ३०॥

अत्रावियुक्तानि रथङ्गनाम्नामन्योन्यदत्तोत्पलकेसराणि ।

द्वन्द्वानि दूरान्तरवर्तिना ते मया प्रिये सस्मितमीक्षितानि ॥ १३ -३१॥

भा०-हे प्रिये ! यहां परस्पर कमल के पराग देते हुए, मिले हुए, चकवा चकवी के जोडे दूर वर्तनेवाले तेरे मुझ वियोगी ने बडी लालसा से देखे थे ॥ ३१॥ .

इमां तटाशोकलतां च तन्वीं स्तनाभिरामस्तबकाभिनम्राम् ।

त्वत्प्राप्तिबुद्ध्या परिरब्धुकामः सौमित्रिणा साश्रुरहं निषिद्धः ॥ १३ -३२॥

भा०-किन्तु स्तनसदृश मनोहर गुच्छों से झुकी इस तट की अशोकलता को तेरी प्राप्ति की बुद्धि से आलिंगन करने की इच्छा करनेवाले आंसू बहाते मुझको लक्ष्मण ने निषेध किया था (अर्थात् यह सीता नहीं ऐसा कहकर निवारण किया था) ॥३२॥

अमूर्विमानान्तरलम्बिनीनां श्रुत्वा स्वनं काञ्चनकिङ्किणीनाम् ।

प्रत्युद्व्रजन्तीव खमुत्पतन्त्यो गोदावरीसारसपङ्क्तयस्त्वाम् ॥ १३ -३३॥

भा०-विमानान्तर में लम्बायमान सुवर्ण के घुंघरुओं का शब्द सुनकर आकाश में उडनेवाली यह गोदावरी के सारसों की पंक्तिये तेरे सन्मुख आती हैं ॥ ३३ ॥

एषा त्वया पेशलमध्ययापि घटाम्बुसंवर्धितबालचूता ।

आनन्दयत्युन्मुखकृष्णसारा दृष्टा चिरात्पञ्चवटी मनो मे ॥ १३ -३४॥

भा०-पतली कटिवाली तुझसे घडों के जल से बढाये हुए आम के विरवोंवाली, ऊपर को मुख किये मृगोंवाली, बहुत दिन के पीछे देखी हुई यह पंचवटी मेरे मन को प्रसन्न करती है ॥ ३४॥

अत्रानुगोदं मृगयानिवृत्तस्तरंगवातेन विनीतखेदः ।

रहस्त्वदुत्सङ्गनिषण्णमूर्धा स्मरामि वानीरगृहेषु सुप्तः ॥ १३ -३५॥

भा०-इस पंचवटी में गोदावरी के किनारे मृगया से निवृत्त हो तरंगों की पवन से श्रमरहित हो एकान्त में तेरी गोदी में शिर रखकर नरसल की कुटी में सोया हुआ मैं सुध करता हूं ॥ ३५॥

भ्रूभेदमात्रेण पदान्मघोनः प्रभ्रंशयां यो नहुषं चकार ।

तस्याविलाम्भःपरिशुद्धिहेतोर्भौमो मुनेः स्थानपरिग्रहोऽयम् ॥ १३ -३६॥

भा०-जो भौंह के मरोडने से ही नहुष को इन्द्र के पद से भ्रष्ट करते हुए, मैले जलों के निर्मल करने के कारण उन मुनि (अगस्त्य) का यह धरती पर किया हुआ आश्रम है॥ ३७॥

त्रेताग्निधूमाग्रमनिन्द्यकीर्तेस्तस्येदमाक्रान्तविमानमार्गम् ।

घ्रात्वा हविर्गन्धि रजोविमुक्तः समश्नुते मे लघिमानमात्मा ॥ १३ -३७॥

भा०-निन्दारहित कीर्तिवाले तिन मुनि के विमान के मार्ग में आते हुए, हवि की सुगंधिवाले इस तीन अग्नि के धुएं को सूंघकर मुझ रजोगुण रहित का आत्मा लघुता (शुद्धता) को प्राप्त होता है ।। ३७॥

एतन्मुमुनेर्मानिनि शातकर्णेः पञ्चाप्सरो नाम विहारवारि ।

आभाति पर्यन्तवनं विदूरान्मेघान्तरालक्ष्यमिवेन्दुबिम्बम् ॥ १३ -३८॥

भा०-हे मानिनि! शातकर्णी मुनि का यह पंचाप्सर नाम, वन से घिरा हुआ, जलविहार करने का सरोवर, दूसरे बादलों के बीच में दीखते हुए चन्द्रबिम्ब के समान प्रकाशित होता है ॥३८॥

पुरा स दर्भाङ्कुरमात्रवृत्तिश्चरन्मृगैः सार्धमृषिर्मघोना ।

समाधिभीतेन किलोपनीतः पञ्चाप्सरोयौवनकूटबन्धम् ॥ १३ -३९॥

भा०-प्रथम दुर्वांकुर भक्षण करते, मृगों के साथ फिरते हुए वह महर्षि, समाधि से डरे हुए इन्द्र द्वारा पांच अप्सराओं के यौवनरूपी कूटजाल में फंसाये गये थे ॥३९॥

तस्यायमन्तर्हितसौधभाजः प्रसक्तसंगीतमृदङ्गघोषः ।

वियद्गतः पुष्पकचन्द्रशालाः क्षणं प्रतिश्रुन्मुखराः करोति ॥ १३ -४०॥

भा०-जल के भीतर मंदिर में रहनेवाले उन मुनि की यह संगीत से मृदंग की ध्वनि आकाश में प्र होकर (प्रतिध्वनित हो) पुष्पक के ऊपर के मन्दिरों को क्षणमात्र गुंजारती है ॥ ४०॥ .

हविर्भुजामेधवतां चतुर्णां मध्ये ललाटंतपसप्तसप्तिः ।

असौ तपस्यत्यपरस्तपस्वी नाम्ना सुतीक्ष्णश्चरितेन दान्तः ॥ १३ -४१॥

भा०-सुतीक्ष्ण नामवाला उदार चरित्र (वा सौम्यचारित्र) यह दूसरा तपस्वी चार जलती हुई अग्नियों के वीच में सूर्य से माथा तपानेवाला तप करता है ॥ ४१॥

अमुं सहासप्रहितेक्षणानि व्याजार्धसंदर्शितमेखलानि ।

नालं विकर्तुं जनितेन्द्रशङ्कं सुराङ्गनाविभ्रमचेष्टितानि ॥ १३ -४२॥

भा०-इन्द्र के शंकित करनेवाले इन (मुनि को ) मुसकान सहित कटाक्ष और व्याज से आधी मेखला दिखानेवाली देवांगनाओं की चेष्टाऐं विकार करने को समर्थ न हुई ना ४२ ॥

एषोऽक्षमालावलयं मृगाणां कण्डूयितारं कुशसूचिलावम् ।

सभाजने मे भुजमूर्ध्वबाहुः सव्येतरं प्राध्वमितः प्रयुङ्क्ते ॥ १३ -४३॥

भा०-ऊपर को भुजा उठाये यह (तपस्वी) रुद्राक्ष की माला के कंकनवाली मृगों की खुजानेवाली और कुश के तोडनेवाली दाहिनी भुजा मेरे सत्कार के निमित्त अनुकूल करके इधर करता है ॥४३॥

वाचंयमत्वात्प्रणतिं ममैष कम्पेन किञ्चित्प्रतिगृह्य मूर्ध्नः ।

दृष्टिं विमानव्यवधानमुक्तां पुनः सहस्रार्चिषि संनिधत्ते ॥ १३ -४४॥

भा०-यह (तपस्वी.) मौन होने के कारण मेरे प्रणाम को शिर के कुछेक कंपाने से ग्रहण करके विमान के आने से छुटी हुइ दृष्टि को फिर सूर्य में लगाता है ।। ४४॥

अदः शरण्यं शरभङ्गनाम्नस्तपोवनं पावनमाहिताग्नेः ।

चिराय संतर्प्य समिद्भिरग्निं यो मन्त्रपूतां तनुमप्यहौषीत् ॥ १३ -४५॥

भा०-शरणदायक पवित्र यह तपोवन अग्निहोत्री शरभंग ऋषि का है, जिन्होंने बहुत काल अग्नि को समिघों से तृप्त करके मंत्रों से पवित्र किया शरीर भी होम दिया था॥४५॥

छायाविनीताध्वपरिश्रमेषु भूयिष्ठसंभाव्यफलेष्वमीषु ।

तस्यातिथीनामधुनासपर्या स्थिता सुपुत्रेष्विव पादपेषु ॥ १३ -४६॥

भा०-इस समय उनके अतिथियों की पूजा छाया से मार्ग का परिश्रम दूर करनेवाले बहुत फल देनेवाले इन वृक्षों में सुपुत्रों की समान स्थित है । ४६ ॥

धारास्वनोद्गारिदरीमुखोऽसौ शृङ्गाङ्गलग्नाम्बुजवप्रपङ्कः ।

बध्नाति मे बन्धुरगात्रि चक्षुर्दृप्तः ककुद्मानिव चित्रकूटः ॥ १३ -४७॥

भा०- हे ऊंचे अंगवाली धारा के शब्दों से युक्त गुफारूपी मुख तथा शिखर के अग्र में लगे मेघरूपी क्रीडा की कीचवाला यह चित्रकूट उंचे कंधेवाले बैल के समान मेरी दृष्टि को खैंचता है ॥ ४७॥

एषा प्रसन्नस्तिमितप्रवाहा सरिद्विदूरान्तरभावतन्वी ।

मन्दाकिनी भाति नगोपकण्ठे मुक्तावली कण्ठगतेव भूमेः ॥ १३ -४८॥

भा०-निर्मल और थोडे (निश्चल) प्रवाहवाली दूर से देखने के कारण पतली मन्दाकिनी नाम यह नदी पहाड के नीचे पृथ्वी के गले में पड़ी हुई मोतियों की माला की समान दीखती है ॥४८॥

अयं सुजातोऽनुगिरं तमालः प्रवालमादाय सुगन्धि यस्य ।

यवाङ्कुरापाण्डुकपोलशोभी मयावतंसः परिकल्पितस्ते ॥ १३ -४९॥

भा०-पहाड के समीप शोभायमान यह तमाल वह है कि जिसका सुगंधियुक्त पत्र लेकर मैंने तेरे जव के अंकुर समान कुछ पीतवर्ण कपोल को सुन्दर करनेवाला कर्णफल बनवाया था ।। ४९॥

अनिग्रहत्रासविनीतसत्त्वमपुष्पलिङ्गात्फलबन्धिवृक्षम् ।

वनं तपःसाधनमेतदत्रेराविष्कृतोदग्रतरप्रभावम् ॥ १३ -५०॥

भा०- दंड के भय विना भी विनय सीखे हुए जीव और फूलों के विना आये फलवाले वृक्ष तथा बडे प्रताप प्रगट करनेवाला अत्रि के तप का साधन यह वन है ॥५०॥

अत्राभिषेकाय तपोधनानां सप्तर्षिहस्तोद्धृतहेमपद्माम् ।

प्रवर्तयामास किलानसूया त्रिस्रोतसं त्र्यम्बकमौलिमालाम् ॥ १३ -५१॥

भा०-यहां अनुसूया सप्तर्षियों के हाथ से उखाडे सोने के कमलवाली शिवजी के शिर की माला रूप गंगा को तपस्वियों के अभिषेक के निमित्त लाती हुई ॥५१॥

(अत्रिकी स्त्रीका नाम अनुसूया है )

वीरासनैर्ध्यानजुषामृषीणाममी समध्यासितवेदिमध्याः ।

निवातनिष्कम्पतया विभान्ति योगाधिरूढा इव शाखिनोऽपि ॥ १३ -५२॥

भा०-वीरासन लगाकर ध्यान करते हुए ऋषियों की वेदियों के मध्य में स्थित हुए यह वृक्ष भी हवा न लगने से निश्चल होने के कारण योगसमाधि लगाये से दीखते हैं ॥५२॥

त्वया पुरस्तादुपयाचितो यः सोऽयं वटः श्याम इति प्रतीतः ।

राशिर्मणीनामिव गारुडानां सपद्मरागः फलितो विभाति ॥ १३ -५३॥

भा०-तैने प्रथम जिसकी पूजा की थी श्याम नामवाला वही यह वट का वृक्ष फूला हुआ गारुडमणि अर्थात् चुन्नियों से युक्त पन्ने के समूह की नाई शोभित होता है॥५३॥

क्वचित्प्रभालेपिभिरिन्द्रनीलैर्मुक्तामयी यष्टिरिवानुविद्धा ।

अन्यत्र माला सितपङ्कजानामिन्दीवरैरुत्खचितान्तरेव ॥ १३ -५४॥

भा०-हे निन्दारहित अंगवाली ! कहीं फैली हुई कान्तिवाले नीलमों के संग गुथे मुक्ताहार की समान, कहीं नीले कमलों के संग पोही हुई सफेद कमलों की माला के समान ॥ ५४॥

क्वचित्खगानां प्रियमानसानां कादम्बसंसर्गवतीव पङ्क्तिः ।

अन्यत्र कालागुरुदतापत्रा भक्तिर्भुवश्चन्दनकल्पितेव ॥ १३ -५५॥

भा०- कहीं नीले हंसों सहित मानस सरोवर के उत्साही हंसों की पंक्तियों की समान कहीं कालागुरु की पत्ररचना की हुई पृथ्वी की चन्दन रचना की समान ॥ ५५॥

क्वचित्प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छायाविलीनैः शबलीकृतेव ।

अन्यत्र शुभ्रा शरदभ्रलेखा रन्ध्रेष्विवालक्ष्यनभःप्रदेशा ॥ १३ -५६॥

भा०- और कहीं छाया में स्थित हुए अंधेरे की कबरी की हुई चांदनी की समान और कहीं छिद्रों में आकाश प्रगट करती हुई शरत्के मेध की श्वेतपंक्ति की समान ॥ ५६ ॥

क्वचिच्च कृष्णोरगभूषणेव भस्माङ्गरागा तनुरीश्वरस्य ।

पश्यानवद्याङ्गि विभाति गङ्गा भिन्नप्रवाहा यमुनातरङ्गैः ॥ १३ -५७॥

भा०- और कहीं काले सर्प के मूषणवाले भस्म के अंगरागयुक्त शिवजी के शरीर की समान यमुना की तरंगों के प्रवाह से पृथक् हुई शोभायमान गंगा को देख ॥ ५७ ॥

समुद्रपत्योर्जलसंनिपाते पूतात्मनामत्र किलाभिषेकात् ।

तत्त्वावबोधेन विनापि भूयस्तनुत्यजां नास्ति शरीरबन्धः ॥ १३ -५८॥

भा०-यहां सागर की दोनो पत्नियों के जल के संगम में स्नान करने से पवित्र हुए शरीरधारियों को तत्वज्ञान के विना भी फिर शरीरबन्धन नहीं रहता ॥५८ ॥

पुरं निषादाधिपतेरिदं तद्यस्मिन्मया मौलिमणिं विहाय ।

जटासु बद्धास्वरुदत्सुमन्त्रः कैकेयि कामाः फलितास्तवेति ॥ १३ -५९॥

भा०-निषादराज का यह वह पुर है, जहां मेरे शिर की मणि उतार जटा बांधने पर सुमंत्र “हे कैकेयि ! अब तेरे मनोरथ पूर्ण हुए” ऐसा कहकर रोया था ॥५९॥

पयोधरैः पुण्यजनाङ्गनानां निर्विष्टहेमाम्बुजरेणु यस्याः ।

ब्राह्मं सरः कारणमाप्तवाचो बुद्धेरिवाव्यक्तमुदाहरन्ति ॥ १३ -६०॥

भा०-यक्षों की स्त्रियों के स्तनों की भोगी हुई कमलरजवाले मानससरोवर को जिस (नदी) का, महत्त्व को बुद्धि के कारण की समान (कर्ता) मुनिजन कहते हैं ॥६०॥

जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनु राजधानीम् ।

तुरंगमेधावभृथावतीर्णैरिक्ष्वाकुभिः पुण्यतरीकृतानि ॥ १३ -६१॥

भा०-किनारों पर गाडे हुए यज्ञ के खंभोंवाली जो अश्वमेध के अन्त में स्नानों से इक्ष्वाकु वंशवालों के अधिक पवित्र किये जलों को अयोध्या राजधानी के निकट बहाती है ॥ ६१॥

यां सैकतोत्सङ्गसुखोचितानां प्राज्यैः पयोभिः परिवर्धितानाम् ।

सामान्यधात्रीमिव मानसं मे संभावयत्युत्तरकोसलानाम् ॥ १३ -६२॥

भा०-जिसको मेरा मन किनारेरूपी गोद का सुख लेनेवाले उमगते हुए पयों से पल हुए उत्तरकोसल के राजाओं को साधारण धात्री (धाय) की समान मानता है ६२॥

सेयं मदीया जननीव तेन मान्येन राज्ञा सरयूर्वियुक्ता ।

दूरे वसन्तं शिशिरानिलैर्मां तरंगहस्तैरुपगूहतीव ॥ १३ -६३॥

भा०-मेरी माता की समान, माननीय उस राजा से वियोग को प्राप्त हुई यह सरयू दूर रहनेवाले मुझको मानों ठंडी हवावाले तरंगरूपी हाथों से अलिंगन करती है ॥६३॥

विरक्तसंध्याकपिशं परस्ताद्यतो रजः पार्थिवमुज्जिहीते ।

शङ्के हनूमत्कथितप्रवृत्तिः प्रत्युद्गतो मां भरतः ससैन्यः ॥ १३ -६४॥

भा०- रंग बदली हुई संध्या के तुल्य पीली पथ्वी को धूल आगे जो उड़ती है (इससे)महावीर से वृत्तान्त सुनकर भरत सेनासहित मेरे लेने को आते हैं यह मैं शंका करता हूं ॥ ६४ ॥

अद्धा श्रियं पालितसंगराय प्रत्यर्पयिष्यत्यनघां स साधुः ।

हत्वा निवृत्ताय मृधे खरादीन्संरक्षितां त्वामिव लक्ष्मणो मे ॥ १३ -६५॥

भा०-कारण कि वह साधु प्रतिज्ञा पालन करनेवाले मेरे निमित्त अछूती तथा रक्षा की हुई राजलक्ष्मी को युद्ध में खरादिकों को मारकर निश्चिन्त हुए मेरे निमित्त लक्ष्मण द्वारा सोंपी हुई तुम्हारी समान समर्पण करेंगे ॥६५॥

असौ पुरस्कृत्य गुरुं पदातिः पश्चादवस्थापितवाहिनीकः ।

वृद्धैरमात्यैः सह चीरवासा मामर्घ्यपाणिर्भरतोऽप्युपैति ॥ १३ -६६॥

भा०-यह पादचारी चीरधारी भरत पीछे सेना को किये गुरु को आगे लिये बूढ़े मंत्रियों सहित अर्घ्य हाथ में लिये मेरी ओर आते हैं ।। ६६ ॥

पित्रा विसृष्टां मदपेक्षया यः श्रियं युवाप्यङ्कगतामभोक्ता ।

इयन्ति वर्षाणि तया सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् ॥ १३ -६७॥

भा०-जो (भरत) पिता से त्यागी गोदी में आई हुई भी जिस राजलक्ष्मी को युवा होने पर भी मेरी भक्ति के कारण न भोगकर इतने वर्ष उस (लक्ष्मी) के सहित कठिन असिधार (खङ्ग की धारवाला) व्रत साधते रहे ॥ ६७ ॥

(जो युवा युवती के संग मुग्धभर्ता के समान रहे और अन्तर से भी संगरहित हो वह असिधार व्रत है)

एतावदुक्तवति दाशरथौ तदीया – मिच्छां विमानमधिदेवतया विदित्वा ।

ज्योतिष्पथादवतार सविस्मयाभि – रुद्वीक्षितं प्रकृतिभिर्भरतानुगाभिः ॥ १३ -६८॥

भा०-रामचन्द्र के ऐसा कहने पर विमान उनकी अभिलाषा को अधिदेवतापन से जानकर विस्मय को प्राप्त हुई भरत के पीछे मानेवाली प्रजाओं से देखा हुआ आकाश से उतरा ॥ ६८ ॥

तस्मात्पुरःसरबिभीषणदर्शनेनसेवाविचक्षणहरीश्वरदत्तहस्तः ।

यानादवातरददूरमहीतलेनमार्गेण भङ्गिरचितस्फटिकेन रामः ॥ १३ -६९॥

भा०-रामचन्द्र सेवा में चतुर सुग्रीव का हाथ पकडकर आगे विभीषण के दिखाई और पृथ्वी पर. रक्खी हुई स्फटिकमणि के जडे डंडोंवाली सीढी के मार्ग से विमान से उत्तरे ६९॥

इक्ष्वाकुवंशगुरवे प्रयतः प्रणम्य स भ्रातरं भरतमर्घ्यपरिग्रहान्ते ।

पर्यश्रुरस्वजत मूर्धनि चोपजघ्रौ तद्भक्त्यपोढपितृराज्यमहाभिषेके ॥ १३ -७०॥

भा०-विनीतवान वह ( राम ) इक्ष्वाकुवंश के गुरु ( वशिष्ठ) को प्रणाम करके अर्घ्य ग्रहण करने के पीछे आंसू भरकर भाई भरत को आलिंगन कर अपनी भक्ति के कारण पिता के राज्य का महाभिषेक छोडनेवाला शिर सूंघते हुए ॥ ७०॥

श्मश्रुप्रवृद्धिजनिताननविक्रियांश्च प्लक्षान्प्ररोहजटिलानिव मन्त्रिवृद्धान् ।

अन्वग्रहीत्प्रणवतः शुभदृष्टिपातै – र्वातानुयोगमधुराक्षरया च वाचा ॥ १३ -७१॥

भा०-दाढी मूछों के बढने से मुख का रूप बदले हुए, जटा बढाये वट के वृक्षों के समान स्थित, प्रणाम करते हुए मंत्रियों को सुन्दर दृष्टि से ( देख) कुशलप्रश्न मधुरवाणी से पूंछकर कृपा की ॥ ७१॥

दुर्जातबन्धुरयमृक्षहरीश्वरो मे पौलस्त्य एष समरेषु पुरःप्रहर्ता ।

इत्यादृतेन कथितौ रघुनन्दनेन व्युत्क्रम्य लक्ष्मणमुभौ भरतो ववन्दे ॥ १३ -७२॥

भा०-यह मेरा आपत्ति का मित्र रीछ वानरों का राजा है, यह संग्राम में प्रथम प्रहार करनेवाला विभीषण है, इस प्रकार सत्कार से रामचन्द्र के कहे हुए दोनों के प्रति लक्ष्मण को छोडकर भरत ने नमस्कार किया ॥ ७२ ॥

सौमित्रिणा तदनु संससृजे स चैन – मुत्थाप्य नम्रशिरसं भृशमालिलिङ्ग ।

रूढेन्द्रजित्प्रहरणव्रणकर्कशेन क्लिश्यन्निवास्य भुजमध्यमुरस्थलेन ॥ १३ -७३॥

भा०-इसके उपरान्त वह भरत सुमित्रा के पुत्र (लक्ष्मण) से मिले विनय करते हुए इनको उठाकर इन्द्रजीत के प्रहारों के बडे व्रणों से उनके कठिन हृदय में मानों अपनी भुजाओं का मध्य पीडित करने के लिये आलिंगन किया॥

रामाज्ञया हरिचमूपतयस्तदानीं कृत्वा मनुष्यवपुरारुरुहुर्गजेन्द्रान् ।

तेषु क्षरत्सु बहुधा मदवारिधाराः शैलाधिरोहणसुखान्युपलेभिरेमे ॥ १३ -७४॥

भा०-इसके उपरान्त वानरों की सेना के पति रामचन्द्र की आज्ञा से मनुष्य का शरीर धारण कर हाथियों पर चढे अनेक प्रकार से मद के जल की धारा टपकाते हुए उन हाथियों पर वे पर्वत पर चढने के सुख को प्राप्त होते हुए ॥.

सानुप्लवः प्रभुरपि क्षणदाचराणां भेजे रथान्दशरथप्रभवानुशिष्टः ।

मायाविकल्परचितैरपि ये तदीयै – र्न स्यन्दनैस्तुलितकृत्रिमभक्तिशोभाः ॥ १३ -७५॥

भा०-साथियों के सहित राक्षसों के स्वामी विभीषण भी दशरथपुत्र ( राम ) की आज्ञा से रथों पर चढे, जो माया से रचे हुए भी अपने रथों से उनकी कृत्रिमशोभा को न तोल सके (अर्थात् वह रथ मनुष्यों के बनाये थे तो भी विभीषणादि की माया के बनाये रथ उनकी बराबरी न कर सके)॥ ७९ ॥

भूयस्ततो रघुपतिर्विलसत्पताक – मध्यास्त कामगति सावरजो विमानम् ।

दोषातनं बुधबृहस्पतियोगदृश्य – स्तारापतिस्तरलविद्युदिवाभ्रवृन्दम् ॥ १३ -७६॥

भा०-तब रामचन्द्र छोटे भाइयों सहित पताकाओं से शोभित इच्छापूर्वक चलनेवाले विमान पर चढे, मानों फिर भी बुध और बृहस्पति के योग से शोभायमान चन्द्रमा संध्या समय प्रकाशित होती हुई बिजलीवाले बादल पर चढा ॥ ७६॥

तत्रेश्वरेण जगतां प्रलयादिवोर्वीं वर्षात्ययेन रुचमभ्रघनादिवेन्दोः।

रामेण मैथिलसुतां दशकण्ठकृच्छ्रा – त्प्रत्युद्धृतां धृतिमतीं भरतो ववन्दे ॥ १३ -७७॥

भा०-तहां जगत्के ईश्वर आदिवराह द्वारा प्रलय से उद्धार की हुई पृथ्वी और शरद द्वारा बादलों की घटा से (उद्धार की हुई) चांदनी की समान, रामचन्द्र के द्वारा रावण के संकट से उद्धारी हुई तथा धैर्यवाली जनकसुता की भरत ने वन्दना की ॥७॥

लङ्केश्वरप्रणतिभङ्गदृढव्रतं त- द्वन्द्यं युगं चरणयोर्जनकात्मजायाः ।

जेष्ठानुवृत्तिजटिलं च शिरोऽस्य साधो – रन्योन्यपावनमभूदुभयं समेत्य ॥ १३ -७८॥

भा०-रावण की प्रार्थना भंग करने में दृढपातिव्रत्य रखनेवाली उन जानकी के पूजनीय दोनों चरण और बडे भाई की भक्ति से जटा बढाये हुए उन माहात्मा(भरत) का शिर यह दोनों मिलकर एक दूसरे को पवित्र करते हुए ॥

(अर्थात् भरत ने सीता को प्रमाण करने में उनके चरणों में शिर धरा)

क्रोशार्धं प्रकृतिपुरःसरेण गत्वा काकुत्स्थः स्तिमितजवेन पुष्पकेण ।

शत्रुघ्नप्रतिविहितोपकार्यमार्यः साकेतोपवनमुदारमध्युवास ॥ १३ -७९॥

भा०-श्रेष्ठ रामचन्द्र ने प्रजा से पीछे शनैः२ चलते हुए पुष्पक विमान द्वारा आधकोस चलकर शत्रुघ्न के सजाये हुए डेरोंवाले अयोध्या के बडे बाग में डेरा किया ॥७९॥

॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ दण्डकाप्रत्यागमनो नाम त्रयोदशः सर्गः ॥१३॥

इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग १३ सम्पूर्ण हुआ॥

रघुवंशमहाकाव्यम् त्रयोदशः सर्ग:

रघुवंशं सर्ग १३ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् तेरहवां सर्ग

रघुवंश तेरहवां सर्ग संक्षिप्त कथासार

भरत -मिलाप

विमान द्वारा आकाशमार्ग से अयोध्या की दिशा में जाते हुए भगवान राम को जब समुद्र दिखाई दिया तो वे अपनी सहधर्मिणी से कहने लगे सीते! देखो, मेरी सेना के बनाए सेतू ने लंका से मलयाचल तक फेनिल समुद्र को दो भागों में बांट दिया है, मानो तारों से जगमगाते हए शीतकाल के स्वच्छ आकाश को छायामार्ग की नीली धारा ने बीच में से काट दिया हो । महाराज सगर के अश्वमेध यज्ञ के अश्व का अपहरण होने पर उसको ढूंढ़ते हुए हमारे पूर्वज सगर-पुत्रों ने कपिल मुनि के आश्रम तक पहुंचने के लिए इसे खोदकर बड़ा किया था । यह समुद्र संसार का बहुत उपकार करता है । सूर्य की किरणें वर्षा के लिए इससे जल लेती हैं । इसके गर्भ में रत्न पनपते हैं, बाड़वाग्नि इससे शरण पाती है और इसने आनन्दित करनेवाले प्रकाश से युक्त चन्द्रमा को जन्म दिया है। भगवान विष्णु की तरह कभी शान्त और कभी विक्षुब्ध, कभी उतार पर और कभी चढ़ाव पर, इस प्रकार परस्पर विरुद्ध अनेक अवस्थाओं और विशेषताओं से युक्त होने के कारण इस सागर का रूप बुद्धि से भी परे है । वह देखो, नदियां इसमें प्रवेश कर रही हैं । जब जीव -जन्तुओं को लेकर नदियों का जल इसमें पड़ने लगता है, तब ह्वेल मछलियां सामने अपना मुंह खोल देती हैं । वे जन्तुसहित जल -धाराओं को अन्दर ले लेती हैं और फिर केवल जल को मस्तक में विद्यमान श्वास छिद्रों में से निकाल देती हैं । दूसरी ओर देखो, पानी में से उछलते हुए हस्ती के समान मगरमच्छ हैं, जिनके द्वारा दो भागों में विभक्त हुआ समुद्र का झाग उनके कपोलों पर क्षण भर के लिए चंवर की भांति शोभायमान होता है। वह मेघ इसमें जल पीने आया है और वायु में भंवर की तरह धूम रहा है। देखने में ऐसा लगता है, मानो फिर दूसरी बार पर्वत द्वारा समुद्र का मन्थन हो रहा हो और वह दूर देखो, लोहे के चक्र के समान नीले समुद्र के तट पर तमाल और ताल के जंगलों की श्रेणियों के कारण नीली भूमि वाला समुद्रतट दिखाई दे रहा है । यह लो, विमान के वेग के कारण हम मुहूर्त – भर में समुद्रतट के ऊपर पहुंच गए । यहां रेत पर टूटी हुई सीपियों में से मोती बिखरे पड़े हैं और फूलों से लदे हुए सुपारी के वृक्ष शोभायमान हो रहे हैं । हे मृगनयनी, ज़रा पीछे की ओर देखो। ऐसा प्रतीत होता है मानो पीछे छूटते हुए समुद्र के गर्भ में से वनों के साथ – साथ पृथ्वी निकल रही है । दूर होता हुआ समुद्र वन -विभूषित पृथ्वी को अपने अन्दर से बाहर फेंक रहा है। यह पुष्पक विमान कभी बादलों के मार्ग से जाता है तो कभी पक्षियों के मार्ग से । जैसे – जैसे मेरी अभिलाषा चाहती है, वैसे ही इस विमान की गति में परिवर्तन होता है । अब हम समुद्र से दूर जा रहे हैं । मध्यांह का समय हो रहा है । ताप के कारण तुम्हारे मुख पर पसीने की जो बूंदें आ रही हैं, आकाश – गंगा के जल से शीतल और महेन्द्र के हाथी ऐरावत के मद से सुगन्धित, आकाश-वायु उन्हें पोंछ रहा है । तुमने कौतूहल से अपना हाथ विमान की खिड़की से निकालकर बादल को छुआ तो वह डरकर तुम्हें प्रसन्न करने के लिए अपनी विद्युत की लता को तुम्हारे गले में हार की तरह पहना रहा है । अब हम जनस्थान के ऊपर पहुंच गए हैं । रावण की मृत्यु के कारण निर्भय होकर वल्कलधारी तपस्वी लोग बहुत काल से छोड़ी हुई अपनी पत्तियों की झोंपड़ियों को फिर से आबाद कर रहे हैं । यह वह स्थान है, जहां तुम्हें ढूंढ़ते हुए मैंने मानो, तुम्हारे वियोग के दु: ख से चुपचाप पड़ा हुआ एक नूपुर देखा था । हे भीरु! जब मैं वृक्षों और लताओं से यह पूछता फिरता था कि सीता कहां गई, तब मुंह से न बोल सकने के कारण ये लताएं मानो अपने पत्तों के बोझ से दबी हुई शाखाओं से मुझे वह मार्ग बतला रही थीं, जिससे तुम्हें राक्षस उठा ले गया था । हरिणियां मुझे व्याकुल देखकर कुशांकुर खाना छोड़कर बड़ी – बड़ी आंखों से दक्षिण दिशा की ओर देखती हुई मानो मुझे तुम्हारा मार्ग बतलाती थीं । यह सामने माल्यवान पर्वत की आकाश को छूनेवाली चोटी दिखाई देती है, जहां नये मेघों ने पानी और मेरी आंखों ने वियोग के आंसू साथ ही साथ बरसाए थे। इस पर्वत पर तुम्हारे बिना रहते हुए बरसात के दिनों में वर्षा की जलधाराओं से चोट खाए हुए जोहड़ों की गन्ध, नीम के अधखिले फूल और मयूरों की मीठी केकाएं भी मुझे कष्टप्रद प्रतीत होती थीं । देखो, वह तटवर्ती बेंत के झुरमुटों से आलिंगित और अस्पष्ट दिखाई देने वाले चंचल सारसों से सुशोभित पम्पा का जल दिखाई देता है, इस कारण उस पर पड़ी हुई दृष्टि सुगमता से हटने का साहस नहीं करती। इस पम्पासर में जब मैं चकवा और चकवी को एक – दूसरे पर फूलों की केसर डालते देखता था, तब तुम्हारी याद आती थी । यह गोदावरी नदी है। हमारे विमान में लगी हुई घंटियों का स्वर सुनकर, नदी तट की सारसें अपने साथियों के स्वर के भ्रम से, आकाश में उड़कर मानो तुम्हारा स्वागत कर रही हैं । अब हम पंचवटी के पास पहुंच गए । यहां कोमल शरीर होते हुए भी, घड़ों के पानी से सींचकर तुमने आम के पेड़ों को बड़ा किया था । यहां के कृष्णसार मृग इस समय भी मानो पूर्व -परिचय के कारण ऊपर की ओर देख रहे हैं । तुम्हारी मधुर स्मृतियों के कारण यह स्थान आज भी मेरी दृष्टि को आनन्दित कर रहा है। मुझे याद आता है कि एक बार मैं शिकार करके थका हुआ आया था और गोदावरी के तट पर वानीर के कुंज में, तुम्हारी गोद में सिर रखकर लेटा था, तब शीतल वायु से भी थकान उतर गई थी और मैं सो गया था । क्रोध में आते हुए जिस ऋषि के माथे की केवल सिकुड़न ने नहुष को स्वर्ग से नीचे गिरा दिया था, उस अगस्त्य मुनि का पृथ्वी की मलिनता को विशुद्ध करने के निमित्त से बनाया हुआ भौम आश्रम यहीं पर है । उस विशुद्धकीर्ति ऋषि के त्रेताग्नि के यज्ञकुण्डों से उठा हुआ गगनव्यापी सुगन्धित धुआं यहां तक भी पहुंच रहा है, जिसे सूंघकर मेरी अन्तरात्मा शान्ति का अनुभव कर रही है और वह देखो, जंगलों से घिरा हुआ शातकर्णि मुनि का पंचाप्सरस नाम का क्रीडासर ऐसे शोभायमान हो रहा है मानो मेघों के बीच में चन्द्रमा हो । यहां चारों यज्ञाग्नियों के बीच में समाधिस्थ मुनि सुतीक्ष्ण तपस्या कर रहे हैं । चारों ओर अग्नि है, माथे को सूर्य की तीव्र किरणें तपा रही हैं । यह मुनि नाम से सुतीक्ष्ण होता हुआ भी स्वभाव से शान्त है। अप्सराओं ने इसके तप को भंग करने के निमित्त अनेक भाव- भंगिमाएं दिखाईं, परन्तु उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई । मौनव्रती होने के कारण मेरे नमस्कार को सिर हिलाकर अंगीकार करके, विमान के सामने से हट जाने पर ऋषि ने अपनी दृष्टि फिर सूर्य की ओर लगा दी है । वह जो शरणागतों की रक्षा करनेवाला नन्दीवन दिखाई दे रहा है, वहां शरभंग ऋषि ने चिरकाल तक समिधाओं से यज्ञाग्नि को तृप्त करके अंत में अपने वेदपाठ से पवित्र शरीर की आहुति दे दी थी । ऋषि के पीछे आश्रम में आनेवाले अतिथियों की सेवा का भार शीतल छाया और उत्तम फलों से युक्त वृक्षों पर पड़ा है, जो सुपुत्रों की भांति उसे निभा रहे हैं । वह चित्रकूट पर्वत है । उसकी मुख के समान गुफाओं से झरनों का निर्झर- नाद सुनाई दे रहा है और श्रृंगों के सदृश चोटियों पर मंडराते हुए बादल कीचड़ के समान प्रतीत होते हैं । मस्त सांड की भांति मस्तक उठाकर खड़े हुए उस पर्वत पर आंखें मानो बंध जाती हैं । पास ही मन्दाकिनी नदी बह रही है, जो शान्तभाव से चलने और दूरी के कारण सूक्ष्म दीखने के कारण भूमि के गले में पड़ी हुई मोतियों की माला के सदृश दिखाई देती है और पर्वत के समीप ही वह तमाल का वृक्ष है, जिसकी सुगन्धयुक्त कोंपलें लेकर तुम्हारे जौ के समान रंगवाले शरीर की शोभा बढ़ाने वाला केशों का जूड़ा बांध दिया था । वह आगे अत्रि मुनि का आश्रम है। मुनि के तपोबल से निर्भय हो जंगली जन्तु सौम्य बने रहते हैं और पुष्पों के बिना ही वृक्ष फल देते हैं । इस आश्रम के वृक्ष भी प्रशान्त मुद्रा के कारण समाधि में बैठे हुए मुनियों के समान प्रतीत होते हैं । वह जोहड़ का वृक्ष फलवान होने से गरुड़ के रंग की मणियों से जड़ा हुआ दिखाई देता है। यह वही वृक्ष है, जिससे तुमने विनयपूर्वक प्रार्थना की थी कि मेरा पति अपने व्रत को कुशलतापूर्वक पूरा करे। वह आगे गंगा- यमुना का संगम- स्थान है। गंगा के श्वेत और यमुना के कृष्णवर्ण जल के मिलने से अद्भुत शोभा उत्पन्न होती है । कहीं इन्द्र-नील मणियों से जड़ी हुई सफेद मोतियों की माला दिखाई देती है तो कहीं नीले रंग के उत्पलों में गुंथी हुई श्वेत कमलों की पंक्ति दृष्टिगोचर हो रही है । कहीं छाया में छिपी हुई चांदनी- सी छवि छिटक रही है, तो कही रिक्त स्थानों में से दीखनेवाले नीले आकाश से चितकबरे श्वेत मेघों की पंक्ति- सी भासित हो रही है। समुद्र की इन दोनों सहधर्मिणियों के परस्पर संगम में स्नान करके मनुष्य तत्त्वज्ञान को प्राप्त किए बिना भी शरीर के बंधन से मुक्त हो जाते हैं । और यह निषादों के राजा गुह की नगरी आ गई, जहां मैंने मस्तक पर से मुकुट उतारकर जटाएं बांधी थीं, तब रोकर सुमन्त ने कहा था- कैकेयी, आज तेरी कामनाएं सफल हो गईं। सीते ! यह ब्रह्मसर है और उसके आगे अयोध्या के पास बहनेवाली सरयू नदी है, जिसमें इक्ष्वाकु वंश के राजा अश्वमेध यज्ञों के अवसरों पर स्नान के लिए उतरते रहे हैं और जिसके तट पर आज भी यज्ञ के यूप खड़े हुए हैं । यह सरयू उत्तर कोसल देश के निवासियों को अपने जलरूपी दुग्ध से पालकर बड़ा करती रही है, इस कारण मेरे हृदय में इसके प्रति धात्री की- सी भावना है। इसकी उठती हुई तरंगों को देखकर मुझे भान होता है कि मान्य स्वामी से वियुक्त मेरी माता के समान यह भी हाथ फैलाकर मुझे गोद में ले रही है । वह देखो, सायंकालीन सन्ध्या के समय की भांति अन्तरिक्ष लाल- लाल हो रहा है । मैं समझता हूं कि हनुमान से हमारे आने का समाचार पाकर सेना- सहित भरत मेरी अगवानी को आ रहा है । प्रतीत होता है कि जैसे खरादि राक्षसों को मारकर लौटने पर लक्ष्मण ने सर्वथा सुरक्षित और पवित्र दशा में तुम्हें मेरे हाथ में सौंप दिया था, उसी प्रकार प्रतिज्ञा का पालन करके घर लौटने पर यह तपस्वी अछूती राज्य- लक्ष्मी को मुझे सौंप देगा । वह देखो, सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगा है। आगे गुरु वसिष्ठ हैं, पृष्ठभाग में सेना है । मध्य में बूढ़े मन्त्रियों के साथ मुनि- वेशधारी भरत अर्घ्य की सामग्री हाथ मे लिए आ रहा है । मेरी अपेक्षा कम आयु का होने पर भी इसने मेरे प्रति प्रेम के कारण पिता द्वारा छोड़ी हुई राज्य- लक्ष्मी का उपभोग न करके असिधारा व्रत का पालन किया है। जब राम के यह वचन समाप्त हुए, तो स्वामी की इच्छानुसार पुष्पक विमान आकाश से भूमि पर उतर आया । भरत की अनुयायिनी प्रजा ऊपर उठाए नेत्रों से उस अद्भुत विमान को देख रही थी । विभीषण रास्ता दिखाता हुआ पहले उतरा । सेवा में प्रवीण सुग्रीव ने उतरने के लिए हाथ का सहारा दिया । इस प्रकार स्फटिकों की सुन्दर सीढ़ियों पर पांव रखते हुए राम विमान पर से भूमि पर उतरे । पहले राम ने इक्ष्वाकुवंश के गुरु ऋषि वसिष्ठ को प्रणाम किया, फिर अर्घ्य ग्रहण करके सजल नेत्रों से तपस्वी भरत को गले लगाया और सिर को सूंघा ! लटकती जटाओं वाले बड़ के पेड़ों के समान लम्बे- लम्बे बालों वाले मन्त्रियों के प्रणाम का प्रेमपूर्ण दृष्टि और कुशल- प्रश्न द्वारा उत्तर दिया । राम ने यह वानरों का राजा मेरा आपत्ति के समय का बन्धु है और यह युद्ध में आगे बढ़कर वार करने वाला पौलस्त्य हैं, इन शब्दों के साथ जब सुग्रीव और विभीषण का परिचय कराया तो भरत ने भाई लक्ष्मण को छोड़कर पहले उन दोनों को प्रणाम किया । उसके पश्चात् भरत लक्ष्मण की ओर मुड़ा । पांव पड़े हुए लक्ष्मण को हाथों उठाकर उसने छाती से लगाया और उसके मेघनाद के प्रहारों के कारण कठोर सीने को अपने सीने से दबाया । तब भरत को साथ लेकर राम फिर विमान पर आरूढ़ हो गए। वहीं महावाराह द्वारा जल-प्रलय से उद्धार की हुई पृथ्वी और शीत ऋतु द्वारा मेघों के फन्दे से छूटी हुई चन्द्र की प्रभा की भांति राम द्वारा आपत्तियों से मुक्त की हुई धैर्यमूर्ति सीता विराजमान थीं । भरत ने उन्हें प्रणाम किया । रावण के बार- बार झुकने पर भी सीता के जो चरण, धर्म पर अडिग रहे, उन पर बड़े भाई से किए हुए प्रण का पालन करने से जटाधारी दृढ़व्रती भरत का मस्तक झुक गया । यह संयोग उन दोनों के लिए और भी अधिक पवित्र करनेवाला बन गया । लगभग आधा कोस तक राम का विमान बहुत धीरे- धीरे चलकर अयोध्या के समीप उद्यान में ठहर गया । वहां पूजा की सामग्री लिए शत्रुघ्न पहले से पहुंचा हुआ था । सब लोग उस स्थान पर विमान से उतर गए।

रघुवंश महाकाव्य तेरहवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ १३ ॥

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