Raja Ram Mohan Roy In Hindi Biography | राजा राममोहन राय का जीवन परिचय : भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है।

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राजा राममोहन रॉय का जीवन परिचय, जीवनी, परिचय, इतिहास, जन्म, शासन, युद्ध, उपाधि, मृत्यु, प्रेमिका, जीवनसाथी (Raja Ram Mohan Roy History in Hindi, Biography, Introduction, History, Birth, Reign, War, Title, Death, Story, Jayanti)

        राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोनों क्षेत्रों को गति प्रदान की।

उनके आन्दोलनों ने जहाँ पत्रकारिता को चमक दी, वहीं उनकी पत्रकारिता ने आन्दोलनों को सही दिशा दिखाने का कार्य किया। राजा राममोहन राय की दूर‍दर्शिता और वैचारिकता के सैकड़ों उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। हिन्दी के प्रति उनका अगाध स्नेह था। वे रू‍ढ़िवाद और कुरीतियों के विरोधी थे लेकिन संस्कार, परंपरा और राष्ट्र गौरव उनके दिल के करीब थे। वे स्वतंत्रता चाहते थे लेकिन चाहते थे कि इस देश के नागरिक उसकी कीमत पहचानें।

अंग्रेजी शासन, अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी सभ्यता की प्रशंशा करने के लिये राममोहन राय की आलोचना की जाती है। उन्होने स्वतंत्रता आन्दोलन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लिया। उनकी अन्तिम सांस भी ब्रिटेन में निकली। कुछ लोगों का विचार है कि वे अपनी जमींदारी को चमकाते हुए भारतीय समाज में हीन भावना भरने का कार्य कर रहे थे और अंग्रेजों के अदृश्य सिपाही थे। उन्होने भारत में अंग्रेजी राज्य (गुलामी) की स्थापना एवं उसके सशक्तीकरण के लिये रास्ता तैयार किया। वे अंग्रेजी कूटनीति को समझ नहीं सके और भारतीय जनता का सही मार्गदर्शन नहीं कर सके।

अरंभिक जीवन :

नाम (Name) राजा राममोहन राय
जन्म दिन (Birth Date) 22 मई 1772
जन्म स्थान (Birth Place) बंगाल के हूगली जिले के में राधानगर गाँव
पिता (Father) रामकंतो रॉय
माता (Mother) तैरिनी
पेशा (Occupation) ईस्ट इंडिया कम्पनी में कार्य,जमीदारी और सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता
प्रसिद्धि (Famous for) सती प्रथा,बाल विवाह,बहु विवाह का विरोध
पत्रिकाएं (Magazines) ब्रह्मोनिकल पत्रिका, संबाद कौमुडियान्द मिरत-उल-अकबर
उपलब्धि (Achievements) इनके प्रयासों से 1829 में सती प्रथा पर क़ानूनी रोक लग गई
विवाद (Controversy) हमेशा से हिन्दू धर्ममें अंध विशवास और  कुरीतियों के विरोधी रहे
मृत्यु (Death) 27 सितम्बर 1833 को ब्रिस्टल के पास स्टाप्लेटोन में
मृत्यु का कारण (Cause of death) मेनिन्जाईटिस
सम्मान (Awards) मुगल महाराजा  ने उन्हें राजा की उपाधि दी फ्रेंच Société Asiatique ने संस्कृत में के अनुवाद उन्हें 1824 में सम्मानित किया.

राम मोहन का जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के हूगली जिले के में राधानगर गाँव में हुआ था. उनके पिता का नाम रामकंतो रॉय और माता का नाम तैरिनी था. राम मोहन का परिवार वैष्णव था, जो कि धर्म सम्बन्धित मामलो में बहुत कट्टर था.

जैसा कि उस समय प्रचलन में था  उनकी शादी 9 वर्ष की उम्र में ही कर दी गई लेकिन उनकी प्रथम पत्नी का जल्द ही देहांत हो गया. इसके बाद 10 वर्ष की उम्र में उनकी दूसरी शादी की गयी जिसे उनके 2 पुत्र हुए लेकिन 1826 में उस पत्नी का भी देहांत हो गया और इसके बाद उसकी तीसरी पत्नी भी ज्यादा समय जीवित नहीं रह सकी.

राजा राममोहन राय की शिक्षा

राजा राममोहन की विद्वता का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता हैं कि 15 वर्ष की उम्र तक उन्होंने बंगला,पर्शियन,अरेबिक और संस्कृत जैसी भाषाएँ सीख ली थी.

राजा राममोहन राय ने प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत और बंगाली भाषा में गाँव के स्कूल से ही की. लेकिन बाद में उन्हें पटना के मदरसे में भेज दिया गया, जहाँ उन्होंने अरेबिक और पर्शियन भाषा सीखी. उन्होने 22 की उम्र में इंग्लिश भाषा सीखी थी,जबकि संस्कृत के लिए वो काशी तक गए थे,जहाँ उन्होंने वेदों और उपनिषदों का अध्ययन किया.

उन्होंने अपने जीवन में बाइबिल के साथ ही कुरान और अन्य इस्लामिक ग्रन्थों का अध्ययन भी किया.

राजा राममोहन प्रारम्भिक विद्रोही जीवन

वो हिन्दू पूजा और परम्पराओं के खिलाफ थे.उन्होंने समाज में फैले कुरीतियों और अंध्-विश्वासों का पूरजोर विरोध किया था. लेकिन उनके पिता एक पारम्परिक और कट्टर वैष्णव ब्राह्मण धर्म का पालन करने वाले थे.

14 वर्ष की उम्र में उन्होंने सन्यास लेने की इच्छा व्यक्त की लेकिन उनकी माँ ने ये बात नहीं मानी.

राजा राममोहन राय के परम्परा विरोधी पथ पर चलने और धार्मिक मान्यताओं के विरोध करने के कारण उनके और उनके पिता के बीच में मतभेद रहने लगे. और झगड़ा बढ़ता देखकर उन्होंने अपना  घर छोड़ दिया और वो हिमालय और तिब्बत की तरफ चले गए.

वापिस घर लौटने से पहले उन्होंने बहुत भ्रमण किया और देश दुनिया के साथ सत्य को भी जाना-समझा. इससे उनकी धर्म के प्रति जिज्ञासा और बढ़ने लगी लेकिन वो घर लौट आए.

उनके परिवार ने जब उनकी शादी करवाई थी तब उनके परिवारजन को लगा था कि राम शादी के बाद अपने विचार बदल लेंगे, लेकन विवाह और वैवाहिक जिम्मेदारियों ने उन पर कोई असर नहीं डाला.

विवाह के बाद भी उन्होंने वाराणसी जाकर उपनिषद और हिन्दू दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया. लेकिन जब उनके पिता का देहांत हुआ तो 1803 में वो मुर्शिदाबाद लौट आए.

राजा राममोहन राय का करियर 

पिता की मृत्यु के बाद कलकता मे ही वो जमीदारी का काम देखने लगे, 1805 में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निम्न पदाधिकारी जॉन दिग्बॉय ने उन्हें पश्चिमी सभ्यता और साहित्य से परिचय करवाया. अगले 10 साल तक उन्होंने दिग्बाय के असिस्टेंट के रूप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी में काम किया, जबकि 1809 से लेकर 1814 तक उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी के रीवेन्यु डिपार्टमेंट में काम किया.

राजा राममोहन की वैचारिक क्रान्ति का सफर 

1803 में रॉय ने हिन्दू धर्म और इसमें शामिल विभिन्न मतों में अंध-विश्वासों पर अपनी राय रखी. उन्होंने एकेश्वर वाद के सिद्धांत का अनुमोदन किया, जिसके अनुसार एक ईश्वर ही सृष्टि का निर्माता हैं, इस मत को वेदों और उपनिषदों द्वारा समझाते हुए उन्होंने इनकी संकृत भाषा को बंगाली और हिंदी और इंग्लिश में अनुवाद किया. इनमें रॉय ने समझाया कि एक महाशक्ति हैं जो कि मानव की जानाकरी से बाहर हैं और इस ब्रह्मांड को वो ही चलाती हैं.

1814 में राजा  राम मोहन राय ने आत्मीय सभा की स्थापना की. वास्तव में आत्मीय सभा का उद्देश्य समाज में सामजिक और धार्मिक मुद्दों पर पुन: विचार कर परिवर्तन करना था.

राम मोहन ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कई मुहिम चलाई. जिनमे विधवा विवाह और महिलाओं के जमीन सम्बन्धित हक़ दिलाना उनके मुख्य उद्देश्यों में से एक थे. उनकी पत्नी के बहिन जब सती हुयी, तो वो बहुत विचलित हो गए थे. इस कारण राम मोहन ने सती प्रथा का कठोर विरोध किया. वो बाल विवाह, बहु-विवाह के भी विरोधी थे.

उन्होंने शिक्षा को समाज की आवश्यकता माना और महिला शिक्षा के पक्ष में भी कई कार्य किये. उनका मानना था की इंग्लिश भाषा भारतीय भाषाओं से ज्यादा समृद्ध और उन्नत हैं और उन्होंने सरकारी स्कूलों को संस्कृत के लिए मिलने वाले सरकारी फण्ड का भी विरोध किया. 1822 में उन्होंने इंग्लिश मीडियम स्कूल की स्थापना की.

1828 में राजा राम मोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की. इसके द्वारा वो धार्मिक  ढोंगों को और समाज में क्रिश्चेनिटी के बढ़ते प्रभाव को देखना-समझना चाहते थे.

राजा राम मोहन राय के सती प्रथा के विरोध में चलाये जाने वाले अभियानों को प्रयासों को तब सफलता मिली, जब 1829 में सती प्रथा पर रोक लगा दी गई.

ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए काम करते हुए .वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कि उन्हें वेदांत के सिद्धांतों को पुन: परिभाषित करने की आवश्यकता हैं. वो पश्चिमी और भारतीय संस्कृति का संगम करवाना चाहते थे.

ब्रिटिश राज के चलते उस समय देश बहुत सी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा था. ऐसे में  राजा राम मोहन ने समाज के कई क्षेत्रों में अपना योगदान दिया था जिन्हें विस्तार से निम्न मुद्दों के अंतर्गत समझा जा सकता हैं-

राजा राममोहन राय का शैक्षणिक योगदान

राजा राममोहन राय ने इंग्लिश स्कूलों की स्थापना के साथ ही कलकता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना भी की, जो कि’ कालान्तर में देश का बेस्ट शैक्षिक संस्थान बन गया. रॉय ने विज्ञान के सब्जेक्ट्स जैसे फिजिक्स, केमिस्ट्री और वनस्पति शास्त्र को प्रोत्साहान दिया. वो चाहते थे कि देश का युवा और बच्चे नयी से नयी तकनीक की जानकारी हासिल करे इसके लिए यदि स्कूल में इंग्लिश भी पढ़ना पड़े तो ये बेहतर हैं.

राजा राममोहन 1815 में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए कलकत्ता आए थे. उनका मानना था कि भारतीय यदि गणित, जियोग्राफी और लैटिन नही पढेंगे तो पीछे रह जायेंगे. सरकार ने राम मोहन का आइडिया एक्सेप्ट कर लिया लेकिन उनकी मृत्यु तक इसे लागू नहीं किया. राम मोहन ने सबसे पहले अपनी मातृभाषा के विकास पर ध्यान दिया. उनका गुडिया व्याकरण बंगाली साहित्य की अनुपम कृति हैं. रबिन्द्र नाथ टेगोर और बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्य ने भी उनके पद चिन्हों का अनुकरण किया।

राजा राजाराममोहन राय के सामाजिक सुधार

राज राम मोहन राय और सती प्रथा

भारत में उस समय सती प्रथा का प्रचलन था. ऐसे में राजा राम मोहन के अथक प्रयासों से गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक ने इस प्रथा को रोकने में राम मोहन की सहायता की. उन्होंने ही बंगाल सती रेगुलेशन या रेगुलेशन 17 ईस्वी 1829 के बंगाल कोड को पास किया,जिसके अनुसार बंगाल में सती प्रथा को क़ानूनी अपराध घोषित किया गया.

क्या थी सती प्रथा??

इस प्रथा के अंतर्गत किसी महिला के पति की मृत्यु के बाद महिला भी उसकी चिता में बैठकर जल जाती थी, इस मरने वाली महिला को सती कहा जाता था. इस प्रथा का उद्भव देश के अलग-अलग-हिस्सों में विभिन्न कारणों से हुआ था लेकिन 18 वीं शताब्दी में इस प्रथा ने जोर पकड़ लिया था. और इस प्रथा को ब्राह्मण और अन्य सवर्णों ने प्रोत्साहन दिया. राजा राममोहन राय इसके विरोध में इंग्लैंड तक गए और उन्होंने इस परम्परा के खिलाफ सर्वोच्च न्यायायलय में इसके खिलाफ गवाही भी दी.

मूर्ति पूजा का विरोध

राजा राममोहन राय ने मूर्ति पूजा का भी  खुलकर विरोध किया,और एकेश्वरवाद के पक्ष में अपने तर्क रखे. उन्होंने “ट्रिनीटेरिएस्म” का भी विरोध किया जो कि क्रिश्चयन मान्यता हैं. इसके अनुसार भगवान तीन व्यक्तियों में ही मिलता हैं गॉड,सन(पुत्र) जीसस और होली स्पिरिट. उन्होंने विभिन्न धर्मों के पूजा के तरीकों और बहुदेव वाद का भी विरोध किया. वो एक ही भगवान हैं इस बात के पक्षधर थे. उन्होंने लोगों को अपनी तर्क शक्ति और विवेक को विकसित करने का सुझाव दिया. इस सन्दर्भ में उन्होंने इन शब्दों से अपना पक्ष रखा-

“मैंने पूरे देश के दूरस्थ इलाकों का भ्रमण किया हैं और मैंने देखा कि सभी लोग ये  विश्वास करते हैं एक ही भगवान हैं जिससे दुनिया चलती हैं”. इसके बाद उन्होंने आत्मीय सभा बनाई जिसमें उन्होंने धर्म और दर्शन-शास्त्र पर विद्वानों से चर्चा की.

महिलाओ की वैचारिक स्वतन्त्रता  (Women Liberty):

राजा राममोहन रॉय ने महिलाओं की स्वतन्त्रता की वकालत भी की. वो समाज में महिला को उपयुक्त स्थान देने के पक्षधर थे. सती प्रथा के विरोध के साथ ही उन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में भी अपनी आवाज़ उठाई. उन्होंने ये भी कहा कि बालिकाओ को भी बालको के समान ही अधिकार मिलने चाहिए. उन्होंने इसके लिए ब्रिटिश सरकार को भी मौजूदा कानून में परिवर्तन करने को कहा. वो महिला शिक्षा के भी पक्षधर थे, इसलिए उन्होंने महिलाओं को स्वतंत्र रूप से विचार करने और अपने अधिकारों की रक्षा करने हेतु प्रेरित किया.

जातिवाद का विरोध (Opposition to Caste System):

भारतीय समाज का जातिगत वर्गीकरण उस समय तक पूरी तरह से बिगड़ चूका था. ये कर्म-आधारित ना होकर वर्ण-आधारित हो चला था. जो कि क्रमश: अब तक जारी हैं. लेकिन राजा राममोहन रॉय का नाम उन समाज-प्रवर्तकों में शामिल हैं जिन्होंने जातिवाद के कारण उपजी असमानता का विरोध करने की शुरुआत की. उन्होंने कहा कि हर कोई परम पिता परमेश्वर का पुत्र या पुत्री हैं. ऐसे में मानव में कोई विभेद नहीं हैं. समाज में घृणा और शत्रुता का कोई स्थान नहीं है सबको समान हक मिलना चाहिए. ऐसा करके राजा राम मोहन सवर्णों की आँख में खटकने लगे.

वेस्टर्न शिक्षा की वकालत (Advocate of Western Education ):

जैसा कि पहले भी बताया कि राजा राम मोहन की कुरान, उपनिषद, वेद, बाइबल जैसे धार्मिक ग्रंथो पर ही बराबर की पकड़ थी, ऐसे में इन सबको समझते हुए उनका दूसरी भाषा के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक था. वो इंग्लिश के माध्यम से भारत का विज्ञान में वैचारिक और सामाजिक विकास देख सकते थे.

उनके समय में जब प्राचिविद और पश्चिमी सभ्यता की जंग चल रही थी. तब उन्होंने इन दोनों के संगम के साथ आगे बढने की इच्छा जाहिर की. उन्होंने जहाँ फिजिक्स, मैथ्स, बॉटनी, फिलोसफी जैसे विषयों को पढ़ने को कहा वही वेदों और उपनिषदों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता बताई.

उन्होंने लार्ड मेक्ले का भी सपोर्ट किया जो कि भारत की शिक्षा व्यवस्था बदलकर इसमें इंग्लिश को डालने वाले व्यक्ति थे. उनका उद्देश्य भारत को प्रगति की राह पर ले जाना था. हालांकि वो 1835 तक भारत में प्रचलन में आई इंग्लिश के एजुकेशन सिस्टम को देखने के लिए जीवित नहीं रहें लेकिन इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता इस दिशा  में कोई सकारात्मक कदम उठाने वाले पहले विचारकों में से वो भी एक थे.

भारतीय पत्रकारिता के जनक (Father of Indian Journalism):

 भारत की पत्रकारिता में उन्होंने बहुत योगदान दिया और वो अपने सम्पादकीय में देश की सामाजिक राजनीतिक,धार्मिक और अन्य समस्याओं पर केन्द्रण करते थे. जिससे जनता में जागरूकता आने लगी. उनका लेखन लोगों पर गहन प्रभाव डालता था. वो अपने विचार बंगाली और हिंदी के समान ही इंग्लिश में भी तीक्ष्णता से रखते थे. जिससे उनकी बात सिर्फ आम जनता तक नहीं बल्कि तब के प्रबुद्ध और अंग्रेजी हुकुमत तक भी पहुच जाती थी.

उनके लेखन की प्रशंसा करते हुए रॉबर्ट रिचर्ड्स ने लिखा “राममोहन का लेखन ऐसा हैं जो उन्हें अमर कर देगा,और भविष्य की जेनेरेशन को ये हमेशा अचम्भित करेगा कि एक ब्राह्मण और ब्रिटेन मूल के ना होते हुए भी वो इतनी अच्छी इंग्लिश में कैसे लिख सकते हैं”

आर्थिक समस्याओं सम्बन्धित विचार  (Economic Ideas):

आर्थिक क्षेत्र में राम मोहन के विचार स्वाधीन थे. वो प्रत्येक आम व्यक्ति की प्रॉपर्टी की रक्षा के लिए सरकार का हस्तक्षेप चाहते थे. उनके आर्टिकल भी हिन्दुओं के अपने पैतृक सम्पति के अधिकारों की रक्षा पर होते थे. इसके अलावा उन्होंने जमीन के मालिकों (जिन्हें तब जमीदार कहा जाता था) से किसानों की हितों को बचाने के लिए भी सरकार का हस्तक्षेप का आग्रह किया था. वो  लार्ड कार्नवालिस द्वारा दिए गये 1973 परमानेंट सेटलमेंट के खतरे से वाकिफ थे इसलिए वो ब्रिटिश सरकार से ये अपेक्षा करते थे कि वो किसानों को जमीदारो को बचाए. उन्होंने जमीन  सम्बन्धित मामलों में महिला अधिकारों की रक्षा का भी समर्थन किया.

अंतरराष्ट्रीयवाद के चैंपियन

रविन्द्र नाथ टैगो ने भी ये कमेंट किया था कि ”राममोहन ही वो व्यक्ति हैं जो कि आधुनिक युग को समझ सकते हैं. वो जानते थे कि आदर्श समाज की स्थापना स्वतन्त्रता को खत्म कर किसी का शोषण करने से नहीं की जा सकती बल्कि भाईचारे के साथ रहकर एक दुसरे के स्वतन्त्रता की रक्षा करने से ही एक समृद्ध और आदर्श समाज का निर्माण होगा”. वास्तव में राममोहन युनिवर्सल धर्म, मानव सभ्यता के विकास और आधुनिक युग में समानता के पक्षधर थे.

राष्ट्रवाद के जनक  Nationalism:

राजा राममोहन व्यक्ति के राजनीतिक स्वतन्त्रता के भी पक्षधर थे. 1821 में उन्होंने जे.एस. बकिंघम को लिखा जो कि कलकता जर्नल के एडिटर थे कि वो यूरोप और एशियन देशों के स्वतन्त्रता में विश्वास रखते हैं. जब चार्ल्स एक्स ने 1830 की जुलाई क्रान्ति में फ्रांस पर कब्ज़ा कर लिया तब राम मोहन बहुत खुश हुए.

उन्होंने भारत के स्वतंत्रता और इसके लिए एक्शन लेने के के बारे में सोचने का भी कहा. इस कारण ही उन्होंने 1826 में आये जूरी एक्ट का विरोध भी किया. जूरी एक्ट में धार्मिक विभेदों को कानून बनाया था. उन्होंने इसके लिए जे-क्रावफोर्ड को एक लेटर लिखा उनके एक दोस्त के अनुसार उस लेटर में उन्होंने लिखा कि “भारत जैसे देश में ये सम्भव नहीं कि आयरलैंड के जैसे यहाँ किसी को भी दबाया जाए” इससे ये पता चलता हैं कि उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद का पक्ष रखा. इसके बाद उनका अकबर के लिए लंदन जाना भी राष्ट्रवाद का ही एक उदाहरण हैं.

सामजिक पुनर्गठन Social Reconstruction

उस समय बंगाली समाज बहुत सी कुरीतियों का समाना कर रहा था. ये सच हैं कि भारत में उस समय सबसे शिक्षित और सम्भ्रान्त समाज बंगाली वर्ग को ही कहा जा सकता था,क्योंकी तब साहित्य और संस्कृतियों के संगम का दौर था, जिसमें बंगाली वर्ग सबसे आगे रहता था. लेकिन फिर भी वहां कुछ अंधविश्वास और कुरीतियाँ थी जिन्होंने समाज के भीतर गहरी जड़ों तक अपनी जगह बना रखी थी. इन सबसे विचलित होकर ही राजा राममोहन राय ने समाज के सामाजिक-धार्मिक ढांचे को पूरी तरह से बदलने का मन बनाया. और इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने ना केवल ब्रह्मण समाज और एकेश्वरवाद जैसे सिद्धांत की स्थापना की बल्कि सती प्रथा,बाल विवाह,जातिवाद, दहेज़ प्रथा, बिमारी का इलाज और बहुविवाह के खिलाफ भी जन-जागृति की मुहीम चलाई.

राजा राममोहन राय द्वारा लिखित पुस्तकें Raja Ram mohan roy books)

राजा राममोहन राय ने इंग्लिश,हिंदी,पर्शियन और बंगाली भाषाओं में की मेग्जिन पब्लिश भी करवाए. 1815 में उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की जो की ज्यादा समय तक नहीं चला. उन्हें हिन्दू धर्म के साथ क्रिश्च्निटी में भी जिज्ञासा जागरूक हो गई. उन्होंने ओल्ड हरब्यू और न्यू टेस्टामेंटस का अध्ययन भी किया.

1820 में उन्होंने एथिकल टीचिंग ऑफ़ क्राइस्ट भी पब्लिश किया जो की 4 गोस्पेल का एक अंश था. ये उन्होंने प्रीसेप्ट्स ऑफ़ जीसस के नाम के टाइटल से प्रकाशित करवाया था.

उस समय कुछ भी पब्लिश करवाने से पहले अंग्रेजी हुकुमत से आज्ञा लेनी पड़ती थी. लेकिन राजा राममोहन राय ने इसका विरोध किया. उनका मानना था कि न्यूज़ पेपर में सच्चाई को दिखाना चाहिए, और यदि सरकार इसे पसंद नहीं कर रही तो इसका ये मतलब नहीं बनता कि वो किसी भी मुद्दे को दबा दे. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर रहे राजा राममोहन रॉय ने कई पत्रिकाएं पब्लिश भी करवाई थी.

1816 में राममोहन की इशोपनिषद,1817 में कठोपनिषद,1819 में मूंडुक उपनिषद के अनुवाद आए थे. इसके बाद उन्होंने गाइड टू पीस एंड हैप्पीनेस, 1821 में उन्होंने एक बंगाली अखबार सम्बाद कुमुदी में भी लिखा. इसके बाद 1822 में मिरत-उल-अकबर नाम के पर्शियन journal में भी लिखा. 1826 मे उन्होंने गौडिया व्याकरण,1828 में ब्राह्मापोसना और 1829 में ब्रहामसंगीत और 1829 में दी युनिवर्सल रिलिजन लिखा.

  राजा राम मोहन राय की मृत्यु (Raja Ram Mohan Roy Death)

1830 में राजा राम मोहन राय अपनी पेंशन और भत्ते के लिए मुगल सम्राट अकबर द्वितीय के राजदूत बनकर यूनाइटेड किंगडम गए.

27 सितम्बर 1833 को ब्रिस्टल के पास स्टाप्लेटोन में मेनिंजाईटिस के कारण उनका देहांत हो गया.

  राजा राम मोहन राय और उन्हें मिले सम्मान (Raja Ram Mohan Roy and Awards)

उन्हें दिल्ली के मुगल साम्राज्य द्वारा “राजा” की उपाधि दी गयी थी. 1829 में दिल्ली के राजा अकबर द्वितीय ने उन्हें ये उपाधि दी थी. और वो जब उनका प्रतिनिधि बनकर इंगलैंड गए तो वहां के राजा विलियम चतुर्थ ने भी उनका अभिनंदन किया.

उनके वेदों और उपनिषद के संस्कृत से हिंदी, इंग्लिश और बंगाली भाषा में अनुवाद के लिए फ्रेंच Société Asiatique ने उन्हें 1824 में सम्मानित भी किया.

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