शिव ताण्डव स्तोत्रम् || Shiv Tandava Stotram

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शिव तांडव स्तोत्रम् भगवान शिव के परम भक्त रावण द्वारा की गई एक विशेष स्तुति है। यह स्तुति छन्दात्मक (पंचचामर छंद) है और इसमें बहुत सारे अलंकार हैं। यह स्त्रोत सबसे ऊर्जावान और शक्तिशाली रचना है जिसे पूरी सृष्टि नमन करती है। शिव तांडव स्तोत्रम् का पाठ करने के लाभ चमत्कारी हैं। इसके पाठ से शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति, सुख, समृद्धि और निश्चित रूप से शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है। शिव तांडव स्त्रोत का नियमित पाठ करने से स्वस्थ्य संबंधित रोग दूर होते हैं। पाठ यदि रात्रि में इसका पाठ किया जाए तो शत्रु पर विजय प्राप्त होती है, और दिन में पाठ करने से सम्पूर्ण पापों से मुक्ति मिलती है। इस स्त्रोत का पाठ करने से जन्म कुण्डली में पितृ दोष और कालसर्पदोष से भी मुक्ति मिलती है। जब कभी स्वास्थ्य की समस्याओं का कोई तत्काल समाधान न निकल पा रहा तो ऐसे में शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करना बेहद लाभदायक होता है। व्यक्ति को जब कभी भी ऐसा लगे कि किसी प्रकार की तंत्र, मंत्र और शत्रु परेशान कर रहा है तो ऐसे में शिव तांडव का पाठ करना अत्यंत लाभदायक होता है। आर्थिक समस्या से भी उबरने के लिए शिव तांडव का पाठ करना शुभ साबित होता है। जीवन में विशेष उपलब्धि पाने के लिए भी शिव तांडव स्तोत्र रामबाण का काम करता है। जब बुरे ग्रह के दोष से मुक्ति पाने के शिव तांडव का पाठ करना अत्यधिक लाभकारी होता है।

शिव तांडव स्तोत्र का पाठ प्रातः काल या प्रदोष काल में इसका पाठ करना सर्वोत्तम होता है। पहले शिव जी को प्रणाम करके उन्हें धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित करें। इसके बाद गाकर शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करें। अगर नृत्य के साथ इसका पाठ करें तो सर्वोत्तम होगा। पाठ के बाद शिव जी का ध्यान करें और अपनी प्रार्थना करें।

शिव ताण्डव स्तोत्रम् के रचना की कथा- रावण सत्ता के मद में मस्त होकर देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वों को विभिन्न प्रकार से कष्ट देने लगा। एक बार उसने कुबेर पर चढ़ाई करके उसे युद्ध में पराजित कर दिया और अपनी विजय की स्मृति के रूप में कुबेर के पुष्पक विमान पर अपना अधिकार कर लिया। पुष्पक विमान का वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुए लोगों को इच्छानुसार छोटा या बड़ा रूप धारण कर सकता था। पुष्पक विमान में मणि और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और तपाये हुये सोने के आसन बने हुए थे। उस विमान पर बैठकर जब वह ‘शरवण’ नाम से प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन से होकर जा रहा था तो भगवान शंकर के पार्षद नन्दीश्‍वर ने उसे रोकते हुए कहा कि दशग्रीव! इस वन में स्थित पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा करते हैं, इसलिये यहाँ सभी सुर, असुर, यक्ष आदि का आना निषिद्ध कर दिया गया है। नन्दीश्‍वर के वचनों से क्रोद्धित होकर रावण विमान से उतरकर भगवान शंकर की ओर चला। रावण को रोकने के लिये उससे थोड़ी दूर पर हाथ में शूल लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हो गये। उनका मुख वानर जैसा था। उसे देखकर रावण ठहाके मारकर हँस पड़ा। इससे कुपित हो नन्दी बोले कि दशानन! तुमने मेरे वानर रूप की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारे कुल का नाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। रावण ने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और बोला कि जिस पर्वत ने मेरे विमान की यात्रा में बाधा डाली है, आज मैं उसी को उखाड़ फेंकूँगा। यह कहकर उसने पर्वत के निचले भाग में हाथ डालकर उसे उठाने का प्रयत्न किया। जब पर्वत हिलने लगा तो भगवान शंकर ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। इससे रावण का हाथ बुरी तरह से दब गया और वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। जब रावण किसी प्रकार से हाथ न निकाल सका तो रोत-रोते भगवान शंकर की स्तुति और क्षमा प्रार्थना करने लगा। उसके इस स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उसे क्षमा कर दिया और उसे एक चन्द्रहास नामक खड्ग भी दिया। रुदन करने के कारण ही दशग्रिव दशानन का नाम रावण रख दिया । रावण के द्वारा किया गया यही स्तुति शिव ताण्डव स्तोत्रम् कहलाता है।

|| शिव ताण्डव स्तोत्रम् मूल पाठ ||

जटाटवी-गलज्जल-प्रवाह-पावित-स्थले

गलेऽव-लम्ब्य-लम्बितां-भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम्

डमड्डमड्डमड्डम-न्निनादव-ड्डमर्वयं

चकार-चण्ड्ताण्डवं-तनोतु-नः शिवः शिवम् .. १..

जटा-कटा-हसं-भ्रमभ्रमन्नि-लिम्प-निर्झरी-

-विलोलवी-चिवल्लरी-विराजमान-मूर्धनि .

धगद्धगद्धग-ज्ज्वल-ल्ललाट-पट्ट-पावके

किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम .. २..

धरा-धरेन्द्र-नंदिनीविलास-बन्धु-बन्धुर

स्फुर-द्दिगन्त-सन्ततिप्रमोद-मान-मानसे .

कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि

क्वचि-द्दिगम्बरे-मनो विनोदमेतु वस्तुनि .. ३..

जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्फणा-मणिप्रभा

कदम्ब-कुङ्कुम-द्रवप्रलिप्त-दिग्व-धूमुखे

मदान्ध-सिन्धुर-स्फुरत्त्व-गुत्तरी-यमे-दुरे

मनो विनोदमद्भुतं-बिभर्तु-भूतभर्तरि .. ४..

सहस्रलोचनप्रभृत्य-शेष-लेख-शेखर

प्रसून-धूलि-धोरणी-विधू-सराङ्घ्रि-पीठभूः

भुजङ्गराज-मालया-निबद्ध-जाटजूटक:

श्रियै-चिराय-जायतां चकोर-बन्धु-शेखरः .. ५..

ललाट-चत्वर-ज्वलद्धनञ्जय-स्फुलिङ्गभा-

निपीत-पञ्च-सायकं-नमन्नि-लिम्प-नायकम्

सुधा-मयूख-लेखया-विराजमान-शेखरं

महाकपालि-सम्पदे-शिरो-जटाल-मस्तुनः.. ६..

कराल-भाल-पट्टिका-धगद्धगद्धग-ज्ज्वल

द्धनञ्ज-याहुतीकृत-प्रचण्डपञ्च-सायके

धरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-कुचाग्रचित्र-पत्रक

-प्रकल्प-नैकशिल्पिनि-त्रिलोचने-रतिर्मम … ७..

नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत्

कुहू-निशी-थिनी-तमः प्रबन्ध-बद्ध-कन्धरः

निलिम्प-निर्झरी-धरस्त-नोतु कृत्ति-सिन्धुरः

कला-निधान-बन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः .. ८..

प्रफुल्ल-नीलपङ्कज-प्रपञ्च-कालिमप्रभा-

-वलम्बि-कण्ठ-कन्दली-रुचिप्रबद्ध-कन्धरम् .

स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं

गजच्छिदांधकछिदं तमंतक-च्छिदं भजे .. ९..

अखर्वसर्व-मङ्ग-लाकला-कदंबमञ्जरी

रस-प्रवाह-माधुरी विजृंभणा-मधुव्रतम् .

स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं

गजान्त-कान्ध-कान्तकं तमन्तकान्तकं भजे .. १०..

जयत्व-दभ्र-विभ्र-म-भ्रमद्भुजङ्ग-मश्वस-

द्विनिर्गमत्क्रम-स्फुरत्कराल-भाल-हव्यवाट्

धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्ग-तुङ्ग-मङ्गल

ध्वनि-क्रम-प्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः .. ११..

दृष-द्विचित्र-तल्पयोर्भुजङ्ग-मौक्ति-कस्रजोर्

-गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्वि-पक्षपक्षयोः .

तृष्णार-विन्द-चक्षुषोः प्रजा-मही-महेन्द्रयोः

समप्रवृतिकः कदा सदाशिवं भजे .. १२..

कदा निलिम्प-निर्झरीनिकुञ्ज-कोटरे वसन्

विमुक्त-दुर्मतिः सदा शिरःस्थ-मञ्जलिं वहन् .

विमुक्त-लोल-लोचनो ललाम-भाललग्नकः

शिवेति मंत्र-मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् .. १३..

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-

निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः .

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं

परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ..१४ ..

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी

महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना .

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः

शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ..१५..

इदम् हि नित्य-मेव-मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं

पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धि-मेति-संततम् .

हरे गुरौ सुभक्तिमा शुयातिना न्यथा गतिं

विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् .. १६..

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं

यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे .

तस्य स्थिरां रथ गजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां

लक्ष्मीं सदैवसुमुखिं प्रददाति शंभुः .. १७..

इति श्रीरावण-कृतम् शिव-ताण्डव-स्तोत्रम् सम्पूर्णम्॥

|| शिव ताण्डव स्तोत्रम् श्लोक सहित हिंदी अनुवाद ||

जटा टवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले, गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् ।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥१॥

जिन शिव जी की सघन, वनरूपी जटा से प्रवाहित हो गंगा जी की धाराएँ उनके कंठ को प्रक्षालित करती हैं, जिनके गले में बड़े एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी, विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि ।

धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥२॥

जिन शिव जी की जटाओं में अतिवेग से विलास पूर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरें उनके शीश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

धरा धरेन्द्र नंदिनी विलास बन्धु बन्धुरस् फुरद् दिगन्त सन्तति प्रमोद मानमानसे ।

कृपा कटाक्ष धोरणी निरुद्ध दुर्धरापदि क्वचिद् दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥

जो पर्वतराजसुता (पार्वती जी) के विलासमय रमणीय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनकी कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आनन्दित रहे।

जटा भुजङ्ग पिङ्गलस् फुरत्फणा मणिप्रभा कदम्ब कुङ्कुमद्रवप् रलिप्तदिग्व धूमुखे ।

मदान्ध सिन्धुरस् फुरत् त्वगुत्तरीयमे दुरे मनो विनोद मद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥४॥

जिनकी जटाओं में रहने वाले सर्पों के फणों की मणियों का फैलता हुआ प्रभापुंज दिशा रुपी स्त्रियों के मुख पर कुंकुम का लेप कर रहा है। मतवाले हाथी के हिलते हुए चमड़े का वस्त्र धारण करने से स्निग्ध वर्ण हुए उन भूतनाथ में मेरा चित्त अद्भुत आनंद करे।

सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर प्रसून धूलिधोरणी विधूस राङ्घ्रि पीठभूः ।

भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धुशेखरः ॥५॥

जिन शिव जी के चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों की धूल से रंजित हैं (जिन्हें देवतागण अपने सर के पुष्प अर्पण करते हैं), जिनकी जटाओं में लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम् ।

सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोज टालमस्तु नः ॥६॥

जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभी देवों द्वारा पूज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्धि प्रदान करें।

कराल भाल पट्टिका धगद् धगद् धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके ।

धरा धरेन्द्र नन्दिनी कुचाग्र चित्रपत्रक प्रकल्प नैक शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥७॥

जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर हैं (यहाँ पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो।

नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्- कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः ।

निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्ति सिन्धुरः कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधरः ॥८॥

जिनका कण्ठ नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सामान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभी प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करें।

प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा- वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् ।

स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छि दांध कच्छिदं तमंत कच्छिदं भजे ॥९॥

जिनका कण्ठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभूषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुःखों को काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यु को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।

अखर्व सर्व मङ्गला कला कदंब मञ्जरी रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् ।

स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्त कान्ध कान्त कं तमन्त कान्त कं भजे ॥१०॥

जो कल्याणमय, अविनाशी, समस्त कलाओं के रस का आस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के संहारक, दक्षयज्ञ विध्भंसक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।

जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस – द्विनिर्ग मत् क्रमस्फुरत् कराल भाल हव्यवाट् ।

धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥

अत्यंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढ़ी हूई प्रचण्ड अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्- गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।

तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥

कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टुकड़ों, शत्रु एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर समान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ।

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् ।

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥

कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजलि धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा?

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥

देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते हुए सुगंधमय राग से मनोहर परम शोभा के धाम महादेव जी के अंगों की सुन्दरता परमानन्दयुक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहे।

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥

प्रचण्ड वडवानल की भांति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्टमहासिध्दियों तथा चंचल नेत्रों वाली कन्याओं से शिव विवाह समय गान की मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, संसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पायें।

इदम् हि नित्यमेव-मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धि-मेति-संततम् ।

हरे गुरौ सुभक्तिमा शुयातिना न्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥

इस उत्तमोत्तम शिव ताण्डव स्तोत्र को नित्य पढ़ने या श्रवण करने मात्र से प्राणी पवित्र हो, परमगुरु शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।

तस्य स्थिरां रथ गजेन्द्र तुरंग युक्तां लक्ष्मीं सदैवसुमुखिं प्रददाति शंभुः ॥१७॥

प्रात: शिवपूजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोड़े आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है।

इति श्रीरावण- कृतम् शिव- ताण्डव- स्तोत्रम् सम्पूर्णम्।

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