शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 3 || Shivamahapuran Mahatmya 3

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शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 03 चंचुला का पाप से भय एवं संसार से वैराग्य चंचुलावैराग्यवर्णनम्

शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 03

तीसरा अध्याय

शिवमहापुराण

॥ शौनक उवाच ॥

सूत सूत महाभाग सर्वज्ञोऽसि महामते ।

त्वत्प्रसादात्कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं पुनः पुनः ॥ १ ॥

इतिहासमिमं श्रुत्वा मनो मेऽतीव मोदते ।

अन्यामपि कथां शम्भोर्वद प्रेमविवर्द्धिनीम् ॥ २ ॥

शौनकजी बोले — हे महाभाग सूतजी ! आप सर्वज्ञ हैं । हे महामते ! आपके कृपाप्रसाद से मैं बारम्बार कृतार्थ हुआ । इस इतिहास को सुनकर मेरा मन अत्यन्त आनन्द में निमग्न हो रहा है । अतः अब भगवान् शिव में प्रेम बढ़ानेवाली शिवसम्बन्धिनी दूसरी कथा को भी कहिये ॥ १-२ ॥

नामृतम्पिबतां लोके मुक्तिः क्वापि सभाज्यते ।

शम्भोः कथा सुधापानं प्रत्यक्षं मुक्तिदायकम् ॥ ३ ॥

धन्या धन्या कथा शम्भोस्त्वं धन्यो धन्य एव च ।

यदाकर्णनमात्रेण शिवलोकं व्रजेन्नरः ॥ ४ ॥

अमृत पीनेवालों को लोक में कहीं मुक्ति नहीं प्राप्त होती है, किंतु भगवान् शंकर के कथामृत का पान तो प्रत्यक्ष ही मुक्ति देनेवाला है । सदाशिव की जिस कथा के सुनने मात्र से मनुष्य शिवलोक प्राप्त कर लेता है, वह कथा धन्य है, धन्य है और कथा का श्रवण करानेवाले आप भी धन्य हैं, धन्य हैं ॥ ३-४ ॥

॥ सूत उवाच ॥

शृणु शौनक वक्ष्यामि त्वदग्रे गुह्यमप्युत ।

यतस्त्वं शिवभक्तानामग्रणीर्वेदवित्तमः ॥ ५ ॥

समुद्रनिकटे देशे ग्रामो बाष्कलसंज्ञकः ।

वसन्ति यत्र पापिष्ठा वेदधर्मोज्झिता जनाः ॥ ६ ॥

दुष्टा दुर्विषयात्मानो निर्दैवा जिह्मवृत्तयः ।

कृषीवलाः शस्त्रधराः परस्त्रीभोगिनः खलाः ॥ ७ ॥

ज्ञानवैराग्यसद्धर्मं न जानन्ति परं हि ते ।

कुकथाश्रवणाढ्येषु निरताः पशुबुद्धयः ॥ ८ ॥

सूतजी बोले — हे शौनक ! सुनिये, मैं आपके सामने गोपनीय कथावस्तु का भी वर्णन करूंगा; क्योंकि आप शिवभक्तों में अग्रगण्य तथा वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं । समुद्र के निकटवर्ती प्रदेश में एक बाष्कल नामक ग्राम है, जहाँ वैदिक धर्म से विमुख महापापी द्विज निवास करते हैं । वे सब-के-सब बड़े दुष्ट हैं, उनका मन दूषित विषयभोगों में ही लगा रहता है । वे न देवताओं पर विश्वास करते हैं न भाग्य पर; वे सभी कुटिल वृत्तिवाले हैं । किसानी करते और भाँति-भाँति के घातक अस्त्र-शस्त्र रखते हैं । वे परस्त्रीगमन करनेवाले और खल हैं । ज्ञान, वैराग्य तथा सद्धर्म को वे बिलकुल नहीं जानते हैं । वे सभी पशुबुद्धिवाले हैं और सदा दूषित बातों को सुनने में संलग्न रहते हैं ॥ ५-८ ॥

अन्ये वर्णाश्च कुधियः स्वधर्मविमुखाः खलाः ।

कुकर्मनिरता नित्यं सदा विषयिणश्च ते ॥ ९ ॥

(जहाँके द्विज ऐसे हों, वहाँ के अन्य वर्णो के विषय में क्या कहा जाय!) अन्य वर्णों के लोग भी उन्हीं की भाँति कुत्सित विचार रखनेवाले, स्वधर्मविमुख एवं खल हैं; वे सदा कुकर्म में लगे रहते हैं और नित्य विषयभोगों में ही डूबे रहते हैं ॥ ९ ॥

स्त्रियः सर्वाश्च कुटिलाः स्वैरिण्यः पापलालसाः ।

कुधियो व्यभिचारिण्यः सद्‌वृत्ताचारवर्जिताः ॥ १० ॥

वहाँ की सब स्त्रियाँ भी कुटिल स्वभाव की, स्वेच्छाचारिणी, पापासक्त, कुत्सित विचारवाली और व्यभिचारिणी हैं । वे सद्व्यवहार तथा सदाचार से सर्वथा शून्य हैं ॥ १० ॥

एवं कुजनसंवासे ग्रामे बाष्कलसंज्ञिते ।

तत्रैको बिन्दुगो नाम विप्र आसीन्महाधमः ॥ ११ ॥

कुजनों के निवासस्थान उस बाष्कल नामक ग्राम में किसी समय एक बिन्दुग नामधारी ब्राह्मण रहता था, वह बड़ा अधम था ॥ ११ ॥

स दुरात्मा महापापी सुदारोऽपि कुमार्गगः ।

वेश्यापतिर्बभूवाथ कामाकुलितमानसः ॥ १२ ॥

वह दुरात्मा और महापापी था । यद्यपि उसकी स्त्री बड़ी सुन्दर थी, तो भी वह कुमार्गपर ही चलता था । कामवासना से कलुषित चित्त वह वेश्यागामी था ॥ १२ ॥

स्वपत्नीं चञ्चुला नाम हित्वा नित्यं सुधर्मिणीम् ।

रेमे स वेश्यया दुष्टः स्मरबाणप्रपीडितः ॥ १३ ॥

उसकी पत्नी का नाम चंचुला था, वह सदा उत्तम धर्म के पालन में लगी रहती थी, तो भी उसे छोड़कर वह दुष्ट ब्राह्मण कामासक्त होकर वेश्यागामी हो गया था ॥ १३ ॥

एवं कालो व्यतीयाय महांस्तस्य कुकर्मणः ।

सा स्वधर्मभयाक्लेशात्स्मरार्तापि च चञ्चुला ॥ १४ ॥

अथ तस्याङ्गना सापि प्ररूढनवयौवना ।

अविषह्यस्मरावेशा स्वधर्माद्‌विरराम ह ॥ १५ ॥

इस तरह कुकर्म में लगे हुए उस बिन्दुग के बहुत वर्ष व्यतीत हो गये । उसकी स्त्री चंचुला काम से पीड़ित होने पर भी स्वधर्मनाश के भय से क्लेश सहकर भी दीर्घकाल तक धर्म से भ्रष्ट नहीं हुई । परंतु दुराचारी पति के आचरण से प्रभावित होने के कारण कामपीड़ित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गयी ॥ १४-१५ ॥

जारेण सङ्ग॥ता रात्रौ रेमे पापेन गुप्ततः ।

पतिदृष्टिं वञ्चयित्वा भ्रष्टसत्त्वा कुमार्गगा ॥ १६ ॥

भ्रष्ट चरित्रवाली वह कुमार्गगामिनी अपने पति की दृष्टि बचाकर रात्रि में चोरी-छिपे अन्य पापी जार पुरुष के साथ रमण करने लगी ॥ १६ ॥

कदाचित्तां दुराचारां स्वपत्नीं चञ्चुलां मुने ।

जारेण सङ्गेतां रात्रौ ददर्श स्मरविह्वलाम् ॥ १७ ॥

हे मुने ! एक बार उस ब्राह्मण ने अपनी उस दुराचारिणी पत्नी चंचुला को कामासक्त हो परपुरुष के साथ रात्रि में संसर्गरत देख लिया ॥ १७ ॥

दृष्ट्वा तां दूषितां पत्नीं कुकर्मासक्तमानसाम् ।

जारेण सङ्ग्तां रात्रौ क्रोधाद्‌द्रुदाव वेगतः ॥ १८ ॥

उस दुष्ट तथा दुराचार में आसक्त मनवाली पत्नी को रात में परपुरुष के साथ व्यभिचाररत देखकर वह क्रोधपूर्वक वेग से दौड़ा ॥ १८ ॥

तमागतं गृहे दुष्टमाज्ञाय बिन्दुगं खलः ।

पलायितो द्रुतं जारो वेगतश्छद्मवान्स वै ॥ १९ ॥

उस दुष्ट बिन्दुग को घर में आया जानकर वह कपटी व्यभिचारी तेजी से भाग गया ॥ १९ ॥

अथ स बिन्दुगः पत्नीं गृहीत्वा सुदुराशयः ।

मुष्टिबन्धेन सन्तर्ज्य पुनः पुनरताडयत् ॥ २० ॥

तब वह दुष्टात्मा बिन्दुग अपनी पत्नी को पकड़कर उसे डाँटता हुआ मुक्कों से बार-बार पीटने लगा ॥ २० ॥

सा नारी ताडिता भर्त्रा चञ्चुला स्वैरिणी खला ।

कुपिता निर्भया प्राह स्वपतिं बिन्दुगं खलम् ॥ २१ ॥

वह व्यभिचारिणी दुष्टा नारी चंचुला पीटी जाने पर कुपित होकर निर्भयतापूर्वक अपने दुष्ट पति बिन्दुग से कहने लगी ॥ २१ ॥

॥ चञ्चुलोवाच ॥

भवान्प्रतिदिनं कामं रमते वेश्यया कुधीः ।

मां विहाय स्वपत्नीं च युवती पतिसेविनीम् ॥ २२ ॥

रूपवत्या युवत्याश्च कामाकुलितचेतसः ।

विना पतिविहारं स्यात् का गतिर्मे भवान् वदेत् ॥ २३ ॥

अहं महारूपवती नवयौवनविह्वला ।

कथं सहे कामदुःखं तव सङ्‌गंविनाऽऽर्तधीः ॥ २४ ॥

चंचुला बोली — मुझ पतिपरायणा युवती पत्नी को छोड़कर आप कुबुद्धिवश प्रतिदिन वेश्या के साथ इच्छानुसार रमण करते हैं । आप ही बतायें कि रूपवती तथा कामासक्त चित्तवाली मुझ युवती की पतिसंसर्ग के बिना क्या गति होती होगी ? मैं अत्यन्त सुन्दर हूँ तथा नवयौवन से उन्मत्त हूँ । आपके संसर्ग के बिना व्यथितचित्त वाली मैं कामजन्य दुःख को कैसे सह सकती हूँ ? ॥ २२-२४ ॥

॥ सूत उवाच॥

इत्युक्तः स तया मूर्खो मूढधीर्ब्राह्मणोऽधमः ।

प्रोवाच बिन्दुगः पापी स्वधर्मविमुखः खलः ॥ २५ ॥

सूतजी बोले — उस स्त्री के इस प्रकार कहने पर वह मूढबुद्धि मूर्ख ब्राह्मणाधम स्वधर्मविमुख दुष्ट पापी बिन्दुग कहने लगा — ॥ २५ ॥

॥ बिन्दुग उवाच ॥

सत्यमेतत्त्वयोक्तं हि कामव्याकुलचेतसा ।

हितं वक्ष्यामि तस्मात्ते शृणु कान्ते भयं त्यज ॥ २६ ॥

जारैर्विहर नित्यं त्वं चेतसा निर्भयेन वै ।

धनमाकर्ष तेभ्यो हि दत्त्वा तेभ्यः परां रतिम् ॥ २७ ॥

तद्धनं देहि सर्वं मे वेश्यासंसक्तचेतसः ।

महत्स्वार्थं भवेन्नूनं तवापि च ममापि च ॥ २८ ॥

बिन्दुग बोला — काम से व्याकुलचित्त होकर तुमने यह सत्य ही कहा है । हे प्रिये ! तुम भय त्याग दो और मैं जो तुमसे हित की बात कहता हूँ, उसे सुनो । तुम निर्भय होकर नित्य परपुरुषों के साथ संसर्ग करो । उन्हें सन्तुष्ट करके उनसे धन खींचो । वह सारा धन वेश्या के प्रति आसक्त मनवाले मुझको दे दिया करो । इससे तुम्हारा और मेरा दोनों का ही स्वार्थ सिद्ध हो जायगा ॥ २६-२८ ॥

॥ सूत उवाच ॥

इति भर्तृवचः श्रुत्वा चञ्चुला तद्वधूश्च सा ।

तथेति भर्तृवचनं प्रतिजग्राह हृष्टधीः ॥ २९ ॥

कृत्वैवं समयं तौ वै दम्पती दुष्टमानसौ ।

कुकर्मनिरतौ जातौ निर्भयेन कुचेतसा ॥ ३० ॥

सूतजी बोले — पति का यह वचन सुनकर उसकी पत्नी चंचुला ने प्रसन्न होकर उसकी कही बात मान ली । उन दोनों दुराचारी पति-पत्नी ने इस प्रकार समझौता कर लिया तथा वे दोनों निर्भय चित्त से कुकर्म में लीन हो गये ॥ २९-३० ॥

एवं तयोस्तु दम्पत्योर्दुराचारप्रवृत्तयोः ।

महान्कालो व्यतीयाय निष्कलो मूढचेतसोः ॥ ३१ ॥

इस तरह दुराचार में डूबे हुए उन मूढ़ चित्तवाले पति-पत्नी का बहुत-सा समय व्यर्थ बीत गया ॥ ३१ ॥

अथ विप्रः स कुमतिर्बिन्दुगो वृषलीपतिः ।

कालेन निधनं प्राप्तो जगाम नरकं खलः ॥ ३२ ॥

भुक्त्या नरकदुःखानि बह्वहानि स मूढधीः ।

विन्ध्येऽभवत्पिशाचो हि गिरौ पापी भयङ्कररः ॥ ३३ ॥

तदनन्तर शूद्रजातीय वेश्या का पति बना हुआ वह दूषित बुद्धिवाला दुष्ट ब्राह्मण बिन्दुग समयानुसार मृत्यु को प्राप्त हो नरक में जा पड़ा । बहुत दिनों तक नरक के दुःख भोगकर वह मूढबुद्धि पापी विन्ध्यपर्वत पर भयंकर पिशाच हुआ ॥ ३२-३३ ॥

मृते भर्तरि तस्मिन्वै दुराचारेऽथ बिन्दुगे ।

उवास स्वगृहे पुत्रैश्चिरकालं विमूढधीः ॥ ३४ ॥

इधर, उस दुराचारी पति बिन्दुग के मर जाने पर वह मूढ़हृदया चंचुला बहुत समय तक पुत्रों के साथ अपने घर में ही रही ॥ ३४ ॥

एवं विहरती जारैः सा नारी चञ्चुलाह्वया ।

आसीत् कामरता प्रीता किञ्चिदुत्क्रान्तयौवना ॥ ३५ ॥

इस प्रकार प्रेमपूर्वक कामासक्त होकर जारों के साथ विहार करती हुई उस चंचुला नामक स्त्री का कुछ-कुछ यौवन समय के साथ ढलने लगा ॥ ३५ ॥

एकदा दैवयोगेन सम्प्राप्ते पुण्यपर्वणि ।

सा नारी बन्धुभिः सार्द्धं गोकर्णं क्षेत्रमाययौ ॥ ३६ ॥

प्रसङ्गाात्सा तदा गत्वा कस्मिंश्चित्तीर्थपाथसि ।

सस्नौ सामान्यतो यत्र तत्र बभ्राम बन्धुभिः ॥ ३७ ॥

देवालयेऽथ कस्मिंश्चिद्दैवज्ञमुखतः शुभाम् ।

शुश्राव सत्कथां शम्भोः पुण्यां पौराणिकीं च सा ॥ ३८ ॥

एक दिन दैवयोग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह स्त्री भाई-बन्धुओं के साथ गोकर्ण-क्षेत्र में गयी । तीर्थयात्रियों के संग से उसने भी उस समय जाकर किसी तीर्थ के जल में स्नान किया । फिर वह साधारणतया (मेला देखने की दृष्टि से) बन्धुजनों के साथ यत्र-तत्र घूमने लगी । [घूमती-घामती] किसी देवमन्दिर में उसने एक दैवज्ञ ब्राह्मण के मुख से भगवान् शिव की परम पवित्र एवं मंगलकारिणी उत्तम पौराणिक कथा सुनी ॥ ३६-३८ ॥

योषितां जारसक्तानां नरके यमकिङ्ककराः ।

सन्तप्तलोहपरिघं क्षिपन्ति स्मरमन्दिरे ॥ ३९ ॥

इति पौराणिकेनोक्तां श्रुत्वा वैराग्यवर्द्धिनीम् ।

कथामासीद्‌भयोद्विग्ना चकम्पे तत्र सा च वै ॥ ४० ॥

[कथावाचक ब्राह्मण कह रहे थे कि] ‘जो स्त्रियाँ परपुरुषों के साथ व्यभिचार करती हैं, वे मरने के बाद जब यमलोक में जाती हैं, तब यमराज के दूत उनकी योनि में तपे हुए लोहे का परिघ डालते हैं । पौराणिक ब्राह्मण के मुख से यह वैराग्य बढ़ानेवाली कथा सुनकर चंचुला भय से व्याकुल हो वहाँ काँपने लगी ॥ ३९-४० ॥

कथासमाप्तौ सा नारी निर्गतेषु जनेषु च ।

भीता रहसि तं प्राह शैवं संवाचकं द्विजम् ॥ ४१ ॥

जब कथा समाप्त हुई और लोग वहाँ से बाहर चले गये, तब वह भयभीत नारी एकान्त में शिवपुराण की कथा बाँचनेवाले उन ब्राह्मण से कहने लगी ॥ ४१ ॥

॥ चञ्चलोवाच ॥

ब्रह्मंस्त्वं शृण्वसद्वृत्तमजानन्त्या स्वधर्मकम् ।

श्रुत्वा मामुद्धर स्वामिन् कृपां कृत्वातुलामपि ॥ ४२ ॥

चंचुला ने कहा — ब्रह्मन् ! मैं अपने धर्म को नहीं जानती थी । इसलिये मेरे द्वारा बड़ा दुराचार हुआ है । स्वामिन् ! इसे सुनकर मेरे ऊपर अनुपम कृपा करके आप मेरा उद्धार कीजिये ॥ ४२ ॥

चरितं सूल्बणं पापं मया मूढधिया प्रभो ।

नीतं पौंश्चल्यतः सर्वं यौवनं मदनान्धया ॥ ४३ ॥

हे प्रभो ! मैंने मूढ़बुद्धि के कारण घोर पाप किया है । मैंने कामान्ध होकर अपनी सम्पूर्ण युवावस्था व्यभिचार में बितायी है ॥ ४३ ॥

श्रुत्वेदं वचनं तेऽद्य वैराग्यरसजृम्भितम् ।

जाता महाभया साऽहं सकम्पात्तवियोगिका ॥ ४४ ॥

धिङ्‌गां मूढधियं पापां काममोहितचेतसाम् ।

निन्द्यां दुर्विषयासक्तां विमुखीं हि स्वधर्मतः ॥ ४५ ॥

आज वैराग्य-रस से ओतप्रोत आपके इस प्रवचन को सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है । मैं काँप उठी हूँ और मुझे इस संसार से वैराग्य हो गया है । मुझ मूढ़ चित्तवाली पापिनी को धिक्कार है । मैं सर्वथा निन्दा के योग्य हूँ । मैं कुत्सित विषयों में फंसी हुई हूँ और अपने धर्म से विमुख हो गयी हूँ ॥ ४४-४५ ॥

यदल्पस्य सुखस्यार्थे स्वकार्यस्य विनाशिनः ।

महापापं कृतं घोरमजानन्त्याऽतिकष्टदम् ॥ ४६ ॥

थोड़े से सुख के लिये अपने हित का नाश करनेवाले तथा भयंकर कष्ट देनेवाले घोर पाप मैंने अनजाने में ही कर डाले ॥ ४६ ॥

यास्यामि दुर्गतिं कां कां घोरां हा कष्टदायिनीम् ।

को ज्ञो यास्यति मां तत्र कुमार्गरतमानसाम् ॥ ४७ ॥

मरणे यमदूतांस्तान्कथं द्रक्ष्ये भयङ्‌करान् ।

कथं पाशैर्बलात्कण्ठे बध्यमाना धृतिं लभे ॥ ४८ ॥

कथं सहिष्ये नरके खण्डशो देहकृन्तनम् ।

यातनां तत्र महतीं दुःखदां च विशेषतः ॥ ४९ ॥

हाय ! न जाने किस-किस घोर कष्टदायक दुर्गति में मुझे पड़ना पड़ेगा और वहाँ कौन बुद्धिमान् पुरुष कुमार्ग में मन लगानेवाली मुझ पापिनी का साथ देगा ? मृत्युकाल में उन भयंकर यमदूतों को मैं कैसे देखूँगी ? जब वे बलपूर्वक मेरे गले में फंदे डालकर मुझे बाँधेगे, तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकूँगी ? नरक में जब मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े किये जायँगे, उस समय विशेष दुःख देनेवाली उस महायातना को मैं वहाँ कैसे सहूँगी ? ॥ ४७-४९ ॥

दिवा चेष्टामिन्द्रियाणां कथं प्राप्स्यामि शोचती ।

रात्रौ केयं लभिष्येऽहं निद्रां दुःखपरिप्लुता ॥ ५० ॥

हा हतास्मि च दग्धास्मि विदीर्णहृदयास्मि च ।

सर्वथाऽहं विनष्टाऽस्मि पापिनी सर्वथाप्यहम् ॥ ५१ ॥

दुःख और शोकसे ग्रस्त होकर मैं दिनमें सहज इन्द्रियव्यापार और रात्रिमें नींद कैसे प्राप्त कर सकूँगी ? हाय ! मैं मारी गयी ! मैं जल गयी ! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकार से नष्ट हो गयी; क्योंकि मैं हर तरह से पाप में ही डूबी रही हूँ ॥ ५०-५१ ॥

हा विधे मां महापापे दत्त्वा दुःशेमुषीं हठात् ।

अपैति यत्स्वधर्माद्वै सर्वसौख्यकरादहो ॥ ५२ ॥

शूलप्रोतस्य शैलाग्रात्पततस्तुङ्गेतो द्विज ।

यद्दुःखं देहिनो घोरं तस्मात्कोटिगुणं मम ॥ ५३ ॥

अश्वमेधशतं कृत्वा गङ्‌गां स्नात्वा शतं समाः ।

न शुद्धिर्जायते प्रायो मत्पापस्य गरीयसः ॥ ५४ ॥

किं करोमि क्व गच्छामि कं वा शरणमाश्रये ।

कस्त्रायेत मां लोकेऽस्मिन्पतन्तीं नरकार्णवे ॥ ५५ ॥

हाय विधाता ! मुझ पापिनी को आपने हठात् ऐसी दुर्बुद्धि क्यों दे दी, जो सभी प्रकार का सुख देनेवाले स्वधर्म से दूर कर देती है ! हे द्विज ! शूल से बिँधा हुआ व्यक्ति ऊँचे पर्वत-शिखर से गिरने पर जैसा घोर कष्ट पाता है, उससे भी करोड़ गुना कष्ट मुझे है । सैकड़ों अश्वमेधयज्ञ करके अथवा सैकड़ों वर्षों तक गंगास्नान करने पर भी मेरे घोर पापों की शुद्धि सम्भव नहीं दीखती । मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और किसका आश्रय लूँ ? मुझ नरकगामिनी की इस संसार में कौन रक्षा करेगा ? ॥ ५२-५५ ॥

त्वमेव मे गुरुर्ब्रह्मंस्त्वं माता त्वं पिताऽसि च ।

उद्धरोद्धर मां दीनां त्वामेव शरणं गताम् ॥ ५६ ॥

हे ब्रह्मन् ! आप ही मेरे गुरु हैं, आप ही माता और आप ही पिता हैं । आपकी शरण में आयी हुई मुझ दीन अबला का उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये ॥ ५६ ॥

॥ सूत उवाच ॥

इति सञ्जातनिर्वेदां पतिताञ्चरणद्वये ।

उत्थाप्य कृपया धीमान्बभाषे ब्राह्मणः स हि ॥ ५७ ॥

सूतजी बोले — हे शौनक ! इस प्रकार खेद और वैराग्य से युक्त हुई चंचुला उस ब्राह्मण के चरणों में गिर पड़ी । तब उन बुद्धिमान् ब्राह्मण ने कृपापूर्वक उसे उठाकर इस प्रकार कहा ॥ ५७ ॥

इति श्रीस्कान्दे महापुराणे शिवपुराणमाहाम्ये चञ्चुलावैराग्यवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराण के अन्तर्गत शिवपुराणमाहात्म्य में चंचुला-वैराग्य-वर्णन नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥

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