श्रीहरि स्तोत्र || Shri Hari Stotra

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ब्रह्मा आदि का किया हुआ यह श्रीहरि स्तोत्र जो छः श्लोकों में वर्णित है, पढ़कर मनुष्य दुर्गम संकट से मुक्त होता और मनोवांछित फल को पाता है।

श्रीहरि स्तोत्र

ब्रह्मा, शिव और धर्म सब-के-सब वैकुण्ठधाम में श्रीहरि के अन्तःपुर में पहुँचकर उन सबने वहाँ उनके दर्शन किये।

रत्नसिंहासनस्थं च रत्नालंकारभूषितम् ।

रत्नकेयूरवलयरत्ननूपुरशोभितम् ।।

रत्नकुण्डलयुग्मेन गंडस्थलविराजितम् ।

पीतवस्त्रपरीधानं वनमालाविभूषितम् ।।

शांतं सरस्वतीकांतं लक्ष्मीधृतपदांबुजम् ।

कोटिकंदर्पलीलाभं स्मितवक्त्रं चतुर्भुजम् ।।

सुनंदनंदकुमुदैः पार्षदैरुपसेवितम् ।

चंदनोक्षितसर्वांगं सुरत्नमुकुटोज्ज्वलम् ।।

परमानंदरूपं च भक्तानुग्रहकारकम् ।।

वे श्रीहरि दिव्य रत्नमय अलंकारों से विभूषित हो रत्नसिंहासन पर बैठे थे। रत्नों के बाजूबंद, कंगन और नूपुर उनके हाथ-पैरों की शोभा बढ़ाते थे। दिव्य रत्नों के बने हुए दो कुण्डल उनके दोनों गालों पर झलझला रहे थे। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था तथा आजानुलम्बिनी वनमाल उनके अग्रभाग को विभूषित कर रही थी। सरस्वती के प्राणवल्लभ श्रीहरि शान्तभाव से बैठे थे। लक्ष्मी जी उनके चरणारविन्दों की सेवा कर रही थीं। करोड़ों कन्दर्पों की लावण्यलीला से वे प्रकाशित हो रहे थे। उनके चार भुजाएँ थीं और मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षद उनकी सेवा में जुटे थे। उनका सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित था तथा उनका मस्तक रत्नमय मुकुट से जगमगा रहा था। वे परमानन्द-स्वरूप भगवान भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल दिखायी देते थे।

ब्रह्मा आदि देवेश्वरों ने भक्तिभाव से उनके चरणों में प्रणाम किया और श्रद्धापूर्वक मस्तक झुकाकर बड़ी भक्ति के साथ उनकी स्तुति की। उस समय वे परमानन्द के भार से दबे हुए थे। उनके अंगों से रोमांच हो आया था।

श्रीहरि स्तोत्रम्

ब्रह्मोवाच ।।

नमामि कमलाकांतं शांतं सर्वेष्टमच्युतम् ।

वयं यस्य कलाभेदाः कलांशकलया सुराः ।।

मनवश्च मुनींद्राश्च मानुषाश्च चराचराः ।

कलाकलांशकलया भूतास्त्वत्तो निरंजन ।।

ब्रह्मा जी बोले– मैं शान्त, सर्वेश्वर तथा अच्युत उन कमलाकान्त को प्रणाम करता हूँ, जिनकी हम तीनों विभिन्न कलाएँ हैं तथा समस्त देवता जिनकी कला की भी अंशकला से उत्पन्न हुए हैं। निरंजन! मनु, मुनीन्द्र, मानव तथा चराचर प्राणी आपसे ही आपके कला की अंशकला द्वारा प्रकट हुए हैं।

शंकर उवाच ।।

त्वामक्षयमक्षरं वा व्यक्तमव्यक्तमीश्वरम् ।

अनादिमादिमानंदरूपिणं सर्वरूपिणम् ।।

अणिमादिकसिद्धीनां कारणं सर्वकारणम् ।

सिद्धिज्ञं सिद्धिदं सिद्धिरूपं कः स्तोतुमीश्वरः।।

भगवान शंकर ने कहा– आप अविनाशी तथा अविकारी हैं। योगीजन आप में रमण करते हैं। आप व्यक्त ईश्वर हैं। आपका यदि नहीं है; परंतु आप सबके आदि हैं। आपका स्वरूप आनन्दमय है। आप सर्वरूप हैं। अणिमा आदि सिद्धियों के कारण तथा सबके कारण हैं। सिद्धि के ज्ञाता, सिद्धिदाता और सिद्धिरूप हैं। आपकी स्तुति करने में कौन समर्थ है?

।। धर्म उवाच ।। ।।

वेदे निरूपितं वस्तु वर्णनीयं विचक्षणैः ।

वेदे निर्वचनीयं यत्तन्निर्वक्तुं च कः क्षमः ।

यस्य संभावनीयं यद्गुणरूपं निरंजनम् ।।

तदतिरिक्तं स्तवनं किमहं स्तौमि निर्गुणम् ।।

धर्म बोले– जिस वस्तु का वेद में निरूपण किया गया है, उसी का विद्वान लोग वर्णन कर सकते हैं। जिनको वेद में ही अनिर्वचनीय कहा गया है, उनके स्वरूप का निरूपण कौन कर सकता है? जिसके लिये जिस वस्तु की सम्भावना की जाती है, वह गुणरूप होती है। वही उसका स्तवन है। जो निरंजन (निर्मल) तथा गुणों से पृथक– निर्गुण है; उन परमात्मा की मैं क्या स्तुति करूँ?

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे श्रीहरि स्तोत्रम् ।।

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