गर्गाचार्यकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र || Shri Krishna Stotra by Gargacharya
जो मनुष्य गर्ग जी द्वारा किये गये इस श्रीकृष्ण स्तोत्र का तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह श्रीहरि की सृदृढ़ भक्ति, दास्यभाव और उनकी स्मृति का सौभाग्य अवश्य प्रात कर लेता है। इतना ही नहीं, वह श्रीकृष्ण भक्तों की सेवा में तत्पर हो जन्म, मृत्यु, जरा, रोग, शोक और मोह आदि के संकट से पार हो जाता है। श्रीकृष्ण के साथ रहकर सदा आनन्द भोगता है और श्रीहरि से कभी उसका वियोग नहीं होता।
श्रीकृष्ण स्तोत्रम्
गर्ग उवाच ।।
हे कृष्ण जगतां नाथ भक्तानां भयभञ्जन ।
प्रसन्नो भव मामीश देहि दास्यं पदाम्बुजे ।।
गर्ग जी ने कहा– हे श्रीकृष्ण! हे जगन्नाथ! हे भक्तभयभंजन! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। परमेश्वर! मुझे अपने चरणकमलों की दास्य-भक्ति दीजिये।
त्वत्पित्रा मे धनं दत्तं तेन मे किं प्रयोजनम् ।
देहि मे निश्चलां भक्तिं भक्तानामभयप्रद ।।
भक्तों को अभय देने वाले गोविन्द! आपके पिता जी ने मुझे बहुत धन दिया है; किंतु उस धन से मेरा क्या प्रयोजन है? आप मुझे अपनी अविचल भक्ति प्रदान कीजिये।
अणिमादिकसिद्धिषु योगेषु मुक्तिषु प्रभो ।
ज्ञानतत्त्वेऽमरत्वे वा किञ्चिन्नास्ति स्पृहा मम ।।
प्रभो! अणिमादि सिद्धियों में, योगसाधकों में, अनेक प्रकार की मुक्तियों में, ज्ञानतत्त्व में अथवा अमरत्व में मेरी तनिक भी रुचि नहीं है।
इन्द्रत्वे वा मनुत्वे वा स्वर्गलोकफले चिरम् ।
नास्ति मे मनसो वाञ्छा त्वत्पादसेवनं विना ।।
इन्द्रपद, मनुपद तथा चिरकाल तक स्वर्गलोक रूपी फल के लिये भी मेरे मन में कोई इच्छा नहीं है। मैं आपके चरणों की सेवा छोड़कर कुछ नहीं चाहता।
सालोक्यं सार्ष्टिसारूप्ये सामीप्यैकत्वमीप्सितम् ।
नाहं गृह्णामि ते ब्रह्मंस्त्वत्पादसेवनं विना ।।
सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य और एकत्व– ये पाँच प्रकार की मुक्तियाँ सभी को अभीष्ट हैं। परंतु परमात्मन! मैं आपके चरणों की सेवा छोड़कर इनमें से किसी को भी ग्रहण करना नहीं चाहता।
गोलोके वापि पाताले वासे नास्ति मनोरथः ।
किन्तु ते चरणाम्भोजे सन्ततं स्मृतिरस्तु मे ।।
मैं गोलोक में अथवा पाताल में निवास करूँ, ऐसा भी मेरा मनोरथ नहीं है; परंतु मुझे आपके चरणारविन्दों का निरन्तर चिन्तन होता रहे, यही मेरी अभिलाषा है।
त्वन्मन्त्रं शङ्करात्प्राप्य कतिजन्मफलोदयात् ।
सर्वज्ञोऽहं सर्वदर्शी सर्वत्र गतिरस्तु मे ।।
कितने ही जन्मों के पुण्य के फल का उदय हुआ, जिससे भगवान शंकर के मुख से मुझे आपके मन्त्र का उपदेश प्राप्त हुआ। उस मन्त्र को पाकर मैं सर्वज्ञ और समदर्शी हो गया हूँ। सर्वत्र मेरी अबाध गति है।
कृपां कुरु कृपासिन्धो दीनबन्धो पदाम्बुजे ।
रक्ष मामभयं दत्त्वा मृत्युर्मे किं करिष्यति ।।
कृपासिन्धो! दीनबन्धो! मुझ पर कृपा कीजिये। मुझे अभय देकर अपने चरणकमलों में रख लीजिये। फिर मृत्यु मेरा क्या करेगी?
सर्वेषामीश्वरः सर्वस्त्वत्पादाम्भोजसेवया ।
मृत्युञ्जयोऽन्तकालश्च बभूव योगिनां गुरुः ।।
आपके चरणारविन्दों की सेवा से ही भगवान शंकर सबके ईश्वर, मृत्युंजय, जगत का अन्त करने वाले तथा योगियों के गुरु हुए हैं।
ब्रह्मा विधाता जगतां त्वत्पादाम्भोजसेवया ।
यस्यैकदिवसे ब्रह्मन्पतन्तीन्द्राश्चतुर्दश ।।
ब्राह्मण! जिनके एक दिन में चौदह इन्द्रों का पतन होता है, वे जगत-विधाता ब्रह्मा आपके चरणकमलों की सेवा से ही उस पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं।
त्वत्पादसेवया धर्मः साक्षी च सर्वकर्मणाम् ।
पाता च फलदाता च जित्वा कालं सुदुर्जयम् ।।
आपके चरणों की सेवा करके ही धर्मदेव समस्त कर्मों के साक्षी हुए हैं; सुदुर्जय काल को जीतकर सबके पालक और फलदाता हुए हैं।
सहस्रवदनः शेषो यत्पादाम्बुजसेवया ।
धत्ते सिद्धार्थवद्विश्वं शिवः कण्ठे विषं यथा ।।
आपके चरणारविन्दों की सेवा के प्रभाव से ही सहस्र मुखों वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को सरसों के एक दाने की भाँति सिर पर धारण करते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे भगवान शिव कण्ठ में विषय धारण करते हैं।
सर्वसंपद्विधात्री या देवीनां च परात्परा ।
करोति सततं लक्ष्मीः केशैस्त्वत्पादमार्जनम् ।।
जो सम्पूर्ण सम्पदाओं की सृष्टि करने वाली तथा देवियों में परात्परा हैं, वे लक्ष्मी देवी अपने केश-कलापों से आपके चरणों का मार्जन करती हैं।
प्रकृतिर्बीजरूपा सा सर्वेषां शक्तिरूपिणी ।
स्मारंस्मारं त्वत्पदाब्जं बभूव तत्परावरा ।।
जो सबकी बीजरूपा हैं, वे शक्तिरूपिणी प्रकृति आपके चरणकमलों का चिन्तन करते-करते उन्हीं में तत्पर हो जाती हैं।
पार्वती सर्वरूपा सा सर्वेषां बुद्धिरूपिणी ।
त्वत्पादसेवया कान्तं ललाभ शिवमीश्वरम् ।।
सबकी बुद्धिरूपिणी एवं सर्वरूपा पार्वती ने आपके चरणों की सेवा से ही महेश्वर शिव को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त किया है।
विद्याधिष्ठात्री देवी या ज्ञानमाता सरस्वती ।
पूज्या बभूव सर्वेषां संपूज्य त्वत्पदाम्बुजम् ।।
विद्या की अधिष्ठात्री देवी को ज्ञानमाता सरस्वती हैं, वे आपके चरणारविन्दों की आराधना करके ही सबकी पूजनीया हुई हैं।
सावित्री वेदजननी पुनाति भुवनत्रयम् ।
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च गतिस्त्वत्पादसेवया ।।
जो ब्रह्मा जी तथा ब्राह्मणों की गति हैं, वे वेद जननी सावित्री आपकी चरण सेवा से ही तीनों लोकों को पवित्र करती हैं।
क्षमा जगद्विभर्तुं च रत्नगर्भा वसुन्धरा ।
प्रसूतिः सर्वसस्यानां त्वत्पादपद्मसेवया ।।
पृथ्वी आपके चरणकमलों की सेवा के प्रभाव से ही जगत को धारण करने में समर्थ, रत्नगर्भा तथा सम्पूर्ण शस्यों को उत्पन्न करने वाली हुई है।
राधा ममांशसंभूता तव तुल्या च तेजसा ।
स्थित्वा वक्षसि ते पादं सेवतेऽन्यस्य का कथा ।।
आपकी अंशभूता तथा आपके ही तुल्य तेजस्विनी राधा आपके वक्षःस्थल में स्थान पाकर भी आपके चरणों की सेवा करती हैं; फिर दूसरे की क्या बात है?
यथा शर्वादयो देवा देव्यः पद्मादयो यथा ।
सनाथं कुरु मामीश ईश्वरस्य समा कृपा ।।
ईश! जैसे शिव आदि देवता और लक्ष्मी आदि देवियाँ आप से सनाथ हैं, उसी तरह मुझे भी सनाथ कीजिये; क्योंकि ईश्वर की सब पर समान कृपा होती है।
न यास्यामि गृहं नाथ न गृह्णामि धनं तव ।
कृत्वा मां रक्ष पादाब्जसेवायां सेवकं रतम् ।।
नाथ! मैं घर को नहीं जाऊँगा। आपका दिया हुआ यह धन भी नहीं लूँगा। मुझ अनुरागी सेवक को अपने चरणकमलों की सेवा में रख लीजिये।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो गर्गाचार्यकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।। १३ ।।