श्री देव्याः कवचम् || Shri Kevya Kavacham

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कवच अर्थात शरीर रक्षा के लिए पहना जाने वाला अस्त्र,यंत्र या वस्त्र या सुरक्षा आवरण । पहले समय में देव, दानव या मानव तपस्या द्वारा ऊर्जा प्राप्त कर उस परम शक्ति से कवच प्राप्त कर लेते थे जिससे की उन्हे मारना या हराना संभव नही होता था,कर्ण इसका उदाहरण है। परंतु आज के समय ऐसा संभव नहीं है। इसीलिए हमारे वेदों, पुराणों में आज के मानव के लिए उस दिव्य ज्ञान को स्तोत्र या कवचम् के रूप में दिया है। जिससे हम उस कवच को आसानी से प्राप्त कर उसे उपयोग में ले सके और लाभान्वित हो सके। श्री देव्याः कवचम् जिसे की देवी कवच,दुर्गा कवच या चंडीकवच के नाम से भी जाना जाता है ,इसकी महिमा अपार है । हम यदि इसे सिद्ध कर लें और इसका मंथन करें तो ऐसा कौन सा कार्य है जिसे सिद्ध नहीं कर सकते । यह मेरा अनुभूत प्रयोग है की यदि आप इसे सिद्ध कर लेते हैं तो मारण, मोहन, उच्चाटन, गृह बंधन, शरीर बंधन, देव–दानव बंधन सारे कार्य इस कवच के माध्यम आप कर सकते हैं। वैसे इसके लिए इस कवच में कहा भी गया है कि-

यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्‍चितम्।

श्री देव्याः कवचम् सिद्धि करने कि विधि-
श्री देव्याः कवचम् कि सिद्धि करना भी आसान है, आप जब इसे सिद्ध करने का संकल्प करें तो सबसे पहले शुद्ध होकर आसन लगाकर बैठ जाए । सामने किसी चौंकी पर देवी कि फोटो या मूर्ति रख उनका पूजन यथा विधि करें । दीपक जला लें । अब तीन रात्रि १,५,७,११ जितना भी आप कर सकें उतना का संकल्प करें । इस बात को आप को ख्याल रखना है कि यदि आप आज १२.५ को कर रहें हैं तो कल भी ठीक उसी वक्त करें। पर रात ठीक बारह बजे से पहले न करें । कवच पूरा हो जाने पर वहीं पर सो जावे क्योंकि यहीं पर आप को प्रत्यक्ष या स्वप्न में आप को सिद्धि का एहसास होगा । आपको अजीब एहसास या अनुभव आप को होगा अतः डरे नहीं माता कभी भी किसी का अहित नही करती । फिर भी यदि आप गुरु के सान्निध्य में करें तो अच्छा । पर आप यदि साहस रखते हैं। तो अपने से भी कर सकते हैं। लेकिन विधि व अपने अनुभव तीन दिनों तक गोपनीय ही रखें। अधिक जानकारी के लिए आप मुझसे भी imail या नीचे coments कर सकते हैं।

 

श्री देव्याःकवचम्, देवी कवच,दुर्गा कवच या चंडी कवच

श्री देव्याः कवचम्

॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।

ॐ नमश्‍चण्डिकायै॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्‌गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्। यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

ब्रह्मोवाच अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्। देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः। उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे। विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे। नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते। ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना। ऐन्द्री गजसमारुढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥

माहेश्‍वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना। लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥

श्‍वेतरुपधरा देवी ईश्‍वरी वृषवाहना। ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः। नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥

दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः। शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे। महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि। प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी। प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी। ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना। जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता। शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी। त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी। कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका। अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका। घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥२५॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला। ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी। स्कन्धयोः खङ्‍गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च। नखाञ्छूलेश्‍वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्‍वरी॥२८॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी। हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्‍वरी तथा। पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥३०॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी। जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी। पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्‍चैवोर्ध्वकेशिनी। रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्‍वरी तथा॥३३॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती। अन्त्राणि कालरात्रिश्‍च पित्तं च मुकुटेश्‍वरी॥३४॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥३५॥

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्‍वरी तथा। अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्। वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥

रसे रुपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी। सत्त्वं रजस्तमश्‍चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी। यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके। पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा। राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः। कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥

तत्र तत्रार्थलाभश्‍च विजयः सार्वकामिकः। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्‍चितम्।

परमैश्‍वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः। त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् । यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः। जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः। ४७॥

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः। स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले। भूचराः खेचराश्‍चैव जलजाश्‍चोपदेशिकाः॥४९॥

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्‍च महाबलाः॥५०॥

ग्रहभूतपिशाचाश्‍च यक्षगन्धर्वराक्षसाः। ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले। जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्। प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥

लभते परमं रुपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥

इति श्री देव्याः कवचम् सम्पूर्णम्।

श्री देव्याः कवचम्, देवी कवच,दुर्गा कवच या चंडी कवच
दुर्गा कवच के श्लोक अर्थ सहित

अथ देवी कवच

देवी कवच विनियोग

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः,अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता,अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।

ॐ नमश्चण्डिकायै॥

ॐ इस श्रीचण्डी कवच के, ब्रह्मा ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, चामुण्डा देवता, अङ्गन्यास में कही गई माताएं बीज, दिग्बन्ध देवता तत्व है, श्रीजगदम्बाजी की कृपा के लिए सप्तशती के पाठ के जप में, इसका विनियोग किया जाता है।

ॐ चण्डिका देवीको नमस्कार है।

दुर्गा कवच का पाठ क्यों करना चाहिए?

मनुष्यों की सब प्रकार से, रक्षा करनेवाला, दुर्गा कवच

मार्कण्डेय उवाच –

ॐ यद्‌गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।

यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

मार्कण्डेयजी ने कहा – पितामह! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करनेवाला है और जो अब तक आपने, दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये॥१॥

सभी प्राणियों का उपकार करनेवाला, और पवित्र, देवी कवच

ब्रह्मोवाच –

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।

देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥

ब्रह्माजी बोले – ब्रह्मन्! ऐसा साधन तो, एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है। महामुने! उसे श्रवण करो॥२॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥

देवीकी नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें – नवदुर्गा – कहते हैं। उनके पृथक्-पृथक् नाम बतलाये जाते हैं।

प्रथम नाम शैलपुत्री है।

दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी है।

तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नामसे प्रसिद्ध है।

चौथी मूर्तिको कूष्माण्डा कहते हैं।

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।

सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥

पाँचवीं दुर्गाका नाम स्कन्दमाता है।

देवीके छठे रूपको कात्यायनी कहते हैं।

सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।

उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्री है।

ये सब नाम, सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान्‌के द्वारा ही, प्रतिपादित हुए हैं॥५॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।

विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता॥६॥

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।

नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥

युद्ध के समय संकट में पड़ने पर भी, उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं आती और उन्हें शोक, दुःख और भय की प्राप्ति नहीं होती॥७॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।

ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥

जिन्होंने, भक्तिपूर्वक देवीका स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है। देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम निःसन्देह रक्षा करती हो॥८॥

देवियों के विभिन्न वाहन और देवी के स्वरुप

चामुण्डादेवी, वाराही, ऐन्द्री, वैष्णवीदेवी

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।

ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥

चामुण्डादेवी, प्रेत पर आरूढ़ होती हैं। वाराही, भैंसे पर सवारी करती हैं। ऐन्द्री का वाहन, ऐरावत हाथी है। वैष्णवीदेवी, गरुड पर ही आसन जमाती हैं॥९॥

माहेश्वरी, कौमारीका, लक्ष्मीदेवी

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।

लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥

माहेश्वरी, वृषभ पर आरूढ़ होती हैं। कौमारी का वाहन, मयूर है। भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी, कमल के आसन पर विराजमान हैं और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं॥१०॥

ईश्वरीदेवी, ब्राह्मीदेवी

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।

ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥११॥

वृषभ पर आरूढ़ ईश्वरीदेवी ने, श्वेत रूप धारण कर रखा है। ब्राह्मीदेवी, हंस पर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं॥११॥

योगशक्तियों से सम्पन्न सभी देवी के रूप

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।

नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥१२॥

इस प्रकार ये सभी माताएँ, सब प्रकार की योगशक्तियों से सम्पन्न हैं। इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकारके आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं॥१२॥

देवियों के शस्त्र-धारण करने का उद्देश्य श्लोक 13 – 15 में

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।

शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥

ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिये, रथ पर बैठी दिखायी देती हैं। ये शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मुसल, और …

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।

कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥

खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त और त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र, अपने हाथों में धारण करती हैं।

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।

धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥

दैत्यों के शरीर का नाश करना, भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना – यही उनके शस्त्र-धारण का, उद्देश्य है॥१३-१५॥

देवी कवच आरम्भ करने से पहले प्रार्थना

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।

महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥१६॥

कवच आरम्भ करने के पहले, इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये – महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साहवाली देवि! तुम महान् भयका नाश करनेवाली हो, तुम्हें नमस्कार है॥१६॥

देवी कवच आरम्भ

माँ जगदम्बा, ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति), अग्निशक्ति

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।

प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥

तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है। शत्रुओं का भय बढ़ानेवाली जगदम्बिके! मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में, ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति), मेरी रक्षा करे। अग्निकोण में, अग्निशक्ति, और… ॥१७॥

वाराही, खड्गधारिणी, वारुणी और मृगवाहिनी

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्‌गधारिणी।

प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारिणी, मेरी रक्षा करे। पश्चिम दिशा में वारुणी और वायव्यकोण में मृग पर सवारी करनेवाली देवी, मेरी रक्षा करे॥१८॥

कौमारी, शूलधारिणीदेवी, ब्रह्माणि, वैष्णवीदेवी

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।

ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥

उत्तर दिशा में कौमारी और ईशान-कोण में शूलधारिणीदेवी, रक्षा करे। ब्रह्माणि, तुम ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवीदेवी, नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे॥१९॥

चामुण्डादेवी, जया, विजया

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।

जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥

इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डादेवी, दसों दिशाओं में, मेरी रक्षा करे। जया, आगे से और विजया, पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे॥२०॥

अजिता, अपराजिता, उद्योतिनी

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।

शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥

वामभाग में, अजिता और दक्षिणभाग में, अपराजिता, रक्षा करे। वामभाग अर्थात बाई ओर, बाएं तरफ उद्योतिनी शिखा की रक्षा करे। उमा, मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे॥२१॥

मालाधरी, यशस्विनी देवी, त्रिनेत्रा, यमघण्टा देवी

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।

त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥

ललाट में, मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनीदेवी, मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्यभाग में, त्रिनेत्रा और नथुनों की, यमघण्टादेवी रक्षा करे॥२२॥

शंखिनी, द्वारवासिनी, कालिकादेवी, भगवती शांकरी

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।

कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥

दोनों नेत्रों के मध्यभाग में, शंखिनी और कानों में, द्वारवासिनी रक्षा करे। कालिकादेवी, कपोलों की तथा भगवती शांकरी, कानों के मूलभाग की रक्षा करे॥२३॥

सुगन्धा, चर्चिका देवी, अमृतकला, सरस्वतीदेवी

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।

अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥

नासिका में, सुगन्धा और ऊपर के ओठ में, चर्चिकादेवी रक्षा करे। नीचे के ओठ में, अमृतकला तथा जिह्वा में, सरस्वतीदेवी रक्षा करे॥२४॥

कौमारी, चण्डिका, चित्रघण्टा, महामाया

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।

घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥

कौमारी, दाँतों की और चण्डिका, कण्ठप्रदेश की रक्षा करे। चित्रघण्टा, गले की घाँटी की और महामाया, तालु में रहकर रक्षा करे॥२५॥

कामाक्षी, सर्वमंगला, भद्रकाली, धनुर्धरी

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।

ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥

कामाक्षी, ठोढ़ी की और सर्वमंगला, मेरी वाणी की रक्षा करे। भद्रकाली, ग्रीवा में (गले में) और धनुर्धरी, मेरुदण्ड (पृष्ठवंश) में रहकर रक्षा करे॥२६॥

नीलग्रीवा, नलकूबरी, खड्गिनी, वज्रधारिणी

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।

स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥

कण्ठ के बाहरी भाग में, नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में, नलकूबरी रक्षा करे। दोनों कंधों में, खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की, वज्रधारिणी रक्षा करे॥२७॥

दण्डिनी, अम्बिका, शूलेश्वरी, कुलेश्वरी

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्‌गुलीषु च।

नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥२८॥

दोनों हाथों में, दण्डिनी और अंगुलियों में, अम्बिका रक्षा करे। शूलेश्वरी, नखों की रक्षा करे। कुलेश्वरी, कुक्षि (पेट) में रहकर रक्षा करे॥२८॥

महादेवी, शोकविनाशिनी देवी, ललितादेवी, शूलधारिणी

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।

हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥

महादेवी, दोनों स्तनों की और शोकविनाशिनी देवी, मन की रक्षा करे। ललितादेवी, हृदय में और शूलधारिणी, उदर में रहकर रक्षा करे॥२९॥

कामिनी, गुह्येश्वरी, पूतना और कामिका, महिषवाहिनी

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।

पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥३०॥

नाभि में, कामिनी और गुह्यभाग की, गुह्येश्वरी रक्षा करे। पूतना और कामिका, लिंग की और महिषवाहिनी, गुदा की रक्षा करे॥३०॥

भगवती, विन्ध्यवासिनी, महाबलादेवी

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।

जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥

भगवती, कटिभाग में और विन्ध्यवासिनी, घुटनों की रक्षा करे। सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली महाबलादेवी दोनों पिण्डलियों की रक्षा करे॥३१॥

नारसिंही, तैजसीदेवी, श्रीदेवी, तलवासिनी

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।

पादाङ्‌गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ॥३२॥

नारसिंही, दोनों घुट्ठियों की और तैजसीदेवी, दोनों चरणों के पृष्ठभाग की रक्षा करे। श्रीदेवी, पैरों की अंगुलियों में और तलवासिनी, पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे॥३२॥

दंष्ट्राकराली देवी, ऊर्ध्वकेशिनी देवी, कौबेरी, वागीश्वरी देवी

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।

रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥

अपनी दाढ़ों के कारण, भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी, नखों की और ऊर्ध्वकेशिनीदेवी, केशों की रक्षा करे। रोमावलियों के छिद्रों में, कौबेरी और त्वचा की, वागीश्वरी देवी रक्षा करे॥३३॥

पार्वतीदेवी, कालरात्रि, मुकुटेश्वरी

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।

अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥

पार्वतीदेवी, रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी और मेद की रक्षा करे। आँतों की, कालरात्रि और पित्त की, मुकुटेश्वरी रक्षा करे॥३४॥

पद्मावतीदेवी, चूडामणिदेवी, ज्वालामुखी, अभेद्यादेवी

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।

ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥३५॥

मूलाधार आदि कमल-कोशों में, पद्मावतीदेवी और कफ में, चूडामणिदेवी स्थित होकर रक्षा करे। नख के तेज की, ज्वालामुखी रक्षा करे। जिसका किसी भी अस्त्र से, भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्यादेवी, शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे॥३५॥

ब्रह्माणि!, छत्रेश्वरी, धर्मधारिणी देवी

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।

अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

ब्रह्माणि, आप मेरे वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी, छाया की तथा धर्मधारिणी-देवी, मेरे अहंकार, मन और बुद्धि की रक्षा करे॥३६॥

वज्रहस्तादेवी, भगवती कल्याणशोभना

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।

वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥

हाथ में वज्र धारण करनेवाली, वज्रहस्तादेवी, मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायु की रक्षा करे। कल्याण से शोभित होनेवाली, भगवती कल्याणशोभना, मेरे प्राण की रक्षा करे॥३७॥

योगिनीदेवी, नारायणीदेवी

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।

सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥

रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श – इन विषयों का अनुभव करते समय, योगिनी देवी रक्षा करे तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा, नारायणीदेवी करे॥३८॥

वाराही, वैष्णवी, लक्ष्मी

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।

यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥

वाराही, आयु की रक्षा करे। वैष्णवी, धर्म की रक्षा करे तथा चक्रिणी (चक्र धारण करनेवाली) देवी, यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन तथा विद्या की रक्षा करे॥३९॥

इन्द्राणि, चंडिका, महालक्ष्मी, भैरवी

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।

पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥

इन्द्राणि, आप मेरे गोत्र की रक्षा करें। चण्डिके!, तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी, पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी, पत्नी की रक्षा करे॥४०॥

सुपथा, क्षेमकरी, महालक्ष्मी, विजयादेवी

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।

राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥

मेरे पथ की, सुपथा तथा मार्ग की, क्षेमकरी रक्षा करे। राजा के दरबार में, महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहनेवाली, विजयादेवी, सम्पूर्ण भयों से, मेरी रक्षा करे॥४१॥

पापनाशिनी देवी, मेरी सब ओर से रक्षा करों

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।

तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥

देवि! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा से रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो; क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो॥४२॥

देवी कवच पाठ के लाभ

यात्रा के पहले दुर्गा कवच का पाठ

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।

कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥

यदि अपने शरीर का भला चाहे तो, मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी न जाय – कवच का पाठ करके ही यात्रा करे॥४३॥

क्योंकि…

धन लाभ, विजय और इच्छाओं की पूर्ति

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः।

यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥

कवच के द्वारा, सब ओर से सुरक्षित मनुष्य, जहाँ-जहाँ भी जाता है, वहाँ-वहाँ उसे धन-लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करनेवाली, विजय की प्राप्ति होती है। वह जिस-जिस वस्तु का चिन्तन करता है, उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। वह पुरुष, इस पृथ्वी पर तुलनारहित, महान् ऐश्वर्य का भागी होता है॥४४॥

पराजय, शोक और भय से मुक्ति

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।

त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥

कवच से सुरक्षित मनुष्य, निर्भय हो जाता है। युद्ध में उसकी, पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में, पूजनीय होता है॥४५॥

नियमित, श्रद्धापूर्वक देवी कवच का पाठ

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्।

यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥

देवी का यह कवच, देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक, तीनों संध्याओं के समय, श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है, उसे…॥४६॥

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।

जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥४७॥

दैवी कला प्राप्त होती है तथा वह तीनों लोकों में, कहीं भी पराजित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपमृत्यु से रहित हो, सौ से भी अधिक वर्षोंतक जीवित रहता है॥४७॥

सभी व्याधियों और रोगों से मुक्ति

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।

स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥

उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ, नष्ट हो जाती हैं। सभी प्रकार के विष, दूर हो जाते हैं, और उनका कोई असर नहीं होता॥४८॥

देवी कवच, सभी बुरी चीजों से रक्षा करता है

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।

भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः ॥४९॥

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।

अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥५०॥

ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।

ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।

मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥५२॥

इस पृथ्वी पर, मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के जितने मन्त्र-यन्त्र होते हैं, वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेने पर, उस मनुष्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं। ये ही नहीं, पृथ्वी पर विचरने वाले ग्राम देवता, आकाशचारी देव विशेष, जल के सम्बन्ध से प्रकट होने वाले गण,उपदेशमात्र से सिद्ध होनेवाले निम्नकोटि के देवता, अपने जन्म के साथ प्रकट होनेवाले देवता, कुलदेवता, माला (कण्ठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्ष में विचरनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ, ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और अनिष्टकारक देवता भी, हृदय में कवच धारण किये रहने पर, उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुष को, राजा से सम्मान-वृद्धि प्राप्त होती है। यह कवच, मनुष्य के तेज की वृद्धि करनेवाला और उत्तम है॥४९-५२॥

सुयश, वृद्धि और परिवार के लिए देवी माँ का कवच

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।

जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।

तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥

कवच का पाठ करनेवाला पुरुष, अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर, अपने सुयश के साथ-साथ, वृद्धि को प्राप्त होता है। जो पहले कवच का पाठ करके, उसके बाद, सप्तशती चण्डी का पाठ करता है,उसकी जब तक, वन, पर्वत और काननों सहित, यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक यहाँ, पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा, बनी रहती है॥५३-५४॥

परमपद की प्राप्ति

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।

प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥

फिर देह का अन्त होने पर, वह पुरुष, भगवती महामाया के प्रसाद से, उस नित्य परमपद को प्राप्त होता है, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है॥५५॥

भगवान् शिव के चरणों में जगह

लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥

वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याणमय शिवके साथ, आनन्दका भागी होता है॥५६॥

इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्।

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