श्रीकृष्ण स्तुति Shri Krishna Stuti

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श्रीकृष्ण स्तुति-  नलकूबर और मणिग्रीव – ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे। वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया। दामोदर भगवान श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक ज़ोर से खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़ें उखड़ गयीं। समस्त बल-विक्रम के केन्द्र भगवान का तनिक-सा ज़ोर लगते ही पेड़ों के तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ता काँप उठा और वे दोनों बड़े ज़ोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े। उन दोनों वृक्षों में से अग्नि के समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले। उनके चमचमाते हुए सौन्दर्य से दिशाएँ दमक उठीं। उन्होंने सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण के पास आकर उनके चरणों में सर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदय से वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे –

नलकूबरमणिग्रीव उवाच

कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः ।

व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः ॥ २९॥

उन्होंने कहा ;- सच्चिदानन्दस्वरूप! सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण! आप प्रकृति से अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत आपका ही रूप है।

त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः ।

त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः ॥ ३०॥

आप ही समस्त प्राणियों के शरीर, प्राण, अंतःकरण और इन्द्रियों के स्वामी हैं तथा आप ही सर्वशक्तिमान काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं।

त्वं महान् प्रकृतिः सूक्ष्मा रजःसत्त्वतमोमयी ।

त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित् ॥ ३१॥

आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है। आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के कर्म, भाव, धर्म और सत्ता को जानने वाले सबके साक्षी परमात्मा हैं।

गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो विकारैः प्राकृतैर्गुणैः ।

को न्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः ॥ ३२॥

वृत्तियों से ग्रहण किये जाने वाले प्रकृति के गुणों और विकारों के द्वार आप पकड़ में नहीं आ सकते। स्थूल और सूक्ष्म शरीर के आवरण से ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सक? क्योंकि आप तो उन शरीरों के पहले भी एकरस विद्यमान थे।

तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।

आत्मद्योतगुणैश्छन्नमहिम्ने ब्रह्मणे नमः ॥ ३३॥

समस्त प्रपंच के विधाता भगवान वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं। प्रभो! आपके द्वारा प्रकाशित होने वाले गुणों से ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है। परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं।

यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः ।

तैस्तैरतुल्यातिशयैर्वीर्यैर्देहिष्वसङ्गतैः ॥ ३४॥

आप प्राकृत शरीर से रहित हैं। फिर भी जब ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण शरीरधारियों के लिए शक्य नहीं है और जिसने बढ़कर तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरों में आपके अवतारों का पता चलता है।

स भवान् सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च ।

अवतीर्णोंऽशभागेन साम्प्रतं पतिराशिषाम् ॥ ३५॥

प्रभो! आप ही समस्त लोकों के अभ्युदय और निःश्रेयसके लिए इस समय अपनी सम्पूर्ण शक्तियों से अवतीर्ण हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं।

नमः परमकल्याण नमः परममङ्गल ।

वासुदेवाय शान्ताय यदूनां पतये नमः ॥ ३६॥

परम कल्याण (साध्य) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम मंगल (साधन) स्वरूप! आपको नमस्कार हैं। परम शान्त, सबके हृदय में विहार करने वाले यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण को नमस्कार है।

अनुजानीहि नौ भूमंस्तवानुचरकिङ्करौ ।

दर्शनं नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात् ॥ ३७॥

अनन्त! हम आपके दासानुदास हैं। आप यह स्वीकार कीजिये। देवर्षि भगवान नारद के परम अनुग्रह से ही हम अपराधियों को आपका दर्शन प्राप्त हुआ है।

वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां

हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः ।

स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे

दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥ ३८॥

प्रभो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का वर्णन करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें। हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरण-कमलों की स्मृति में रम जाये। यह सम्पूर्ण जगत आपका निवास-स्थान है। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं। हमारी आँखें उनके दर्शन करती रहें।

इतिश्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीकृष्ण स्तुतिनाम दशमोऽध्यायः ॥

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