अष्ट पदि ९ Ashta Padi 9 – गीतगोविन्द सर्ग ४ स्निग्ध मधुसूदन Shri Geet govinda sarga 4 snigdha Madhusudan

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कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द सर्ग ४ स्निग्ध मधुसूदन में २ अष्टपदी है। जिसका ८ वें अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ अष्ट पदि ९ दिया जा रहा है।

गीतगोविन्द सर्ग ४ अष्ट पदि ९

अथ चतुर्थः सर्गः

स्निग्ध- मधुसूदनः

आवासो विपिनायते प्रिय सखी – मालापि जालायते

तापोऽपि श्वसितेन दाव – दहन – ज्वाला-कलापायते ।

सापि त्वद्विरहेण हन्त हरिणी-रूपायते हा कथं

कन्दर्पोऽपि यमायते विरचयशार्दुल – विक्रीडितम् ॥१॥

अन्वय – [त्वां बिना न कुत्रापि सा निर्वृतिं लभते इत्याह ] – हन्त (खेदे) [हे कृष्ण] त्वद्विरहेण ( तव विच्छेदेन) सापि (राधापि) हरिणी-रूपायते (आत्मानं हरिणीरूपामिव आचरतीत्यर्थः; श्लेषोक्त्या पाण्डुवर्णा जाता इत्यर्थः); [ तथाहि ] [तस्याः] आवासः ( वसतिस्थानं) विपिनायते (विपिनमिव आचरति; वनीभूतं मन्यते इतिभावः); [तस्याः ] प्रियसखीमालापि (प्रियसखीसमूहोपि) जालायते ( जालमिव आचरति स्थानान्तरं गन्तुं प्रतिवध्नातीति भावः); तापः (देह – सन्तापः) अपि श्वसितेन (श्वासानिलेन) दाव दहन – ज्वालाकलापायते (दावदहनस्य दावाग्नेः ज्वाला-कलाप इव आचरति; यथा वातेन अग्नरुल्का निर्दहन्ति तद्वदिति भावः); [किं बहुना ] हा, (अत्यन्त-शोक- क्षोभसूचकमव्ययम्) कन्दर्पोऽपि (मदनोऽपि ) शार्दूलविक्रीड़ितं (शार्दुलस्य विक्रीडितम् आचरितं ) विरचयन् (कुर्वन्) कथं समायते (यम इव आचरति; महदेतदनुचितं मम प्राणहरणचेष्टना- दित्यभिप्रायः); [ प्रत्येकेनानेन हरिण्याइव श्रीराधायाः प्रियतमे दृढ़ानुरागः श्रीकृष्णस्य च स्निग्धायामस्नेहव्यवसायात् काठिन्यं प्रदर्शितम्]॥१॥

अनुवाद – हे श्रीकृष्ण ! मेरी सखी श्रीराधा एक हिरनी की भाँति आचरण करने लगी है, अपने आवास को तो उसने अरण्य मान लिया है, सखीवृन्द उसे किरात जाल सा भासता है, निज सन्तप्त निःश्वासों से अभिवर्द्धित शरीर का सन्ताप दावानल – शिखा की भाँति प्रतीत हो रहा है। हाय ! कन्दर्प भी शार्दूल स्वरूप होकर क्रीड़ा करता हुआ उसके प्राणों का हनन करने का उपक्रम करते हुए यम बन गया है।

पद्यानुवाद-

गृह भी वन सा भास रहा है, (बजी कौन सी भेरी ?)

उसे सखी भी दीख रही हैं, घेरे बनी अहेरी

श्वासका उत्ताप जलाता है, दावा की आगी

कामव्याघ्रसे डरी-डरी फिरती हरिणी-सी भागी ॥

बालबोधिनी – सखी के द्वारा श्रीराधा की दैन्य- स्थिति का चित्रण हो रहा है। श्रीराधा श्रीकृष्ण के वियोग में हरिणी के समान आचरण कर रही हैं। पाण्डुवर्णा वह श्रीराधा अपने निवास स्थान को विपिन समझ बैठी हैं। प्रिय-समागम न होने से विरह-विदग्धा वह इधर-उधर जाना चाहती है, किन्तु सामने बिछा हुआ है बहेलियारूपी सखियों का जाल, जिससे वह विवश हो मन मसोस कर रह जाती हैं। उसकी प्रिय सखियाँ ही उसके लिए व्याध-जाल के समान बन्धनकारी हो रही हैं। जैसे वन में लगी अग्नि को देखकर हरिणी घबराकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है, उसी प्रकार देह के सन्ताप के साथ मिलकर दीर्घ निःश्वास दावाग्नि के समान अथवा उल्कापात के समान उन्हें तपा रहा है। ओह ! ये निःश्वास दावानल की ज्वाला के समान लगते हैं। मुख से केवल हाहाकार करती हैं। श्रीकृष्ण का सान्निध्य रहने पर जो कामदेव अनुकूल बना रहता है, वह तो शार्दुल-क्रीड़ा कर रहा है, यमराज जैसा लगता है, वह श्रीराधा को मानो मार डालना चाहता है।

शार्दूलविक्रीड़ित काम है, बाघ की तरह झपट्टा मारता हुआ उस मासूम हरिणी को और इस श्लोक का छन्द है शार्दूलविक्रीड़ित और यह पूरा छन्द ही जैसे कामदेव की क्रीडा हो ।

श्रीराधाजी को हरिणी की उपमा देने में भी सार्थकता है। सखी कहना चाहती है कि बुद्धिमान व्यक्ति किसी स्नेहवान के साथ प्रेम करता है। श्रीराधा ने तो आपके साथ स्नेह किया है, स्नेह के सागर में सराबोर रहती हैं और आप कैसे स्नेह-रहित हैं। एकपक्षीय प्रेम तो कोई पशुजाति जीव ही कर सकता है। पुनश्च हरिणी तो वैसे ही देह से दुर्बल एवं किंकर्तव्यविमूढ़ होती है। निरीह मासूम श्रीराधा को श्रीकृष्ण का स्नेह सता रहा है और ऊपर से उस पर काम अपना पराक्रम दिखा रहा है। यह तो वही बिचारी श्रीराधा हैं जो निःस्पृह व्यक्ति से प्रेम करती हैं।

शार्दूलविक्रीडित छन्द है। लुप्तोत्मा एवं विरोधाभास अलङ्कार है।

अथ नवमः सन्दर्भः

श्रीगीतगोविन्द चतुर्थ सर्ग स्निग्ध- मधुसूदन अष्ट पदि ९

गीतम् ॥९॥

देशाखरागैकतालीतालाभ्यां गीयते ।

अनुवाद –यहाँ नवें प्रबन्ध का प्रारम्भ होता है। यह गीत देशराग तथा एकताली ताल से गाया जाता है।

बालबोधिनी – जब चन्द्रमा की किरणें चतुर्दिक दीप्तिशाली हो रही हों और नायक मल्ल- मूर्ति में विशाल भुजाओं के द्वारा विस्फोट का आविष्कार कर लोम हर्ष का प्रकाश करता हो, उस समय देशाख राग गाया जाता है।

स्तन – विनिहितमपि हारमुदारम्,

सा मनुते कृश – तनुरिव भारम् –

राधिका विरहे तव केशव ॥ १ ॥ ध्रुवम्

अन्वय- [पुनस्तचेष्टामेव विशेषतया आह] – हे केशव, तव विरहे कृशतनुः (क्षीणाङ्गी) सा राधिका स्तनविनिहितम् (स्तनन्यस्तम्) उदारम् (मनोहरम् ) अपि हारं [ शरीरदौर्बल्यात् ] भारमिव मनुते (हारवहनस्यापि सामर्थ्यं तस्या नास्तीत्यर्थः) ॥ १ ॥

अनुवाद – केशव ! आपके विरह की अतिशयता के कारण श्रीराधा ऐसी कृशकाया हो गयी हैं कि स्तन पर रखे हुए मनोहर हार को भी भारस्वरूप समझ रही हैं।

पद्यानुवाद-

है विरहकी पीर भारी ।

छीजती जाती बिचारी

हार उरका भार बनता।

बालबोधिनी – इस प्रबन्ध में सखी पुनः नयी शैली से श्रीराधा की व्यथा का वर्णन करती है। श्रीकृष्ण के विरह के कारण श्रीराधा के अङ्ग अत्यधिक कृश हो गये हैं। वक्षःस्थल पर पहनी हुई कमल-पुष्पों की मनोहर माला को भी अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारण धारण करने की सामर्थ्य उसमें नहीं रही।

गीतगोविन्द के दीपिकाकार का कहना है कि कम्सुख का नाम है। श्रीकृष्ण कम्के नियन्ता हैं, इसीलिए केशव कहे जाते हैं। दीपिकाकार आगे कहते हैं केशशब्द का अर्थ है सभी को सुख प्रदान करना । केशव पद का शब्द युवतियों के जीवनस्वरूप अमृत का वाचक है। श्रीकृष्ण युवतियों के जीवनस्वरूप होने से केशव कहे जाते हैं। फिर केशव से स्नेह करनेवाली श्रीराधा दुःखी क्यों? वह विरह में ऐसी विचित्र बातें कहती हैं जो कही नहीं जाती- सारे आभूषण भारी ही नहीं, अपितु शाप बन गये हैं- माला को फेंक देना चाहती हैं।

सरस-मसृणमपि मलयज-पङ्कम्

पश्यति विषमिव वपुषि सशङ्कम् – राधिका विरहे…. ॥२॥

अन्वय – [ न केवलं हार वहनासमर्था अपि तु] सरसं(आर्द्र) मसृणम् (सुघृष्टम्)अपि मलयज पङ्कं (चन्दन – विलेपनं) वपुषि (शरीरे) विषमिव ( गरलं यथा) सशङ्कं [ यथा स्यात् तथा] पश्यति ॥ २ ॥

अनुवाद – केशव ! विरहवियुक्ता वह श्रीराधा अपने शरीर में संलग्न सरस, कोमल एवं सुचिक्कण चन्दन-पंक को सशंकित होकर विष की भाँति देख रही हैं।

पद्यानुवाद-

मलय विषका सार बनता

बालबोधिनी – मलय चन्दन का लेप अत्यन्त चिकना और अतिशय सरस होता है, परन्तु वह समझती हैं कि विष से उसका लेपन किया गया है। श्रीकृष्ण की विरह व्यथा की व्याकुलता से सम्प्रति चन्दन – विलेपन श्रीराधाको सुखदायी न होकर दुःखकारी हो रहा है।

श्वसित – पवनमनुपम – परिणाहम् ।

मदन- दहनमिव वहति सदाहम्-

राधिका विरहे…. ॥३॥

अन्वय- अनुपम – परिणाहं (अनुपमः अतुलः परिणाहः दैर्घ्यं यस्य तं सुदीर्घमित्यर्थः) सदाहं ( दाहसहितं) श्वसित – पवनं (निश्वास मारुतं ) मदन – दहनं ( कामाग्निम् ) इव बहति [ सन्तप्ताया निःश्वासोऽपि सन्तप्त इत्यर्थः ] ॥ ३ ॥

अनुवाद – मदनानल की ज्वालाओं से सन्तप्त दीर्घ निःश्वास उनके शरीर को दग्ध किये जा रहे हैं, फिर भी वह उनका वहन कर रही है।

पद्यानुवाद-

श्वासका आधार बनता ।

दहनका उपचार बनता ॥

बालबोधिनी – विरह-विच्छेद से अन्तःकरण में सन्ताप अति असहनीय हो गया है, उपचार करने के लिए गरम-गरम उसाँस छोड़ती हैं तो लगता है सारा शरीर धधक रहा है, मदन ही इस आग में धधक रहा है।

दिशि दिशि किरति सजल – कण – जालम् ।

नयन – नलिनमिव विदलितनालम्- राधिका विरहे…. ॥४ ॥

अन्वय-विदलितनालं (छिन्नवृन्तं ) [ नलिनमिव] दिशि दिशि (प्रतिदिशं) नयननलिनं सजलकणजालं (जलकणजालैः सह वर्त्तमानं यथातथा) किरति; [नयनादश्रुपातः पद्मात् नीरच्यूतिरिव प्रतिभातीत्यर्थः] ॥४॥

अनुवाद – मृणाल से विच्छिन्न होकर सजल कमलवत् नयन-कमल को चारों दिशाओं में विक्षिप्त कर अश्रुकण की वृष्टि कर रही है।

पद्यानुवाद-

आँखमें आँसू उमंगते

कमल-कण सरमें तरंगते

खोजती दिशि दिशि सहमते

प्रिय ! कहाँ हो तुम विरमते ?

बालबोधिनी – उसकी आँखें ऐसी लगती हैं, जैसे कमल हों, पर उस कमल का नाल विगलित हो गया है। आँसुओं से भरे नेत्र जलकणों से युक्त नीलकमलों के समान मनोहर लगते हैं। आँसुओं के तारों से दिशाएँ आबद्ध हो जाती हैं, एक जाल – सा तन जाता है, अवरुद्ध हो जाती हैं दिशाएँ। आपके आगमन की प्रतीक्षा में चारों ओर देखती रहती हैं कि आप किसी दिशा से आते हुए दिखायी पड़ जाएँ। नाल गल जाने पर जैसे कमल की स्थिति नहीं रहती, वैसे ही उनकी आँखें कहीं नहीं ठहरतीं। कहीं कोई आधार नहीं, जिस पर वह अपनी दृष्टि टिका सकें।

इस श्लोक में उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलङ्कार है।

त्यजति न पाणि- तलेन कपोलम् ।

बाल- शशिनमिव सायमलोलम्-

राधिका विरहे…. ॥५॥

अन्वय- सायं (सन्ध्यायां) (रागरञ्जिते आकाशतले संलग्नमिति शेषः) अलोलं ( अचञ्चलं) बालशशिनमिव (तरुणचन्द्रमिव) पाणितलेन (करतलेन सुलोहितेनेत्यर्थः) कपोलं (विरहपाण्डुरं गण्डदेशं ) [ कपोलस्य अर्द्धभागमात्रदर्शनात् आताम्रत्वात् पाण्डुत्वाच्च बालचन्द्रेण अस्योपमा ] न त्यजति ( धारयतीति भावः) ॥५ ॥

अनुवाद – अरुणवर्ण के कर कमल पर कपोल को सन्ध्या समय में आकाश स्थित चन्द्रकला की शोभा के समान धारण किये एकान्त में बैठी रहती हैं।

पद्यानुवाद-

हाथ पर हनु धर सरसती

बाल विधु शोभा बरसती ।

बालबोधिनी – किंकर्तव्यविमूढ़ श्रीराधा जड़-सी हो गयी हैं। उनकी एक हथेली बराबर उनके गालों पर लगी रहती है, चिन्तामग्न होने के कारण उसे छोड़ती नहीं। दिन किसी प्रकार निकल जाता है, पर क्या होगा जब रात आयेगी, वह तो मेरे लिए एक युग के समान होगी। सायंकाल के चन्द्रमा के समान उनका मुख क्षीणकान्ति निस्तेज, शान्त तथा हाथ से आधा ढका हुआ द्वितीया के चन्द्रमा के समान लगता है।

सन्ध्या जैसे बाल चन्द्रमा को टिकाये रहती है, उसी प्रकार हथेली का कवच मानो उसे सुरक्षा प्रदान कर रहा है। हाथ से ढके हुए अर्द्धदृश्यमान मुख की उपमा चन्द्रमा से दी गयी है।

नयन – विषयमपि किसलय – तल्पम् ।

कलयति विहित – हुताशवि-कल्पम्- राधिका विरहे…. ॥६॥

अन्वय- किशलय – तल्पमपि (पल्लव- शय्यामपि) नयन- विषयं (नेत्रगोचरं) विहित हुताश – विकल्पं (विहितः जनितः हुताशस्य अग्नेः विकल्पः भ्रमो यत्र तादृशं यथा स्यात् तथा ) गणयति ( मन्यते) ॥६॥

अनुवाद – मनोरम नवीन पल्लवों की शय्या को साक्षात् रूप से विद्यमान देखकर भी उसे विभ्रम के कारण प्रदीप्त हुताशन (आग) के समान मान रही हैं।

पद्यानुवाद-

पल्लवोंकी सेज लखती

आग-सीकहती- सुलगती ।

बालबोधिनी – विरह में श्रीराधा उद्विग्ना हो गयी हैं। सामने नये-नये लाल-लाल किसलयों से निर्मित शय्या को देखती हैं तो उसे लगता है जैसे चिता रची गयी है, उस चिता में आग धधक रही है। प्रत्यक्ष में श्रीराधा को भ्रम हो रहा है, क्योंकि उनकी आँखें आपमें लगी हुई हैं। अग्नि के समान ताम्र-वर्ण वाले नवीन पल्लवों से रचित शय्या में अग्नि का भ्रम हो रहा है उसे । सदृश वस्तु में ही सदृश वस्तु का संशय होता है। अग्नि ताम्रवर्ण का तथा सन्तापकारक होती है, किसलय भी ताम्रवर्ण का विरहणियों के लिए सन्तापकारी होता है। श्रीराधा को किसलय में आग का भ्रम हो रहा है।

हरिरिति हरिरिति जपति सकामम् ।

विरह – विहित – मरणेव निकामम्- राधिका विरहे…. ॥७ ॥

अन्वय – विरहविहित मरणा ( त्वद्विरहेण विहितम् अवधारितं मरणं यस्याः सा) इव [सती] निकामं ( मरणे या मतिः सा एव जीवस्य गतिरिति मत्वा अनवरतं) सकामं (साभिलाषं)हरिरिति हरिरिति जपति ॥७ ॥

अनुवाद – विरह के कारण उनका प्राण त्याग निश्चित-सा हो गया है, श्रीराधा निरन्तर श्रीहरि, श्रीहरिइस नाम का आपकी प्राप्ति की कामना से जप करती रहती हैं।

पद्यानुवाद-

अहर्निश हरि-नाम जपती

मृत्यु क्षण क्षण झलक टलती ।

बालबोधिनी – श्रीराधा का विरहानल में दग्ध होने के कारण यह निश्चित-सा ही हो गया है कि अब उनके प्राण बचेंगे नहीं। संसार से निराश तथा मुमुर्षु जन जैसे श्रीहरि का अहर्निश नाम जपते हैं, उसी प्रकार श्रीराधा भी आपकी प्राप्ति की अभिलाषा से सर्वदा श्रीहरि का नाम जपती रहती हैं। प्रणत-क्लेश-नाशन होने से श्रीकृष्ण हरि कहे जाते हैं। हरि-हरि जप करने से इस जन्म में न सही, दूसरे जन्म में वे अवश्य ही प्रियतम के रूप में प्राप्त होंगे- इसी कामना को लेकर जप कर रही हैं।

श्रीजयदेव – भणितमिति गीतम् ।

सुखयतु केशव – पदमुपनीतम् ॥

राधिका विरहे…. ॥९॥

अन्वय- इति (उक्तप्रकारेण ) श्रीजयदेव – भणितं (श्रीजयदेवोक्त) गीतं केशव-पदं (श्रीकृष्णपदम् ) उपनीतं (प्राप्तं तत्पदयोः समर्पित-चित्तमिति यावत्) [भक्तम्] सुखयतु (सुखीकरोतु ॥ ९ ॥

अनुवाद – श्रीजयदेव प्रणीत यह गीत श्रीकृष्ण के चरणों में शरणागत हुए वैष्णवों का सुख विधान करे।

पद्यानुवाद-

गीतमें कविभींगते हैं

हरि स्वयं आ रीझते हैं।

है विरहकी पीर भारी

छीजती जाती बिचारी ॥

बालबोधिनी – श्रीजयदेव के द्वारा नवें प्रबन्ध के रूप में श्रीहरि का यह गीत प्रस्तुत हुआ है। यह गीत भक्तजनों को सुख देगा, श्रीराधा की इस चित्त भूमि का स्मरण सीधे केशव – चरणों में पहुँचेगा। इस गीत को कवि ने वैष्णवों के सान्निध्य में गाया है। यहाँ केशवपद वैष्णवों का वाचक है। केशवः पदं = स्थानं यस्याऽसौ तं केशवपदम्अर्थात् भगवान् जिनके द्वारा प्राप्य हैं, वे वैष्णव ही केशव पद- वाच्य हैं।

इस सम्पूर्ण गीत में मालाचतुष्पदी नामक छन्द तथा उपमा अलङ्कार है।

सा रोमाञ्चति शीत्करोति विलपत्युत्कम्पते ताम्यति

ध्यायत्युद्भ्रमति प्रमीलति पतत्युद्याति मूर्च्छत्यपि ।

एतावत्यतनु- ज्वरे वरतनु- र्जीवेन्न किं ते रसा-

स्वर्वैद्य – प्रतिम! प्रसीदसि यदि त्यक्तोऽन्यथा हस्तकः ॥ १ ॥

अन्वय – [ पुनरतीव कैवल्यं वर्णयति ] – हे स्वर्वैद्यप्रतिम (अश्विनी कुमार-सदृश- सुचिकित्सक) यदि त्वं प्रसीदसि (प्रसन्नो भवसि) [तर्हि] एतावति (उत्कटेऽपि इत्यर्थः) अतनु-ज्वरे (कामज्वरे; अन्यत्र अनल्पे हिते ज्वरे) सा वरतनुः ( वरवर्णिनी) राधा ते (तव) रसात् (अनुग्रह जनितात् अनुरागात्; अन्यत्र रस-प्रयोगात् औषधात्) किं न जीवेत् [ अपि तु जीवेदेव]; [वरतनुरिति तत्समा अन्या नास्तीति तस्या रक्षणं युक्तमिति ध्वनिः]; अन्यथा (नोचेत्) हस्तकः (हस्तक्रिया; पाचनाद्यौषधान्तर- दानरूपा) [वैद्यैः] त्यक्तः [दानेऽपि औषधस्य विषयाप्राप्तेरित्याशयः; कामज्वरपक्षेऽपि शीतलाद्युपचारः सखीभिस्त्यक्ते इत्यर्थः] [ज्वरावस्थां दर्शयति ] – सा रोमाञ्चति (रोमाञ्चिता भवति) शीत्करोति (शीत्कारं करोति) विलपति (रोदिति) उत्कम्पते (उच्चैःकम्पते) ताम्यति (ग्लानिमाप्नोति) ध्यायति (कथं लभ्यते इति चिन्तयति ) उद्भ्रमति (उच्चैः भ्रान्तिमाप्नोति ) प्रमीलति (अक्षिणी सङ्कोचयति) पतति (भूमौ लुठति) उद्याति (उत्थातुमिच्छति ) मूर्च्छति (मोहं प्राप्नोति) अपि ॥ १ ॥

अनुवाद – हे अश्विनीकुमार सदृश वैद्यराज श्रीकृष्ण ! वराङ्गना श्रीराधा विरह-विकार में विमोहित होकर कभी रोमाञ्चित होती हैं, कभी सिसकने लगती हैं, कभी चकित हो जाती हैं, कभी उच्च स्वर से विलाप करती हैं, कभी कम्पित होती हैं, कभी एकाग्रचित्त होकर तुम्हारा ध्यान करती हैं, क्रीड़ास्थलों में भ्रमण करती हैं, विषम विभ्रम के कारण विह्वल हो नेत्रों को निमीलित कर लेती हैं, कभी वसुधा पर गिर पड़ती हैं, पुनः उठकर चलने की तैयारी में फिर मूर्च्छित हो गिर जाती हैं, उन्हें सन्निपात ज्वर हो गया है। यदि आप प्रसन्न होकर इस घोरतर मदन विकार में उसे औषधिरूप रसामृत प्रदान करें, तो उन्हें प्राण- दान मिलेगा । अन्यथा अब तो उनकी हाथों की चेष्टाएँ भी समाप्त हो जायेंगी- मर जायेंगी वह ।

पद्यानुवाद-

कभी पुलकती, कभी विलपती और विसुध है होती

सी सीकरके कभी सिहरती कभी बिहँसती, रोती ।

गिरती उठती, चलती फिरती, जगती-सी सो जाती

तीव्र ज्वराकुल- सी लगती है, पीड़ामें खो जाती ॥

बालबोधिनी – श्रीराधा को महाज्वर की पीड़ा है- कामज्वर अब सन्निपात अवस्था में पहुँच गया है। वह श्रीराधा न केवल बाह्यवृत्ति से आपमें अनुरक्त हैं, अपितु सात्त्विक भाव से भी वह आपमें ही जी रही हैं। सात्त्विक भाव से प्रख्यात वह अनेकों चेष्टाएँ कर रही हैं, जिनके नाम हैं-

स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः ।

वैवर्ण्यमश्रुप्रलयावित्यष्टौ सात्त्विका मताः ॥

रोमाञ्चति – इस पद के द्वारा श्रीराधा के रोमाञ्च नाम के सात्त्विक भाव का वर्णन किया है। रोमाञ्च विद्यते यस्य स रोमाञ्चः । रोमाञ्चित इत्यर्थः । तद्वदाचरति रोमाञ्चति ।जिसको रोमाञ्च हो गया है, उसको रोमाञ्चित कहते हैं और रोमाञ्चित के समान आचरण करने की क्रिया को रोमाञ्चतिकहा जाता है।

वैवर्ण्य- आपकी चिन्ता और स्मृति बनी रहने से वह सीत्कार करती हैं।

अश्रु एवं वेपथु – आपके (श्रीकृष्ण के) गुणों का स्मरण करके वह रोने लगती है, श्रीकृष्ण के वियोगजन्य दुःख को कैसे सहन कर पाऊँगी, यह सोचकर काँपने लगती हैं। स्वेद – ग्लानियुक्त होकर पसीने-पसीने हो जाती हैं। स्तम्भ – नित्य निरन्तर आपका ध्यान करती हैं। आँखें मूँद लेती हैं, मानो सारे इन्द्रिय व्यापार स्थगित हो गये हों । वेपथु का द्वितीय उदाहरण उद्भ्रमतिक्रीड़ादि स्थलों में आपको प्राप्त करने की इच्छा से भ्रमण करती हैं।

स्वरभङ्ग – प्रमीलतिका अर्थ है आपके आलिङ्गन आदि का ध्यान करके अपनी आँखों को बन्द कर लेती हैं। वह कुछ बोल नहीं पातीं।

स्तम्भ का द्वितीय उदाहरण पततिपद का अभिप्राय यह है कि वह, चलती हुई अत्यन्त क्षीण तथा दुर्बल शरीर के कारण गिर पड़ती हैं।

प्रलय – उद्यतिपद के द्वारा बतलाया है कि वह गिरकर पुनः उठ खड़ी होती हैं और मूर्च्छतिपद के द्वारा प्रलय नामक सात्त्विक भाव को सखी निर्दिष्ट करती है।

इस प्रकार श्रीराधा की प्रिय सखी ने श्रीकृष्ण से कहा है, अश्विनीकुमार की भाँति स्वर्वैद्य सुचिकित्सक यदि आप श्रीराधा पर प्रसन्न हो जाएँ तो क्या यह उनकी कन्दर्प-विकार जनित बीमारी दूर नहीं होगी ? यद्यपि बुखार की इस अवस्था में रसायन निषिद्ध हैं तथापि उनके शरीर में नलिनी (कमल) दल का स्थापन, ताल के पंखा आदि से वीजन – कुछ भी उस विरह-व्याधि को उपशमित नहीं करता है, अपितु क्रमशः वर्द्धित होता जाता है। वह इतनी दुर्बल हो गयी हैं कि बस हाथों को ही हिला पाती हैं- यदि वह यह जान ले कि आप उन्हें नहीं मिलेंगे तो उनका मरण सुनिश्चित ही है।

आपमें ही दत्तचित्तवाली उसे आप दर्शन देकर जीवित नहीं करते हैं, तो फिर आपको आश्रितों के परित्याग का पाप भी लगेगा।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीड़ित नामक छन्द है। दीपक अलङ्कार है। विप्रलम्भ शृङ्गार रस है। नायक अनुकूल अथवा दाक्षिण है। नायिका उत्कण्ठिता है। सखी कहती है जो नायिका की सहायिका है।

स्मरातुरां दैवत – वैद्य – हृद्य ! त्वदङ्गसङ्गामृतमात्रसाध्यम् ।

निवृत्तबाधां कुरुषे न राधामुपेन्द्र ! वज्रादपि दारुणोऽसि ॥ २ ॥

अन्वय- हे दैवतवैद्यहृद्य, (देववैद्यादपि हृदयङ्गम ! वैद्याभ्यास- कृत्यनिपुण इति वा) त्वदङ्गसङ्गामृत मात्रसाध्यां (तव अङ्गसङ्ग एव अमृतं तन्मात्रेण साध्यां प्रतिकार्यां) स्मरातुरां (कामात) राधां [यदि] विमुक्त-वाधां (रोगमुक्तां) न कुरुष्वे (तर्हि) हे उपेन्द्र, त्वं वज्रादपि दारुणः (कठोरः) असि (भवसि ) [ यद्वा त्वम् उपेन्द्रवज्रादपि इन्द्रवज्रात् उप अधिकम् उपेन्द्रवज्रं तदपिचेद्भवेत् तस्मादपि, दारुणः असि] [ अङ्गसङ्ग-मात्र-साध्य- कर्माकरणेन काठिन्यमेव ते पर्यवसितमित्यर्थः] ॥२॥

अनुवाद – देववैद्य अश्विनीकुमार से भी सुनिपुण सुचिकित्सक श्रीकृष्ण ! हे उपेन्द्र ! अनङ्गताप से पीड़िता श्रीराधा एकमात्र आपके अङ्ग-संयोग रूप औषधामृत से ही जीवन धारण कर सकती हैं। उस दुःसाध्य रोगवाली कामातुर श्रीराधा को इस मुमुर्षु दशा में यदि आप बाधा रहित नहीं बनाते हैं तो निश्चय ही आप वज्र से भी कठोर समझे जायेंगे।

पद्यानुवाद-

वैद्य ! रसौषधि दे उसको अब फिरसे चेतन कर दो

इङ्गित- भाषिणिकी जिह्वा में फिरसे वाणी भर ॥

स्पृशामृतसे स्मर‘ – बाधाको हे हरि ! सत्वर हर लो ।

काँप रही हूँ-कहीं न उरको, निठुर वज्र सा कर लो ॥

बालबोधिनी – सखी ने श्रीकृष्ण को दो विशेषणों से विभूषित किया-

(१) दैवतवैद्यहृद्य – श्रीकृष्ण की अभिरामता एवं मनोरमता स्वर्गलोक के वैद्य अश्विनीकुमारों से भी बढ़कर है।

(२) उपेन्द्र – दुःखी देवताओं का कल्याण करने के लिए श्रीकृष्ण ने माता अदिति के गर्भ से वामन भगवान्‌ के रूप में भी अवतार लिया था । इन्द्र के छोटे भाई होने के कारण वे उपेन्द्र कहलाये। इस विशेषण से श्रीकृष्ण का आश्रितजनतासंरक्षणैकव्रतित्व का निदर्शन हुआ है।

श्रीराधा काम-व्याधि से आतुर बनी हुई हैं।

उनके इस असाध्य रोग की एकमात्र औषधि आपका संयोग है। आपके अङ्गों का स्पर्श उनके लिए अमृतवत् है । कोई प्रयास भी तो नहीं करना है आपको। यदि आप अपने अङ्ग-सङ्ग से उनको संजीवित नहीं करते तो आप निश्चय ही वज्र से भी अधिक कठोर माने जायेंगे। इस श्लोक का उपेन्द्रवज्रा वृत्त है।

कन्दर्प-ज्वर-सञ्ज्वरातुर-तनोराश्चर्यमस्याश्चिरं

चेतश्चन्दनचन्द्रमः-कमलिनी-चिन्तासु सन्ताम्यति

किन्तु क्लान्तिवशेन शीतलतनुं त्वामेकमेव प्रियं

ध्यायन्तीं रहसि स्थिता कथमपि क्षीणां क्षणं प्राणिति ॥ ३ ॥

अन्वय- कन्दर्पज्वरसंज्वरातुरतनोः (कन्दर्पज्वरेण यः संज्वरः सन्तापः तेन आतुरा कातरा तनुर्यस्य तस्याः ) अस्याः (राधायाः) चेतः (चित्तं) चन्दन – चन्द्रमः – कमलिनी – चिन्तासु (चन्दनस्य चन्द्रसमः कमलिन्याः पद्मिन्याश्च स्पर्शनादिकन्तु दूरे आस्तां तेषां चिन्तासु) चिरं सन्ताम्यति (ग्लानिमृच्छति) [तर्हि कथं सा जीवतीत्याह ] – किन्तु [असो] क्षान्तिरसेन (त्वदागमन – प्रतीक्षा क्षान्तिः, तत्र यो रसोऽनुरागः तेन (शीतलतरं; चन्दनादयः शीतलाः त्वं शीतलतरः; यतः तदीयदोषेऽपि क्षमाशीलः; क्षमावतां देहे उष्णता न जायते इति भावः) एकम् (अद्वितीयम् एतेन अनन्यगतित्वं सूचितं) प्रियं [त्वां ] रहसि (एकान्ते) स्थिता ध्यायन्ती [सती] क्षीणापि (नितरां कृशापि) कथं (कथमपि) क्षणं प्राणिति (जीवति) [ तत्तद्वस्तुस्मरणे ताम्यति भवद्ध्यानेतु जीवतीति] आश्चर्यमेतत्॥३॥

अनुवाद – हे माधव! कैसे आश्चर्य की बात है कि मदन- ज्वर के प्रबल सन्ताप से समाकुला क्षीणाङ्गी श्रीराधा चन्दन, चन्द्रमा और नलिनी आदि शीतोपचार के साधन का विचार करते ही सन्तप्त होने लगती हैं। अहो, क्लान्ति के कारण वह दुर्बला शीतल तनु आपका ही एकान्त में ध्यान करती हुई किसी प्रकार कुछ क्षणों के लिए जी रही है।

पद्यानुवाद-

चन्दन, चन्द, कमल- शीतल द्रव उसे जलाते रहते।

किन्तु तुम्हारे शीतल तनका चिन्तन करते करते-

विगत- ताप वह हो जाती है और विहँस है जाती ।

जादूगर ! है क्या रहस्य यह, मैं न समझ हूँ पाती ?

बालबोधिनी – हे माधव ! इस सन्निपात की अवस्था को प्राप्त हुई वह आपके सङ्गम की आकांक्षा से ही जी रही हैं, ज्वर को दूर करनेवाले सारे उपाय व्यर्थ हो गये हैं। न चन्दन का लेप काम करता है, न चन्द्रमा की शीतल चाँदनी और न ही कमलिनी ही स्थिति तो ऐसी चरम सीमा पर पहुँच गयी है कि इन साधनों को सोचते हुए वह और अधिक जलने लगती हैं। ज्वर कभी-कभी चढ़ते चढ़ते इतना थका देता है कि शरीर एकदम स्वेद के प्रभाव के कारण शीतल हो जाता है। वह विरहिनी अपने अशान्त मन में केवल तुम्हारा ही ध्यान करती हैं और विरह में क्षीण होकर वह कातर विजातीय यन्त्रणा में भी उस ध्यान के क्षण को उत्सव मानकर प्राण प्राप्त करती हैं।

यदि आप सोचें कि वह इस समय कैसे जी रही है, कैसे साँस ले रही हैं, तो उत्तर यही है कि आप ही उसके एकमात्र प्रियतम हैं, आपका शीतल वपु उसे स्पर्श करने के लिए प्राप्त हो जाय। इस प्राप्त्याशा में कुछ क्षणों तक जी रही हैं। यदि आप अविलम्ब नहीं मिले तो हो सकता है वह पुनः जीवित न मिलें ।

प्रस्तुत श्लोक में विरोधालङ्कार है, अद्भुत रस है तथा शार्दूलविक्रीडित छन्द है ।

क्षणमपि विरहः पुरा न सेहे

नयन – निमीलन- खिन्नया यया ते ।

श्वसिति कथमसौ रसालशाखां

चिरविरहेण विलोक्य पुष्पिताग्राम् ॥ ४ ॥

अन्वय – [ हे कृष्ण ] नयन- निमीलन- खिन्नया (“हा कथं नयने निमेषो मिलितः येन क्षणं कान्तदर्शनं विहन्यते इति” नयनयोः निमीलनेऽपि खिन्नया) यया पुरा ते (तव) क्षणमपि विरहो न सेहे, असौ पुष्पिताग्रां (सञ्जात – कुसुमाग्रां) रसालशाखां विलोक्य चिर- विरहेण कथं श्वसिति (प्राणिति); [ निमेषविरहासहन- शीलायाः चिरविरह सहनमतीवाश्चर्यम् ] ॥४॥

अनुवाद – जो एक क्षण के लिए भी आपके दर्शन में अन्तराल डालने वाले निमेष निमीलन को सह नहीं पाती थीं, वही श्रीराधा तुम्हारे इस दारुण विरह में सुललित सुपुष्पित आम्रवृक्ष (जिसके ऊपर की शाखाओं में नवीन पुष्प मञ्जरी संलग्न हैं) के समक्ष ही इस दीर्घकालिक विरह में अवलोकन करते हुए कैसे जीवन अतिवाहित कर रही हैं – यह मैं नहीं समझ पा रही ?

पद्यानुवाद-

जो राधा पल भर भी पहले, विरह न थी सह सकती,

पलकें क्यों बरबस लगती हैं” – विधिको कोसा करती ।

वही आज पुष्पित मधुऋतुमें, निरख तरुण आमोंको,

क्या जाने कैसे रख पाती है, पापी प्राणोंको ?

बालबोधिनी – हे कृष्ण इससे पूर्व श्रीराधा ने क्षणभर के लिए भी आपका वियोग नहीं सहा है। वह तो सदा-सर्वदा आपके पास रहती थीं। जब उनके नेत्रों के पलक गिरते थे तो उस समय भी उनको बड़ा कष्ट होता था सोचती थी ब्रह्मा ने यह पलक गिरने की प्रक्रिया क्यों बनायी है। आपके मुखावलोकन में जरा-सी बाधा पड़ने पर भी जिनको अपार दुःख होता था, वह अब चिरकाल से इस विरह को रसाल की पुष्पिताग्रा शाखाओं को देखकर भी कैसे सह पा रही हैं ? कैसे उसकी साँसें चलती हैं ? हर डाल के सिरे पर बौरे आ गये हैं, मञ्जरियाँ निकल आयी हैं। रसाल अर्थात् रस का समूह उसकी डालियाँ पुष्पिताग्रा हो गयी हैं। यह वसन्त ऋतु की बेला है। वसन्त काल में तो विरहियों को वैसे ही मृत्यु के तुल्य कष्ट होता है। अतएव हे श्रीकृष्ण ! श्रीराधा से अविलम्ब मिलें ।

श्रीराधा यह भी अपने मन में सोचकर जी रही हैं कि पुष्पिताग्रा रसाल शाखा को देखकर जिस प्रकार से मैं कामार्त हूँ, उसी प्रकार से श्रीकृष्ण भी मेरे लिए कामार्त होंगे। अतः वे अवश्य ही मुझसे मिलने आयेंगे।

प्रस्तुत श्लोक में पुष्पिताग्रा छन्द है।

वृष्टि-व्याकुलगोकुलावन – रसादुद्धृत्य गोवर्धनं

विभ्रबल्लव-वल्लभिरधिकानन्दाच्चिरं चुम्बितः

दर्पेणेव तदार्पिताधर-तटी-सिन्दूर-मुद्राङ्कितो

बाहुर्गोपतनोस्तनोतु भवतां श्रेयांसि कंसद्विषः ॥५॥

अन्वय – [ इदानीमाशिषा सगं समापयति महाकविः ] – गोपतनोः (गोपाल-रूपस्य) कंसद्विषः (कृष्णस्य) वृष्टिव्याकुलगोकुलावन- रसात् (वृष्टिभिः व्याकुलं यत् गोकुलं तस्य अवनं रक्षणं तस्य रसः अनुरागः तस्मात्) गोवर्द्धनम् (तन्नामानं गिरिम् ) उद्धृत्य (उत्तोल्य) विभ्रत् ( दधानः) अधिकानन्दात् (वैदग्ध्य- सौन्दर्यादिकमुद्वीक्ष्य हर्षातिशयेनेत्यर्थः) वल्लव-वल्लभाभिः (गोपसुन्दरीभिः) चिरं चुम्बितः (दत्तचुम्बनः) [तथा] दर्पेण(अहङ्कारेणैव इन्द्रस्य विजिगीषया) तदर्पिताधरतटीसिन्दुर-मुद्राङ्कितः (ताभिर्गोपाङ्गनाभिः) अर्पिता दत्ता या अधरतट्यः अधरप्रदेशाः तासां सिन्दूर-मुद्रया सिन्दूर-चिह्नेन अङ्कितः युक्तः) बाहुः श्रेयांसि (मङ्गलानि) तनोतु (विस्तारयतु ) [ अतएव श्रीराधावैकल्य- श्रवणेन स्निग्धश्चेष्टारहितो मधुसूदनो यत्र स इत्ययं सर्गश्चतुर्थः] ॥५॥

अनुवाद – जिन्होंने वारि-वर्षण से व्याकुल गोकुलवासियों की रक्षा के लिए इन्द्र से प्रतिस्पर्द्धा करते हुए गिरि गोवर्धन को ऊपर उठाकर धारण किया था, जो गोप युवतियों के द्वारा दीर्घकाल पर्यन्त अतिशय रूप से चुम्बित हुए थे, जिन पर गोपबंधुओं के अधर स्थित कुङ्कुम तथा ललाट स्थित सिन्दूर अङ्कित हुआ था, वे कंस विध्वंसकारी, गोपतनुधारी श्रीकृष्ण की भुजाएँ सबका मङ्गल विधान करें।

बालबोधिनी – मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्तेअर्थात् जिस शास्त्र के आदि, मध्य तथा अन्त में मङ्गल होता है, उस शास्त्र का प्रचुर प्रचार होता है। इस नियम के अनुसार कवि जयदेव ने ग्रन्थ के चतुर्थ सर्ग की समाप्ति पर आशीर्वादात्मक मङ्गलाचरण प्रस्तुत किया है कि श्रीकृष्ण की वे भुजाएँ पाठकों एवं श्रोताओं का मङ्गल विधान करें। उन भुजाओं की विशेषताएँ हैं-

वृष्टि – व्याकुल- गोकुला वनरसादुद्धृत्य गोवर्धनं विभ्रत् । अर्थात् क्रुद्ध होकर जब इन्द्र ने गोकुलवन को विनष्ट करने हेतु पुष्कर एवं आवर्तक मेघों से भयङ्कर वर्षा करना प्रारम्भ किया था, उस समय समस्त गोपमण्डली व्याकुल हो गयी थी। यह देखकर गोकुल की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने गोवर्धनाद्रि को उखाड़कर अपने हाथ पर उठा लिया था। तब शृङ्गार – उद्दीपक वीर रस का प्रकाश उनकी भुजाओं में हुआ था ।

जब श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत धारण किये हुए थे, तब गोपियाँ अतिशय आनन्दमग्न होकर श्रीकृष्ण की भुजाओं का चुम्बन करने लगी थीं।

श्रीकृष्ण के वैदग्ध्य, माधुर्य एवं सौन्दर्य आदि का अवलोकन करके चुम्बन करनेवाली इन गोपियों का ललाट-स्थित सिन्दूर और लाल-लाल ओंठों की लालिमा भी उन भुजाओं में चिह्नित हो गई थी।

इस प्रकार अपने इस सौभाग्य मद से अङ्कित श्रीकृष्ण की भुजाएँ सबका कल्याण करें।

स्निग्ध मधुसूदन इस प्रकार श्रीराधा की विकलता का श्रवण कर श्रीकृष्ण स्निग्ध- चेष्टाशून्य हो गये।

इति गीतगोविन्दे नवम सन्दर्भः इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये स्निग्ध- मधुसूदनो नाम चतुर्थः सर्गः ।

श्रीगीतगाविन्द महाकाव्य में स्निग्ध-मधुसूदन नामक चतुर्थ सर्ग की बालबोधिनी व्याख्या समाप्त ।

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