श्रीराधा कवचम् || Shri Radha Kavacham
श्रीब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड ५६ । २८-६२ में वर्णित इस श्रीराधा श्रीराधिका जगन्मङ्गलकवचम् के लिए भगवान शिव ने कहा है कि- सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, सब प्रकार का दान, सम्पूर्ण व्रतों में उपवास, पृथ्वी की परिक्रमा, समस्त यज्ञों की दीक्षा का ग्रहण, सदैव सत्य की रक्षा, नित्यप्रति श्रीकृष्ण की सेवा, श्रीकृष्ण-नैवेद्य का भक्षण तथा चारों वेदों का पाठ करने पर मनुष्य जिस फल को पाता है, उसे निश्चय ही वह इस कवच के पाठ से पा लेता है ।
श्रीराधिका जगन्मङ्गल कवचम्
विनियोगः- “ॐ अस्य श्रीजगन्मङ्गलकवचस्य प्रजापतिऋषिर्गायत्री छन्दः स्वयं रासेश्वरी देवता श्रीकृष्णभक्तिसम्प्राप्तौ विनियोगः ॥
॥ महेश्वर उवाच ॥
श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ॥ १ ॥
ऋषिश्छन्दोऽस्य गायत्री देवी रासेश्वरी स्वयम् ।
श्रीकृष्णभक्तिसम्प्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ २ ॥
महेश्वर ने कहा- इस जगन्मङ्गल राधा कवच के प्रजापति ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, स्वयं रासेश्वरी देवता हैं और श्रीकृष्णभक्ति-प्राप्ति के लिये इसका विनियोग बताया गया है ।
शिष्याय कृष्णभक्ताय ब्राह्मणाय प्रकाशयेत् ।
शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात् ॥ ३ ॥
जो अपना शिष्य और श्रीकृष्णभक्त ब्राह्मण हो, उसी के समक्ष इस कवच को प्रकाशित करे । जो शठ तथा दूसरे का शिष्य हो, उसको इसका उपदेश देने से मृत्यु की प्राप्ति होती है ।
राज्यं देयं शिरो देयं न देयं कवचं प्रिये ।
कण्ठे धृतमिदं भक्त्या कृष्णेन परमात्मना ॥ ४ ॥
मया दृष्टं च गोलोके ब्रह्मणा विष्णुना पुरा ।
प्रिये ! राज्य दे दे, अपना मस्तक कटा दे; परंतु अनधिकारी को यह कवच न दे । मैंने गोलोक में देखा था कि साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्ण ने भक्तिभाव से अपने कण्ठ में इसको धारण किया था । पूर्वकाल में ब्रह्मा और विष्णु ने भी इसे अपने गले में स्थान दिया था ।
॥श्रीराधाकवचम् मूल-पाठ ॥
ॐ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ५ ॥
कृष्णेनोपासितो मन्त्रः कल्पवृक्षः शिरोऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं राधिकाङेन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ६ ॥
‘ॐ राधायै स्वाहा ।’ यह मन्त्र कल्पवृक्ष के समान मनोवाञ्छित फल देनेवाला है और श्रीकृष्ण ने इसकी उपासना की है । यह मेरे मस्तक की रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं श्रीं राधिकायै स्वाहा ।’
कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु ।
ॐ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेन्तं वह्नि जायान्तमेव च ॥ ७ ॥
यह मन्त्र मेरे कपाल की तथा दोनों नेत्रों और कानों की सदा रक्षा करे । ‘ॐ रां ह्रीं श्रीं राधिकायै स्वाहा ।’
मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदावतु ।
ॐ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ॥ ८ ॥
यह मन्त्रराज सदा मेरे मस्तक और केशसमूहों की रक्षा करे । ‘ॐ रां राधायै स्वाहा ।’
सर्वसिद्धिप्रदः पातु कपोलं नासिकां मुखम् ।
क्लीं श्रीं कृष्णप्रियाङेन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम् ॥ ९ ॥
यह सर्वसिद्धिदायक मन्त्र मेरे कपोल, नासिका और मुख की रक्षा करे । ‘ॐ क्लीं श्री कृष्णप्रियायै नमः ।’ यह मन्त्र मेरे कण्ठ की रक्षा करे ।
ॐ रां रासेश्वरीङेन्तं स्कन्धं पातु नमोऽन्तकम् ।
ॐ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु ॥ १० ॥
‘ॐ रां रासेश्वर्यै नमः ।’ यह मन्त्र मेरे कंधे की रक्षा करे । ‘ॐ रां रासविलासिन्यै स्वाहा ।’ यह मन्त्र मेरे पृष्ठभाग की सदा रक्षा करे ।
वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदावतु ।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम् ॥ ११ ॥
‘ॐ वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा ।’ यह मन्त्र वक्षःस्थल की सदा रक्षा करे । ‘ॐ तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा ।’ यह मन्त्र नितम्ब की रक्षा करे ।
कृष्णप्राणाधिकाङेन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम् ।
पादयुग्मं च सर्वाङ्गं संततं पातु सर्वतः ॥ १२ ॥
‘ॐ कृष्णप्राणाधिकायै स्वाहा ।’ यह मन्त्र दोनों चरणों तथा सम्पूर्ण अङ्ग की सदा सब ओर से रक्षा करे ।
राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु ।
दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैर्ऋतेऽवतु ॥ १३ ॥
राधा पूर्व-दिशा में मेरी रक्षा करें । कृष्णप्रिया अग्निकोण में मेरा पालन करें । रासेश्वरी दक्षिण दिशा में मेरी रक्षा का भार सँभालें । गोपीश्वरी नैऋत्यकोण में मेरा संरक्षण करें ।
पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता ।
उत्तरे संततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ १४ ॥
निर्गुणा पश्चिम तथा कृष्णपूजिता वायव्यकोण में मेरा पालन करें । मूलप्रकृति ईश्वरी उत्तरदिशा में निरन्तर मेरे संरक्षण में लगी रहें ।
सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता ।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा ॥ १५ ॥
महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु संततम् ।
सर्वपूजिता सर्वेश्वरी सदा ईशानकोण में मेरी रक्षा करें । महाविष्णुजननी जल, स्थल, आकाश, स्वप्न और जागरण में सदा सब ओर से मेरा संरक्षण करें ।
॥ श्रीराधाकवचम् फलश्रुति ॥
कवचं कथितं दुर्गे श्रीजगन्मङ्गलं परम् ॥ १६ ॥
दुर्गे ! यह परम उत्तम श्रीजगन्मङ्गलकवच मैंने तुमसे कहा है ।
यस्मै कस्मै न दातव्यं गुढाद् गुढतरं परम् ।
तव स्नेहान्मयाख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ १७ ॥
यह गूढ से भी परम गूढतर तत्त्व है । इसका उपदेश हर एक को नहीं देना चाहिये । मैंने तुम्हारे स्नेहवश इसका वर्णन किया है । किसी अनधिकारी के सामने इसका प्रवचन नहीं करना चाहिये ।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णोसमो भवेत् ॥ १८ ॥
जो वस्त्र, आभूषण और चन्दन से गुरु की विधिवत् पूजा करके इस कवच को कण्ठ या दाहिनी बाँह में धारण करता है, वह भगवान् विष्णु के समान तेजस्वी हो जाता है ।
शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत् ।
यदि स्यात् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत् ॥ १९ ॥
सौ लाख जप करने पर यह कवच सिद्ध हो जाता है । यदि किसी को यह कवच सिद्ध हो जाय तो वह आग से जलता नहीं है ।
एतस्मात् कवचाद् दुर्गे राजा दुर्योधनः पुरा ।
विशारदो जलस्तम्भे वह्निस्तम्भे च निश्चितम् ॥ २० ॥
दुर्गे ! पूर्वकाल में इस कवच को धारण करने से ही राजा दुर्योधन ने जल और अग्नि का स्तम्भन करने में निश्चितरूप से दक्षता प्राप्त की थी ।
मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे ।
सूर्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ ॥ २१ ॥
मैंने पहले पुष्करतीर्थ में सूर्यग्रहण के अवसर पर सनत्कुमार को इस कवच का उपदेश दिया था । सनत्कुमार ने मेरुपर्वत पर सान्दीपनि को यह कवच प्रदान किया ।
बलाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय सः ।
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ २२ ॥
सान्दीपनि ने बलरामजी को और बलरामजी ने दुर्योधन को इसका उपदेश दिया । इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त हो सकता है ।
नित्यं पठति भक्त्येदं तन्मन्त्रोपासकश्च यः ।
विष्णुतुल्यो भवेन्नित्यं राजसूयफलं लभेत् ॥ २३ ॥
जो राधामन्त्र का उपासक होकर प्रतिदिन इस कवच का भक्तिभाव से पाठ करता है, वह विष्णुतुल्य तेजस्वी होता तथा राजसूय-यज्ञ का फल पाता है ।
स्नानेन सर्वतीर्थानां सर्वदानेन यत्फलम् ।
सर्वव्रतोपवासे च पृथिव्याश्च प्रदक्षिणे ॥ २४ ॥
सर्वयज्ञेषु दीक्षायां नित्यं च सत्यरक्षणे ।
नित्यं श्रीकृष्णसेवायां कृष्णनैवेद्यभक्षणे ॥ २५ ॥
पाठे चतुर्णो वेदानां यत्फलं च लभेन्नरः ।
यत्फलं लभते नूनं पठनात् कवचस्य च ॥ २६ ॥
सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, सब प्रकार का दान, सम्पूर्ण व्रतों में उपवास, पृथ्वी की परिक्रमा, समस्त यज्ञों की दीक्षा का ग्रहण, सदैव सत्य की रक्षा, नित्यप्रति श्रीकृष्ण की सेवा, श्रीकृष्ण-नैवेद्य का भक्षण तथा चारों वेदों का पाठ करने पर मनुष्य जिस फल को पाता है, उसे निश्चय ही वह इस कवच के पाठ से पा लेता है ।
राजद्वारे श्मशाने च सिंहव्याघ्रान्विते वने ।
दावाग्नौ संकटे चैव दस्युचौरान्विते भये ॥ २७ ॥
कारागारे विपद्ग्रस्ते घोरे च दृढबन्धने ।
व्याधियुक्तो भवेन्मुक्तो धारणात् कवचस्य च ॥ २८ ॥
राजद्वार पर, श्मशानभूमि में, सिंहों और व्याघ्रों से भरे हुए वन में, दावानल में, विशेष संकट के अवसर पर, डाकुओं और चोरों से भय प्राप्त होने पर, जेल जाने पर, विपत्ति में पड़ जाने पर, भयंकर एवं अटूट बन्धन में बँधने पर तथा रोगों से आक्रान्त होने पर यदि मनुष्य इस कवच को धारण कर ले तो निश्चय ही वह समस्त दुःखों से छूट जाता है ।
इत्येतत्कथितं दुर्गे तवैवेदं महेश्वरि ।
त्वमेव सर्वरूपा मां माया पृच्छसि मायया ॥ २९ ॥
दुर्गे ! महेश्वरि ! यह तुम्हारा ही कवच तुमसे कहा है । तुम्हीं सर्वरूपा माया हो और छल से इस विषय में मुझसे पूछ रही हो ।
॥ श्रीनारायण उवाच ॥
इत्युक्त्वा राधिकाख्यानं स्मारं च माधवम् ।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्गः साश्रुनेत्रो बभुव सः ॥ ३० ॥
श्रीनारायण कहते हैं — नारद ! इस प्रकार राधिका की कथा कहकर बारंबार माधव का स्मरण करके भगवान् शंकर के सम्पूर्ण अङ्गों में रोमाञ्च हो आया । उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी।
न कृष्णसदृशो देवो न गङ्गासदृशी सरित् ।
न पुष्करसमं तीर्थे नाश्रामो ब्राह्मणात् पर ॥ ३१ ॥
श्रीकृष्ण के समान कोई देवता नहीं है, गङ्गा-जैसी दूसरी नदी नहीं है, पुष्कर के समान कोई तीर्थ नहीं है तथा ब्राह्मण से बढ़कर कोई वर्ण नहीं हैं ।
परमाणुपरं सूक्ष्मं महाविष्णोः परो महान् ।
नभः परं च विस्तीर्णे यथा नास्त्येव नारद ॥ ३२ ॥
तथा न वैष्णवाद् ज्ञानी योगीन्द्रः शंकरात् परः ।
कामक्रोधलोभमोहा जितास्तेनैव नारद ॥ ३३ ॥
नारद ! जैसे परमाणु से बढ़कर सूक्ष्म, महाविष्णु (महाविरा)-से बढ़कर महान् तथा आकाश से अधिक विस्तृत दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उसी प्रकार वैष्णव से बढ़कर ज्ञानी तथा भगवान् शंकर से बढ़कर कोई योगीन्द्र नहीं है । देवर्षे ! उन्होंने ही काम, क्रोध, लोभ और मोह पर विजय पायी हैं ।
स्वप्ने जागरणे शश्वत् कृष्णध्यानरतः शिवः ।
यथा कृष्णस्तथा शम्भुर्न भेदो माधवेशयोः ॥ ३४ ॥
भगवान् शिव सोते, जागते हर समय श्रीकृष्ण के ध्यान में तत्पर रहते हैं । जैसे कृष्ण हैं, वैसे शिव हैं । श्रीकृष्ण और शिव में कोई भेद नहीं है ।
यथा शम्भुर्वैष्णवेषु यथा देवेषु माधवः ।
तथेदं कवचं वत्स कवचेषु प्रशस्तकम् ॥ ३५ ॥
वत्स! जैसे वैष्णवों में शम्भु तथा देवताओं में माधव श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार कवचों में यह जगन्मङ्गल राधाकवच सर्वोत्तम हैं ।
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीराधिकाकवचं सम्पूर्णम् ॥