श्रीराधा सप्तशती अध्याय ५ – Shri Radha Saptashati Adhyay 5

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श्रीराधा सप्तशती श्रृंखला के अध्याय ४ में श्रीराधा मन्दिर महाप्रसाद को पढ़ा, अब उससे आगे अध्याय ५ में ब्राह्मण का श्रीवृन्दावन विरह वेदना का वर्णन हुआ है।

श्रीराधा सप्तशती पञ्चमोऽध्यायः

श्रीराधासप्तशती अध्याय ५

अथ पञ्चमोऽध्यायः

श्रीमधुकण्ठ उवाच

अथ वृन्दावनं गत्वा वृन्दावनकलानि ।

प्रणिपत्य पठन्नित्थं श्रीमद्भागवतं ॥१॥

कालं तं गमयामास भावप्राप्तिप्रर्त ।

सप्ताहे निर्गते दैन्यादसाविदमचि ॥२॥

श्रीमधुकण्ठजी बोले– (श्रीबरसाने से) श्रीवृन्दावन में जाकर ब्राह्मण ने श्रीवृन्दावन को प्रणाम करके नित्य (नियम से) श्रीमद्भागवत का पाठ करते हुए भावप्राप्ति उस काल को व्यतीत किया। एक सप्ताह निकल जाने पर वे अति दीनभाव से अपने मन में सोचने लगे।॥१-२।।

अहो वृन्दाटबीवासकल्पना कृपणस्य मे ।

वृथैव कथमुत्पन्ना ह्यसाध्या कल्पकोटिभिः॥३॥

अहो ! मुझ दीन-हीन के हृदय मे श्रीवृन्दावनवास को कल्पना वृथा ही क्यों उत्पन्न हो गयी, जिसका करोड़ कल्पों में भी पूर्ण होना असम्भव है ॥३॥

यदनन्तापराधस्य दुर्भगैकशिरोमणेः ।

नारकैरपि हेयस्य श्रीवृन्दावनकामना ॥४॥

“जिसके अपराधों की कोई सीमा नही, जो भाग्यहीनों का एकमात्र सिरमौर है, जिससे नरकवासी भी घृणा करें, ऐसे जीव के हृदय में श्रीवृन्दावन की कामना हो (यह बड़ा ही आश्चर्य है)! ॥४॥

वृन्दाटवी महापुण्या कुञ्जकेलिरसस्थली ।

ब्रह्मेन्द्रादिभिरप्राप्या तदर्थ लालसा मम ॥५॥

महापुण्यमयी श्रीवृन्दाटवी श्रीनिकुञ्जविहार के मधुर रस की रङ्गस्थली है। ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओं के लिये भी उसकी प्राप्ति असम्भव है; फिर मेरे मन में उनके लिये लालसा हो (यह कैसी दुराशा है ) ॥५॥

इति जातसुनिर्वेदोऽप्ययं वृन्दाटवीकृते ।

परिभ्रमन्निकुञ्जेषु याचमानो ह्यमाथवत् ॥६॥

भवतांस्तत्र कृतावासान् तृणगुल्मलतादिकान् ।

कृच्छ्रेण महता कालं यापयन् विलपन् द्विजः ॥७॥

दुरन्त शोकसंतप्तो म्रियमाण इवाभवत् ।।८।।

इस प्रकार अत्यन्त निर्वेदयुक्त हो वे ब्राह्मण अनाथ की तरह कुञ्जों में घूमने और श्रीवृन्दावनवासी भक्तों तथा तृण, गुल्म, लता आदि से श्रीवृन्दावनवास की याचना करने लगे। वे (करुण) विलाप करते हुए बड़े कष्ट से समय बिताने लगे तथा दुरन्त शोक से संतप्त हो मरणासन्न-से हो गये ॥६-७-८।।

अपश्यद् विषवत् सर्वं जगदेतच्चराचरम् ।

विक्षिप्त इव बभ्रमाशनपानविवर्जितः ॥९॥

यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उन्हें विष-तुल्य दिखायी देने लगा। वे अन्नजल छोड़कर पागल की तरह घूमने लगे ॥९॥

वृन्दाटवीनिकुञ्जेषु हतोऽस्मीति संलपन् ।

न लेभे भ्रमशं च्चित्तो नष्टवित्त इवातुरः ॥१०॥

वे भ्रान्तचित्त ब्राह्मण हाय ! मैं मारा गया !यों कहकर करुण क्रन्दन करते हुए वृन्दावन के कुञ्जों में घूमने लगे। उनके चित्त को (क्षणभर के लिये) भी कहीं शान्ति नहीं मिलती थी। जिसका सारा धरा धन नष्ट हो गया हो, उस पुरुष की भाँति वे आतुर हो रहे थे ।।१०।।

नानुज्ञातो हि वासो मे वृन्दाटव्यां तदीश्वरैः।

इति खिप्नोऽतिदीनात्मा मुहुर्मुहुरचिन्तयत् ॥११॥

श्रीवृन्दावन के स्वामी और स्वामिनी ने मुझे वृन्दावनवास की आज्ञा नहीं दी, इस चिन्ता से अत्यन्त दीन और दुखी होकर वे बार-बार विचार करने लगे-॥११॥

नैराश्यमेव परमं सुखमेतद्विजानतः ।

वृन्दाटव्यां तथाप्याशा अहो मेऽतिदुरत्यया ॥१२॥

अहो ! आशा का त्याग ही परम सुख है, यह भली-भांति जानते हुए भी श्रीवृन्दावनवास-विषयक मेरी आशा सर्वथा दुर्लङ्घय है ॥१२॥

श्रीप्रियाप्रेयसोरेषा राजधान्यतिवल्लभा ।

कुञ्जकेलिसुधापूर्णा विस्मर्तु नैव शक्यते ॥१३॥

श्रीकुञ्ज-केलि-सुधा से परिपूर्ण यह श्रीवृन्दाटवी प्रिया-प्रियतम की अत्यन्त प्यारी राजधानी है।इसे भुलाया नहीं जा सकता ।।१३।।

वादयन्मधुरं वेणुं सरामो बालकैर्वृतः।

व्रजेन्द्रनन्दनो यत्र सदा क्रीडति गोगणे ॥१४॥

जहाँ श्रीब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण भ्राता बलराम के साथ (श्रीदामा आदि) गोपबालकों से घिरकर मधुर वेणुनाद करते हुए धेनुवृन्द के बीच सदा ही क्रीड़ा करते है ।।१४।।

श्रीनिकेस्तत्पदकरैङ्कितातीवपावनी ।

सैषा वृन्दाटवी धन्या ब्रह्मेन्द्राद्यभिवन्दिता ॥१५॥

श्रीलक्ष्मी के निवासभूत उनके चरणारविन्दों से अङ्कित यह परम पावन वृन्दावन धन्य है-जिसे ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवता भी मस्तक झुकाते हैं ॥१५॥

रत्नधातुमयः श्रीमान् यत्र गोवर्धनो गिरिः ।

रत्नबद्धोभयतटा कालिन्दी सरितां वरा ॥१६॥

जहाँ रत्नधातुमय परम सुन्दर गोवर्धन पर्वत है तथा जिसके दोनों तटों की भूमि रत्नों से आबद्ध हैं, ऐसी सरित्-शिरोमणि श्रीकालिन्दी जिसमें प्रवाहित हो रही है ।।१६।।

चिन्तामणिमयी भूमिः पादपाः कल्पपादपाः ।

बल्ल्योऽत्र कल्पवल्ल्यो हि धेनवः कामधेनवः ॥१७॥

जिसकी भूमि चिन्तामणि की बनी हुई है, जहाँ के सभी वृक्ष कल्पवृक्ष है, समस्त लताएं कल्पलताएँ है, तथा सभी धेनुगण कामधेनु है ।१७।।

साहो प्राणपणै: क्रेया पुण्याद्रितृणवीरुधा ।

वृन्दाटवी न विस्मर्तुं शक्या जन्मशतैरपि ॥१८॥

जिसके गिरि (-कानन), तृण (-गुल्म), लता आदि सभी वस्तुएँ परम पावन है ऐसी श्रीवृन्दाटवी को तो प्राणों की  कीमत देकर भी खरीदना चाहिये। सौ जन्मों में भी श्रीवृन्दावन को भुलाया नहीं जा सकता ।।१८।।

धिक् पानमशनं धिक् धिक् शयनं जीवनं च धिक् ।

मरणं शरणं चैकं श्रीवृन्दाविपिनं विना ॥१९॥

श्रीवृन्दावन को प्राप्त किये विना खाने, पीने, सोने और जीने को भी धिक्कार है। ऐसी दशा में मेरे लिये एकमात्र मरण ही शरण (श्रेयस्कर) है ।।१९।।

अन्धत्वमाप्नुतां नेत्रे श्रोत्रे बधिरतां तथा।

रसना जडतां यातु श्रीवृन्दाविपिनं विना ॥२०॥

श्रीवृन्दावन के रूप, शब्द और रस को न पाकर नेत्र अंधे, कान बहरे और जिह्वा जड़ हो जाय (तभी भला है) ॥२०॥

हे वृन्दावन हे निकुञ्जपरिधे हे रासलीलाङ्गण

हे श्रीधाम धराभिभूषण सतां सर्वस्व प्राणप्रिय ।

हे वृन्दारकवृन्दवन्दित यशोदानन्दनानन्दद

हे माधुर्यमहोदधे गुणनिधे मां दीनमानन्दय ॥२१॥

हे श्रीनिकुञ्जमण्डल ! हे श्रीरासलीला के रङ्गस्थल ! हे शोभा के धाम ! हे धरा के श्रेष्ठभूषण ! हे सत्पुरुषों के सर्वस्व ! हे प्राणप्रिय ! हे देववृन्दवन्दित ! हे यशोदानन्दन के आनन्ददायक! हे माधुर्य के महासागर ! हे गुणों की  खान हे दीनानन्द!  मुझ दीन को भी आनन्द प्रदान करो ॥२१॥

हे हे श्रीवनराज याति विफलस्त्वद्द्धारतो भिक्षुकः

हे सर्वस्वनिधे न ते भयमतो नो दानमानादिकम् ।

याचेत त्वयि दर्शनं गतवति स्यादस्य तृप्तिः परा

निश्शुल्कं निजजीवनावधि भवेद्दासानुदासस्तव ॥२२॥

हे श्रीवनराज! तुम्हारे द्वार से यह भिक्षुक निष्फल–निराश होकर जा रहा है। हे सर्वस्वनिधे ! (तुम सब प्रकार से भरे-पूरे हो, शीघ्र दर्शन दो।) इस भिक्षुक से तुम्हें कोई भय नहीं है। तुम्हारे दिव्य रूप का दर्शन हो जाने मात्र से ही इसे परम तृप्ति हो जायगी। यह तुमसे दान-मान आदि की याचना नहीं करेगा, अपितु जीवन भर के लिये तुम्हारा निःशुल्क दासानुदास हो जायेगा। (इसलिये कृपा करके तुम अपने द्वार पर इसे पड़ा रहने दो ॥२२॥

स एवं विलपन्गायन्निमग्नः शोकसागरे ।

विसंज्ञो ह्यभवद्विप्र: सहसा ज्वरपीडितः ॥२३॥

इस प्रकार वे ब्राह्मण विलाप करते और गीत गाते हुए शोकसागर में निमग्न हो गये। वे अकस्मात् ज्वर से पीड़ित हो शरीर की सुध-बुध भूलकर मूर्च्छित हो गये ।।२३।।

कथंचिल्लब्धसंज्ञोऽयमुन्मत्तवदितस्ततः।

श्रीवृन्दावनगीतानि गायन् कालमयापयत् ॥२४॥

जब किसी प्रकार कुछ होश में आये, तो पागल की तरह इधर-उधर घूमने लगे और श्रीवृन्दावन के गीत गाते हुए कालयापन करने लगे। (वे गीत इस प्रकार है-)॥२४॥

आशासतां स्वर्गसुखानि केचित्

आशासतां मुक्तिपदानि केचित् ।

आशास्महे  संचितसर्वपुण्यै:

वयं तु वृन्दावनभूमिधूलिम् ॥२५॥

कोई स्वर्ग के सुखों की आशा करें, चाहे कोई मुक्तिपदों की अभिलाषा करें, हम तो अपने सम्पूर्ण संचित पूर्व पुण्यों के बदले में श्रीवृन्दावन-भूमि की धूल ही पाना चाहते हैं ॥२५॥

कीर्त्तिस्ते कर्णयोर्मे विलसतु विमला वाचि दिव्या गुणास्ते

घ्राणे चास्तां सुगंधो रुचिरकुसुमजो रेणुरागोऽखिलाङ्गे ।

शोभा सा दृष्टिगम्या प्रविशतु नयनद्वारतो मानसे मे

पश्चादेतद्विभूत्या सह विपिनपते रक्षणीयोऽहमङ्के ॥२६॥

हे श्रीवनराज ! तुम्हारी विमल कीर्ति (सदा) मेरे कानों में क्रीडा करती रहे, मेरी वाणी में तुम्हारे दिव्यगुणों का वास हो। नासिका-रंध्रों में तुम्हारे सुन्दर पूष्पों की मनोहर गन्ध निवास करे। तुम्हारी रेणु मेरे सम्पूर्ण अङ्गों में अङ्गराग का काम करे और तुम्हारी प्रत्यक्ष दीखनेवाली (असधारण) शोभा नेत्रद्वार से मेरे मानस में प्रवेश करे। तत्पश्चात् तुम अपनी इन सब दिव्य विभूतियो से युक्त हुए मुझ शरणागत को अपनी ही गोद में रखे रहो-यही प्रार्थना है ।।२६।।

सदा गुणान् जाग्रति संस्मरामि

स्वप्नेऽप्यहं त्वामवलोकयामि ।

तथा सुषुप्तौ तव भावमग्नो

न किंचिदन्यत् परिलोचयामि ॥२७॥

हे वनराज ! मैं जाग्रत्-अवस्था में सदा तुम्हारे गुणों का ही स्मरण करूँ, स्वप्नावस्था में भी तुम्हारा ही दर्शन करूँ तथा सुषुप्ति-अवस्था में भी तुम्हारे ही भाव में निमग्न रहूँ-दूसरे किसी का भी चिन्तन न करूं, यही मेरी कामना है ॥२७॥

स्नातं च तेनाखिलतीर्थतोये

दत्ता च सर्वा धरणी द्विजेभ्यः।

प्रीत्या च सर्वानयजिष्ट यज्ञान

वृन्दावने यः क्षणमप्यवात्सीत् ॥२८॥

जिसने एक क्षण भी श्रीवृन्दावन में निवास कर लिया, उसने सभी तीर्थो के जल में अवगाहन का पुण्य पा लिया, ब्राह्मणों को समग्र भूमि का दान दे दिया और (विधिपूर्वक) श्रद्धा-प्रीति से सम्पूर्ण यज्ञ भी कर लिये ।२८।।

अतीव गुणगर्वितो विधिविधानसम्मार्जकः

अहो विपिनराज ते सरसरङ्गभूमे रसः।

इलावृतधरागतानकृत योषितो यो बलात्

स्वयं स इह शंकरः सपदि येन गोपीकृतः॥२९॥

हे श्रीवनराज! तुम्हारी सरस रङ्गभूमि का (आश्चर्यजनक) रस अपने गुणों पर अत्यन्त गर्व करनेवाला है तथा विधाता के विधान को भी मिटा देनेवाला है, क्योंकि जो इलावृत वर्ष में (भूल से भी)चले जानेवाले पुरुषों को बलात् स्त्री बना लेते हैं-उन्हीं भगवान् शंकर को इसने यहाँ तत्काल गोपी बना लिया ॥२९॥

क्वचिद्विहगकूजितं ललितबर्हिनृत्यं क्वचित्

क्वचित्कुसुमसौरभं शिशिरमन्दवातः क्वचित् ।

क्वचितरुमधुस्नुतिः सरसवाः सरांसि क्वचित्

सदाऽऽत्मसुखवर्धनं जयतु धाम वृन्दावनम् ॥३०॥

इन्द्रिय, मन और आत्मा के आनन्द को बढ़ानेवाली श्रीवृन्दावनधाम की सदा ही जय हो-जिसमें कहीं (तीतर, कबूतर, मैना, मोर, चकोर आदि) पक्षी अपने कलरवों द्वारा शोर मचा रहे हैं, कहीं सुन्दर मोंरों का नृत्य हो रहा है, कहीं (सुन्दर) पुरुषों की (दिव्य), गन्ध आ रही है, कहीं शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु चल रही है, कहीं वृक्षों से मधु टपक रहा है और कही सरस जल से भरे हुए सरोवर शोभा पा रहे हैं ॥३०॥

पशुर्भवेयं यदि काननेऽस्मिन्

तथाश्मखण्डश्च सदा गिरीन्द्रे ।

विहंगमो वा मुरलीवटे स्यां

तृणं च वृन्दावनकुञ्जवीभ्याम् ॥३१॥

यदि मुझे कर्मवश पशु होना पड़े तो इसी श्रीवृन्दावन में (कूकर, सूकर, गधा आदि) पशु होकर विचरूं। यदि पाषाणखण्ड बनूं तो सदा श्रीगिरिराज गोवर्द्धन का ही अङ्ग होकर रहूँ। यदि (शुक, कोकिल आदि) पक्षी बनूं तो श्रीवंशीवट पर ही निवान करूं तथा यदि तृण–घांस बनूं तो श्रीवृन्दावन की कुञ्जगलियों मे ही रहूँ ।।३१।।

यथाकिंचनाः काञ्चनं कामयन्ते

यथा कामिनः कामिनीं प्रार्थयन्ते ।

तथा चेतसा चिन्मयं धाम नित्यम्

भवेन्मे सदा श्रीवनं चिन्तनीयम् ॥३२॥

जैसे अकिंचन (दीन )जन काञ्चन को पाना चाहते हैं और जैसे कामी कामिनी की इच्छा करते हैं, वैसे ही मेरा चित्त भी चिन्मय नित्यधाम श्रीवृन्दावन की ही (चाह और) चिन्ता करता रहे ॥३२॥

योऽभूद् व्रजस्योज्ज्वलकामकेल्या

रासोत्सवस्ते रसरङ्गभूमौ ।

नाविन्दतां तं रसमन्तरा त्वां

राधामुकुन्दौ कुरुतीर्थभूमौ ॥३३॥

हे श्रीवनराज! तुम्हारी रसरङ्गमयी भूमि में जो ब्रज की उज्ज्वल कामकेलिका रास-रसोत्सव हुआ था, उस रस को श्रीराधा और मुकुन्द तुम्हारे बिना कुरुक्षेत्र में परस्पर मिलकर भी नहीं पा सके। (इस रस के तो एकमात्र तुम्ही अधिष्ठान हो) ॥३३॥

जगाद राधा प्रियसंगमेऽपि

न मे सुखं भोः सखि किंचिदत्र ।

मनस्यहो वेणुरवान्विताय

कलिन्दजाकूलवनाय वाञ्छा ॥३४॥

(कुरुक्षेत्र में) श्रीराधा ने अपनी एक सखी से कहा था कि हे सखी! इस कुरुक्षेत्र में प्रियतम का सङ्ग होने पर भी मुझे किंचिन्मात्र भी सुख नहीं मिला। मेरे मन में तो उस वेणुनाद-निनादित श्रीकालिन्दी-कूलवर्ती वृन्दावन की वाञ्छा जाग उठी है।॥३४॥

अर्धोन्मीलितलोचनस्य पिबतो राधेति नामामृतम्

प्रेमाश्रूणि विमुञ्चतः पुलकितां सर्वा तनुं बिभ्रतः।

कुत्रापि स्खलतः क्वचिच्च पततो वृन्दाटवीवीथिषु

स्वच्छन्दं व्रजतः कदातिसुखदा यास्यन्ति मे वासराः ॥३५॥

अधखुली आँखों से देखता, ‘श्रीराधे! श्रीराधे !!इस नाम-सुधा का पान करता, नेत्रों से प्रेम के आँसू बहाता, सारे अङ्गों से पुलकित होता, कहीं लड़खड़ाता, कहीं गिरता और पड़ता हुआ मैं (देह की सुध-बुध खोकर) श्रीवृन्दावन की गलियों में स्वच्छन्द विचरूँ और इसी अवस्था में मेरे परम सुखदायक दिन व्यतीत हों-ऐसा शुभ समय कब आयेगा ? ॥३५॥

विविधकल्पलतातरुसंकुल

स्त्वमसि साधनसाध्यमहावधिः ।

इति विचार्य समागतवानहं

वनप मामतिथिं किमुपेक्षसे ॥३६॥

हे श्रीवनराज! तुम साधन और साध्य की चरम सीमा हो, यही समझकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। फिर तुम इस दीन अतिथि की उपेक्षा क्यों कर रहे हो? तुम तो विविध कल्पवृक्ष और कल्पलताओं से परिपूर्ण हो। (तुम्हारे एक ही पुष्प अथवा पत्र से मेरा सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो सकता है) ॥३६।।

हे गोपाल प्रतिग्रहो बलिमखे भूम्या गृहीतस्त्वया

तेनाद्यावधि वामनोऽपिच द्विजस्त्वं द्वारपालः कृतः।

तद्दोषप्रशमाय सूर्यतनयातीरे द्विजायाधुना

श्रीवृन्दाविपिनाल्पभूमिशकलं याचिष्णवे देहि मे ॥३७॥

हे गोपाल ! तुमने (माया से ब्राह्मण ब्रह्मचारी बनकर) जो राजा बलि के यज्ञ में भूमि का दान ले लिया, उसी प्रतिग्रह के दोष ने तुम्हें आज तक बौना ब्राह्मण और (दैत्य का) द्वारपाल बना रखा है। उस प्रतिग्रह-जनित दोष की शान्ति के लिये (मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ,) तुम इस समय श्रीयमुना-तट पर चलकर इस याचक ब्राह्मण को श्रीवृन्दावन की थोड़ी-सी भूमि का एक टुकड़ा दान कर दो ।।३७।।

यदि समुज्ज्वलचन्द्रसितामलां

ललन कृष्ण वधूं त्वमभीप्ससे ।

तदिह मामुपवेशय जापकं

सुखदवेणुवटे यमुनातटे ॥३८॥

लाला कन्हैया ! यदि तुम उज्ज्वल चाँद-जैसी निर्मल और गोरी बहू पाना चाहते हो तो इस श्रीवृन्दावन में श्रीयमुना-तट पर सुखद वंशीवट के नीचे जप करने के लिये मेरा वरण करके मुझे बैठा दो ॥३८॥

कदा वृन्दारण्ये रसिकजनगोष्ठयां रसनिधे

र्मुरारेरास्वादन्मधुरगुणगीति कृतमतिः।

महोल्लासोन्मत्तो ब्रजजनपदाम्भोजरजसा

मशेषाङ्गै: स्पर्शात्सुखमनुभविष्यामि किमपि ॥३९॥

श्रीवृन्दावन में रसिकजनों को गोष्ठी में बैठकर रसनिधि श्रीमुरारि के मधुर गुणगान का आस्वादान करके शुद्धबुद्धि हो परमानन्द से उन्मत्त होकर श्रीव्रजवासियों के चरण-कमलों की रज का अपने सम्पूर्ण अङ्गों से स्पर्श करके मैं कब किसी अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करूँगा ॥३९॥

कदा मामात्मसात्कृत्वा धृत्वा मूर्ध्नि कृपाकरम् ।

कदा वृन्दावने वासं मह्यं राधे प्रदास्यसि ॥४०॥

हे श्रीराधे! तुम कब मुझे अपनी परिचारिका बनाकर तथा मेरे सिर पर अपना कृपापूर्ण कर-कमल रखकर मुझे अपने श्रीवृन्दावनधाम का वास प्रदान करोगी? ॥४०॥

दत्वा वृन्दावने वासं स्वस्वरूपं मनोहरम् ।

दर्शयित्वा कदा राधे रहस्सेवा प्रदास्यसि ॥४१॥

हे श्रीराधे! श्रीवृन्दावन में वास देकर तथा अपने मनोहर स्वरूप का दर्शन कराके मुझे कब एकान्त में अपनी सेवा करने का सौभाग्य प्रदान करोगी? ॥४१।।

न विद्या नो वित्तं सुकृतमलुरूपं किमपि नो

न वैराग्यं ध्यानं न परपुरुषाराधनविधिः ।

विधात्रा दौर्भाग्यं लिखितमथ मे मौलिपटले

कथं चाशा वृन्दाविपिनसुखवासाय लसति ॥४२॥

मेरे पास न विद्या है न धन है, न कोई अनुकूल पुण्यकर्म है न वैराग्य है। न ध्यान है और न परम पुरुष परमात्मा के आराधन का कोई ढंग ही आता है। विधाता ने मेरे ललाट पर दुर्भाग्य का ही लेख लिखा है। तो भी मेरे मन में श्रीवृन्दावनवास के लिये आशा की तरङ्गे कैसे लहराती रहती हैं ? (इसे श्रीराधारानी की अकारण कृपा के सिवा और क्या कहा जाय । ) ॥४२॥

वृन्दावनं विमलमुज्ज्वलकेलिकुञ्ज

कूजत्कपोतशुककेकिपिकालिवृन्दम् ।

श्रीधाम धन्यमधिभूषणमार्यभूमे

र्धन्याः स्तुवन्ति प्रणमन्ति वसन्ति येऽपि ॥४३॥

उज्ज्वल केलिकुञ्जों से सुशोभित तथा कलरव करते हुए शुक, पिक, कपोत, मयूर, भ्रमर आदि विहङ्गम-वृन्द से विलसित यह श्रीजी का धाम, विमल वृन्दावन धन्य है। यह इस आर्यभूमि का उत्कृष्ट आभूषण है। जो इस बृन्दावन को प्रणाम करते हैं, जो इसके गुण गाते है तथा जो इसमें वास करते हैं, वे सभी प्राणी परम धन्य है ॥४३॥

पूज्यं तच्चरणं व्रजेन्द्रविपिनं वृन्दावनं याति यद्

धन्या सा रसना रसालयमहो वृन्दावनं स्तौति या ।

पुण्यं तद्धृदयं सुहृद्यमटवीराजं सदा ध्यायते

मान्यो ब्रह्मवादिभिश्च निवसत्यस्मिन्वने यो नरः ॥४४॥

वे चरण परम पूज्य हैं, जो श्रीव्रजेन्द्रनन्दन के क्रीड़ा-कानन श्रीवृन्दावन की यात्रा करते है। वह रसना धन्य है, जो इस रस-मन्दिर वृन्दावन की स्तुति करती है। वह हृदय परम पवित्र है, जो इस परम मनोरम विपिन का सदा चिन्तन करता है। तथा जो मनुष्य श्रीवृन्दावन मे निवास करता है, वह तो ब्रह्मा और शिव आदि के लिये भी सम्माननीय है ।।४४।।

सा वै सुमाता च पिता स एव

स एव बन्धुश्च सखा स एव

स एव देवो मम वन्दनीयो

वृन्दावने न्वादिशते निवेष्टुम् ॥४५॥

जो श्रीवृन्दावन में वास करने के लिये आदेश दे, वही मेरी सुमाता है, तथा वही मेरा पिता, वही बन्धु, वही सखा और वही मेरा वन्दनीय देवता है॥४५॥

पादौ दधामि शिरसा मनसा सदैव

तस्योपकारकणकोटिगुणं स्मरामि

यो मे दयालुरधमाधमप्राणिनोऽपि

वृन्दाटवीवसतिसंस्तुतिमातनोति ॥४६॥

जो कोई दयालु पुरुष मुझ अधमाधम प्राणी के सामने श्रीवृन्दावनवास की प्रशंसा करता है, उसके श्रीचरणों को मैं अपने सिर पर धारण करता हूँ और उसके कणमात्र उपकार को भी मैं करोड़ गुना अपने मन में मानता हूँ-मानकर याद रखता हूँ॥४६॥

हे वृन्दावनदेव ते सुविदितं दुर्दैवमेतादृशः

यन्म नो वचसा न चापि मनसा कायेन वा क्लिश्यता ।

सेवा कापि कदापि कस्यचिदहोस्वप्नेऽपि नानुष्ठिता

तत्त्वामेव निराश्रयोऽहमधुना संसेवितुं प्रार्थये ॥४७॥

हे श्रीवृन्दावनदेव ! तुम्हें तो यह भली-भाँति विदित ही है कि मेरा दुर्भाग्य ऐसा है, जिसके कारण मैने (जीवनभर) कभी स्वप्न में भी न मन से, न वचन से और न क्लेश भोगनेवाले इस शरीर से ही किसी की कोई सेवा की है। अतएव नराश्रय होकर अब आपसे ही प्रार्थना करता हूँ कि आप ही कृपा करके मुझे अपनी सेवा का सौभाग्य प्रदान करें ॥४७॥

हे राधिके तव विहारनिकुञ्जपुजं

दृष्ट्वाति लुभ्यति मनो मम वासहेतोः।

तत्तेऽनिमित्तकृपयैव कदापि लभ्यो

वासो भवेदहह किं शतजन्मभिर्मे ॥४८॥

हे श्रीराधे! तुम्हारे विहार स्थल निकुञ्ज-पुञ्ज को देखकर इसमें निवास करने के लिये मेरे चित्त में अत्यन्त लोभ पैदा हो गया है। तुम्हारी अहेतुकी कृपा से ही कभी श्रीवृन्दावन-वास सुलभ हो सकता है। अहा ! हा! दयामयी ! क्या सौ जन्मों में भी कभी मुझे श्रीवृन्दावन में रह नेका सौभाग्य प्राप्त होगा ? ॥४८॥

राधां व्यायन् राधिका वन्दमानः

राधां पश्यन् राधिकामेव शृण्वन् ।

राधां गायन् सेवमानश्च राधां

राधारण्ये कालमेतं न येयम् ॥४९॥

मेरी एकमात्र यही इच्छा है कि मैं (सदा) श्रीराधा का ही ध्यान, श्रीराधा की ही वन्दना, श्रीराधा का ही दर्शन, श्रीराधा की ही कीर्ति-कथा का श्रवण, श्रीराधा (नाम एवं गुणों) का ही गान तथा श्रीराधा की ही सेवा करता हुआ श्रीराधा के क्रीडा-कानन श्रीवृन्दावन में ही अपना यह (जीवन-) काल व्यतीत करूँ॥४९।।

राधाकीर्तिं कीर्तयन् पादरेणुं

श्रीराधायाः संस्पृशन् सर्वगात्रैः ।

राधारण्ये पर्यटन् व्याहरण श्री

राधे राधे कालमेतं नयेयम् ॥५०॥

श्रीराधा की कीर्ति-कथा का कीर्तन, अपने सम्पूर्ण अङ्गों द्वारा श्रीराधा की चरण-रेणु का स्पर्श, श्रीराधा के विहार-विपिन श्रीवृन्दावन में पर्यटन तथा श्रीराधे ! राधे!उच्चारण करता हुआ इस (जीवन-) काल को व्यतीत करूँ (यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी साध है) ॥५०॥

वृन्दारण्यमवाप्य सन्तु शतशः खण्डाः शरीरस्य मे

यद्वा जर्जर तान्नपानरहितस्यानुक्षणं वर्धताम् ।

जायापत्यधनादिभोगविभवो भस्मीभवेदाशु मे

भाग्यं तत्परमं कृपां च परमां मन्ये मयि श्यामयोः ॥५१॥

श्रीवृन्दावन को पाने के बाद यदि मेरे शरीर के सौ टुकड़े हो जायें अथवा अन्नजल के न मिलने से इस शरीर की जर्जरता प्रतिक्षण बढती चली जाय, या वहाँ स्त्रीपुत्र-धन आदि मेरे लौकिक भोग-वैभव शीघ्र भस्म हो जायें, तो भी मैं उसे अपना परम सौभाग्य समझूंगा और अपने ऊपर श्रीश्यामा-श्याम को परम कृपा मानूंगा ।।५१।।

सर्वं चिन्मयमेव यत्र भगवद्रूपं रमाक्रीडनं

निर्दोषं निरुपाधि नित्यममरैर्ब्रह्मादिभिर्वन्दितम् ।

राधामाधवकेलिकुञ्जनिलयैर्माधुर्यधारावहै

र्व्याप्तं तद्विपिनेश्वरं विजयते श्रीधाम वृन्दावनम् ॥५२॥

जिसमें सभी वस्तुएँ चिन्मय और भगवद्रूप हैं, जो श्रीराधा का नित्य, निरवद्य, उपाधि-रहित एवं ब्रह्मा आदि देवों द्वारा वन्दित विहारस्थल है, जिसमे माधुर्य की धाराओं को प्रवाहित करनेवाले प्रिया-प्रियतम के अनन्त केलि-कुञ्ज निकेतन हैं, ऐसे श्रीधाम वृन्दावन की सदा जय हो ॥५२।।

वृन्दावनं विपुलपुष्पपवित्रगन्धैः

श्रीमाधवस्य मनसोऽपि मुदं तनोति ।

तस्मिञ् श्रियः पदसरोजशुभाङ्करम्ये

हा हा कदाहनमुना वयुषा लुठामि ॥५३॥

जो सुन्दर बहुसंख्यक पुष्पों और उनकी पवित्र सुगन्धों से (परमानन्दरूप श्रीमाधव के भी मानसिक आनन्द को बढ़ा रहा है, श्रीराधा के कमल-कोमल श्रीचरणों के सुन्दर चिह्न जिसे परम रमणीय बनाये हुए हैं, ऐसे श्रीवृन्दावन मे हाय! हाय ! मैं इसी शरीर से कब लोटूंगा? ॥५३।।

वृन्दावनं तद्गतवस्तुजातं

सर्वं नमस्यं न कदापि निन्द्यम् ।

ये वा विनिन्दन्त्यपराधिभिस्तैः

स्वप्नेऽपि सङ्गो मम नैव भूयात् ॥५४॥

श्रीवृन्दावन और उसकी सभी वस्तुएँ नमस्कार करने योग्य है। उनकी निन्दा कभी नहीं करनी चाहिये। जो निन्दा करते हैं, उन अपराधियों का सङ्ग मुझे स्वप्न में भी प्राप्त न हो ॥५४॥

चौराश्च जाराः कुटिलाः कुभाषिणः

सदा दुराचाररताः कुमार्गा: ।

सर्वेऽपि वृन्दावनधामवासिनः

सदैव मे पूज्यतमा भवन्तु ॥५५॥

श्रीवृन्दावन-धाम में निवास करनेवाले सभी लोग-चाहे वे चोर, जार, कुटिल, कुवाच्य बोलनेवाले, सदा दुराचारपरायण तथा कुमार्गगामी ही क्यों न हो मेरी दृष्टि मे पूज्यतम बने रहे ॥५५॥

वृन्दावनं महालाभो भूषणं जीवन गतिः ।

वृन्दावनं धनं धर्मो भजनं यजनं रतिः ॥५६॥

मेरे लिये तो श्रीवृन्दावन ही महान् लाभ, परम भूषण, दिव्य जीवन और शुभगति है। श्रीवृन्दावन ही मेरा धन, धर्म, भजन, पूजन और रति-सब कुछ है ।।५६।।

माता बृन्दावनं माता पिता वृन्दावनं तथा

वृन्दावनं कुटुम्बश्च गृहं गृह्यं च सर्वशः ॥५७॥

मेरी माता श्रीवृन्दावन है, पिता और भ्राता भी श्रीवृन्दावन ही है तथा श्रीवृन्दावन ही मेरा परिवार, घर एवं घर की सब सामग्री है ।।५७।।

वृन्दावनं हि सर्वस्वं सर्वदैव सुखावहम् ।

गोपगोपी गवां सेव्यं सेव्यं भवतु मे सदा ॥५८॥

सदा ही सुख देनेवाला श्रीवृन्दावन ही मेरा सर्वस्व है। गोप, गोपी और गौओं का सेव्य यह श्रीवृन्दावन ही मेरा भी नित्य सेव्य हो (यही आकांक्षा है) ॥५८॥

कदा वृन्दावने राधाकृष्णनामानि कीर्तयन् ।

तदन्तरङ्गलीलानामनुभूयाथ माधुरीम् ॥५९॥

देहगेहादि विस्मृत्य महारसविमोहितः।

रसरूपं जगत्सर्व द्रक्ष्ये वृन्दावनात्मकम् ॥६०॥

मैं कब श्रीवृन्दावन में श्रीराधा-कृष्ण के (सुमधुर) नामों का कीर्तन करता हुआ उनकी अन्तरङ्ग लीलाओं की रस-माधुरी का अनुभव करके महारस से विमोहित हो देह-गेह आदि को भूलकर सम्पूर्ण जगत्को रसमय एवं श्रीवृन्दावन स्वरूप देखूगा? ॥५९-६०॥

रे चित्त मा त्यज वनं वृषभानुजायाः

नान्यत्र गच्छ मम याचितमेतदेव ।

वृन्दावने त्वमिह आश्वपचान् सदैव

याचस्व भक्षय तदीयसुभुक्तमुक्तम् ॥६१॥

हे चित्त ! तुझसे मेरी एकमात्र यही प्रार्थना है कि तू श्रीवृषभानुनन्दिनी के श्रीवन को कभी न छोड़ना। यदि तुझे ब्राह्मण से लेकर आश्वपचपर्यन्त के घर सदैव भिक्षा मांगनी पड़े तो मांग लेना और उनके उच्छिष्ट को भी खा लेना; परन्तु श्रीवृन्दावन से बाहर अन्य स्थान मे कदापि न जाना ॥६१॥

न विषय भोगो भाग्यं कीर्त्तिर्वा विस्तृता लोके ।

ब्रह्मेन्द्राद्यभिलषितं भाग्यं वृन्दावने वासः ॥६२।

विषय-भोगों का बहुलता से सुलभ होना भाग्य नहीं है; संसार में कीर्ति का विस्तार हो जाय-यह भी भाग्य नहीं है। भाग्य है श्रीवृन्दावन का निवास, जिसकी ब्रह्मा-इन्द्र आदि भी अभिलाषा करते हैं ।।६२।।

निरञ्जनं निर्गुणमद्वितीयं

वदन्ति तत्त्वं विवृधास्तथास्तु ।

मया तु वृन्दावनमेव तत्त्वं

सुनिश्चितं श्रीपदभूषिताङ्गम् ॥६३॥

विद्वान् लोग परम तत्त्व को निरञ्जन, निर्गुण और अद्वितीय बताया करते है। उनके लिये वह तत्त्व वैसा ही हो। परंतु मैंने तो अपने लिये श्रीवृन्दावन को ही परम तत्त्व निश्चित किया है; क्योंकि उसका श्रीअङ्ग श्रीजी के श्रीचरणचिह्नों से भूषित है ॥६३।।

अतिकान्तः कालो विषयविषसङ्गाकुलधियः

क्षणार्धं क्षेमार्थं न परपुरुषार्थोऽभिलषितः ।

इदानीं श्रीवृन्दाविपिनसुखवासाय महतां

कृपालेशं शेषं शरणमनुमन्ये हतविधिः ॥६४।

विषयरूपी विष के सेवन से व्याकुल बुद्धिवाले मुझ भाग्यहीन का सारा जीवनकाल व्यर्थ चला गया। मैंने अपने कल्याण के लिये आधे क्षण भी कभी परम पुरुषार्थ के साधनभूत भगवदाराधन की इच्छा तक न की। सब प्रकार से मै हतभाग्य हूँ। अब तो श्रीवृन्दावन-वास की प्राप्ति के लिये महात्माओं का कृपालेश ही शेष (अन्तिम) उपाय है, वही मुझे शरण देनेवाला है-यही बात मेरी समझ मे आती है ॥६४॥

वृन्दारण्यलतागृहेषु वसतां गोविन्दलीलासुधा

मापीयाश्रु विमुञ्चतां सुमधुरं राधेति संगायताम् ।

अर्धोन्मीलितलोचनैर्विचरतां वृन्दाटवीवीथिसु

कुत्रापि स्खलतां क्वचिच्च पततां यज्जीवनं जीवनम् ॥६५॥

जो श्रीवृन्दावन के लतागृहों में निवास करते हैं, श्रीगोविन्द की लीलासुधा को पान करके अविरल अश्रु बहाते रहते हैं, (निरन्तर) प्रेम से सुमधुर श्रीराधा-नाम का गान करते हैं, अधखुले नेत्रों से श्रीवृन्दावन की गलियों में विचरते है तथा (जिनको अपने शरीर का किचिन्मात्र भी सुध नहीं है, अतएव) जो कभी लड़खड़ाते हैं, कभी गिर भी जाते हैं–ऐसे (प्रेमोन्मत्त) महात्माओं का जो जीवन है, वही वास्तव में धन्य जीवन है ! ॥६५॥

प्रियाप्रियतमी चन्द्रचकोरौ द्वौ परस्परम् ।

क्रीडतः श्रीवने नित्यं मिलितो मिलनेच्छुकौ ॥६६॥

इस श्रीवृन्दावन में प्रिया और प्रियतम दोनो ही एक-दूसरे के लिये चन्द्रमा और चकोर बनकर नित्य क्रीड़ा करते है और (प्रेम में ऐसे विभोर रहते है कि) परस्पर मिले हुए होने पर भी मिलन की इच्छा करते हैं-मिलने के लिये उत्कण्ठित रहते है।॥६६॥

प्रियाया जीवनं प्रेयान् प्रेयसो जीवनं प्रिया ।

निर्मञ्छन्तौ स्वमन्योन्यं श्रीवनेऽस्मिन्प्रसीदतः ॥६७॥

प्रियाजी के जीवन प्रियतम हैं और प्रियतम की जीवनरूपा श्रीप्रियाजी है। दोनों ही एक-दूसरे पर अपने को न्योछावर करते हुए इस श्रीवन में (प्रेमनन्द का उपभोग करके) प्रसन्न होते हैं ।।६७।।

यत्र त्रिभङ्गललितो मदनानन्दमोहितः।

मोदते राधया कृष्णो गुणरूपैरगाधया ॥६८॥

परस्परं समालिङ्गय् पिबतः स्वधरामृतम् ।

श्रीराधामाधवौ यत्र, वृन्दारण्यं नमामि तम् ॥६९॥

जिस वन में मदनानन्द से मोहित एवं त्रिभङ्ग-ललित श्रीकृष्ण जिनके सागरोपम गुण तथा रूप-सौन्दर्य की कहीं थाह नहीं है, उन अगाधा श्रीराधा के साथ (सदा प्रीति-रस का पान करके) प्रसन्न होते हैं, जहाँ श्रीराधा-माधव एक-दूसरे का गाढ़ आलिङ्गन करके सुमधुर अधरामृत का नित्य पान किया करते हैं,उस श्रीवृन्दावन को मै प्रणाम करता हूँ॥६८-६९॥

श्यामाम्भोदघटाम्बरे रविसुताकल्पद्रुमालंकृते

प्रेमप्रोन्मदकेकिकोकिलकलध्वनि तडिद्गर्जिते ।

औत्सुक्यादभितः कदापि ललिताद्यालीभिरान्दोलितं

दोलास्थं रतिकेलिलम्पटयुगं द्रक्ष्यामि वृन्दावने ॥७०॥

जहाँ काली-काली घनघटाओं से गगन-मण्डल आवृत हो रहा है, जो श्रीसूर्यसुता यमुनाजी तथा कल्पवृक्षों से अलंकृत है जहाँ प्रेमोन्मत्त मयूर एवं कोकिल कलरव कर रहे हैं, जहां बिजली की विचित्र चमक और सुन्दर मन्द गर्जना हो रही है, ऐसे श्रीवृन्दावन में झुले पर झूलती हुई, रति-केलि-लम्पट श्रीराधा-माधव की मोहिनी जोड़ी का, जिसे बड़े चाव से चारों ओर खड़ी हुई श्रीललिता आदि सखियाँ झुला रही है, मैं कब उत्सुकतापूर्वक दर्शन करूंगा? ।।७०।।

यत्र प्रेमभरेण स्वाधरपुटे वंशीं निधाय प्रिया

नामान्येव रमे किशोरि रसिके प्राणप्रिय राधिके ।

गायन्तानतरङ्गरङ्गभरतो मुह्यन्मुरारिः स्वयम्

प्रेयस्या हृदि रक्ष्यते रसभरे तन्नौमि वृन्दावनम् ॥७१॥

जहाँ (प्रेमाविष्ट) मुरारि अपने अधर पर मुरली रखकर बड़े प्रेम के साथ प्यारी राधा के हे रमे! हे किशोरि ! हे रसिके ! हे प्राणप्रिये ! हे राधिके । इत्यादि नामों का तान-तरङ्ग के रङ्ग में विभोर होकर गान करते-करते जब स्वयं मूर्च्छित हो जाते है, तब श्रीप्यारीजी उन्हें अपने रस भरे हृदय पर रख लेती (और उनका गाढ़ आलिङ्गन करती) हैं, ऐसे श्रीवृन्दावन की मै स्तुति करता हूँ॥७१।।

हे हे भूमिचराश्चराचरगणा वृक्षा नदीपर्वताः ।

हे पातालगता नभस्तलगताः सर्वेऽसुरा वासुराः।।

सर्वान् वः प्रणिपत्य सादरमिदं दैन्येन संप्रार्थये

श्रीवृन्दावनधाम्नि वै निवसतः स्यान्मे शरीरव्ययः ॥७२॥

हे भूतल-निवासी चराचर जीवो! हे वृक्षो! हे नदियो! हे पर्वतो! हे पाताल-वासियो! हे आकाश-वासियो! हे समस्त असुरो! हे देवताओं! मै आप सबको आदर-सहित प्रणाम करके दीनभाव से यह भिक्षा माँगता हूँ कि श्रीवृन्दावन में वसते हुए ही मेरे शरीर का अन्त हो ।॥७२॥

आसीनः स्थित उत्थितः प्रचलितः सुऽप्तःप्रबुद्धोऽथ वा

भुञ्जानः प्रलपन्पिबंश्च विसृजन्गृह्ह्नप्रवश्यन्नपि ।

शृण्वन्मीलितलोचनो व्यवहरन्वाचं नियच्छन्नपि

वृन्दारण्य भवन्तमेव हतधीः पश्यामि नक्तंदिवम् ।।७३।

हे श्रीवृन्दावन देव ! (आपके विरह से) मेरी बुद्धि मारी गयी है, तो भी मैं चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते, देते-लेते, व्यवहार करते, देखते, सुनते, प्रलाप करते, बोलते, मौन रहते तथा नेत्र बंद करते समय भी रात-दिन आपको ही देखता हूँ ॥७३॥

धन्या त्वदीयविरहानलवेदनापि

मां दिव्यलोचनपिबं सहसा चकार ।

दूरस्थितोऽप्यहमहो विपिनाधिराज !

यत्वामनन्यशरणः सततं समीक्षे ॥७४।।

हे विपिनाधिराज! हुम्हारे विरहरूप अग्नि से उत्पन्न हुई यह जलन भी धन्य है, जिसने मुझे सहसा दिव्य-लोचन बना दिया; क्योंकि अनन्यभाव से तुम्हारी शरण लेनेवाला मैं तुमसे दूर होता हुआ भी निरन्तर तुम्हारा ही दर्शन करता हूँ ॥७४।।

सति प्रदीपे ज्वलिते हुताशने रवीन्दुतारादिषु सत्सु सर्वथा ।

विनापि वृन्दावनधाम चिन्मयं तमोमयं शून्यमिदं जगत्त्रयम् ॥७५।।

दीपक जल रहे हैं, अग्नि भी प्रज्वलित हो रही है, सूर्य, चन्द्रमा और तारागणों का प्रकाश भी सर्वथा प्राप्त होता है, तो भी चिन्मय धाम श्रीवृन्दावन के बिना मुझे यह त्रिलोकी सूनी और अन्धकारमय दीख रही है ।।७५।।

मरुधरासदृशे मम मानसे मधुरप्रेमपयोलदशून्यता ।

इतरथा न भवेन्मम जीवनं वनपतेर्विरहे च सहिष्णुता ॥७६॥

मारवाड़ की भूमि के समान मेरे सूखे हृदय में मधुर प्रेमरूपी जल का एक क्षण भी नहीं है; अन्यथा वनराज श्रीवृन्दावन के वियोग में न तो मेरे अंदर सहिष्णुता हो सकती थी और न मेरा जीवन ही रह सकता था ॥७६।।

सुसंगमासंगमयोर्विवेचने सदाटवीनाथ वरो ह्यसंगमः ।

त्वमेक एवासि सुसङ्गमक्षणे जगत्त्रयं त्वं सकलं त्वसंगमे ॥७७॥

हे श्रीवनराज ! संयोग और वियोग के तारतम्य का विवेचन करने पर मुझे सदा वियोग श्रेष्ठ प्रतीत होता है। क्योंकि संयोग-काल में तुम एक ही रहते हो किंतु वियोग-काल में सारी त्रिलोकी तुम्हारा ही रूप बन जाती है ।।७७।।

श्रीकुञ्जकेलिरसपूर्णसरोवरेऽस्मिन्

सग्नो मनोमणिरहो विपिनाधिराजे ।

तं नावलोक्य हृतवित्त इवात्मवित्तं

द्रष्टुं मम भ्रमति लोचनखञ्जरीटः ।।७८।।

यह वनराज श्रीवृन्दावन श्रीकुञ्जकेलि-रस से पूर्ण सरोवर है, इसमें मेरी मनरूपी मणि डूब गयी। उसे न देखकर लोचन-रूपी खञ्जन पक्षी इधर-उधर घूम रहा है–ठीक उसी तरह, जैसे जिसके धन की चोरी हो गयी हो, वह पुरुष अपने उस धन का पता लगाने के लिये इधर-उधर भटकता रहता है। (वियोग मे मन और इन्द्रियाँ अलग-अलग हो जाती हैं, उस समय इन्द्रियों को ही वियोग होता है मन को नहीं; उसे तो ध्यान द्वारा ध्येय का संयोग बना ही रहता है। वस्तु का बाह्य इन्द्रियों द्वारा न दीखना ही विरह है) ॥७८।

यत्राकृतिस्तत्र गुणाः कवीन्द्रै: प्रोक्तं न सम्यग्ह्यविचारचारु ।

वृन्दावनं श्रीमदतीवरम्यं यन्मां हृदिस्थं विरहे दुनोति ॥७९॥

जहाँ सुन्दर आकृति होती है, वहाँ शुभगुण रहते ही हैं-यह कविजनों की उक्ति जब तक उस पर विचार नहीं किया जाता, तभी तक ठीक प्रतीत होती है वस्तुतः ठीक नही; क्योंकि विरह की अवस्था में मेरे हृदय में स्थित यह श्रीवृन्दावन अत्यन्त सुन्दर होने पर भी मुझे दुःख दे रहा है ।।७९।।

किं तिष्ठामि किमु व्रजामि किमहं जागर्मि किं वा शये

किं जानामि किमु भ्रमामि सुखतो जीवामि वा दुःखतः।

हे वृन्दाविपिन त्वदीयविरहे कस्मादकस्मादहो

भावः पक्षविपक्षहृत्त्वनुपमः कोऽयं समुजृम्भते ॥८०॥

हे श्रीवृन्दावन देव ! क्या इस समय मै बैठा हूँ या कहीं जा रहा हूँ ? क्या जग रहा हूँ या सो रहा हूँ ? जानता हूँ या भ्रम में पड़ा हूँ ? सुख से जीवन व्यतीत कर रहा हूँ या दुःख से? तुमसे विरह होने पर पक्ष-विपक्ष (यह ठीक है या वह ठीक है इस विचार) को दूर हटा देनेवाला यह अनुपम अनिर्वचनीय भाव अकस्मात् कैसे उदित हो गया? ॥८०॥

विश्वासः सुदृढो ममास्ति हृदये संवीक्ष्य प्रत्यक्षतः

यद्भृङ्गाभिनिवेशतो भयवशाद् भृङ्गोऽभवत्कीटकः ।

प्रीत्या चिन्तयतः प्रियं वनपते त्वामेव नित्यं मम

त्वद्रूपत्वमवश्यमेव भवितेत्यालोच्य जीवाम्यहम् ॥८१॥

हे वनराज वृन्दावन ! भय के कारण भृङ्ग के अभिनिवेश (निरन्तर चिन्तन)से कीट भी भृङ्ग हो गया-यह प्रत्यक्ष देखकर मेरे हृदय में सुदृढ़ विश्वास है कि यदि मैं अपने परम प्रिय तुम्हारा ही सदा प्रेम से ध्यान करूं तो मुझे तुम्हारे सारूप्य की अवश्य प्राप्ति हो जायगी; यही सोचकर मैं जीवन धारण कर रहा हूँ ।।८१।।

जानासि वृन्दाविपिन त्वमग्नै: संस्तम्भनीं कामपि योगविद्याम् ।

मन्मानसे यद्विरहाग्नितप्ते नित्यं निवासं कुरुषे सुखेन ॥८२॥

वृन्दावन ! जान पड़ता है कि तुम अग्नि का स्तम्भन करनेवाली कोई विद्या जानते हो; क्योंकि विरह की प्रबल अग्नि से संतप्त हुए मेरे सुखपूर्वक नित्य निवास कर रहे हो ।।८२।।

दनोशीरमृणालयोगैर्वियोगतापो मम शान्तिमेति ।

एकस्तु कथासुधायाः सुजीवनस्ते विपिनाधिराज ॥८३॥

विपिनराज! मेरा यह वियोग-ताप चन्दन, उशीर (खस) और मृणाल के शान्त हो सकता। बस, एकमात्र तुम्हारी कथा-सुधा का प्रयोग ही है।।८३॥

वृन्दाविपिनस्य मे विरहिणः सत्या विलापा इमे ।

सत्यतया विचारचतुरा गृह्णन्ति मानं विना ।

यान्ति न जीवनव्यसनिनो धिग्धिक प्रलापैरलं

ट्य केवलमेतदस्ति घटितं कापट्यतो यन्मया ॥८४॥

वृन्दावन की विरहाग्नि से दग्ध हो रहा हूँ‘–क्या मुझ विरही के ये सत्य है? विचार-चतुर विद्वान् पुरुष तो बिना प्रमाण के उसे सत्य समझते। मुझे जीवन के प्रति इतना मोह है कि मेरे प्राण निकलते ही धिक्कार है ! धिक्कार है। ये प्रलाप व्यर्थ हैं ! मैने कपट से विरही का वेष किया है।॥८४॥

इति श्रीवृन्दावनविरहवेदना नाम पञ्चमोध्यायः ।। ५।।

श्रीवृन्दावन-विरह-वेदना नामक पांचवां अध्याय समाप्त हुआ ।

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