श्रीराधा सप्तशती अध्याय ६ – Shri Radha Saptashati Adhyay 6
श्रीराधा सप्तशती षष्ठोऽध्यायः प्रथम:
सुकण्ठ उवाच
वृन्दावनपि निवसन् तदर्थ तप्तमानसः।
द्विजोऽतिकरुणं मित्र विलापं कुरुतेकथम् ।
श्रीसुकण्ठने पूछा मित्र! श्रीवृन्दावनमें निवास करता हुआ भी यह ब्राह्मण लिय मन-ही-मन सतप्त होकर प्रयन्त करुण विलाप गयो कर रहा
कथमस्य भवेच्छान्तिरभीष्टं च यदास्थ किम् ।
यं लब्धा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः॥२॥
इत्तको शान्ति कैसे प्राप्त होगी? साथ ही यह भी बताइये कि इसकी सभीष्ट वस्तु क्या है–यह क्या चाहता है, जिसको पाकर यह उमने अधिक दूसरा कोई लाभ नहीं मानेगा? ॥२॥
वृन्दावननिवासेऽपि तद्रसानुभवं बिना।
रसलिप्सुर्न संतोष लभते मित्र कहिचित् ॥ ३॥
मित्र! रसलीभी–रमिक भक्त तो श्रीवृन्दावनमें निवास हो जानेपर भी जब तक उनके रसका अनुभव उसे नहीं होना, तबतक कभी मंतोष नहीं पाता ।।३।।
मधुकण्ठ उवाच
वस्तुतः प्रेयसीप्रेष्ठप्रेमामृतरसात्मकम् ।
वृन्दावनस्वरूपं हि विज्ञेयं रसिकप्रियम् ॥ ४॥
श्रीनवुकप्ठजी बोले वास्तवमें प्रियतमा श्रीराधा और प्रियतम च्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के पारस्परिक प्रेमका जो प्रमतमय रस है, वही थीबन्दावनका स्वरूप है-यों जानना चाहिये । वही सिक जनाकी नीतिका विषय है ।।४।।
रसानुभदकालेऽपि समुत्कण्ठातिरेकतः।
सुस्थिरा नहि शान्तिः स्याद्रसमार्गे कदाचन ॥५॥
रसानुभद-कालमें भी उत्कण्ठाकी अधिकता होनेसे रसमार्गमें सुस्थिर शान्ति कभी नहीं होती ॥५॥
कंकर्यमस्य चाभीष्टं प्रेयस्याः प्रीतिनिर्भरम् ।
तस्यैव विमले लाभे विलापोपरतिर्भवेत् ॥६॥
इम ब्राह्मणको तो त्रिमाजीकी प्रेमभरी अनवरत मेवा ही सदा अभीष्ट है; उसीका विमल लाभ होनेपर इसका विलाप बंद हो सकता है ।।६।।
निकुञ्जजनसंसच्यां स्वामिनी कृष्णवल्लभाम् ।
आत्मेश्वरी तयया ानुभूय च तां ततः॥७॥
प्रीतेरुज्जम्भणं तस्मात्कैकर्याभिरुचिस्ततः
परिगृह्योचितं देहं कैकर्यपरिनिष्ठता ॥८॥
तत्रापि प्रीतेराधिक्यं परमाभीष्टमुच्यते
तदेवविस्तराद् गुह्यं तवाने कथयाम्यहम् ॥६॥
जो निकुञ्जनिवासी रसिक भत्तजनोंके लिये उत्तम भावसे सेवनीया स्वामिनी ह तथा (गोपीस्वरूप) जीवात्माओंकी अधीश्वरी हैं, उन श्रीकृष्णवल्लभा श्रीराधाका सन्दीकी कपासे अनभव करके उनमें प्रीतिका बिस्तार होना, फिर उनकी सेवा करनेकी रुचि होना, तत्पश्चात् सेवा करनेयोग्य (भावनामय अथवा चिदानन्दमय) गोपी-शरीरको ग्रहण करके उस देहके द्वारा प्रियाजीकी अभीष्ट सेवामें पूरी निष्ठाके साथ संलग्न हो जाना, उस सेवाकी अवस्थामें भी अधिक-से-अधिक प्रीतिकी वद्धि होना-यही प्रेमी भक्तोंकी परम अभीष्ट वस्तु वतायी जाती है। वही यह गुह्य विषय में तुम्हारे समक्ष विस्तारपूर्वक कहता हूँ ।।७-६।।
सुकण्ठ उवाच
कोदृशश्च रसस्तस्यानुभूतिश्चापि कीदृशी
प्रेयस्याः किं नु कैकर्य केवलायास्त्वयोदितम् ॥१०॥
श्रीसुकण्ठने पूछा रस कैसा होता है-उसका स्वरूप क्या है? और उसका अनुभव भी कैसा होता है? केवल श्रीप्रियाजीके थीवित्रहका जो फैकर्य—जो अनवरत सेवा तुमने वतायी है, वह क्या वस्तु है ? ॥१०॥
प्रेयसं मुख्यतो मत्वा तदङ्गत्वेन पूजनम्
अन्येषां विहितं लोके युगलाराधनं तथा ॥११॥
लोकमें तो प्रियतम श्रीकृष्णको ही मुख्य (अङ्गी) मानकर अन्य सवकी उनके अङ्गरूपसे पूजा करनेका विधान देखा जाता है तथा (प्रिया और प्रियतम दोनोको प्रधान मानकर की जानेवाली) युगल सरकारकी आराधना भी प्रचलित है ।।११।।
अपूर्वेय निकुञ्जस्य सखे कैंकर्यपद्धतिः।
साधिकार तथतस्या रहस्यं मे निरूपय ॥१२॥
परंतु मित्र ! (श्रीराधाको प्रधान मानकर) सेवा करनेकी जो श्रोनिकुञ्जकी प्रक्रिया है, यह तो अपूर्व (नवीन-सी) ही प्रतीत होती है। इसका रहस्य क्या है और इस उपासनाका अधिकारी कौन है, इसका मेरे समक्ष (युक्ति और प्रमाण देकर) निरूपण करो ॥१२॥
मधुकण्ठ उवाच
शान्ते दास्ये तथा सख्ये वात्सल्य तु रुचिर्नृणाम् ।
भक्तिबुद्धचा प्रवृत्तानां न शृङ्गारे कदाचन ॥१३॥
श्रीमधुकण्ठजी बोले जो लोग भक्ति-बुद्धिसे या भक्तिभावसे भगवान्की आराधना में प्रवृत्त होते है, उनकी शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्यभावमें तो रुचि होती है, परंतु शृङ्गारमें भी रुचि नहीं होती ॥१३॥
मधुराख्ये रसाधीशे कामबुद्धिः प्रजायते
अतस्ते स्थूलमतयो विरक्ता नाधिकारिणः ॥१४॥
शुचिमुज्ज्वलशृङ्गारं मन्यन्ते प्राकृतं यतः।
केचिच्छ्रद्धालवोऽप्यस्मिन् रसे भागवते जनाः ॥१५॥
तात्पर्यालोचनादक्षा अतोऽप्यनधिकारिणः ।
देशपात्रादिवैशिष्ट्यसम्बन्धेन सुगोप्यता ॥१६॥
जिनकी बुद्धि स्थूल है, (वे प्राकृत विषय और भावसे परे अप्राकृत जगत्की बात नहीं सोच पाते; अतः) रसराज शृङ्गारमें–मधुर नामक रस एवं भावमें उनकी काम-वृद्धि हो जाती है। इसीलिये वे इससे विरक्त हो जाते हैं। अतः इस मधुर उपासनाके वे अधिकारी नहीं हैं; क्योंकि पवित्र, उज्ज्वल शृङ्गारको भी वे प्रकृतिका विकार मानते हैं। परंतु जो इस भागवत या भगवद्रुप रसमें श्रद्धा रखते हैं, उनमें भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो इस रसके रहस्यके विवेचनमें कुशल नहीं हैं। अतः वे भी इस रसके अधिकारी नहीं हैं। इसमें उत्तम देश और उत्तम पात्र आदिके सम्बन्धकी अपेक्षा होनेसे यह शृङ्गार रस साधारण जनममाजसे सदा गुप्त ही रहता है ।।१४-१६।।
विषयान्तरवन्नायं प्रकाश्यः सर्वजन्तुषु ।
सिंहीसुपयसः पात्रमुपयुक्तं हि काञ्चनम् ॥१७॥
अन्य विषयोंकी भाँति यह शृङ्गार रस सब प्राणियोंके सामने प्रकाशित करनेयोग्य नहीं है। जैसे सिंहनीका उत्तम दूध सभी पात्रोंमें नहीं रखा जा सकता, उसके लिये केवल स्वर्ण-पात्र ही उपयुक्त होता है (उसी प्रकार विशिष्ट रधिकारीके समक्ष ही इस रसका प्रकाशन उचित है) ॥ १७॥
रहस्यत्वात्तव स्नेहात् कथ्यते हि मयाधुना
रसो वै स इति श्रुत्या स्वप्रकाशोऽपि वर्ण्यते ॥१८॥
यद्यपि यह रहस्य (गोपनीय) होनेके कारण अकथनीय है, तो भी तुम्हारे प्रति स्नेह होनेसे अब मैं इस रसका वर्णन करता हूँ; क्योकि रस स्वयंप्रकाश वस्तु होनेपर भी ‘रसो वै सः‘ इस श्रुतिके द्वारा ‘रस‘ शब्दके वाच्य अर्थका निरूपण किया गया है।॥१८॥
अथ स्थायिभावः
मिथो हरेः प्रियायाश्च सम्भोगस्यादिकारणम् ।
मधुरापरपर्याया रतिः स्थायितयोच्यते ॥१९॥
स्थायी भाव श्रीहरि और श्रीप्रियाजीके परस्पर सम्भोगकी मुख्य कारणरूपा जो मधुरा रति (प्रीति) है, उमीको स्थायीभाव कहते हैं ।।१६।।
अथ रसः
विभावरनुभावश्च सात्विकर्व्यभिचारिभिः ।
स्वाद्यभाना हि भक्तानां हृदये श्रवणादिभिः ॥२०॥
मधुरैषा रतिः स्थायिभावः स्यान्मधुरो रसः॥
रसका निरूपण विभाव, अनुभाव, सात्त्विक भाव और व्यभिचारी या संचारी भावोंके द्वारा श्रीप्रिया-प्रियतमकी लीला आदिके श्रवण तथा रूपदर्शन आदिसे भक्तोंके हृदयमे प्रास्वादनका विषय बना हुआ जो यह मधुर रतिरूप स्थायीभाव है, वही मधुर रस कहलाता है।
अथ विभावाः
ज्ञेयास्तत्र विभावास्तु रत्यास्वादनहेतवः॥२१॥
ते द्विधाऊलम्बना एके परे चोद्दीपनास्तथा ।
कृष्णश्च कृष्णप्रेयस्यो बुधैरालम्बना मताः ॥२२॥
विभावका निरूपण रतिका आस्वादन करानेमें जो कारण बनते हैं, उन्हीको विभाव समझना चाहिये ये विभाव दो प्रकारके है एक तो है मौर दूसरे उद्दीपन
श्रीकृष्ण और उनकी प्रेयसो-गणोंको पण्डितोने रदि, प्रेम प्रादिके विषय और आश्रय होनेसे ‘मालम्वन स्वीकार किया है ।।२०-२२।। ।।
रत्याविषयत्वेन तथाऽऽश्रयतयापि च।
परस्परं विषयता ह्याश्रयत्वं परस्परम् ॥२३॥
श्रीकृष्ण और प्रेयसीजन परस्पर एक-दूसरेके रति, प्रेम प्रादिके विषय हैं और परस्पर प्राश्रय भी है-ऐसा इस रसमें निश्चितरूपसे समझना चाहिये ।।२।।
*आलम्बन विभावके उदाहरण,
यथापदद्युति विनिर्धेतस्परपरार्धरूपोद्धति
इंगञ्चलकलानटीपटिमभिर्मनतोमोहिनी। स्फुरनवघनाकृतिः परमदिव्यलीलानिधिः
क्रियात्तव जगत्त्रयीयुवतिभाग्यसिद्धिर्मुदम् ।।
(श्रीपौर्णमामीजी थीगधाको प्राशीर्वाद देती है-)
जो अपने चरणको कान्तिले परार्धनंख्यक कामदेवोंके भी रूप-विषयक गर्वको गलित कर देते हैं, नेत्रोकी कटाक्ष-लीलारूपिणः नटीकी कला-पटुतासे सबका मन मोह लेते हैं, जिनकी सुन्दर प्राकृति नूनन जलधरके समान श्याम कान्तिसे प्रकाशित होती है और परम दिव्य लीलाओंकी निधि तथा त्रिलोकी रूपिणी युवतीके सौभाग्यकी सिद्धि है, वे प्रागवल्लभ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण तुम्हें मोद प्रदान करे।
यहाँ श्रीकृष्णके रूप-सौन्दर्यके श्रवण-दर्शन आदिसे पूर्वरागयुक्ता श्रीराबाके हृदयम नधुर रतिका उदय सूचित होता है; अत. यहाँ श्रीकृष्ण विषयालम्बन है और श्रीराधा आश्रयालम्बन ।
प्रणमामि ताः परममाधुरीभूतः कुतपण्यञ्जरमणीशिरोमणीः ।
उपसन्मयौवनगुरोरधीत्य याः स्मरकेलिकौशलमुदाहरन्हरी ।।
(मथुराकी स्त्रियाँ पृथक्-पृथक् परस्पर कहती हैं-)
परम माधुर्यका धारण-पोपण करनेवाली उन पुण्यपुजसे युक्त रमणीशिरोमणियोंको में प्रणाम करती हैं, जिन्होंने पास प्राय हए यौवनरूपी गुरुसे मीखकर श्रीहरिके समीप प्रेम-ग्रीड़ा-कौशलका उदाहरण प्रस्तुत किया। (यहाँ श्रीकृष्णकी प्रेमी गोपियाँ ही विपयालम्बन है।)
बलादक्षणोर्लक्ष्मीः कवलयति नव्यं कुवलयं
मुखोल्लासः फुल्लं कमलवनमुल्लयति च।
दशां कष्टामष्टापक्मपि नवत्याङ्गिकरुचि
विचित्रं राधायाः किमपि किल रूपं विलसति ।।
(पौर्णमासीजी कहती है–) किशोरी श्रीराधाका विचित्र रूप किसी अनिर्वचनीय शोभासे विलसित हो रहा है। उसके नयनोंकी सुपमा वलपूर्वक नूतन कमलको कवलित कर लेती है। मुखका उल्नास प्रफुल्ल कमल-वनको भी लांघ जाता-तिरस्कृत कर देता है तथा अङ्गोंकी मुनहरी कान्ति सुवर्णको भी हीन-दशामें पहुँचा देती है। (यहाँ श्रीराधा
कृष्णस्य प्रेयसीनां च रत्यावे यमत्र हि
तद्भावभावितस्वान्ताः प्रेयस्यः समुदीरिताः॥२४॥
श्रीकृष्ण-विषयक भासें नावित हृदयदाले चेतनोंको प्रेयसी कहा जाता है। (शृङ्गारमें श्रीकृष्णको सदा हो श्रीराधा-विशिष्ट समझना चाहिये ; प्रत श्रीराधाकी किंकरी होकर ही श्रीकृष्ण प्रेयसीभावकी प्राप्ति होती है-यह बात आगे विस्तारसे कही जायगी) ॥२४॥
उद्दीपनास्तु ते प्रोक्ता भावमुद्दीपयन्ति ये।
मिथो हरेः प्रियायाश्च गुणाश्चेष्टाः प्रसाधनम् ॥२५॥
जो भावका उद्दीपन करते है, उन्हें उद्दीपन विभाव कहा गया है। श्रीकृष्ण और उनकी प्रेयसीके गुण चेप्टाएँ तथा बरत्र-आभूषण आदि शृङ्गार-सामग्री एकदूसरेके उद्दीपन होते है* ॥२५॥
रतिका उद्दीपन करनेवाली गुण अादि सामग्री *(१) गुण
वामल्पियापि सेवया विहितेऽप्यागसि दुस्सह स्मितास्यम् ।
परदुःखलवेऽपि कातरं मे हरिमुवीक्ष्य मनस्तनोति तृष्णाम् ॥
प्यारे श्यामसुन्दर थोड़ी-सी सेवासे भी वशमें हो जाते हैं, दूरसह अपराध हो जानेपर भी मुसकराते रहते है (अप्रसन्न नहीं होते), तथा दूसरेको लवमात्र भी दुःख हुआ देखकर कातर हो उठते है; अतः उन्हें देखकर मेरा मन उनके प्रति अपनी तृष्णाका विस्तार करता रहता है। (यहाँ उपर्युक्त विशेषणोसे श्रीहरिके कृतज्ञता, क्षमा-शीलता और करुणाकी पराकाष्ठा–इन तीन गुणोका परिचय मिलता है। सखी सूचित करती है कि इन गुणोके कारण वे हम सब बालानोंके लिये सुसेव्य है। इससे उसके भीतर इसके उद्दीपन का पता लगता है।) (२) चेष्टा
तं विलासवति रासमण्डले पुण्डरीकनयनं सुराङ्गनाः।
प्रेक्ष्य सम्भूतविहारविभ्रमं बनमुर्मदनसम्भ्रमोमिभिः।।
(श्यामला सखी श्रीराधासे कहती है-)
विलासवती श्रीराधे! रासमण्डलमें कमल-नयन श्यामसुन्दरको विहारविभ्रम (क्रीड़ाविलास) में तत्पर देखकर देवाङ्गनाएँ प्रेमावेशकी तरङ्गोंसे विभ्रान्त हो उठी थीं। (यहाँ रास-चेप्टाका स्मरण हो आनेसे रतिका उद्दीपन सूचित होता है।) (३) प्रसाधन
अनङ्गरागाय बभूव सद्यस्तवाङ्गरागोऽपि किमङ्गनासु ।
उद्दामभावाय तथा फिमासीद्दामापि चामोदर ताबकीनम् ॥
अथ अनुभावाः
चित्तस्थानां तु भावानां ये भवन्त्यनुबोधकाः ।
बहिर्विकारप्राया ये अनुभावाः प्रकीत्तिताः ॥२६॥
अनुभावका लक्षण चित्तमें स्थित गूढ़भावोंका बोध करानेवाले जो कार्य या चेष्टाएँ हैं, उन्हें ‘अनुभाव‘ कहा गया है। वे प्रायः कटाक्षपात आदि बाह्मविकारोंके रूपमें दृष्टिगोचर होते हैं ।।२६।।
त्रिविधास्ते त्वलंकारास्तथैवोद्धास्वराभिधाः
वाचिकाश्चेति शृङ्गारे रसिकैः परिकीत्तिताः॥२७॥
रसिक भक्तोंने शृङ्गारमें अनुभावके तीन भेद बताये हैं-अलंकार, उद्भास्वर और वाचिक ॥२७॥
अथ अलंकाराः
सत्वजा उदयन्त्यते अलंकारास्तु विंशतिः ।
कान्तानामद्भुताः कान्ते सर्वथाभिनिवेशतः॥२८॥
भावो हावस्तथा हेला प्रोक्तास्तत्राङ्गजास्त्रयः
शोभा कान्तिश्च दीप्तिश्च माधुर्यच प्रगल्भता ॥२६॥
धैर्यमौदार्यमित्येते सप्तव स्युरयत्नजाः।
लीला विलासो विच्छित्तिविभ्रमः किलकिञ्चितम् ॥३०॥
मोडायितं कुट्टमितं बिब्बोको ललितं तथा ।
विकृतं चेति विज्ञेयास्तासां दश स्वभावजाः ॥३१॥
अलंकारोंका वर्णन प्रेयसीजनोंमें प्रियतम-विषयक पूर्ण अभिनिवेश होनेपर विशुद्ध सत्त्वका उदय होनेसे अलंकार नामवाले अदभुत अनुभाव उदित होते हैं। वे प्रायः बीस प्रकारके
(सखी परिहासपूर्वक कहती है–)
प्यारे दामोदर ! तुम्हारा (चन्दनानुलेपन आदि) अङ्गराग भी गोपाङ्गनाओंके हृदयमें तत्काल अनङ्गरागका कारण बन गया, यह कैसी अद्भुत बात है? तथा तुम्हारा दाम (माल्य) भी युवतियोंके हृदयमें उद्दाम भाव (प्रगाड़ अनुराग) को जाग्रत करनेवाला हो गया-यह कैसी विलक्षणता है! (यहाँ शृङ्गार ही रतिका उद्दीपन हुआ—यह कहा गया है )
कृष्णस्य प्रेयसीनां च रत्यादेशैंयमत्र हि
तद्भावभावितस्वान्ताः प्रेयस्यः समुदीरिताः ॥२४॥
श्रीकृष्ण-विषयक भासे भावित हृदयवाले चेतनोंको प्रेयसी कहा जाता है। (शृङ्गारमें श्रीकृष्णको सदा ही श्रीराधा-विशिष्ट समझना चाहिये: प्रत. श्रीराधाकी किकरी होकर ही श्रीकृष्ण प्रेयसीभावकी प्राप्ति होती है–यह बात आगे विस्तारसे कही जायगी) ॥२४॥
उद्दीपनास्तु ते प्रोक्ता भावमुद्दीपयन्ति ये।
मिथो हरेः प्रियायाश्च गुणाश्चेष्टाः प्रसाधनम् ॥२५॥
जो भावका उद्दीपन करते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहा गया है। श्रीकृष्ण और उनकी प्रेयसीके गुण चेष्टाएँ तथा वस्त्र-आभूषण आदि शृङ्गार-सामग्री एकदूसरेके उद्दीपन होते हैं* ॥२५॥
रतिका उद्दीपन करनेवाली गुण आदि सामग्नी
वशमल्पिकयापि सेवया विहितेऽप्यागसि दुस्सहे स्मितास्यम् ।
परदुःखलवेऽपि कातरं मे हरिमुद्वोदय मनस्तनोति तृष्णाम् ।।
प्यारे श्यामसुन्दर थोड़ी-सी सेवासे भी वशमें हो जाते हैं, दुस्सह अपराध हो जानेपर भी मुसकराते रहते हैं (अप्रसन्न नहीं होते), तथा दूसरेको लवमात्र भी दुःख हुआ देखकर कातर हो उठते है; अतः उन्हें देखकर मेरा मन उनके प्रति अपनी तृष्णाका विस्तार करता रहता है। (यहाँ उपर्युक्त विशेषणोसे श्रीहरिके कृतज्ञता, क्षमा-शीलता और करुणाकी पराकाष्ठा–इन तीन गुणोका परिचय मिलता है। सखी सूचित करती है कि इन गुणोंके कारण वे हम सब वालायोंके लिये सुसेव्य है। इससे उसके भीतर इसके उद्दीपन का पता लगता है।) (२) चेष्टा
तं विलासवति रासमण्डले पुण्डरीफनयनं सुराङ्गनाः।
प्रेक्ष्य सम्भूतविहारविनमं बनमुर्मदनसम्भ्रमोमिभिः॥
(श्यामला सखी श्रीराधासे कहती है-)
बिलासवती श्रीराधे! रासमण्डलमें कमल-नयन श्यामसुन्दरको विहारविभ्रम (क्रीडाविलास) में तत्पर देखकर देवाङ्गनाएँ प्रेमावेशकी तरङ्गोंसे विभ्रान्त हो उठी थी। (यहाँ रास-चेष्टाका स्मरण हो आनेसे रतिका उद्दीपन सूचित होता है।) (३) प्रसाधन
अनङ्गरागाय बभूव सद्यस्तवाङ्गरागोऽपि किमङ्गनासु ।
उद्दामभावाप तथा फिमासीद्दामापि बामोवर तावकीनम् ॥
बताये गये हैं। (आगे बनाये जानेवाले मौपध्य और चकितको भी जोड़नेसे इनकी संख्या वाईस हो जाती है ।) उनमें भाव, हाव और हेला-ये तीन अङ्गज* अलंकार कहे गये हैं। शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, धैर्य और प्रौदार्यये सात प्रयत्नज** अलंकार है। (देखिये पृष्ठ ८८) लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिञ्चित, मोट्टायित, कुट्टामित, विब्बोक, ललित और विकृत—ये बस प्रेयसीजनोंके स्वभावज अलंकार हैं ** (पृष्ठ १० देखिये) ॥२८-३१।।
*नेत्रान्त, भ्रू और ग्रीवाभङ्गी आदि ही हाव, भाव और हेलाके सूचक है; अतः उन्हीं अङ्गोंसे इनकी प्रतीति होनेके कारण इन्हें अङ्गज कहा गया है। वास्तवमें ये अङ्गज नहीं है, क्योकि आगे चलकर इन्हें सत्त्वज (विशुद्ध सत्त्वका उदय होनेसे उत्पन्न) बताया गया है।
*इन सबकी विशद व्याख्या इस प्रकार है
(१) भाव-विकाररहित चित्तमे श्रीकृष्णके दर्शन, श्रवण प्रादिसे रतिके उदय होनेपर नेत्र आदिकी चेष्टाओंका प्रयोजक जो प्रथम विकार (अप्राकृत
प्रेमजनित क्षोभ) होता है, वह ‘भाव‘ कहलाता है। यही बात निम्नाङ्कित वचनसे सिद्ध होती है
निविकारात्मके चित्ते भावः प्रथमविक्रिया।
जैसे वास्तूक-बीज वर्षाके जलसे अंकुरित न होकर हिमस्पर्शसे अंकुरित होता है, उसी प्रकार प्राकृत रूप दिसे क्षुब्ध न होकर श्रीकृष्ण श्रीर श्रीराधाके दिव्य रूप आदिके दर्शन-श्रवण प्रादिसे चित्तका दिव्य प्रेमके आवेशसे विह्वल होना ‘भाव‘ कहलाता है।
‘ यह लक्षण नल-दमयन्ती आदि प्राकृत नायक-नायिकाओंके भावमें नही संघटित होगा और यही हमको इष्ट भी है; क्योकि श्रीशुक आदि प्राचार्योने ‘रसो वै सः‘ इस श्रुतिद्वारा प्रतिपादित सच्चिदानन्दधन भगवद्रूप रसका अप्राकृत भगवत्प्रेयसीजनोंका आश्रय लेकर ही वर्णन किया है।
‘ प्राकृत काव्यकार इस रसतत्त्वके विवेचनमें भ्रान्त हो रहे है, जैसा कि व्यामजीका कथन है
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।
भावका उदाहरण
पितुर्गोष्ठे स्फीते कुसुमिनि पुरा खाण्डववने
न ते दृष्ट्वा संक्रन्दनमपि मनः स्पन्दनमगात् ।
पुरो वृन्दारण्ये विहरति मुकुन्दे सखि मुदा
किमान्दोलादक्ष्णः श्रुतिकुमुदमिन्दीवरमभूत् ।।
(एक सखी अपनी यूथेश्वरीका श्रीकृष्णके प्रति आकर्षण देखकर अनजानकी भांति उससे पूछती है-)
सखी! जब तुम पहले खाण्डव वनमें अपने पिताके समृद्धिशाली गोष्ठमे, जो भांति-भांतिके फूलोंसे सुशोभित था, रहती थीं, तब वहाँ इन्द्रको भी देखकर तुम्हारा मन विचलित नहीं हुया था परंतु इस समय (ससुरालम पानपर सामने वृन्दान्नमे जब मुकुन्द (श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण) विहार कर रहे हैं, तब उनकी ओर तुम्हारे नेत्र एमे चञ्चल हो उठे हैं कि कानोंका श्खेत उत्पल (नेत्रों की छाया से) सहमा नील-कमल-मा हो गया है। बतायो मखी, ऐसा क्यों हुआ? (यहाँ विकारके कारणभूत इन्द्र-दर्शनके होनेपर भी विकार न होना ‘सत्त्व का सूचक है और अब मुकुन्दके दर्शनसे नेत्र-चाञ्चल्य रूप जो प्रथम विकार हुआ है, वह नायिकाके ‘भाव‘को सूचित करता है।)
(२) हाव–ग्रीवाको तिरछी करके भ्रू-नेत्र आदिमें विकास करनेवाला पार भावकी अपेक्षा कुछ अधिक प्रकाशमें ग्रानेवाला अनुभाब ‘हाव‘ कहलाता है। (चित्तमें ही व्यक्त होनेवाला प्रथम विकार भाव है और जो विकार भ्र-नेत्र पादिकी वाह्य चेष्टायोमें भी कुछ लक्षित होने लगे, वह ‘हाथ‘ है।) यथा
ग्रीवारेचकसंयुक्तो भूनेत्रादिविकासकृत् ।
भावादीयत्प्रकाशो यः स हाव इति कथ्यते ।
हावका उदाहरण
साचिस्तम्भितकण्ठि कुडमलवती नेत्रालिरभ्येति ते
घूर्णन्कर्णलतां मनाग्विकसिता भ्रूवल्लरी नृत्यति ।
अत्र प्रादुरभूत्तटे सुभन्सामुल्लासकस्त्वत्युरो
” गौराङ्गि प्रथम बनप्रियवधूवन्धुः स्फुटं माधवः॥
(श्यामा श्रीराधासे कहती है
सखी! तुम ग्रीवा टेढ़ी करके पीछेकी ओर इस तरह देखती हो, मानो वह ग्रीवा उसी रूपमें स्तब्ध हो गयी, सामनेकी ओर घूमती ही नहीं। तुम्हारा नेत्ररूपी भ्रमर झूमता हुया मुकुलभूषित कर्णलताकी और चला पा रहा है। कुछकुछ विकसित हुई तुम्हारी भ्रूलता नृत्य करने लगी है। गीराङ्गी! इस तटपर सुन्दर हृदयबाली सुन्दरियों अथवा पुष्पोंको उल्लास प्रदान करनेवाले माधव (श्रीकृष्ण अथवा ऋतुराज वसन्त) प्रथम बार प्रकट हुए हैं, जो स्पष्ट ही वनप्रिया गोपवन्धुओं अथवा कोकिलाओंके परम बन्यु है। (यहाँ ग्रीवाको तिरछी करके देखना आदि हाव‘का लक्षण सुस्पष्ट है !)
(३) हेला-हाव ही और अधिक व्यक्त होकर जब शृङ्गार (रति)का सूचक होता है, तब वह ‘हेला‘ कहलाता है, जैसा कि निम्नाङ्कित वचनसे स्पष्ट है—
हाव एव भवेद्धेला व्यक्तः शृङ्गारसूचकः।
हेलाका उदाहरण
श्रुते वेणी वक्षः स्फुरितकुचमाध्मातमपि ते
तिरोविक्षिप्ताक्षं पुलकित कपोलंच वदनम् ।
स्खलत्काञ्चि स्वेदलिततिच्यं चापि जघनं
प्रमादं मा कार्षीः सखि चरति सच्चे गुरुजनः।
(विशाखा श्रीराधामे कहती हैं-)
सखी! वेणुनाद सुनते ही तुम्हारा वक्षःस्थल भी धौंकनीकी भाँति चलने लगा है-साँसकी तीव्रतासे ऊँचा-नीचा होने लगा है, जिससे स्तन कम्पित हो रहे है नुम प्रॉस तिरछी नरके देख रही हो तुम्हारे गालोमें रोमाञ्च हो पाया है, जघन-प्रदेशसे मेखला खिसकने लगी है और वहाँका वस्त्र पसीनेसे भीगकर सट गया है। अतः तुम प्रमाद न करो, बायीं और गुरुजन विचर रहे है। (तात्पर्य यह कि तुम दाहिनी ओर के द्वारसे निकल कर श्रीकृष्णके पास जामो, मै गुरुजनों का समाधान करके आऊँगी।) यहाँ शृङ्गार-सूचक चेष्टा से ‘हेला‘ स्पष्ट ही परिलक्षित होती है।
** अयत्नज अलंकार जो बिना यत्न के ही प्रकट होते हैं, वे शोभा आदि सात अलंकार ‘प्रयत्नज‘ कहलाते हैं। (२) शोभा–रूप एवं संभोग-चिह्न आदिसे अङ्गोंका विभूषित होना (१) शोभा कहलाता है। यथा
सा शोभा रूपभोगाद्यैर्यत्स्यादङ्गविभूषणम् ।
शोभाका उदाहरण
धृत्वा रक्ताङ्ग लिकिसलयेनीर्पशाखां विशाखे
निष्कामन्ती व्रततिभवनात्प्रातरुणिताक्षी।
वेणीमंसोपरि विलुप्तीमर्वमुक्तां वहन्ती
लग्नास्वान्ते मम नहि बहिः सेयमद्याप्ययासीत् ।।
(श्रीकृष्ण विशाखा सखीसे कहते हैं
विशाखे! रात बीतनंपर प्रातःकाल जब वह प्राणवल्लभा अपनी पल्लवसदृश लाल-लाल अगुलियोसे कदम्बकी शाखा पकड़कर लताभवनसे निकलने लगी, उस समय उसकी आँखें चढ़ी हुई थीं; वह अधखुली वेणी धारण किये हुए थी, जो उसके कंधेपर लोट रही थी। इसी झांकीमें वह मेरे हृदयके भीतर ऐसी वैठ गयी है कि अब तक बाहर नहीं निकल सकी। (अतः पुनः उससे मिलनेका सुयोग उपस्थित करो।) (२) कान्ति
“प्रेमभावके परिपुष्ट होनेसे अथवा प्रियतमको परितृप्त करनेके कारण अधिक विकासको प्राप्त हुई शोभाको ही कान्ति कहते हैं। यथा
शोभव कान्तिराख्याता मन्मयाप्यायनोज्ज्वला।
कान्तिका उदाहरण
प्रकृतिमधुरमतिढिमत्राप्युदञ्च
त्तरुणिमनवलक्ष्मीलेखयाऽलिङ्गिताङ्गी।
वरमवनविहाररद्य तत्राप्युदारा
मदयति हृदयं मे रुन्धती राधिकेयम् ।।
(श्रीकृष्ण सुबलसे कहते हैं–)
स्वभावतः प्रगाढ़ अनुरागके कारण जो माधुर्य रसकी मूर्ति है, उसमे भी नवोदित यौवनकी अभिनव शोभा-लेखासे जिसका अङ्ग-ग्रङ्ग प्रालिङ्गित है, इतनेपर भी जो परम उदार है, वह राधिका मेरे हृदयको सदा अवरुद्ध किये रहती है तथा परम सुन्दर प्रेमक्रीड़ाओं द्वारा मुझे उन्मत्त कर देती है; अतः अब मैं और किसी सुन्दरीसे मिलनेकी इच्छा नहीं रखता। (यहाँ प्रेयसीकी शोभा ही विकसित होकर प्रियतमको पूर्णतया तृप्त कर रही है; अतः वह ‘कान्ति‘
कही गयी है। (३) दीप्ति—
कान्ति ही यदि वय, भोग, देश, काल और गुण आदिके द्वारा उद्दीप्त पीर अत्यन्त विस्तारको प्राप्त हो जाय तो उसे ‘दीप्ति‘ कहते हैं। यथा–
कान्तिरेव क्योभोगदेशकालगुणादिभिः।
उद्दीपितातिविस्तारं प्राप्ता चेद्दीप्तिरुच्यते॥
दीप्तिका उदाहरण
निमीलनेत्रश्रीरचटुलपटीराचलमरु
निपीतस्वेदाम्बुस्त्रुटदमलहारोज्ज्वलकुचा ।
निकुञ्ज क्षिप्ताङ्गी शशिकिरणकिमोरिततटे
किशोरी सा तेने हरिमनसि राधा मनसिजम् ।।
(रूपमञ्जरी अपनी सखीसे कहती है–)
रात्रिमें विहारके पश्चात् सो जानेपर जिसके नेत्रोंकी शोभा मुकूलित हो गयी थी, मन्द-मन्द बहते हुए मलय-समीरने जिसके स्वेदाम्बुकणोंको पी लिया था और जिसका वक्षःस्थल टूटे हुए हारोंसे जगमगा रहा था, वह किशोरी श्रीराधा निकुञ्ज-भवनमें, जिसका तटप्रान्त चन्द्रमाकी किरणोंसे चितकबरा जान पड़ता था, शय्यापर अपने अङ्गोको डालकर बेसुध सो रही थी, उस अवस्थामें भी उसने पुन श्रीश्यामसुन्दरके मनमें प्रेमावेशका प्रसार कर दिया है। (यहाँ ‘दीप्ति‘ का लक्षण स्पष्ट है) (४) माधुर्य____ सभी अवस्थानोंमें चेष्टानोंकी चारुता (मनोरमता) को माधुर्य कहते है, जैसा कि कहा गया है
माधुर्यं नाम चेष्टानां सर्वावस्थासु चारुता।
माधुर्यका उदाहरण
असव्यं कंसारे जशिरसि धृत्वा पुलकितं
निजयोण्यां सव्यं करमनजुविष्कम्भितपदा ।
दधाना मूनिं लघुतरतिरःसंसिनमिय
वभौ रासोत्तीर्णा मुहुरलसमूर्तिः शशिमुखी।
(रतिमञ्जरी दूरसे अपनी सखीको दिखाती है-)
यह चन्द्रमुखी श्रीराधा अपने रोमाञ्चयुक्त दाहिने हाथको श्यामसुन्दरके कधेपर चोर बायें हाथको अपने नितम्बपर रखकर टेढ़े-मेढ़े लड़खड़ाते पैरोंसे चलती हुई सिरको तिरछा किये रासक्रीड़ासे निकलकर बारंवार अलसाते हुए शरीरसे कमी शोभा पा रही है !
(यहाँ रास-थकित श्रीराधाकी जो मनोहारिणी चेप्टाएँ हैं, उन्हींको माधुर्य समझना चाहिये। (५) प्रगल्लभता–
(प्रेमक्रीड़ाके) योगोंमें जो निश्शत होकर प्रवृत्त होना है, उसीको विद्वानोने ‘ ‘ नाम दिया है।
निश्वात्वं योगेषु बुधैरुक्ता प्रगल्भता ।
(६) धैर्य
स्थिर रहनेवाली जो नित्तकी उन्नत अवस्था है, उसीको ‘धैर्य‘ कहते है। जैसा कि कहा गया है—
स्थिरा चित्तोन्नतिर्या तु तद्धर्यमिति कोयते ।
धैर्यका उदाहरण
श्रौदासीन्यधुरापरीतहृदयः काठिन्यमालम्बतां
काम श्यामलसुन्दरो मथि सखि स्वरी सहत्रं समाः।
किंतु भ्रान्तिभरादपि क्षणमिदं तत्र प्रियेभ्यः प्रिये
चेतो जन्मनि जन्मनि प्रणयितादास्यं न मे हास्यति ।
(श्रीराधा नववृन्दासे कहती है-)
सखी! श्यामसुन्दर मेरे प्रति अपने हृदयको उदासीनताके भारसे वोझिल करके चाहे जितनी कठोरताका अवलम्बन करें, अपनी रुचिके अनुसार सहस्रो वर्षातक मेरे प्रति स्वेच्छाचारिताका ही परिचय क्यों न देते रहें; किंतु तो भी वे मेरे प्रियसे भी प्रिय बने रहेगे और उनके प्रति जन्म-जन्ममें यह चित्त कभी भूलसे क्षणभरके लिये भी प्रेमपूर्वक दासीभावका परित्याग नहीं करेगा।
कैसा अनुपम धैर्य है! (७) औदार्य
मान, विरह आदि सभी अवस्थानोंमें जो विनयका बना रहना है, उसीको विद्वान् पुरुष ‘औदार्य‘ कहते हैं। यथा
औदार्य विनयं प्राहुः सविस्थागतं बुधाः ।
औदार्यका उदाहरण
कृतज्ञोऽपि प्रेनोज्ज्वलमतिरपि स्फारविनयो
ऽप्यभिज्ञानां चूडामगिरपि कृपानीरविरपि ।
यदन्तःस्वच्छोऽपि स्मरति न हरिगोकुलभुवं
ममदेदं जन्मान्तरदुरितदुष्टद्रुमफलम् ।।
(प्रोषितभर्तृका श्रीराधा कहती है–) प्यारे श्यामसुन्दर वृतज्ञ हैं, उनकी मति प्रेमके प्रकाशसे निर्मल है, वे बडे हीविनयशील है, ज्ञानियोंके तो चूड़ामणि ही हैं, दयाके सागर हैं और भीतरसे स्वच्छ है, तो भी जो वे इस गोकुलकी भूमिका स्मरण नहीं करते (इसमे उनका कोई दोष नहीं है)-यह मेरे ही जन्मान्तरमे किये गये पापरूपी दूषित वृक्षका कुत्सित फल है। (यहाँ श्रीजीकी विनय पराकाष्ठाको पहुँच गयी है!)
*** स्वभावज अलंकार (१) लीला
बुद्धिपूर्वक अथवा अबुद्धिपूर्वक यत्न होनेपर ही प्रायः लीला आदिकी सिद्धि होती है। परंतु युवतीजनके स्वामादिक प्रय नसे ही लीला आदि होते रहते हैं; अतएव इनको ‘स्वभावज‘ कहा गया है। सुन्दर देश और क्रिया आदिके द्वारा प्रियतमके अनुकरणको ‘लीला‘ कहते हैं।
यथाप्रियानुकरणं लीला रम्यैर्वेशक्रियादिनिः।
लीलाका उदाहरण
मृगमदकृतचर्चा पोतझौशेवबासा
रुचिरशिखिशिखण्डाबद्धधम्मिल्लपाता।
अनूनिहितमंसे वंशमत्त्वाणयन्ती
कृतमधुरिपुदेशा मालिनी पातु राधा।
(रतिमञ्जरी अपनी सखीसे कहती है–)
जिन्होंने अङ्गों में कस्तूरीका लेप लगाकर अपनी गौर कान्तिको श्याम कान्तिक रुपमे परिणत कर लिया है, रेशमी पीताम्बर धारण करके सुन्दर मोर-पंखके साथ अपने जूड़ेको बाँध रखा है, बाहुमूलमें या कंधेपर तिर्छ धारण की हुई बाँसकी बाँसुरी बजाती हुई जो प्यारे श्यामसुन्दरके वेशमें सज उठी हैं, वे माला धारिणी (अथवा मालिनी छन्दमे वणित) श्रीराधा हम सबकी रक्षा करें। (यहाँ लीलाका लक्षण स्पष्ट है) (२) विलास
प्रियतमके साथ रहने पर चलने, बैठने और खड़े होने में तथा मुख, नेत्र आदिकी क्रियायोमें जो तात्कालिक विलक्षण सौन्दर्य का उदय होता है, उसे ‘विलास‘ कहते है। जैसा कि कहा गया है
गतिस्थानासनादीनां मुखनेवादिकर्मणाम् ।
तात्कालिकं तु वैशिष्ट्यं विलासः प्रियसङ्गाजम् ।
विलासका उदाहरण
अध्यासीनमम कदम्बनिकट क्रीडाकुटीरस्थली
भाभीरेन्द्रकुमारमत्र रभसादालोकयन्त्याः पुरः।
दिग्घा दुग्धसमुद्रमुग्धलहरीलावण्यनिस्यन्दिभिः
कालिन्दी तब दृक्तरङ्गितभरस्तन्यङ्गि गङ्गायते॥
(अभिसारिका श्रीराधासे वृन्दादेवी कहती हैं-)..
‘कृपाङ्गी राधे ! कदम्बके निकट क्रीडा-कुटीरकी भूमिमें बैठे हुए इन गोपराजकुमारको यहाँ सहसा सामने देखकर जो तुम मुसकरा उठी हो, इससे भीरमागरकी सुन्दर लहरोंके समान लावण्यकी वर्षा करनेवाली तुम्हारी इन नयन-सरङ्गोंसे परिपूर्ण हो यह श्याममलिला कालिन्दी श्वेतसलिला गङ्गाके समान शोभा पाने लगी है। (यहाँ नेत्र-व्यापारका वैशिष्टच ही दिलास है।) (३) विच्छित्ति__कान्तिको पुष्ट करनेके लिये जो (मानपत्र एवं कज्जल मादिसे) थोड़ा-सा भी शरीरका शृङ्गार किया जाता है, उसे ‘विच्छित्ति‘ कहते है
माकल्पकल्पनाल्पापि विच्छित्तिः शान्तिपोषकृत ।
विच्छित्तिका उदाहरण
माकन्दपत्रेण मुकुन्बचेतःप्रमोदिना मारतकम्पितेन् ।
रक्तेन कणभिरणीकृतेन राधामुखाम्भीयहमुल्ललास ॥
(वृन्दा नान्दीमुखोसे कहती है-)
मन्द-मन्द वायुसे कम्पित तथा प्रियतम मुकुन्दके मनको पालाद प्रदान करनेवाले लाल-लाल कोमल अाम्र-पल्लवको कर्णभूषणके रूपमें धारण करके श्रीराधारानीका मुखारविन्द उल्लसित हो उठा। (यहाँ विच्छित्तिकी छटा देखने ही योग्य है।) (४) विभ्रम
प्रियतमकी प्राप्तिके समय मदनावेशजनित सम्भ्रमवश हार, माला और काञ्ची आदिके धारण करनेके स्थानोंमें उलट-फेर हो जाना ‘विभ्रम‘ कहलाता है।
वल्लभप्राप्ति वेलायां मबनावेशसम्भ्रमात् ।
विनमो हारमाल्यादिभूषास्थानविपर्ययः ।।
विभ्रमका उदाहरण
धन्ये कज्जलमुक्तवामनयना पने पदोढाङ्गादा।
सारङ्गि ध्वनदेकनपुरधरा पालि स्खलनमेखला।
गण्डोद्यत्तिलका लङ्गि कमले नेत्रापितालक्तिका
मा घावोत्तरलं त्वमत्र मुरली दुरे कलं कूजति ।।
(मुरलीका कलनाद सुनकर विभ्रान्त होकर दौड़नेवाली गोपाङ्गनायोंसे कोई सखी कहती है
धन्ये! तुम्हारे बायें नेत्र में तो काजल ही नहीं लगा, तुम एक ही बाँखमें अजन लगाकर दौड़ पड़ी! पो ! तुमने तो बाजूबदको पैरमें डाल लिया ! भारङ्गि! तुम तो एक ही नूपुर धारण करके अनकारती हुई चल पड़ीं ! पालिके! तुम्हारी करधनी खिसकती जा रही है ! लवङ्गि! तुमने तो भालकी जगह गालमें ही बेंदी लगा ली। कमले ! तुमने भी खूब किया, काजलकी जगह आंखोंमें महावर ही मौज लिया। अरी बावली! इस तरह उतावली होकर न दौड़ो; पाज श्यामसुन्दर की मुरली यहाँसे बहुत दूर अपनी मीठी तान छेड़
वामताकी अधिकतासे स्वाधीन कान्त द्वारा की हुई सेवा के विषयमें (वाणीमावसे) अनभिनन्दन (असम्मति) प्रकट करना किसी प्राचार्यके मतसे ‘विभ्रम‘ कहलाता है। जैसा कि कहा गया है
अधीनस्थापि सेवायां कान्तस्यानभिनन्दनम् ।
विभ्रमो दामतोद्रेकात् स्यादित्याख्याति कश्चन ।।
परन्तु अन्य याचार्य इसे विब्बोकके अन्तर्गत मानते हैं। प्रियतम द्वारा की गयी सेवाके अनभिनन्दनका उदाहरण
त्वं गोबिन्द मयासि किं नु कबरीबन्धार्थमयथितः
क्लेशेनासमबन एवं चिकुरस्तोमो मुवं दोषि मे
वक्त्रस्थापि न मार्जनं कुरु घनं धर्माम्बु मे रोचते
नैवोत्तंसय मालतीर्मम शिरः खेदं भरेणाप्स्यति ।।
गोविन्द ! क्या मैने तुमसे अपना जूड़ा बाँधने के लिये प्रार्थना की थी? (तुम तो गाय चरानेवाले हो, तुम इस कलाको क्या जानो।) व्यर्थ क्लेश उठानेकी आवश्यकता नहीं है। मेरा खुला हुआ केश-कलाप ही मुझे अधिक प्रानन्दप्रद जान पड़ता है। मेरा मुंह भी न पोछो (जाकर किसी गायकी पीठ सहलानां), मुझे अपने मुँहपर घना पनीना ही अच्छा लगता है। (मुझमें तुम्हारी तरह गोवर्धन उठानेकी शक्ति नहीं है, मैं तो फूलोंके भारसे ही थक जाती है। यतः) मेरे सिरके बालोंमें मालतीके बहुत-से फूल न गूंयो; क्योंकि भारसे मेरे सिरमें दर्द होने लगेगा। (५) किलकिञ्चित
वर्षके कारण होनेवाले गर्व, अभिलाप, रोदन, मुसकान, असूया, भय और क्रोधका सम्मिश्रण ‘किलकिञ्चित‘ कहलाता है। जैसा कि कथन है
गर्वाभिलाषरुदितस्मितासूयाभयक्रुधाम् ।
संकरीकरणं हर्षादुच्यते किलकिञ्चितम् ॥
किलकिञ्चितका उदाहरण
अन्तः स्मरतयोज्ज्वला जलकणव्याकीर्णपक्ष्मा कुरा
किंचित्पाटलिताञ्चला रसिकलोसिक्ता पुरः कुञ्चती।
रद्धायाः पथि माधवेन मधुर व्याभुग्नतारोत्तरा
राधायाः किलकिञ्चितस्तबकिता दृष्टिः श्रियं वः क्रियात् ।।
दानघाटीके मार्गमें शुल्क ग्रहण करनेके बहाने श्यामसुन्दर माधवके द्वारा रोकी गयी श्रीराधाकी दृष्टिरूपिणी कल्पलता, जो किलकिञ्चितरूपी पुष्पगुच्छसे सुशोभित है, आप लोगोंकी धीवृद्धि कर। वह दृष्टि भीतरसे तो मन्द मुसकानके कारण उज्ज्वल है, परंतु ऊपरते किञ्चित् रुदनके कारण उसकी पलकें अश्रुजलके कणोंसे व्याप्त है। उसका प्रान्तभाग क्रोधसे कुछ लाल हो गया है। साथ ही अभिलापायुक्त होनेके कारण वह दृष्टि रसिकतासे भलीभाँति अभिषिक्त हो रही है। सामनेसे भयवश संकुचित होती है तथा गर्व और असूयावश टेढ़ी हुई पुतलीके कारण वह और भी श्रेष्ठतर शोभासे संयुक्त जान पड़ती है। (६) मोट्टायित
प्रियतमविषयक प्रीतिकी भावनासे प्रियतमके स्मरण तया वार्ता आदिके समय हृदयमें उसके प्रति रुचि-अभिलाषाका प्रकट हो जाना मोट्टायित‘कहलाता है।
कान्तस्मरणवार्तादौ हृदि तद्भावभावतः।
प्राकटयमभिलाषस्य मोट्टायितमुदीयते ॥
मोट्टायितका उदाहरण
न बूते क्लमबीजमालिभिरलं पृष्टापि पाली यवा
चातुर्येण तवनतस्तव कथा ताभिस्तदा प्रस्तुता।
तां पीताम्बर जम्ममाणददनाम्भोजा क्षणं शृण्वती
बिम्बोष्ठी पुलकविउचितवती फुल्लां कदम्बश्रियम् ॥
(वृन्दादेवी श्रीकृष्णसे कहती हैं–)
श्यामसुन्दर ! जब सखियोंके बहुत पूछनेपर भी पालिका अपनी मानसिक व्यथाका कारण नहीं बता रही थी, तब चतुराईसे उन सखियोने उत्तके मागे तुम्हारी चर्चा छेड़ दी। तब वह मुखारविन्दसे जनाई लेती हुई उस चर्चाको सुनने लगी। फिर तो एक ही क्षणमें बिम्बफलके सदृश लाल-लाल अधरदाली पाली का रोमरोम खिल उठा और वह अपने पुलकित अङ्गोसे फूले हुए कदम्बकी शोभाका अनुकरण करने लगी। (७) कुट्टमित
प्रियतमके द्वारा स्पर्श किये जानेपर हृदयमें प्रसन्नता होते हुए भी सम्भ्रम्से व्यथित-सी होकर प्रेयसी जो वाहरसे क्रोध दिखाती है, उसे ‘कुट्टमित‘ कहते है
प्राप्ते प्रियतमस्पर्श हत्प्रीतावपि सम्भ्रमात ।
बहिः क्रोधो व्यथितवत्प्रोक्तं कुट्टमितं बुधैः ।।
(८) विव्वोक
गर्व और मानसे अपने अभिमत कान्त वा कान्त द्वारा दी हुई वस्तुका अनादर करना ‘विवोक‘ कहलाता है
इष्टेऽपि गर्वमानाभ्यां विवोकः स्यादनादरः।
गर्वमे अनादरका उदाहरण
प्रियोक्तिलक्षण विपक्षसंनिधौ
स्वीकारितां पश्य शिखण्डमौलिना।
श्यामातिवामा हृदयंगमानपि
सर्ज दरानाय निरास हेलया।
(रूपमञ्जरी गिरी हुई कुवलयमालाको दूरने दिखाती हुई कहती है-) • सखी! देखो, (जहाँ श्रीराधा और चन्द्रावली नहीं थी, वहाँ) विपक्षवर्गकी सुन्दरियोंके समीप लाख-लाख प्यारी-प्यारी बातें कह कर श्यामसुन्दरने प्राग्रहपूर्वक यह माला श्यामा नामकी सखीको पहनने के लिये विवश किया था, किंतु अत्यन्त वामा श्यामाने इस हृदयंगम मालाको भी तनिक मूंघकर अवहेलनापूर्वक निकाल फेंका (और कहा-ऐमी माला तो मेरी दामी भी नहीं पहनती)।
– मानके कारण अनादरका उदाहरण
हरिणा सखि चाटनण्डली क्रियमाणामवमन्य गन्युतः।
नवृधाच सुशिक्षितामपि स्वयमध्यापय गौरि शारिकाम् ॥
(कलहान्तरिता गौरीसे उसकी सखी कहती है-)
सखी गौरी! श्यामसुन्दर बीहरि जो इतनी अनुनय-विनयसे भरी प्यारीप्यारी बातें कह रहे है, उनकी क्रोधवश अवहेलना करके इस सुशिक्षित शारिकाको भी जो स्वयं ही पढ़ाने चली हो-यह व्यर्थका बहाना न लो। (अन्यथा इनके चले जानेपर पछताना पडेगा) । (8) ललितयहाँ नेत्र, हाथ, पैर आदि अङ्गोंकी भूविलाससहित मनोहर एवं सूकुमार विन्यास-भङ्गी (संस्थानकला) प्रकट होती है, वहाँ उसे ‘ललित‘ कहा गया है
विन्यासभनिरङ्गानां भूविलासमनोहरा।
सुकुमारा भवेद्यत्र ललितं तदुदीरितम् ॥
ललितका उदाहरण
सभ्रूभङ्गमनङ्गबापजननीरालोकयन्ती लताः
सोल्लासं पवपङ्कजे दिशि दिशि प्रेलोलयन्स्युज्ज्वला।
गन्धाकृष्टधियः करेण मृदुना व्याधुन्वती षट्पदान्
राधा नन्दति कुञ्जकन्दरतटे वृन्दावनधीरिव ।।
(श्रीकृष्ण दूरसे श्रीराधाको देखकर उनकी छविका वर्णन करते हैं-)
गौरोज्ज्वल कान्तिसे युक्त श्रीराधा कामदेवके बाणस्वरूप पुप्पोंको जन्म देनेवाली वृन्दावनकी लतानोको भौहें टेढ़ी करके देख रही है (तुम्हारे फूलोंको ही बाण बनाकर कामदेव मुझपर प्रहार करता है—यह उपालम्भ-सा दे रही है), प्रत्येक दिशामें अपने चरणारविन्दोंको उल्लासपूर्वक ले जाती या चलाती है, अपने अङ्गोंकी सहज गन्धपर प्राकृष्ट हुए भ्रमरोंको कोमल हायसे हटा रही है। इस प्रकार कुन्जभवनके किनारे घूमती हुई श्रीराधा वृन्दावनकी मूर्तिमती लक्ष्मीकी भांति प्रानन्दित होती (और मुझे भी आनन्द प्रदान करती) है। (१०) विकृत
जहाँ लज्जा, मान और ईर्ष्या आदिके कारण अपनी अभीप्ट बात वाणीसे नही कही जाती, अन्य चेप्टाग्रोसे ही व्यक्त की जाती है, वहाँ इस अवस्थाको ‘विकृत‘ कहते हैं
‘हीमानेयादिनिर्यन नोच्यते स्वविवक्षितम् ।
व्यज्यते चेष्टवैवेदं विकृतं तद्विदुर्बुधाः ॥३१॥
लज्जासे विकृतका उदाहरण
निशमन्य मुकुन्द भन्नुशाददयितमत्र सुन्दरी।
न गिराभिननन्द किंतु सा पुलकेनंद कपोलशोभिना ।।
(मुवल श्रीकृष्णले कहते है–)
मुकुन्द ! मेरे मुखस तुम्हारी अभ्यर्थना (नियत संकेतस्थानपर दर्शन देनेका अनुरोध) मुनकर सुन्दरी श्रीराधाने (लज्जाबश) वाणीसे तो स्वीकृति नहीं दी, किंतु कपालोंपर सुशोभित होनेवाले पुलकसे ही उस दातका अभिनन्दन किया है।
मानसे विकृतका उदाहरण
मय्यासक्तवति प्रसाधनविधी विस्मृत्य चन्द्रग्रह
तविज्ञप्तिसमूत्सुकापि बिजहाँ मौनं न सा मानिनी ।
माधुर्यपोषकत्वेन भौग्ध्यं चकितमित्यपि ।
मुनेरसम्मतत्वेऽपि रसिकः स्वीकृतं द्वयम् ।
यथोचितममी जया माधवेऽपि मनीषिभिः ॥३२॥
भरत मुनिको मान्य न होनेपर भी अन्यान्य रसिकोंने माधुर्यके पोपक होनेके कारण मौध्य और चकित‘ नामक दो अलंकार और स्वीकार किये हैं। श्रीब्रजदेवियोंके दर्शन आदिसे श्रीमाधवमें भी यथायोग्य ये अनुभाव प्रकट होते हैयह मनीषी पुरुपोंको ध्यानमें रखना चाहिए ।।३२।।
किंतु श्यामलरत्नसम्पुटदलेनावृत्य किंचिन्मुखं
सत्या स्मारयति स्म विस्मितमसो मामौपरागीं श्रियम् ।।
(द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्ण उद्धवसे कहते हैं-)
सखे ! मैं तो चन्द्रग्रहणकी बात भुलकर सत्यभामाका शृङ्गार करने लग गया था। सत्यभामा यह सूचित करनेके लिये उत्सुक थी कि ‘ग्रहणकी वेला है, जाकर स्नान-दान आदि कीजिये; तो भी वह मानिनी अपना मीन नहीं तोड सकी, अपितु श्यामल रत्नमय सम्पुट-दलसे अपने मुखको कुछ ढककर मुझे (उस भूली हुई) चन्द्रग्रहणकी झांकीका स्मरण दिलाने लगी। यह देखकर मुझको उसकी विलक्षण वुद्धिपर बड़ा विस्मय हुआ।
ईर्ष्यासे विकृतका उदाहरण
वितर तस्करि मे मुरलीं हृतामिति मदुद्धरजल्पविवृत्तया।
भृकुटिभंगुरमर्कसुतातटे सपदि राधिकयाहमुदीक्षितः।।
(बीकृष्ण सुबलसे कहते हैं–)
संखे! मैने जाती हुई राधिकाको सम्बोधित करके कहा-‘यो तस्करी तूने मेरी मुरली चुराई है, दे दो।‘ मेरी इस उद्दण्डतापूर्ण वातको सुनकर राधिका घूम पड़ी, फिर भी उसने अपने मनकी बात कही नहीं। उसने यमुनाजीके तटपर भौंहें टेढ़ी करके तत्काल मेरी ओर घूरकर देखा (और उस दृष्टिसे ही यह सूचित कर दिया कि ‘चलो, मैयासे कहकर तुम्हारी कैसी गत बनाती हैं।‘)
१ मौग्ध्य-जाने हुए विषयको भी अज्ञकी भांति प्रियतमके सामने पूछना मौग्ध्य कहा गया है
ज्ञातया यज्ञवत्पृच्छा प्रियाग्ने मौग्ध्यमीरितम् ।
मौग्ध्यका उदाहरण
कास्ता लताः क्व वा सन्ति केन वा किल रोपिताः।
कृष्ण मत्कणन्यस्तं यासां मुक्ताफलं फलम् ॥
अथोद्भास्वराः उद्धासन्ते यत्स्वगात्रे तस्मादुद्धास्वरा- मताः।
नीव्युत्तरीयधम्मिल्लस्रसनंतनुमोटनम् ॥३३॥
जृम्भा प्राणस्य फुल्लत्वं निःश्वासो हुंकृतिस्तथा।
नृत्यं विलुठितं गोतं क्रोशनं चानपेक्षता ॥३४॥
भूम्यालोकोऽट्टहासश्च घूर्णा हिक्कादयस्तथा।
ते शीताः क्षेपणाश्चेति यथार्थाख्या द्विधोदिताः ॥३५॥
शीताः स्युर्गीतजृम्भाद्या नृत्याद्याःक्षेपणाभिधाः ॥३६॥
उद्भास्वर अनुभावोंका लक्षण भावयुक्त जनोंके अपने ही शरीरमे प्रकाशित होनेवाले अनुभाव ‘उद्धास्वर‘ कहलाते हैं।
कटिबन्धनका ढीला होना, उत्तरीय वस्त्रका खिसक जाना, सिरके वालोंका खुल जाना, शरीरका टूटना, जॅभाई लेना, नासिकाका फूलना, दीर्घ नि श्वास लेना, हंकार करना, नाचना, धरतीपर लोटना, गीत गाना, चिल्लाना, किसीको अपेक्षा न करके उदासीन रहना, भूमिकी ओर देखना, अट्टहास करना, घूमना या चक्कर माना और हिचकी लेना आदि अनुभाव उद्भास्वर कहे गये हैं। ये शीत और
(सत्यभामा पूछती है–)
प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण! वे लताएँ कौन-सी हैं, कहाँ हैं और किसने उनका बीजारोपण किया है, जिनका फलरूप यह मुक्ताफल मेरे कंगनमे जड़ा गया है ?
चकित–भयका स्थान न होनेपर भी प्रियतमके सामने अधिक भयभीत होना ‘चकित‘ कहलाता है
प्रियाग्ने चकितं भीतेरस्थानेऽपि भषं महत् ।
चकितका उदाहरण
रक्ष रक्ष मुहरेष भीषणो धावति श्रवणचम्पकं मम ।
इत्युदीर्य मधुपाद्विशङ्किता सस्वजे हरिणलोचना हरिम् ।।
(कोई सखी अपनी सखीसे कहती है-)
‘प्यारे बचायो ! यचामो, यह भयानक भ्रमर मेरे कानोंके भूपण बने हुए चम्पक पुष्पको पोर दौड़ रहा है। यों कहकर भ्रमरसे डरी हुई वह मृगलोचना बाला श्यामसुन्दरसे लिपट गयी। – [चम्पाके फूलपर भ्रमर नहीं जाता, अतः भयका स्थान न होनेपर भी भ्रमरके दर्शनमात्रसे उसको भय हुआ।] क्षेपग भेदसे दो प्रकारके हैं। गीत, जुम्भा आदिको शीत और नृत्य आदिको क्षेपण कहते हैं* ॥३३-३६॥
‘ अथ वाचिकाः
आलापोऽथ विलापश्च संलापश्च प्रलापकः ।
अनुलापोऽपलापश्च संदेशश्चातिदेशकः ॥३७॥
अपदेशोपदेशौ च निर्देशो व्यपदेशकः
वाचिकाः कथिता एते द्वादशामी मनीषिभिः ॥३॥
वाचिक अलंकार आलाप, विलाप, संलाप, प्रलाप, अनुलाप, अपलाप, संदेश, पतिदेश, अपदेश, उपदेश, निर्देश और व्यपदेश–ये बारह वाचिक अलंकार मनीषी पुरुपोंने बताये है (जो माधुर्यके पोपक हैं।) १३७-३८।।
* उद्भास्वरका एक उदाहरण
स्फुरति मुरद्विषि पुरतो दुरात्मनामपि विमुक्तदे गौरि ।
नाद्भुतमिदं यदीथुः संयमिनस्ते कचा युक्तिम् ॥
सखी गौरी, दुरात्माओंको भी मुक्ति देनेवाले मुरारि जब सामने प्रकाशित होने लगे, उस समय तुम्हारे संयमी केश (बँधे हुए केशकलाप) जो मुक्त हो गये (उनके दर्शनकी हड़बड़ाहटमें खुल गये), यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।
इनका विशेष परिचय इस प्रकार है– पालाप–प्रिय और चाटु वचनको ‘आलाप‘ कहते हैं।
कठोरा भव मद्वी वा प्राणास्त्वमसि राधिके ।
अस्ति नान्या चकोरस्य चन्द्रलेखां विना गतिः ।।
(श्रीकृष्ण कहते हैं-) राधिके ! तुम कठोर हो जाओ या कोमल, मेरे प्राण तुम्ही हो। चकोरके लिए चन्द्रलेखाकी सौन्दर्य-सुधाका पान करनेके सिय दूसरी कोई गति नहीं है। विलाप-दुःखजनित वचनका नाम ‘विलाप‘ है। यथा–
परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिङ्गला।
तज्जानतीनां नः कृष्णं तयाप्याशा दुरत्यया ॥
स्वेच्छाचारिणी पिङ्गला भी यह बात कह गयी है कि किसीसे किसी प्रकारकी पाशा न रखने में ही परम सुख है। हम लोग यह जानती है, तो भी श्रीकृष्णविषयक आशाका परित्याग करना हमारे लिये सर्वथा कठिन है। संलाप–उक्ति-प्रत्युक्तियुक्त वचनको ‘सलाप‘ कहते हैं। यथा
उत्तिष्ठारातरौ मे तरुणि मम तरोः शक्तिरारोहणे का
साक्षादास्यामि मुग्धे तरणिमिह र देराख्यया का रतिमें।
वार्तेयं नौत्रसङ्ग कथमपि भक्तिा नावयोः संगमार्था
वार्तापीति स्मितास्यं जितगिरनजितं राधयाऽराधयामि ।।
(मानसी गङ्गामे नौका-विनोदकी इच्छासे श्रीकृष्ण श्रीराधासे कहते हैं-) ‘तरुणि! चल पास ही मेरी नीकापर चढ़ जा।‘ (‘तरौं का अर्थ ‘पेड़पर भी होता है, यही अर्थ लेकर राधा उत्तर देती हैं–) ‘भला, पेड़पर चढ़नेकी मझमें क्या शक्ति है?’ (श्रीकृष्ण कहते हैं-) ‘मुग्थे! मै तरु (पेड़) पर चढने को नहीं कहता, यह जो सामने तरणि (नौका) है, इसकी वात कहता है।‘ (तरणि का अर्थ ‘सूर्य‘ लेकर रावा उत्तर देती है-) ‘सूर्य की बात कहने से मुझे क्या प्रसन्नता होगी?’ (श्रीकृष्ण–) परी! यह नौकाके प्रसङ्गमें वार्ता चल रही है।‘ (‘नौ प्रसङ्गे‘ का दूसरा अर्थ है- हम दोनों के समागमके विषयमें यही अर्थ लेकर राधा उत्तर देती हैं–) हम दोनोंके समागमके विषयमें तो किसी तरह कोई बात होगी ही नहीं। यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कराकर रह गये, फिर कुछ कहते नहीं बना। इस तरह श्रीराधाने जिनकी वाणीको जीत लिया, उन अजित श्रीकृष्णकी मैं पाराधना करता हूँ। प्रलाप-निरर्थक वाक्यको ‘प्रलाप‘ कहा गया है। यथा–
करोति वादं मुरली रली रली बजाङ्गनाहन्मथनं थनं थनम् ।
ततो विदूना भजते जते जते हरे भवन्तं ललिता लिता लिता ।।
इस उदाहरण में ‘रलो रलो‘, ‘थनं थन‘, ‘जते जते‘, ‘लिता लिता‘-ये शब्द निरर्थक है।
ग्रमलाप-किसीके विषय में पहले कुछ संदेहात्मक बात कहकर फिर कुछ निश्चयामक बात कहना ‘अनुलाप‘ कहलाता है। यथा–
कृष्णः कृष्णो नहि नहि तापिच्छोऽयं वेणुर्वेणुर्नहि नहि भङ्गोद्घोषः।
गुञा गुञ्जा नहि नहि बन्धूकाली नेत्रे नेत्रे नहि नहि पद्मद्वन्द्वम् ॥
(बन्धूक पुष्प, स्थलकमल तथा तमाल वृक्ष–तीनों एक ही स्थानपर आसपास थे; उन्हें देखकर श्रीराधा ललिता से कहती हैं-)
सखी! वह देखो, कृष्ण हैं कृष्ण ; नहीं, नहीं, यह तो तमालका वृक्ष है। अच्छा, वह सुनो-मुरली बजी, मुरली; नहीं, नहीं यह तो भ्रमरोंका गुजारव जान पड़ता है। इधर देखो, गुजा गुजा; नही नही, यह तो बन्धूक पुष्पो की श्रेणी है। वे रहे दो नेत्र ! नहीं-नहीं, ये तो दो कमल हैं।
अपलाप—किसीके पूर्वकथित वाक्यको दूसरे अर्थमें योजित करके बोलना ‘अपलाप‘ कहलाता है। यथा–
फुल्लोज्ज्वलवनमालं कामयते का न माधवं प्रमदा।
हरये स्पृहयसि राधे नहि नहि वैरिणि वसन्ताय ।
(कलहान्तरिता राधा विशाखासे कहती है–) खिले हुए फूलोंसे उज्ज्वल वनमाला धारण करनेवाले माधवकी कामना कौन युवती नहीं करती? (विशाखा बोल उठी-) राधे ! श्रीकृष्णसे मिलना
चाहती हो क्या? (श्रीराधा उत्तर देती हैं-) नहीं-नहीं, वैरिन ! Fमैं तो वसन्त ऋतुकी कामना करती हूँ। (यहाँ माधवका अर्थ श्रीकृष्ण भी है और वसन्त भी–वसन्त ऋतुमै सारी वन-राजियाँ फूलोंकी शोभासे खिल उठती है और श्रीकृष्ण उज्ज्वल पनमाला धारण करते है।)
संदेश-अपनेसे दूर या परदेशमें रहनेवालेके पास समाचार या वार्ता भेजना ‘संदेश‘ कहलाता है। यथा
व्याहर मथुरानाये मम संदेशप्रहेलिकां पान्य।
विकला कृता कुहभिलभते चन्द्रावली क्व लयम् ॥
(चन्द्राबलीकी सखी पद्मा एक पथिकसे कहती है-)
बटोही! मथुरानाथके पास जाकर मेरे इस संदेशकी पहेलीको कह देनाकुहू (अमावस्या अथवा कोकिलकी कुहू कुहू की ध्वनि) से विकल (कलाहीन या व्याकुल) की हुई चन्द्रावली (चन्द्रमाकी श्रेणी या चन्द्रावली नामक गोपी) कहाँ लयको प्राप्त होगी?
अतिदेश-‘अमुकका यह कथन उसके स्वामीका ही कथन है‘ यों बोलना ‘अतिदेश‘ कहलाता है। यथा
वृथा कृयास्त्वं विचिकित्सितानि मा गोकुलाधीश्वरनन्दनात्र ।
गान्धविकाया गिरमन्तरस्थां वोगेव गीति ललिता व्यनक्ति ।
(वृन्दा श्रीकृष्णसे कहती है-)
गोकुलेश्वरनन्दन। इसमें व्यर्थ संशय न करो-ललिताने जो कड़ी फटकार सुनायी है, वह उसकी नही, श्रीराधाके ही हृदयकी वाणी है। जैसे बजानेवालेक मनका गीत ही वीणा अपने झंकारों द्वारा व्यक्त करती है, उसी तरह राधाके मन की बात ही ललिता कहती है।
अपदेश—अन्य विषयका कथन करके इष्टका बोध कराना ‘अपदेश‘ कहलाता है। उपदेश-शिक्षाके लिए प्रयुक्त वचनको ‘उपदेश‘ कहते हैं। यथा
मुग्धे यौवनलदमोविद्युद्विभ्रमलोला
त्रैलोक्याभूतरूपो गोविन्दोऽतिदुरापः।
तद्वन्वावनकुञ्ज गुञ्जभङ्गसनाथे
श्रीनाथेन समेता स्वच्छन्दं कुरु केलिन् ।
(तुङ्गविद्या मानिनी श्रीरावासे कहती है-)
मुग्धे! यह यौवनकी शोभा विद्युद्-विलासके समान चञ्चल है, टिकनेवाली नहीं है; त्रिलोकीमें जिनका रूप सबसे अद्भुत है, वे गोविन्द भी अत्यन्त दुर्लभ है। अतः गुजारव करते हुए भ्रमरोंसे सुशोभित वृन्दावनके निकुञ्जमे इन श्रीनाथ श्यामसुन्दरके साथ तुम स्वेच्छानुसार क्रीड़ा करो।।
निर्देश-‘वह, यह, मैं‘ इत्यादि रूपसे संकेत करके परिचय देना ‘निर्देश‘ कहलाता है। यथा
सेयं में भगिनी राधा ललितेयं च मे सखी।
निमहं कृष्ण तिन mean.॥
अथ सात्विकाः भावैः समाक्रान्तमिदं हि चित्तं
सुकोमलं सत्त्वनितीर्यते । बुधैः।
सत्वात्तु तस्मादुदिता हि भावास्ते
सात्त्विकाः सुप्रथिताष्टसंख्याः ॥३६।।
सात्त्विक भाव प्रिया-प्रियतम-सम्बन्धी भावोंसे आक्रान्त हुए इस परम कोमल चित्तको सत्त्व कहते हैं। उस सत्त्वसे उत्पन्न हुए भावोंको सात्त्विक भाव कहते हैं, जिनकी अष्टनख्या प्रसिद्ध है ।।३।।
चित्तं सबलमात्मानं सत्त्वीभूय यदा न्यसेत् ।
प्राणे च विकृतः प्राणस्तनुं संक्षोभयत्यलन् ॥४०॥
तदा भवन्त्यमी भावास्तनों स्तम्भावयः क्रमात् ।
सत्वमात्रोद्भवाः सर्वभिन्नाः सन्त्यनुभावतः॥४१॥
चित्त सत्त्व बनकर अपनी प्रबल शक्तिका जब प्राणमें संचार करता है, तब प्राग विकारयुक्त होकर देहमें क्षोभ उत्पन्न करता है। उस समय भक्तके शरीरमें ये स्तम्भ आदि भाव उत्पन्न होते है। अनुभावोंकी उत्पत्ति भी सत्त्वगे ही होती है, परन्तु बुद्धिपूर्वक होती है और सात्त्विक भाव केवल सत्त्वसे अवुद्धिपूर्वक उत्पन्न होते हैं; अतएव अनुभावोंसे ये भिन्न माने गये हैं ॥४०-४१॥
स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभेदोऽथ वेपथुः ।
वैवर्ण्यमश्रु प्रलय इत्यष्टौ सात्विकाः स्मृताः ॥४२॥
स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च, स्वरभङ्ग, कम्प, वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय-ये पाठ सात्विक भाव है ॥४२॥
(विशाखा श्रीकृष्णके पूछनेपर उनसे अपना और सखियोंका परिचय देती है-)
श्रीकृष्ण ! यह मेरी बहिन राधा है, यह मेरी सखी ललिता है और यह मैं विशाखा हूँ। हम तीनों यहाँ फूल लेनेके लिये प्रायी है। ___ व्यपदेश—किसी बहानेसे अपनी अभिलापाको कह देना ‘व्यपदेश‘ कहलाता है।
उदयं वाञ्छति विपिने कापि चकोरी कलाधिपतेः।
श्रुत्वेति गिरं सख्या ययौ हरिः श्रीवने भ्रमितुम् ॥
‘वनमें कोई चकोरी कलानाथ (चन्द्रमा) का उदय चाहती है।‘ सखीकी यह बात सुनकर श्रीहरि श्रीवनमें भ्रमणके लिये चल दिये।
प्राणो भूमिस्थितः स्तम्भं करोत्यश्रु जलस्थितः।
तेजःस्थः स्वेदवैवर्ण्य प्रलयं खमुपाश्रितः॥४३॥
प्राण भूमिमें स्थित होकर स्तम्भ को प्रकट करता है, इसी तरह जलमें स्थित हो वह अश्रुको, तेजमें स्थित होकर स्वेद और वैवर्ण्यको तथा प्राकाशमें स्थित होकर मूर्छाको उत्पन्न करता है ।।४।।
प्राणः प्राणस्थितस्त्रीणि रोमाञ्चं वेपथु तथा।।
स्वरभेदं मन्दमध्यतीव्रभेदैः करोत्यसौ ॥४४॥
प्राण प्राणमें ही स्थित होकर मन्द, मध्य और तीय अवस्थाके भेदसे कम्प, रोमाञ्च और स्वरविकार–इन तीन सात्त्विक भावोंको उत्पन्न करता है ।।४४।।
बहिरन्तश्च विक्षोभविधायित्वादतः स्फुटम् ।
प्रोक्तानुभावतामोषां भावता च मनीषिभिः ॥४५॥
ये बाहर और भीतर भी ओभ उत्पन्न करते हैं, अतः मनीषी पुरुषोंने इन विकारोंको अनुभाव और भाव-दोनों नामोंसे कहा है ।।४।।
स्तम्भश्चेष्टाप्रतीघातो भयहर्षामयादिभिः ।
वपुर्जलोद्गमः स्वेदो रतिधर्मश्रमादिभिः ॥४६॥
भय, हर्ष और रोग आदिसे चेष्टाओंका अवरोध हो जाना ‘स्तम्भ‘ कहलाता है। रति, धर्म (धूप) और श्रम आदिके कारण शरीरसे जलबिन्दुनोंका प्रकट होना स्वेद या पसीना कहलाता है। ।।४६।।
* स्तम्भका उदाहरण
अभ्युक्ष्य निष्कं पतयालुना मुहुः
स्वेदेन निष्कम्पतया व्यवस्थिता ।
पञ्चालिका कुञ्चितलोचना कथं
पञ्चालिकाधर्ममवाप राधिका ।।
(श्रीकृष्ण मधुमङ्गलसे कहते हैं–)
सखे ! वारंवार गिरती हुई पसीनेकी बंदोंसे अपने गलेके पदकको भिगोकर पाँच सखियोंके साथ निश्चल भावसे खड़ी हुई संकुचित नेत्रोंवाली राधिका आज पञ्चालिकाधर्म (कठपुतलीके-से स्वभाव) को कैसे प्राप्त हो गयी है ?
स्वेदका उदाहरण
ध्रुवमुज्ज्वलचन्द्रकान्तयष्टचा विधिना माधव निर्मितास्ति राधा।
यदञ्चति ताबकास्यचन्द्र द्रवतां स्वेदभरच्छलाद्विति ।।
हर्षाद्भुतभयादिभ्यो रोमाञ्चो रोमविक्रिया।
मदसम्मदपीडाद्यस्वर्य‘ गदगदं विदुः ।।४७॥
हर्ष, अद्भुत तथा भय आदिसे रोमावलियोंका खड़ा हो जाना ‘रोमाञ्च‘* कहा गया है। मद, सम्मर्द (हर्ष) और पीड़ा आदिके कारण वागीका गद्गद् हो जाना स्वरविकार (स्वरभङ्ग) कहलाता है। ॥४७॥
रागद्वेषश्रमादिभ्यः कम्पो गात्रस्य वेपथुः।
विषादमदरोषाधवर्णान्यत्वं विवर्णता ॥४८
(ललिता श्रीकृष्णसे कहती है-)
माधव! निश्चय ही परमोज्ज्वल चन्द्रकान्तमणियोके समूहसे विधाताने राधाके शरीरका निर्माण किया है, तभी तो तुम्हारे मुखचन्द्रके उदय होते ही उसका सारा अङ्ग स्वेदराशिके व्याजसे द्रवित होने लगता है। (यहाँ हर्प-जनित ‘स्वेद‘ का वर्णन है।)
* रोमाञ्चका उदाहरण
तं काचिन्नेत्ररन्ध्रण हृविकृत्य निमील्य छ।
पुलकाङ्गघुपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता ।।
(श्रीशुकमुनि राजा परीक्षित्से कहते हैं–)
कोई गोपी श्यामसुन्दरको नेत्रद्वारसे हृदयमें लाकर पलकोंकी किंवाड़ बन्द करके अङ्ग-अङ्गमें पुलक धारण किये, उनका गाढ़ आलिङ्गन करके योगीकी भांति परमानन्दमें निमग्न हो गयी।
स्वरभङ्गका उदाहरण
प्रेयस्यः परमाद्भुताः कति न मे दीव्यन्ति गोष्ठान्तरे
तासां नोज्ज्वलनमभङ्गिभिरपि प्राप्तोऽस्मि तुष्टि तया।
द्विरद्य मुहुस्तरङ्गदधरग्रस्तावणेया
राधायाः सखि रोषगद्गदपदैराक्षेपवाग्विन्दुभिः ।।
(श्रीराधाके सम्बन्ध में किसी समय एकान्तमें विशाखाके प्रति श्रीकृष्ण अपना सरस उद्गार प्रकट करते है–) .
सखी! इस बजके भीतर मेरी परम अद्भुत कितनी प्रेयसियाँ नहीं क्रीड़ा कर रही हैं। परंतु उनकी परम उज्ज्वल नर्मभङ्गियोंसे भी मुझे कभी वैसा संतोष नहीं प्राप्त हुआ, जैसा कि आज राधाके बार-बार कॉपते अधरोंमें ही विलीन हुए आधे अक्षरवाले सरोष गद्गद पदोंसे युक्त आक्षेपपूर्ण दो-तीन वाग्-विन्दुओंसे प्राप्त हुआ है।
राग, द्वेष और श्रम आदिसे शरीरमें कम्पका उदय होना ‘वेपथु‘*कहा गया है। विषाद, मद और रोष आदिसे वर्णका बदल जाना ‘वैवण्य‘ कहलाता है। ॥४॥
अश्रु नेत्रोद्भवं वारि क्रोधदुःखप्रहर्षजन् ।
प्रलयः सुखदुःखान्यां चेष्टाज्ञाननिराकृतिः॥४६॥
क्रोध, दुःख और हर्पसे नेत्रोंमे जल आ जाना ‘अश्रु‘ कहा गया है। सुख और दुःखसे चेष्टा और.ज्ञानका न रहना ‘प्रलय‘ कहलाता है ।।४।।
* वेपथुका उदाहरण
बल्लवराजकूमारे मिलिते पुरतः किमात्तकम्पासि ।
तव पेशलास्मि पावें ललितेयं परिहरातङ्कम् ॥
(ललिता फूल चुनती हुई श्रीराधासे कहती है-)
सखी! गोपराजकुमार श्यामसुन्दरके मिलनेपर तुम उनके सामने क्यो काँपने लगती हो? तुम्हारे पास यह चतुरा ललिता विद्यमान है, अतः भय त्याग दो। (यहाँ श्रीकृष्णदर्शनजनित हर्षसे होनेवाले कम्पका वर्णन है)।
वैवर्यका उदाहरण
विलसति किल वृन्दारण्यलीलाविहारे
कथय कथमकाण्डे ताम्रवक्त्रासि वृत्ता।
प्रसरदुदयरागग्रस्तपूर्णेन्दुबिम्बा
किमिव सखि ‘निशीथे शारदी जायते द्यौः॥
(श्रीकृष्णके वक्षःस्थल में अपना ही प्रतिविम्ब देखकर किसी अन्य प्रेयसीके भ्रमसे मानवती हुई राधिकासे श्रीकृष्ण कहते है-)
सखी! वृन्दावनमें जो सुखपूर्वक लीला-विहार चल रहा था, वह कितनी शोभा पा रहा था। उसमें सहसा तुम्हारा मुंह लाल कैसे हो गया? आधी रातके समय शरद ऋतुके याकाशमें पूर्ण चन्द्रमाका मण्डल उदयकालिक कुङ्कुम-रागते अस्त कैसे हो सकता है।
अश्रुका उदाहरण
अतिक्रम्यापाङ्ग श्रवणपथपर्यन्तगमन
प्रयासेनेवाणोस्तरलतरतारं पतितयोः।
तदानीं राधायाः प्रियतमसमालोकसमये
पपात स्वेदाम्भःप्रसर इव हर्षाश्रुनिकरः॥
(जयदेव कवि कहते हैं–)
उस समय, जब कि श्रीराधाके लिये प्रियतमके दर्शनकी बेला उपस्थित थी, उनके दोनों नेत्र अपाङ्गकी सीमाको लांघकर कानोंतक पहुँचने के प्रयाससे मानो थककर प्रियतमके ऊपर गिर पड़े थे, उनकी पूतलियाँ चञ्चल हो उठी थीं; उस
क्षण श्रीराधाके उन नेत्रोंसे हर्षके आँसुमोंकी राशि इस तरह गिरने लगी, मानो सधमके कारण पसीना झर रहा हो।
अथ व्यभिचारिणो भावाः
विशेषतो येऽभिमुखं चरन्ति
तरङ्गवत्स्थायिनमूर्जयन्तः॥
इमे हि भावा व्यभिचारिसंज्ञा
वचोऽङ्गसत्त्वरधिगम्यरूपाः ॥५०॥
व्यभिचारी भाव
(अब तैतीस व्यभिचारी भावोंको कहते हैं–)
जो विशेषतः स्थायिभावके अभिमुख तरङ्गकी तरह विचरण करते हुए उस स्थायिभावका पोषण करते हैं और वागीसे, नेत्र-भृकुटि आदि मङ्गोस तथा सत्त्वजनित अनुभावोंसे जिनका स्वरूप जाना जाता है, वे ‘व्यभिचारी भाव‘ कहलाते हैं॥५०॥