Socrates In Hindi Biography | महात्मा सुकरात का जीवन परिचय : दुनिया का सबसे प्राचीन विचारक माने जाते हैं

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दार्शनिक सुकरात का जीवन परिचय, जीवनी, परिचय, इतिहास, जन्म, शासन, युद्ध, उपाधि, मृत्यु, प्रेमिका, जीवनसाथी (Socrates History in Hindi, Biography, Introduction, History, Birth, Reign, War, Title, Death, Story, Jayanti)

यूनान की एक महान दार्शनिक सुकरात जो दुनिया का सबसे प्राचीन विचारक माने जाते हैं। वह प्राचीन ग्रीस में जन्म हुए थे और आपने अमूल्य विचार से ग्रीक की जनता को आंदोलित किए थे। इसलिए उन्हें पश्चिमी विचारों का जनक भी कहा जाता है। तो चलिए जानते हैं सुकरात के जीवन परिचय (Biography of  Socrates in Hindi) के बारे में ।

सुकरात
पूरा नाम सुकरात
जन्म 469 ई. पू.
जन्म भूमि एथेंस
मृत्यु 399 ई. पू.
मृत्यु स्थान एथेंस
पति/पत्नी दो पत्नियाँ- ‘मायरटन’ तथा ‘जैन्थआइप’
कर्म भूमि यूनान
कर्म-क्षेत्र पाश्चात्य दर्शन
प्रसिद्धि दार्शनिक
नागरिकता ग्रीक
मृत्यु कारण सुकरात पर देवताओं की उपेक्षा करने और युवाओं का भड़काने का आरोप लगाकर मुक़दमा चलाया गया, जिसके फलस्वरूप उसे विष का प्याला पीने के लिए विवश किया गया।
शिष्य ‘अफ़लातून’ और ‘अरस्तू
अन्य जानकारी सुकरात एथेंस के बहुत ही ग़रीब घर में पैदा हुआ था। वह सेना की नौकरी में चला गया था और पैटीडिया के युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ा था। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे।

सुकरात(Socrates)

ग्रीक दर्शन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले महात्मा सुकरात का जन्म एथेन्स में हुआ था। इनके पिता का नाम साफ्रानिस्कस था जो अपने समय के अच्छे शिल्पकार थे और इनकी माता का नाम फीनरीट था जो गर्भरक्षक धात्री का कार्य करती थीं। अतः सुकरात गरीब माता-पिता के पुत्र थे। सर्वप्रथम इन्होंने अपने पिता के कार्य (पत्थर काटना) को अपनाया। बाद में प्रकृति विज्ञान के अध्ययन में लगे रहे। कुछ दिनों तक सॉफिस्ट लोगों के प्रवचन को भी सुना। सुकरात सादे जीवन और उच्च विचार के प्रतीक थे। जीवन में तीन बार वे युद्ध-क्षेत्र में भी उतरे और अपने शारीरिक शौर्य का पूर्ण परिचय दिया। उनका बाह्य व्यक्तित्व आकर्षक न था। वे नाटे, मोटे और कुरूप थे। उनकी नाक चौड़ी एवं चपटी थी। उनके होंठ मोटे थे। उनकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं तथा पुतलियाँ विचित्र रूप से घूमा करती थीं। वे प्रायः नंगे पैर घूमा करते थे तथा वाद-विवाद में अभिरुचि रखते थे। उनका आन्तरिक व्यक्तित्व हीरे के समान था।

वे आत्मविश्वास, सदाचार, साधुता तथा ईमानदारी के प्रतीक थे। उनका जीवन ऋषि तुल्य था। उन्हें कोई आवश्यकता न थी तथा वे परम सन्तुष्ट जीवनयापन करते थे। उनका विश्वास था कि वे दैवी कार्य के लिए जन्म लिए हैं। अतः वे जीवन भर एथेन्स नगर के नागरिकों को निःशुल्क धार्मिक और नैतिक शिक्षा दिया करते थे। उनके विषय में धर्म वाणी की गयी थी कि सुकरात सभी मनुष्यों में सर्वाधिक बुद्धिमान् हैं, तो उन्होंने इसका अर्थ यह समझा कि वे सचमुच अधिक बुद्धिमान हैं, क्योंकि उन्हें अपनी अज्ञानता का ज्ञान है जब कि अन्य लोग अज्ञानी होते हुए भी अपने को ज्ञानी समझते हैं। सुकरात का यह ध्येय था कि वे लोगों को अज्ञान मार्ग से विरत कर ज्ञानमार्ग की ओर प्रवृत्त करें। अन्त में ७० वर्ष की अवस्था में उन पर तीन अभियोग लगाये गये-

१. सुकरात ने राष्ट्रीय देवताओं की अवहेलना की।

२. राष्ट्रीय देवताओं के स्थान पर स्वयं कल्पित देवताओं को स्थापित किया।

३. उन्होंने एथेन्स के नवयुवकों को पथभ्रष्ट किया।

इन अपराधों के लिए महात्मा सकरात को जेल भेज दिया गया। वे एक माह तक जेल में रहे। उनके शिष्यों ने उन्हें वहाँ से भगाने का प्रयत्न किया; परन्तु सुकरात ने इसे स्वीकार नहीं किया। न्यायाधीशों ने उन्हें विषपान दिया। वे शान्तिपूर्वक विष का प्याला पीकर अमर हो गये।

प्लेटो ने अपनी एपोलोजी (Apology) नामक कृति में सुकरात के अभियोग की सफाई में दिये गए भाषण का पूर्ण उल्लेख किया है। महात्मा सुकरात ने सफाई देते हुए कहा था-एथेन्स के नागरिको! मैं तुम्हारा आदर और करता हूँ, किन्तु तुम्हारी आज्ञा मानने की अपेक्षा में ईश्वर की आज्ञा। जब तक मुझमें जीवन और शक्ति है, मैं दार्शनिक उपदेश देना और उसके स्वयं आचरण करना बन्द नहीं कर सकता और मेरा विश्वास है कि इस मेरी इस ईश्वर सेवा से बढ़कर और कोई भलाई नहीं हुई है।

शरीर तो आत्मा का बन्धन है। आत्मा अमर है। भले आदमी के लिए परलोक में कोई भय नहीं, वियोग का समय आ गया और हम अपने-अपने मार्गों पर चलते हैं, मैं मृत्य और तुम जीवनपथ पर। इनमें कौन-सा मार्ग उत्तम है ईश्वर ही जानता है। फीडो में सुकरात के अन्तिम समय का वर्णन है। वे अपने मित्रों को समझाते हैं कि आत्मा अमर है और सच्चरित्र के लिए परलोक में भी आनन्द है। फिर वे शान्तिपूर्वक हँसते-हँसते विषपान कर लेते हैं। फोडो के अन्तिम शब्द इस प्रकार है-इस प्रकार हमारे मित्र का अन्त हुआ, उस व्यक्ति का जो अपने समय का सर्वश्रेष्ठ पुरुष, सबसे बड़ा ज्ञानी और सबसे बड़ा चरित्रवान था।

सुकरात ने किसी दार्शनिक सिद्धान्त को जन्म नहीं दिया। उनकी कोई दार्शनिक कृति भी नहीं है। वे महात्मा थे और धार्मिक शिक्षा देना ही अपना पुनीत कर्तव्य समझते थे। सुकरात के दर्शन का ज्ञान हमें जेनोफेन की पुस्तक मेमोरेबीलिया तथा उनके शिष्य प्लेटो के डायलॉग से प्राप्त होता है। ऐतिहासिक सुकरात और प्लेटो के डायलॉग से सुकरात के विचारों में भेद करना असम्भव है। बट्रेण्ड रसेल का कहना है कि बहुत से मनुष्य ऐसे हैं जिनके विषय में निश्चित है कि बहुत कम जानकारी है और बहुत ऐसे हैं जिनके विषय में निश्चित है कि बहुत अधिक जानकारी है। परन्तु सुकरात के विषय में अनिश्चित यह है कि क्या हम बहुत अधिक जानते है या बहुत कम।

सुकरात की पद्धति

सुकरात दार्शनिक नहीं, वरन् नैतिक तथा धार्मिक शिक्षक थे। नैतिक शिक्षा की उनकी एक विशिष्ट पद्धति थी जिसे साक्रेटिक पद्धति (Socratic method) कहते हैं। इस पद्धति की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:-

१. सन्देहात्मक पद्धति (Sceptical Method) :

महात्मा सुकरात की प्रसिद्ध उक्ति है कि अपरीक्षित जीवन जीने योग्य नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि परीक्षित सत्य ही यथार्थ सत्य है तथा ग्रहणीय है। सत्य की परीक्षा के लिए हम सन्देह से प्रारम्भ करना होगा। किसी समस्या पर सन्देह प्रकट करने के लिए सर्वप्रथम वे अपनी अज्ञानता या अनभिज्ञता दिखलाते थे। वस्तुतः वे जानते हुए भी नहीं जानने का आडम्बर करते थे। इसे साक्रेटिक विडम्बना (Socratic irony) कहते है। सत्य की परीक्षा करने के लिए सर्वप्रथम उस सत्य के सम्बन्ध में वे बिल्कुल अनभिज्ञ से हो जाते थे जिससे परीक्षा सम्यक् हो।

२. विवादात्मक पद्धति (Conversational Method):

सुकरात वाद-विवाद के प्रेमी थे। वे प्रत्येक समस्या का समाधान वाद-विवाद से ही करते था। यह वाद-विवाद प्रश्न तथा उत्तर के रूप में हुआ करता था। यह प्रश्नोत्तर केवल व्यर्थ नहीं अत्यन्त सार्थक तथा शिक्षाप्रद (Didactic) था। सुकरात का विश्वास था। कि सम्पूर्ण ज्ञान आत्मा में निहित रहता है। हमारा काम केवल उसे आत्मा से निकालकर विकसित करना है। इस प्रणाली को धात्री प्रणाली (Maieutic method) भी कहा गया है। जिस प्रकार धात्री शिशु की उत्पत्ति में केवल माता की सहायता करती है। उसी प्रकार शिक्षा भी आत्मा में अन्तर्निहित ज्ञान के विकास में सहायता करती है। वाद-विवाद से अन्तर्निहित सत्यों का प्रकाश होता है।

३. प्रत्ययात्मक पद्धति (Conceptual Method) :

सुकरात के अनुसार ज्ञान प्रत्ययात्मक होता है। प्रत्यय किसी जाति के सभी व्यक्ति में पाये जाने वाले सामान्य तथा सार गुणों के अनुसार बनते हैं। उदाहरणार्थ, विवेकशीलता तथा पशुता मनुष्य के सामान्य तथा सार गुण है। इन्हीं के आधार पर मनुष्य प्रत्यय का निर्माण होता है। अतः मनुष्य का यथार्थ ज्ञान इसी आधार प्रत्यय से, परिभाषात्मक पद्धति भी कहते हैं। विवेकशीलता तथा पशुता ही मनुष्य की परिभाषा है।

४. आगमनात्मक पद्धति (Inductive Method):

हम किसी विभिन्न व्यक्तियों को देखते है तथा सभी में कुछ सामान्य गुण का अवलोकन है। अन्त में कुछ उदाहरणों में साम्य के आधार पर एक सामान्य वा उदाहरणों के निरीक्षण से प्राप्त होता है। यही आगमन है। परिभाषा आगमन से ही बनती है।

५. हम किसी वर्ग के कुछ ज्ञात उदाहरणों के आधार पर सामान्य वाक्य का है। परन्तु वह सामान्य वाक्य उस वर्ग के सभी अज्ञात उदाहरणा के लिए समानतः सत्य माना जाता है। यही निगमनात्मक पद्धति (Deductive method) कहलाता है।

ज्ञान विचार (Theory of Knowledge)

ज्ञान के क्षेत्र में महात्मा सुकरात का मत दो ज्ञानों का सिद्धान्त (Doctrine of two knowledge) कहलाता है। इसका तात्पर्य है कि ज्ञान के दो रूप है बाह्य और आन्तरिक बाह्य। ज्ञान अस्पष्ट, असत्य, सन्दिग्ध है। आन्तरिक ज्ञान अन्ध-श्रद्धा या विश्वास पर आधारित नहीं, वरन् तर्कसंगत विश्वस पर आधारित है। इस प्रकार महात्मा सुकरात बाह्य ज्ञान और आन्तरिक या यथार्थ ज्ञान में भेद कहते हैं। बाह्य ज्ञान इन्द्रिय-जन्य है तथा लोक व्यवहार पर आधारित है। उदाहरणार्थ, आँख, नाक, कान आदि इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान बाह्य ज्ञान है। यह ज्ञान परिवर्तनशील है। सॉफिस्ट लोग इसी ज्ञान को मापदण्ड मानते हैं। सुकरात इसका खण्डन करते हैं। महात्मा सुकरात के अनुसार ज्ञान सार्वजनिक तथा सार्वकालिक है। सार्वभौम ज्ञान कार्य-कारण जन्य है। यह व्यक्ति तक सीमित नहीं, वरन् सभी व्यक्तियों के लिए समानतः सत्य ज्ञान है।

सुकरात दर्शन में ज्ञान विचार सबसे महत्त्वपूर्ण विचार है। प्रश्न यह है कि ज्ञान क्या है तथा ज्ञान की उत्पत्ति कसे होती है? सुकरात के अनुसार ज्ञान प्रत्ययात्मक है तथा इसकी उत्पत्ति अनुभव से होती है। प्रश्न यह है कि प्रत्यय क्या है? जब हमें आँख, कान, जिह्वा, त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियों से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि का ज्ञान प्राप्त होता है तो हम इसे प्रत्यक्ष कहते हैं। परन्तु यह प्रत्यक्षात्मक ज्ञान किसी वस्तुविशेष का ही होता है। इसके अतिरिक्त हमें सामान्य ज्ञान की भी प्राप्ति होता। उदाहरणार्थ, मनुष्य मरणशील है, यह सामान्य ज्ञान है। परन्तु जब हम कहते है कि सुकरात मरणशील है, तो यह ज्ञान व्यक्ति विशेष (सुकरात) तक सीमित है। विशेष वस्तुओं का ज्ञान तो हमें इन्द्रियों द्वारा हो सकता है।

हम सकरात को मरते देख सकते है; परन्तु सभी मनुष्यों को मरते नहीं देख सकते तथापि हमारा यह सामान्य वाक्य सुकरात, प्लेटो, अरस्तू सभी के लिए समानतः सत्य है, अर्थात् सभी मरणशील हैं। प्रश्न यह है कि हमें मनुष्य व्यक्ति का ज्ञान तो इन्द्रियों से प्राप्त होता है। परन्तु मनुष्य जाति का ज्ञान हम कैसे प्राप्त कर सकते है? सुकरात के अनुसार यह सामान्य वाक्य प्रत्ययात्मक है। सामान्य जातिरूप है तथा जाति ही प्रत्यय है, परिभाषा है। मनुष्य, नदी, पर्वत आदि सभी व्यक्ति नहीं जाति है, प्रत्यय हैं। इन प्रत्ययों का निर्माण जातिगत साम्य के ग्रहण तथा वैषम्य के त्याग से होता है। उदारहणार्थ, मनुष्य प्रत्यय की प्राप्ति में हम मनुष्य व्यक्तियों में पायी जाने वाली समानताओं का संग्रह करते हैं। जैसे-विवेकशीलता का तथा व्यक्तिगत विशेषताओं का त्याग करते हैं, जैसे मनुष्य का काला होना, गोरा होना आदि।

इसी प्रकार सभी जातिरूप प्रत्ययों का निर्माण होता है। इन प्रत्ययों का ज्ञान हमें इन्द्रियों से नहीं, वरन् बुद्धि से होता है। हम अपनी इन्द्रियों से सभी मनुष्यों को मरते नहीं देख सकते, अतः मनुष्य मरणशाल है, यह प्रत्ययात्मक ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं। यह ज्ञान तो हम बुद्धि के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। बुद्धि ही सभी सामान्य गुणों का संग्रह तथा विशेष गुणों का परित्याग करती है, अतः ज्ञान बौद्धिक है तथा समस्त ज्ञान प्रत्ययजन्य है।

सुकरात ज्ञान को प्रत्ययात्मक जातिरूप मानते हैं। उनकी यह मान्यता सॉफिस्ट विचारकों के विरुद्ध है। सॉफिस्ट लोगों के अनुसार मनुष्य ही सब पदार्थों का मापदण्ड है। अतः व्यक्तिगत मनुष्य को अपनी इन्द्रियों से जैसा ज्ञान प्राप्त होता है वही उसके लिए सत्य या यथार्थ ज्ञान है। इस कथन के अनुसार ज्ञान का सामान्य या वस्तुगत स्वरूप नष्ट हो जाता है। संसार में जितने मनुष्य हैं उनके अनुसार सत्य भी उतने ही प्रकार का मानना होगा, परन्तु सत्य या ज्ञान व्यक्तिगत नहीं, सामान्य है। हमारे लिए जो सत्य है, दूसरों के लिए भी वह ही सत्य होना चाहिए। अतः सॉफिस्ट लोगों ने ज्ञान को इन्द्रियजन्य मानकर ज्ञान का सार्वभौम रूप ही समाप्त कर दिया था। इसके विपरीत सुकरात ज्ञान को बौद्धिक मानकर इसे सामान्य, सार्वभौम रूप प्रदान करते है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि महात्मा सुकरात सॉफिस्ट लोगों के ज्ञान सिद्धान्त का खण्डन करते हैं। सॉफिस्ट महात्मओं के अनुसार ज्ञान इन्द्रियजन्य होता है। इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण हमें वस्तु विशेषों का ही ज्ञान प्राप्त होता है। इसके विपरीत, महात्मा सुकरात सामान्य ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान मानते हैं। यह सामान्य जाति या प्रत्यय रूप है। प्रत्ययों की उपलब्धि हमें इन्द्रियों से नहीं, बुद्धि से होती है। महात्मा सुकरात की प्रसिद्ध उक्ति है-ज्ञान प्रत्ययात्मक है (All knowledge is knowledge through concepts)| ज्ञान के प्रत्यय या जाति रूप होने से ज्ञान सार्वभौम और सामान्य बन जाता है।

सुकरात का नैतिक दर्शन (Ethical Philosophy of Socrates)

पाश्चात्य दर्शन में नैतिक नियमों के जन्मदाता महात्मा सुकरात ही माने जाते हैं। महात्मा सुकरात के पहले भी सॉफिस्ट लोगों ने कुछ नैतिक नियमों को बतलाया. परन्तु उनके नैतिक नियम व्यक्तिनिष्ठ या आत्मनिष्ठ है। उन्होंने सामान्य नैतिक नियमों को नहीं बतलाया। सर्वप्रथम महात्मा सुकरात ने सार्वभौम तथा सर्वमान्य नैतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। इससे स्पष्ट है कि यदि साँफिस्ट लोगों की नैतिकता व्यक्तिनिष्ठ और सापेक्ष है तो महात्मा सुकरात की सामान्य तथा निरपेक्षा परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि महात्मा सुकरात के नैतिक सिद्धान्त सॉफिस्ट लोगों का खण्डन मात्र ही है।

वे खण्डन से प्रारम्भ अवश्य करते हैं, परन्तु उनकी नैतिक मान्यताएँ अपनी है, जो अन्यत्र नहीं प्राप्त होतीं। यह महात्मा सुकरात की नैतिक शिक्षा का भावात्मक रूप है। इसे उनका मण्डन पक्ष भी कह सकते हैं। इस प्रकार महात्मा सुकरात की नैतिक शिक्षा में खण्डन और मण्डन दोनों पक्ष हैं। खण्डन पक्ष में वे सॉफिस्ट लोगों के विचार का खण्डन करते हैं तथा मण्डन पक्ष में नैतिक सिद्धान्त बतलाते हैं।

महात्मा सुकरात का नैतिक सिद्धान्त उनके ज्ञान सिद्धान्त पर आधारित है। अतः उनके सामान्य और सार्वभौम नैतिकता को समझने के लिये हमें सार्वभौम और सामान्य ज्ञान को समझना आवश्यक है। जैसे ज्ञान व्यक्तिगत नहीं, वैसे ही नैतिक नियम भी।

जिस प्रकार महात्मा सुकरात के ज्ञान सिद्धान्त के दो पक्ष खण्डन तथा मण्डन है, उसी प्रकार उनकी नीति-मीमांसा के भी दो पक्ष हैं। खण्डन पक्ष में महात्मा सुकरात सॉफिस्ट सिद्धान्त का निराकरण करते हैं तथा मण्डन पक्ष में वे स्व-सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। हम पहले विचार कर आये हैं कि मानव ही सबका मापदण्ड है अर्थात् सभी वस्तुओं का मूल्यांकन मानव की दृष्टि से ही सम्भव है। नैतिक नियम का महत्व भी मानव के लिए ही है। मानव को जिस कार्य से सुख प्राप्त हो वही काय उसके लिए नैतिक है, शुभ है। जिससे व्यक्ति को दुःख हो वह अशुभ है, अनैतिक है। अत: व्यक्तिगत सुख ही नैतिकता का मापदण्ड है।

महात्मा सुकरात व्यक्तिगत सुख को नहीं, वरन् सामान्य सुख को नैतिकता का मापदण्ड मानते हैं। यह आत्मगत नहीं, वरन् सर्वगत सुख है। इसे महात्मा सुकरात सद्गुण (Virtue) मानते हैं। यह सद्गुण ज्ञान रूप (Virtue is knowledge) है। इससे स्पष्ट होता है कि सद्गुणों के ज्ञान के बिना हम सद्गुणी नहीं बन सकते। सद्गुण का सम्बन्ध आचरण से है, परन्तु आचरण ज्ञान के बिना सम्भव नहीं।

महात्मा सुकरात का नैतिक सिद्धान्त आत्मगत (Subjective) और विषयगत (Obicctive) दोनों माना गया है। यह आत्मगत या व्यक्तिनिष्ठ है, क्योंकि व्यक्ति के बिना सद्गुण या शुभ निराश्रय है। व्यक्ति ही सद्गुणी होता है, शुभ की इच्छा करता है। अतः सद्गुण और शुभ व्यक्ति के माध्यम से ही अभिव्यक्त होते हैं। इस अर्थ में नैतिकता व्यक्तिनिष्ठ अवश्य है, परन्तु सद्गुण या शुभ केवल व्यक्ति विशेष तक ही सीमित नहीं शुभ का अपना अस्तित्व है, अपनी सत्ता है। यह सामान्य शुभ है| यह व्यक्ति का सुख नहीं वरन् सामान्य सुख है जिसे शुभ का सिद्धान्त कहा जाता है। इसका अस्तित्व-व्यक्ति की भावना पर निर्भर नहीं।

भावना के स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है। परन्तु बुद्धि सर्वगत सामान्य नियमों का पता लगाती है। शुभ और सद्गुण सामान्य नियम ही है जिनका ज्ञान हमें बुद्धि के द्वारा होता है। इस प्रकार महात्मा सुकरात शुभ तथा सद्गुण के सिद्धान्त आत्मगत और विषयगत दोनों बतलाते हैं। सद्गुण, शुभ को व्यक्तिनिष्ठ बतला कर, महात्मा सुकरात प्रोटागोरस के मानवतावाद में भावना ही नहीं, बुद्धि भी है जो सामान्य की ओर संकेत करती है। बुद्धि से ही हम सभी नियमों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। सामान्य शुभ तो सिद्धान्त है। यह बुद्धिगम्य है, भावनागम्य नहीं। परन्तु व्यक्तिगत भावनाओं से ही इसकी अभिव्यक्ति होती है।

महात्मा सुकरात का नैतिक दर्शन सॉफिस्ट महात्माओं का नितान्त विरोधी नहीं। महात्मा सुकरात के अनुसार सॉफिस्ट लोगों के सिद्धान्त का सबसे बड़ा गुण मानव को महत्त्व प्रदान करना है। इस महत्त्व को महात्मा सुकरात भी स्वीकार करते हैं। नैतिक नियम भी मनुष्य के लिए ही है। परन्तु इन नियमों का अस्तित्व मनुष्य की भावना पर आधारित नहीं। नियम सामान्य हैं, अतः बौद्धिक है। सामान्य नियम एक है, अनेक नहीं| भावनाएँ व्यक्तिगत होने के कारण अनेक हुआ करती है। नियम बौद्धिक होने के कारण एक ही होगा- नैतिक नियम को एक तथा बुद्धिगम्य बतलाना महात्मा सुकरात की देन है। इस प्रकार महात्मा सुकरात के नैतिक दर्शन में परम्परा का निर्वाह भी है और आधुनिकता का समावेश भी। वे प्रगतिवादी हैं, परन्त परम्परा के महत्त्व को स्वीकार करते हैं।

महात्मा सुकरता के हृदय में ज्ञान के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा थी। वे मूलतः मनुष्य को अज्ञान से ज्ञान की और ही ले जाना चाहते था अतः नीति सिद्धान्त भी ज्ञान पर आधारित है।

महात्मा सकरात का ज्ञान-सिद्धांत केवल सद्धान्तिक हा नहीं, वरन् व्यावहारिक है। उनके अनुसार धर्म और ज्ञान में तादात्म्य है। ज्ञान ही धर्म (Knowledge is virtue) तथा धर्म ही ज्ञान (Virtue is knowledge) हा इसके विपरीत अज्ञान ही अधर्म है। यदि धर्म है तो उसका ज्ञान होना आवश्यक है। यदि ज्ञान न हो तो धर्म के अस्तित्व का पता नहीं लग सकता। इसी कारण सुकरात ने ज्ञान को धर्म माना है। धर्म नैतिक आचरण है, सद्गुणों का अभ्यास करना है। परन्तु सद्गुणों का आचरण तब तक नहीं कर सकते जब तक हमें सद्गुणों का ज्ञान न हो। हमें सद्गुणी बनने के पूर्व सद्गुणों के ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। सुकरात यहाँ तक मानते हैं कि जिसे उचित का ज्ञान नहीं वह उचित कार्य भी नहीं कर सकता तथा जिसे ज्ञान है। वह पाप या अनुचित कार्य नहीं कर सकता। अतः स्पष्ट है कि अज्ञान ही पाप का जनक हा जिस व्यक्ति को पुण्य का ज्ञान हो वह कभी पाप नहीं करेगा। पाप के दुष्परिणामों से अनभिज्ञ होने के कारण ही मनुष्य पाप करता है। इस प्रकार सद्गुण और ज्ञान में तादात्म्य है।

नीति-मीमांसा की विशेषताएँ(Characteristics of Ethics)

१. यदि ज्ञान ही सद्गुण है, तो सद्गुणों की शिक्षा सम्भव है; क्योंकि ज्ञान की शिक्षा दी जाती है। साधारणतः हम धर्म या सद्गुणों को ज्ञान का विषय नहीं, वरन् कर्म का विषय मानते हैं। गणित की भाँति कोई व्यक्ति धर्म को पढ़कर धार्मिक नहीं बन सकता। परन्तु सुकरात के अनुसार धर्म के ज्ञान के बिना धर्म का आचरण सम्भव नहीं। हमें सच्चे गुरु की आवश्यकता है। सच्चा गुरु ही सच्चे धर्म की शिक्षा दे सकता है। धर्म शिक्षणीय ह इसे हम न्याय वाक्यों में इस प्रकार रख सकते हैं-

ज्ञान ही धर्म है।

ज्ञान शिक्षणीय है।

अतः धर्म ही शिक्षणीय है।

२. यदि ज्ञान ही धर्म है तो ज्ञान के समान धर्म एक है। जिस प्रकार विशेष सत्य एक सामान्य, सार्वभौम सत्य के विभिन्न अंग है। उसी प्रकार आत्म-संयम, विवेक, दूरदर्शिता, करुणा, दया आदि सभी सद्गुण या धर्म एक ही सामान्य, सार्वभौम धर्म से उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य यह है कि इनका स्रोत एक है। धर्म की एकता न्याय वाक्यों में इस प्रकार रखी जा सकती है:

ज्ञान ही धर्म है।

ज्ञान एक है।

अतः धर्म भी एक है।

३. यदि ज्ञान ही धर्म है तो ज्ञान ही सभी नैतिक कर्मों का आधार है। हम कर्म प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए करते हैं; परन्तु प्रसन्नता तो शुभ कर्मों पर आधारित है। शुभ कर्म के लिए शुभ का ज्ञान अपेक्षित है। इससे स्पष्ट है कि सद्गुणी होने के लिए। सदगणों का ज्ञान अपेक्षित है। सुकरात की नीति-मीमांसा के मुख्य निर्णय तथा उनकी उपपत्तियाँ इस प्रकार हैं-

प्रत्येक व्यक्ति प्रसन्नता चाहता है।

प्रसन्नता शुभ कर्मों पर आधारित है।

किन्तु शुभ कमों के लिए शुभ का ज्ञान होना आवश्यक है।

इस प्रकार ज्ञान शुभ का आधार है। अतः ज्ञान ही धर्म है।

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