श्री दुर्गा आपदुद्धाराष्टकम् | Sri Durga Apaduddharaka Ashtakam
नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे।
नमस्ते जगद्वन्द्य पादारविन्दे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।१।।
अर्थ:- शरणागत की रक्षा करनेवाली तथा भक्तों पर अनुग्रह करनेवाली हे शिवे! आपको नमस्कार है। जगत् को व्याप्त करनेवाली हे विश्वरूपे! आपको नमस्कार है। हे जगत के द्वारा वन्दित चरणकमलोंवाली! आपको नमस्कार है। जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये।।१।।
नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिनि ज्ञानरूपे।
नमस्ते नमस्ते सदानन्दरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।२।।
अर्थ:- हे जगत् के द्वारा चिन्त्यमान स्वरूपवाली! आपको नमस्कार है। हे महायोगिनि! आपको नमस्कार है। हे ज्ञानरूपे! आपको नमस्कार है। हे सदानन्दरूपे! आपको नमस्कार है। जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये।।२।।
अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।३।।
अर्थ:- हे देवि! एकमात्र आप ही अनाथ, दीन, तृष्णासे व्यथित, भय से पीड़ित, डरे हुए तथा बन्धन में पड़े जीवको आश्रय देनेवाली तथा एकमात्र आप ही उसका उद्धार करनेवाली हैं। जगत्का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिए।।३।।
अरण्ये रणे दारुणे शत्रुमध्येऽनले सागरे प्रान्तरे राजगेहे।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।४।।
अर्थ:- हे देवि! वन में, भीषण संग्राम शत्रु के बीच में, अग्नि में, समुद्र में, निर्जन विषम स्थान में और शासन के समक्ष एकमात्र आप ही रक्षा करनेवाली हैं तथा संसारसागरसे पार जानेके लिये नौका के समान है। जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है। आप मेरी रक्षा कीजिए।।४।।
अपारे महादुस्तरेऽत्यन्तघोरे विपत्सागरे मज्जतां देहभाजाम्।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारहेतुर्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।५।।
अर्थ:- हे देवि! अपार, महादुस्तर तथा अत्यन्त भयावह विपत्ति सागर में डूबते हुए प्राणियों की एकमात्र आप ही शरणस्थली हैं और उनकी उद्धार की हेतु हैं। जगत का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपका नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिए।।५।।
नमश्चण्डिके चण्डदुर्दण्डलीला समुत्खण्डिताखण्डिताशेषशत्रो।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारबीजं नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।६।।
अर्थ:- अपनी प्रचण्ड तथा दुर्दण्ड लीला से सभी दुर्दम्य शत्रुओं को समूल नष्ट कर देने वाली हे चण्डिके! आपको नमस्कार है। हे देवि! आप ही एकमात्र आश्रय हैं तथा भवसागरसे पारगमन की बीजस्वरूपा हैं। जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये।।६।।
अर्थ:- त्वमेवाघभावाधृतासत्यवादीर्न जाता जितक्रोधनात् क्रोधनिष्ठा।
इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्णा च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।७।।
अर्थ:- आप ही पापियों के दुर्भावग्रस्त मन की मलिनता हटाकर सत्यनिष्ठा में तथा क्रोध पर विजय दिलाकर अक्रोध में प्रतिष्ठित होती हैं। आप ही योगियोंकी इडा, पिंगला और सुषुम्णा नाडियों में प्रवाहित होती हैं। जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये।।७।।
नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपे।
विभूतिः शची कालरात्रिः सती त्वं नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे।।८।।
अर्थ:- हे देवि! हे दुर्गे! हे शिवे! हे भीमनादे! हे सरस्वति! हे अरुन्धति! है अमोघस्वरूपे! आप ही विभूति, शची, कालरात्रि तथा सती हैं। जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है: आप मेरी रक्षा करें।।८।।
शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां
मुनिमनुजपशूनां दस्युभिस्त्रासितानाम्।
नृपतिगृहगतानां व्याधिभिः पीडितानां
त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद।।९।।
अर्थ:- हे देवि! आप देवताओं, सिद्धों, विद्याधरों, मुनियों, मनुष्यों, पशुओं तथा लुटेरों से पीड़ितजनों की शरण हैं। राजाओं के बन्दीगृह में डाले गये लोगों तथा व्याधियों से पीड़ित प्राणियों की एकमात्र शरण आप ही हैं। हे दुर्गे! मुझ पर प्रसन्न होइये।।९।।
इदं स्तोत्रं मया प्रोक्तमापदुद्धारहेतुकम्।
त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यं वा पठनाद् घोरसङ्कटात्।।१०।।
मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले।
सर्वं वा श्लोकमेकं वा यः पठेद्भक्तिमान् सदा।।११।।
स सर्वं दुष्कृतं त्यक्त्वा प्राप्नोति परमं पदम्।
पठनादस्य देवेशि किं न सिद्ध्यति भूतले।।१२।।
स्तवराजमिदं देवि संक्षेपात्कथितं मया।।१३।।
अर्थ:- विपदाओं से उद्धार का हेतुस्वरूप यह स्तोत्र मैंने कहा। पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक अथवा पाताललोक में, कहीं भी तीनों सन्ध्याकालों अथवा एक सन्ध्याकाल में इस स्तोत्र का पाठ करनेसे प्राणी घोर संकटसे छूट जाता है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। जो मनुष्य भक्ति परायण होकर सम्पूर्ण स्तोत्र अथवा इसके एक श्लोक को ही पढ़ता है, वह समस्त पापोंसे छूटकर परम पद प्राप्त करता है। हे देवेशि! इसके पाठ से पृथ्वी तल पर कौन-सा मनोरथ सिद्ध नहीं हो जाता? अर्थात् सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। हे देवि! मैंने संक्षेप में यह स्तवराज आपसे कह दिय।।१०-१३।।
अर्थ:- ।।इति श्रीसिद्धेश्वरीतन्त्र उमामहेश्वरसंवादे श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
अर्थ:- इस प्रकार श्रीसिद्धेश्वरीतन्त्र के अन्तर्गत उमामहेश्वरसंवादमें श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।
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