सुदर्शन स्तोत्र || Sudarshan Stotra अम्बरीषकृत सुदर्शनस्तोत्रम्

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सुदर्शन स्तोत्र- सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजा के पैर पकड़ लिये। दुर्वासा जी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़ने से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् के चक्र की स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था।

अम्बरीष उवाच

त्वमग्निर्भगवान्सूर्यस्त्वं सोमो ज्योतिषां पतिः ।

त्वमापस्त्वं क्षितिर्व्योम वायुर्मात्रेन्द्रियाणि च ॥ १॥

अम्बरीष ने कहा ;- प्रभो सुदर्शन! आप अग्नि स्वरूप हैं। आप ही परमसमर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डल के अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पंचतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियों के रूप में भी आप ही हैं।

सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युतप्रिय ।

सर्वास्त्रघातिन्विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते ॥ २॥

भगवान् के प्यारे, हजार दाँत वाले सुदर्शन! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देने वाले एवं पृथ्वी के रक्षक! आप इन ब्राह्मण की रक्षा कीजिये।

त्वं धर्मस्त्वमृतं सत्यं त्वं यज्ञोऽखिलयज्ञभुक् ।

त्वं लोकपालः सर्वात्मा त्वं तेजः पौरुषं परम् ॥ ३॥

आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञों के अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकों के रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष परमात्मा के श्रेष्ठ तेज हैं।

नमः सुनाभाखिलधर्मसेतवे ह्यधर्मशीलासुरधूमकेतवे ।

त्रैलोक्यगोपाय विशुद्धवर्चसे मनोजवायाद्भुतकर्मणे गृणे ॥ ४॥

सुनाभ! आप समस्त धर्मों की मर्यादा के रक्षक हैं। अधर्म का आचरण करने वाले असुरों को भस्म करने के लिये आप साक्षात् अग्नि हैं। आप ही तीनों लोकों के रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मन के वेग के समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ।

त्वत्तेजसा धर्ममयेन संहृतं तमः प्रकाशश्च धृतो महात्मनाम् ।

दुरत्ययस्ते महिमा गिरां पते त्वद्रूपमेतत्सदसत्परावरम् ॥ ५॥

वेदवाणी के अधीश्वर! आपके धर्ममय तेज से अन्धकार का नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषों के प्रकाश की रक्षा होती है। आपकी महिमा का पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़े के भेदभाव से युक्त यह समस्त कार्य-कारणात्मक संसार आपका ही स्वरूप है।

यदा विसृष्टस्त्वमनञ्जनेन वै बलं प्रविष्टोऽजित दैत्यदानवम् ।

बाहूदरोर्वङ्घ्रिशिरोधराणि वृक्णन्नजस्रं प्रधने विराजसे ॥ ६॥

सुदर्शन चक्र! आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरंजन भगवान् आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवों की सेना में प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमि में उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं।

स त्वं जगत्त्राणखलप्रहाणये निरूपितः सर्वसहो गदाभृता ।

विप्रस्य चास्मत्कुलदैवहेतवे विधेहि भद्रं तदनुग्रहो हि नः ॥ ७॥

विश्व के रक्षक! आप रणभूमि में सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान् ने दुष्टों के नाश के लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुल के भाग्योदय के लिये दुर्वासा जी का कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा।

यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः ।

कुलं नो विप्रदैवं चेद्द्विजो भवतु विज्वरः ॥ ८॥

यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्म का पालन किया हो, यदि हमारे वंश के लोग ब्राह्मणों को ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासा जी की जलन मिट जाये।

यदि नो भगवान्प्रीत एकः सर्वगुणाश्रयः ।

सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वरः ॥ ९॥

भगवान् समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में उन्हें देखा हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो दुर्वासा जी के हृदय की सारी जलन मिट जाये।

इति श्रीमद्भागवतान्तर्गतं अम्बरीषकृतं सुदर्शनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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