गीतगोविन्द सर्ग ४ स्निग्ध मधुसूदन Geet Govinda Sarga 4 Snigdha Madhusudan श्रीगीतगोविन्दम्‌ चतुर्थः सर्गः स्निग्ध- मधुसूदनः

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कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १ सामोद-दामोदर और सर्ग २ अक्लेश केशव तथा सर्ग ३ मुग्ध मधुसूदन को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द सर्ग ४ जिसका नाम स्निग्ध मधुसूदन है। स्निग्ध अर्थात् स्नेह युक्त, प्रेममय (जैसेस्निग्ध दृष्टि)अथवा चिकना (जैसेस्निग्ध पदार्थ)। इसमें श्रीराधा की विकलता का श्रवण कर श्रीकृष्ण का स्निग्ध- चेष्टाशून्य हो जाने का वर्णन किया गया है। साथ ही अष्ट पदि ८ का वर्णन किया गया है।

गीतगोविन्द सर्ग ४ स्निग्ध मधुसूदन

अथ चतुर्थः सर्गः

स्निग्ध- मधुसूदनः

यमुना – तीर – वानीर- निकुञ्जे मन्दमास्थितम् ।

प्राह- प्रेम – भरोद्भ्रान्तं माधवं राधिका – सखी ॥ १ ॥

अन्वय – [ अथ राधिकाविरहोत्कण्ठं श्रीकृष्णं ] राधिकासखी (राधिकायाः काचित् सहचरी) प्रेमभरोभ्रान्तं (प्रेम्णां भरेण उद्भ्रान्तम् उन्मत्तं) [अतएव तदन्वेषणं विहाय] यमुनातीर वानीर- निकुञ्जे (यमुनातीरे यत् वानीरनिकुञ्जं वेतसलता-कुञ्जं तस्मिन्) मन्दं (विषण्णं निरुद्यमं वा यथास्यात् तथा) आस्थितम् (उपविष्टं ) माधवं प्राह (उवाच ) ॥ १ ॥

अनुवाद – यमुना के तट पर स्थित वेतसी के निकुञ्ज में श्रीराधा प्रेम में विमुग्ध होकर विषण्ण (विषाद) चित्त से बैठे हुए श्रीकृष्ण से श्रीराधा की प्रिय सखी कहने लगी।

पद्यानुवाद-

यमुनातीरे वेतसकुञ्जे, बैठे हैं यदुवंशी

राधाके चिन्तनमें अपनी भूले लकुटी-वंशी ।

इसी समय सम्मुख हो कोई छाया-सी आ डोली

और सखीकी व्यथा-कथा सब धीरे-धीरे बोली ॥

बालबोधिनी – अब दोनों की पृथक् कामावस्था का निरूपण करके उन दोनों का संयोजन कराने की इच्छा से दूतीयोग का निरूपण करते हैं। श्रीराधिका की सखी ने माधव से कहा ।

पूर्वराग में श्रीराधा ने अपनी सखी से श्रीकृष्ण-मिलन की वासना अभिव्यक्त की थी। तब वह सखी श्रीराधा को आश्वासन देकर श्रीकृष्ण के पास गयी तो देखा, उनका चित्त श्रीराधा-विषयक प्रेमाधिक्य के कारण उद्भ्रान्त अर्थात् उन्मत्त – उद्विग्न हो रहा था। अन्वेषण करने पर भी जब उनकी श्रीराधा नहीं मिलीं तो वे यमुना पुलिन पर विद्यमान वेतसी निकुञ्ज में निरुत्साहित और उदास होकर बैठ गये ।

गीतगोविन्द सर्ग ४ अष्ट पदि ८

गीतम् ८

कर्णाटरागैकतालीतालाभ्यां गीयते ।

अनुवाद – यह आठवाँ प्रबन्ध कर्णाटराग तथा एकताली ताल से गाया जाता है। जब शिखिकण्ठ-नीलकण्ठ महादेव एक हाथ में कृपाण और दूसरे हाथ में एक विशाल गजदन्त धारणकर दाहिने कन्धे में रखकर चलते हैं, सुर चारण आदि उनकी स्तुति करते हैं, ऐसे समय में कर्णाट राग प्रस्तुत होता है।

निन्दति चन्दनमिन्दु – किरणमनुविन्दति खेदमधीरम् ।

व्याल-निलय – मिलनेन गरलमिव कलयति मलय – समीरम् ॥

सा विरहे तव दीना ।

माधव मनसिज – विशिख-भयादिव भावनया त्वयि लीना ॥ १ ॥ ध्रुवपदम्

अन्वय – हे माधव, तव विरहे दीना ( कातरा ) सा (राधा) मनसिजविशिखभयादिव ( मनसिजस्य कामस्य विशिखेभ्यः बाणेभ्यः भयादिव भावनया (उद्वेगेन) त्वयि लीना (ध्यानेन लयप्राप्ता) [इव आस्ते इति शेषः कामरूपे त्वयि प्रसन्ने तद्भयं न करिष्यतीत्यभिप्रायः ] ; [सा अधुना ] चन्दनम् इन्दुकिरणं (चन्द्रमयुखं) निन्दति, [स्वभावशीतलो यन्मां दहतः तन्ममैव दुर्द्देवमिति] अनु (पश्चात् ) अधीरं [ यथा तथा] खेदं (तापं) विन्दति (लभते); [तथा] मलय-समीरं व्याल निलयमिलनेन (व्यालानां सर्पाणां निलयः चन्दनतरुः तस्य मिलनेन) गरलमिव कलयति (सम्भावयति) [सर्पभुक्तोज्झितो वायुः विषमिलितत्वात् विषवत् उत्प्रेक्षते ] ॥ १ ॥

अनुवाद – हे माधव ! वह श्रीराधा आपके विरह में कातर होकर मदन- बाण के वर्षण के भय से भीत होकर उस मन्द – सन्ताप की शान्ति के लिए ध्यान योग के द्वारा आपमें निमग्न होकर आपके शरणागत हुई हैं। आपसे विच्युत होकर वह चन्दन को विनिन्दित करती हैं, चन्द्र-किरणों को देखकर उनकी देह दग्ध होने लगती है, मलय- समीरण भी उसके अङ्गों में सन्ताप बढ़ा रहा है। विषधर सर्पों से परिवेष्टित चन्दन वृक्षों से प्रवाहित फुत्कार – मिश्रित होने के कारण मलय- समीर को भी गरल समान मान रही हैं।

पद्यानुवाद-

वह विरह विदग्धा दीना

माधव, मनसिज विशिख भयाकुल तुममें है तल्लीना ।

वह विरह विदग्धा दीना

चन्दन और चन्द्र- किरणोंसे होती अधिक अधीर,

अहिंगण गरल समान विमूच्छित करना मलय समीर ।

वह विरह विदग्धा दीना

माधव, मनसिज विशिख भयाकुल तुममें है तल्लीना ।

बालबोधिनी – सखी श्रीकृष्ण के सन्निकट उनकी विरह वेदना सुनाती है। वह कहती है कि श्रीराधा अत्यन्त दुःखित हैं। कामबाण के त्रास से आपका ध्यान करती हुई आप ही में समाधिस्थ हो गयी हैं। बाण के भय से जैसे प्राणी रक्षार्थ दूसरे की शरण में चला जाता है, उसी प्रकार वह आपके शरणापन्न हुई हैं; क्योंकि आप कामस्वरूप हैं, आपके प्रसन्न होने पर किसी का भय नहीं रहता है। हे माधव ! आपके विरह में श्रीराधा की ऐसी स्थिति हो गई है कि अपने शरीर में लगे हुए चन्दन की निन्दा करती हैं, क्योंकि यह चन्दन उनके लिए आह्लादकारी नहीं अपितु प्रदाह रूप है। चन्द्र-किरणों को देखकर भी उनका हृदय प्रज्वलित होने लगता है; क्योंकि चन्द्रिका भी उनकी कामाग्नि को उद्दीपित कर रही है। चन्दन वृक्ष के सम्पर्क से मलय पवन को भी वह गरलवत् अनुभव करती हैं। मलयाचल के चन्दन वृक्षों से लिपटे हुए विषैले सर्पों की फुत्कारों से वायु दूषित हो गयी है।

मनसिज-विशिख-भयादिवमें उत्प्रेक्षा अलङ्कार का सौष्ठव है, साथ ही इस श्लोक में रूपक और विरोधालङ्कारों की भी संसृष्टि है।

अविरल – निपतित-मदन- शरादिव भवदवनाय विशालम् ।

स्वहृदय – मर्माणि वर्म करोति सजल – नलिनी-दल- जलम् ॥

सा विरहे तव दीना… ॥२॥

अन्वय – [किञ्च अतिस्निग्धायां तस्यां कथमिव त्वमेवं निष्ठुरो ऽसीत्याह ] – अविरल – निपतित-मदन- शरादिव (अविरलं निरन्तरं निपतितं) (पतनं, भावोक्त) यस्य तादृशस्य मदनस्य यः शरः तस्मादिव) भवदवनाय (भवतः हृदयस्थस्येति भावः अवनाय रक्षणाय) [तस्या हृदये भवान् तिष्ठति, हृदयञ्च कामो विध्यति, हृदयवेधनाद्भवतोऽपि वेधः स्यादित्याशङ्कय भवद्रक्षणार्थमेवेति भावः ] स्वहृदय-मम्र्म्मणि (निजहृदयरूपे मर्म्मस्थाने) विशालं (पृथुलं) सजल – नलिनी-दल- जालं (सजलनलिनीदलानां जालं समूहमेव) व (कवचं ) करोति ॥ २ ॥

अनुवाद – हृदय पर अनवरत गिरते हुए कामबाणों से अपने हृदय के भीतर विराजमान आपकी रक्षा करने के लिए श्रीराधा विशाल सजल कमल – पत्र – समूह को अपने हृदय के मर्मस्थल का कवच बना रही हैं।

पद्यानुवाद-

मदन शरोंसे अपने प्रियकी रक्षामें बेहाल ।

उर पर बिछा रही है रह रह सजल कमलिनी – जाल ॥

वह विरह विदग्धा दीना ।

माधव, मनसिज विशिख भयाकुल तुममें है तल्लीना ॥

बालबोधिनी – श्रीकृष्ण का निरन्तर ध्यान करने से श्रीराधा एकात्मकता को प्राप्त हो गयीं। यही सूचित करती हुई सखी कहती है- हे माधव ! आप श्रीराधा के हृदय में निरन्तर विद्यमान हैं। कामदेव अपने बाणों को अजस्र रूप से छोड़ रहा है। आपको कहीं कष्ट न हो जाये, इसलिए अपने हृदय के मर्मस्थल को जलकणों के साथ बड़े-बड़े कमलदल समूह से आवृत कर रही हैं। वह आपकी रक्षा के लिए सारे उपायों को कर रही हैं। उत्प्रेक्षा करते हुए कहती हैं कि नलिनदल – जाल को उसने हृदय में इसलिए आच्छादित किया है कि उसके हृदय से आप कहीं निकल न जायें।

कामदेव का तूणीर (तरकश ) अक्षय है- एक के बाद दूसरा बाण फेंका जा रहा है। हे माधव! तुम्हारे विरह में वह निरुपाय होकर उपाय भी सोचती है तो क्या सोचती है? कमल-दल तो वैसे ही उसके बाण हैं और वह कवच कहाँ से होगा? उसे अपना कवच बनाकर अपना कष्ट और बढ़ा रही हैं ॥ २ ॥

कुसुम – विशिख – शरतल्पमनल्प – विलास – कला – कमनीयम् ।

व्रतमिव तव परिरम्भ – सुखाय करोति कुसुम – शयनीयम् ॥

सा विरहे तव दीना… ॥३॥

अन्वय – [ अपि च ] अनल्प-विलासकला – कमनीयं (अनल्पाभिः बहुभिः विलास-कलाभिः विलासभावैः कमनीयं मनोज्ञं) कुसुम – शयनीयं (पुष्पशय्यां ) [ अपि ] [ तव विरहे] कुसुमविशिख- शरतल्पम् (कुसुम – विशिखस्य कामस्य शरतल्पं शरशय्याभूतं) तव परिरम्भसुखाय ( गाढ़ालिङ्गनसुख -लाभाय ) व्रतमिव करोति [सुदुर्लभं तव परिरम्भणसुखम्, अतस्तल्पाभाय व्रतचर्यामिव करोतीत्यर्थः] ॥३॥

अनुवाद – हे माधव ! विविध विलासों से रमणीय कुसुम – शय्या श्रीराधा के द्वारा रचायी जा रही है, जो कामदेव के बाणों की शय्या के समान प्रतीत हो रही है। आपके गाढ़ आलिङ्गन की प्राप्ति की आशा से वह कठोर शरशय्या व्रत के अनुष्ठान का पालन कर रही है।

बालबोधिनी – हे श्रीकृष्ण ! महान केलि-कला-विलासरूप पुष्प – शय्या की रचना आपके विरह में विदग्ध होकर श्रीराधा करती तो हैं, पर वह सेज काम-शरों की सेज सदृश ही है। उत्प्रेक्षा करते हुए सखी कहती है-जैसे कोई व्यक्ति किसी बड़े सुख की प्राप्ति के लिए कोई व्रत करता है, उसी प्रकार श्रीराधा भी दुष्प्राप्य आपके आलिङ्गन सुख की प्राप्ति के लिए दुष्कर शरशय्या – व्रत की साधना कर रही है।

वहति च चलित-विलोचन – जलभरमानन – कमलमुदारम् ।

विधुमिव विकट-विधुन्तुद – दन्त-दलन – गलितामृतधारम् ॥

सा विरहे तव दीना ॥४॥

अन्वय-[किञ्च ] वलित-विलोचन – जलधरं (वलितानि अविरतं गलितानि विलोचनयोः नेत्रयोः जलानि धारयतीति तथोक्तम्) उदारम् (विकस्वरम्) आननकमलं (मुखपद्मं) विकट-विधुन्तुद- दन्त-दलन गलितामृतधारं (विकटस्य करालस्य विधुन्तुदस्य राहोः दन्तदलनेन चर्वणेन गलिता अमृतधारा यस्मात् तं) विधुम् (चन्द्रम् ) इव बहति ( रोदितीति भावः; तेन च वदनमस्याः निष्पीड़ितसुधासारं सुधाकरमिव सम्भावयामि ॥४॥

अनुवाद – जैसे कराल राहु के दशन से संदशित होकर सुधांशु से पीयूष धारा स्रवित होती है, वैसे श्रीराधा के उत्कृष्ट मुखकमल के चञ्चल नेत्रों से अनवरत नयन – वारि विगलित हो रहा है।

पद्यानुवाद-

शोभित लोल विलोचन जल ढल आनन कमल उदार ।

राहु दलित विधुसे बह उठती ज्यों अमृतकी धार ॥

वह विरह विदग्धा दीना ।

माधव, मनसिज विशिख भयाकुल तुममें है तल्लीना ॥

बालबोधिनी – सखी कह रही है- हे माधव! आपके विरह में सन्तप्ता श्रीराधा के चञ्चल तथा विस्तृत नेत्रों से आँसुओं का तार टूट ही नहीं रहा है। ऐसा लगता है मानो भयङ्कर राहु ने अपने दन्तों से चन्द्रमा को काट लिया हो और जिनसे अविरल अमृत की धारा प्रवाहित हो रही हो । श्रीराधा का मुख मानो कमल नहीं, चन्द्रमा हो और आँखों से बहते अश्रुबिन्दु अमृत सरीखे हैं।

प्रस्तुत पद्य में उपमा अलङ्कार है ।

विलिखति रहसि कुरङ्ग-मदेन भवन्तमसमशर-भूतम् ।

प्रणमति मकरमध्ये विनिधाय करे च शरं नवचूतम्-

सा विरहे तव दीना… ॥ ५ ॥

अन्वय – [पुनश्च] रहसि (एकान्ते) कुरङ्गमदेन (कस्तूर्य्या) असमशरभूतं (कामस्वरूपं) भवन्तं [स्वचित्तोन्मादकत्वात्] विलिखति, अधः (तस्य कामरूपस्य भवतः अधस्तात्) मकरं (कामवाहनं) [विन्यस्य ] [ लिखितस्य मदनभूतस्य भवतः ] करे (हस्ते) नवचूतं (चूताङ्करस्वरूपं ) शरं विनिधाय (लिखित्वा ) [त्वदन्यः कामो नास्तीति मत्वा] प्रणमति च ॥४॥

अनुवाद – हे श्रीकृष्ण ! श्रीराधा एकान्त में कस्तूरी से, तुम्हें साक्षात् कन्दर्प मान आम्रमञ्जरी का बाण धारण किये हुए तुम्हारी मोहिनी मूर्ति चित्रित करती हैं और वाहन स्थान पर मकर (घड़ियाल) बनाकर प्रणाम करती हैं।

पद्यानुवाद-

मृगमदसे हरि – चित्र खींचती, फिर लख उसमें काम

आम्र-मञ्जरी शर धर करमें, करती सलज प्रणाम ।

जिन चरणोंमें रत माधव ! वह, वही बँधासे धीर ।

देख विमुख, यह चन्द्र जलाकर बढ़ा रहा है पीर ॥

वह विरह विदग्धा दीना ।

माधव, मनसिज विशिख भयाकुल तुममें है तल्लीना ॥

बालबोधिनी – जब श्रीराधा एकान्त में बैठी होती हैं तो कस्तूरी के रस से आपका चित्र रचती हैं- कामदेव के रूप में । क्योंकि आपके अतिरिक्त चित्त-उन्मादकारी और कौन हो सकता है अथवा आप ही उसकी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। इसके पश्चात् आपके हाथ में काम का सबसे शक्तिशाली बाण – आम्रमञ्जरी को अङ्कित कर देती है। कामदेवता के रूप में आपको अभिलिखित कर वाहन के स्थान पर मकर बना देती हैं, पुनश्च काम-ताप से मुक्ति पाने के लिए आपको प्रणाम करती हैं, स्तवन करती हैं।

प्रस्तुत पद्य में उपमा अलङ्कार है।

प्रतिपदमिदमपि निगदति माधव तव चरणे पतिताऽहम् ।

त्वयि विमुखे मयि सपदि सुधानिधिरपि तनुते तनुराहम् ॥

सा विरहे तव दीना… ॥ ६ ॥

अन्वय – [ न केवलं प्रणमति, परन्तु ] – प्रतिपदम् ( प्रतिक्षणम्) इदं निगदति च हे माधव (हे मधुसख) अहं तव चरणे पतिता (त्वामेव शरणं व्रजामीत्यर्थः) ; [ यतः ] त्वयि विमुखे [सति] सुधानिधिरपि (अमृतकिरणोऽपि चन्द्रः) मयि सपदि (तत्क्षणादेव) तनुदाहं तनुते (शरीरं भस्मीकरोति) ॥६॥

अनुवाद – हे माधव ! (उस मूर्ति के रूप में तुम्हें अङ्कित कर बार-बार प्रार्थना करती हैं) – हे श्रीकृष्ण ! मैं आपके चरणों में पड़ती हूँ देखो, जैसे ही तुम मुझसे विमुख हो जाते हो, यह अमृत कलश को धारण करनेवाला चन्द्रमा भी मेरे शरीर पर दाह वृष्टि करने लगता है।

बालबोधिनी – सखी कह रही है- हे श्रीकृष्ण ! श्रीराधा जहाँ-जहाँ भी जाती हैं, वहीं प्रत्येक पग-पग पर कहती हैं- मैं आपके चरणों में पड़ी हूँ, आप मुझसे विमुख न हो, आप जब कभी भी मुझसे असन्तुष्ट होते हैं, उसी समय अमृत-निधि चन्द्रमा भी मेरे शरीर में दाह ही पैदा करता है। रसमञ्जरीकार ने माधवशब्द से श्रीराधा का तात्पर्य सङ्केतित करते हुए कहा है कि कृष्ण, ‘माशब्द से कही जानेवाली लक्ष्मी के धव अर्थात् पति हैं। जब श्रीकृष्ण श्रीराधा के सन्निकट रहते हैं, तब सपत्नी लक्ष्मी भी श्रीराधा का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाती, पराङ्मुख होने पर तो लक्ष्मी का भाई चन्द्रमा श्रीराधा को अपनी बहन की सौत समझकर अत्यन्त सन्तप्त करता है।

प्रस्तुत श्लोक में अतिशयोक्ति अलङ्कार है। चन्द्रमा अपने स्वभाव के विरुद्ध कार्य कर रहा है, अतएव विरुद्धअलङ्कार भी है।

ध्यान – लयेन पुरः परिकल्प्य भवन्तमतीव दुरापम् ।

विलपति हसति विषीदति रोदिति चञ्चति मुञ्चति तापम् ॥

सा विरहे तव दीना… ॥७ ॥

अन्वय – [पुनश्च अतिव्यग्रतया ध्यानलयेन भवन्तं साक्षादिव कृत्वा विलपति ] – [ हे कृष्ण] अतीव दुरापं (दुर्लभं) भवन्तं ध्यानलयेन (समाधियोगेन) पुरः परिकल्प्य (सम्भाव्य) विलपति; [त्वत्प्राप्त्यानन्दोच्छलिता सती] हसति [पुनस्तवान्तर्द्धाने] विषीदति, रोदिति च; [पुनः स्फुरन्तं भवन्तमुद्दिश्य ] चञ्चति (इतस्ततो धावति); [पुनश्च प्राप्तमिति सम्भाव्य आलिङ्गनादिना] तापं (मनःक्षोभं) मुञ्चति ( त्यजति च ) ॥७॥

अनुवाद – श्रीराधा तुम्हारे ध्यान में लीन होकर तुम्हें प्रत्यक्ष रूप में कल्पित करके विच्छेद यन्त्रणा से कभी विलाप करती हैं, कभी हर्ष प्रकाशित करती हैं तो कभी रोती हैं और कभी स्फूर्ति में आलिङ्गिता हो सन्ताप का परित्याग करती हैं।

पद्यानुवाद-

ध्यानमग्न हो चौंक समझती, सम्मुख हैं यदुवीर

कभी विलपती, कभी कलपती, होकर अधिक अधीर ।

बालबोधिनी – सखी कह रही है-हे श्रीकृष्ण ! अन्वेषण आदि के द्वारा श्रीराधा के लिए आप दुष्प्राप्य हो गये हैं, ध्यान में लीन होकर परिकल्पना करती हैं कि तुम उसके समीप ही हो। सम्मुख अनुभव होने पर चित्र बनाती है और चित्रलिखित तुम्हें देखने पर अपने निकट जानकर हँसने लगती हैं, मन में प्रसन्नता की हिलोरें तरङ्गायित होने लगती हैं, लेकिन आपके द्वारा आलिङ्गन न किये जाने पर उनका उन्मादित अट्टहास क्रन्दन में बदल जाता है, तुम्हारी कल्पित प्रतिमूर्त्ति के तिरोहित होने पर पुनः आलिङ्गित करने का उपक्रम करती हैं। सोचती हैं, यदि श्रीकृष्ण मुझे देखेंगे तो मेरे वशवर्ती हो जाएँगे – इस आभास से अपनी छटपटाहट, छनछनाहट और सन्ताप का परित्याग करती हैं।

रसिकप्रिया के अनुसार विलपति न होकर विलिखतिहोना चाहिए। इसमें दीपक अलङ्कार है। नायिका का किलकिञ्चित् भाव है ॥७॥

श्रीजयदेव – भणितमिदमधिकं यदि मनसा नटनीयम् ।

हरि – विरहाकुल- वल्लव – युवति – सखी – वचनं पठनीयम्-

सा विरहे तव दीना… ॥८ ॥

अन्वय- यदि मनसा नटनीयं [ नर्त्तयितव्यं ], [तर्हि ] श्रीजयदेव – भणितम् (जयदेवोक्तम्) इदं हरिविरहाकुल-वल्लव- युवति-सखी- वचनम् (हरे कृष्णस्य विरहेण आकुलायाः वल्लवयुवत्याः श्रीराधायाः सख्याः वचनं दूतीवाक्यम्) अधिकं ( यथास्यात् तथा) पठनीयम् ॥८ ॥

अनुवाद – श्रीराधा की प्रिय सखी द्वारा कथित और श्रीजयदेव द्वारा विरचित यह अष्टपदी मानस मन्दिर में अभिनय करने योग्य है और साथ ही हरि के विरह में व्याकुल श्रीराधा की सखी के वचन बार-बार पढ़ने योग्य है।

बालबोधिनी – प्रस्तुत श्लोक में गीतगोविन्दकार महाकवि श्रीजयदेव कहते हैं कि तरुणी श्रीराधा श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल हैं। सखी ने श्रीकृष्ण के पास श्रीराधा के प्रणय का निवेदन किया है। सखी द्वारा यह प्रणय-वचनावली मन के द्वारा अभिनय करणीय है। नाट्य में अभिनय प्रधान होता है, अतः नटनीयम्का अर्थ हुआ अभिनीत किये जाने योग्य । नटनीयका अर्थ रसनीय तथा आस्वादनीय भी है। नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने कहा है- नटशब्दो रसे मुख्यः । नट शब्द का मुख्यार्थ रसहै। श्रीजयदेवभणितमिदमधिकम् – इस वाक्यांश का अभिप्राय यह है कि श्रीजयदेव कवि की सम्पूर्ण उक्तियों में श्रीराधा की सखी की उक्ति ही सार-सर्वस्व है। यही वैष्णवों द्वारा भजनीय एवं आस्वादनीय है।

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