सूर्य सूक्त || Surya Sukta by Shuklayajurveda

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शुक्ल यजुर्वेदोक्त यह ‘सूर्य सूक्त’ के ऋषि ‘विभ्राड्’ हैं, देवता ‘सूर्य’ और छन्द ‘जगती है । ये सूर्यमण्डल के प्रत्यक्ष देवता हैं, जिनका दर्शन सबको निरन्तर प्रतिदिन होता है । पञ्चदेवों में भी सूर्यनारायण को पूर्णब्रह्म के रूप में उपासना होती है । भगवान् सूर्यनारायण को प्रसन्न करने के लिये प्रतिदिन ‘उपस्थान’ एवं ‘प्रार्थना’ में ‘सूर्यसूक्त’ के पाठ करने की परम्परा है । शरीर के असाध्य रोगों से मुक्ति पाने में ‘सूर्यसूक्त’ अपूर्व शक्ति रखता है –

शुक्ल यजुर्वेदोक्त सूर्यसूक्त

विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् ।

वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति ॥ १ ॥

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।

दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २ ॥

येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ२ अनु ।

त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३ ॥

दैव्यावध्वर्यू आ गत रथेन सूर्यत्वचा ।

मध्वा यज्ञ समञ्जाथे ।

तं प्रत्नथाऽयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४ ॥

तं प्रलथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदस्वर्विदम् ।

प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥ ५ ॥

अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।

इममपासङ्गमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥ ६ ॥

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।

आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७ ॥

आ न इडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ।

अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८ ॥

यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य ।

सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९ ॥

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।

विश्वमा भासि रोचनम् ॥ १० ॥

तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।

यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११ ॥

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।

अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ १२ ॥

बण्महाँ२ असि सूर्य बडादित्य महाँ२ असि ।

महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ२ असि ॥ १३ ॥

बट् सूर्य श्रवसा महाँ२ असि सत्रा देव महाँ२ असि ।

मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४ ॥

श्रयन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ।

वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम् ॥ १५ ॥

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।

तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६ ॥

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च ।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ १७ ॥
शुक्ल यजुर्वेदोक्त सूर्यसूक्तम् भावार्थ सहित

विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् ।

वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति ॥ १ ॥

वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा जो महान् दीप्तिमान् सूर्य प्रजा की रक्षा तथा पालन-पोषण करता है और अनेक प्रकार से शोभा पाता है, वह अखण्ड आयु प्रदान करते हुए मधुर सोमरस का पान करे ।

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २ ॥

विश्व की दर्शन-क्रिया सम्पादित करने के लिये अग्नि-ज्वाला-स्वरूप उदीयमान सूर्यदेव को ब्रह्म-ज्योतियाँ ऊपर उठाये रखती हैं ।

येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ२ अनु । त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३ ॥

हे पावकरूप एवं वरुणरूप सूर्य ! तुम जिस दृष्टि से ऊर्ध्व-गमन करनेवालों को देखते हो, उसी कृपादृष्टि से सब जनों को देखो ।

दैव्यावध्वर्यूऽ आ गतँ रथेन सूर्यत्वचा । मध्वा यज्ञँ समञ्जाथे । तं प्रत्नथायं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४ ॥

हे दिव्य अश्विनीकुमारो ! आप भी सूर्य की-सी कान्तिवाले रथ में आयें और हविष्य से यज्ञ को परिपूर्ण करें । उसे ही जिसे ज्योतिष्मानों में चन्द्रदेव ने प्राचीन विधि से अद्भुत बनाया है ।

तं प्रलथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदस्वर्विदम् ।

प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥ ५ ॥

यज्ञादि श्रेष्ठ क्रियाओं में अग्रणी रहनेवाले और विपरीत पापादि का नाश करनेवाले, श्रेष्ठ विस्तारवाले, श्रेष्ठ आसन पर स्थित, स्वर्ग के ज्ञाता आपको हम पुरातन विधि से, पूर्ण विधि से, सामान्य विधि से और इस प्रस्तुत विधि से वरण करते हैं ।

अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।

इममपासङ्गमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥ ६ ॥

जल के निर्माण के समय यह ज्योतिर्मण्डल से आवृत चन्द्रमा अन्तरिक्षीय जल को प्रेरित करता है । इस जल-समागम के समय ब्राह्मण सरल वाणी से वेन (चन्द्रमा) की स्तुति करते हैं ।

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।

आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७ ॥

क्या ही आश्चर्य है कि स्थावर-जंगम जगत् की आत्मा, किरणों का पुंज, अग्नि, मित्र और वरुण का नेत्ररूप यह सूर्य भूलोक, द्युलोक तथा अन्तरिक्ष को पूर्ण करता हुआ उदित होता है ।

आ न इडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ।

अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८ ॥

सुन्दर अन्नोंवाले हमारे प्रशंसनीय यज्ञ में सर्वहितैषी सूर्यदेव आगमन करें । हे अजर देवो ! जैसे भी हो, आपलोग तृप्त हों और आगमन काल में हमारे सम्पूर्ण गौ आदि को बुद्धिपूर्वक तृप्त करें ।

यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य । सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९ ॥

हे इन्द्र ! हे सूर्य ! आज तुम जहाँ-कहीं भी उदीयमान हो, वे सभी प्रदेश तुम्हारे अधीन हैं ।

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमा भासि रोचनम् ॥ १० ॥

देखते-देखते विश्व का अतिक्रमण करनेवाले हे विश्व के प्रकाशक सूर्य ! इस दीप्तिमान् विश्व को तुम्हीं प्रकाशित करते हो ।

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।

यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११ ॥

सूर्य का देवत्व तो यह है कि ये ईश्वर-सृष्ट जगत् के मध्य स्थित हो समस्त ग्रहों को धारण करते हैं और आकाश से ही जब हरितवर्ण की किरणों से संयुक्त हो जाते हैं तो रात्रि सब के लिये अन्धकार का आवरण फैला देती है ।

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।

अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ १२ ॥

द्युलोक के अंक में यह सूर्य मित्र और वरुण का रूप धारणकर सबको देखता है । अनन्त शुक्ल-देदीप्यमान इसका एक दूसरा अद्वैतरूप है । कृष्णवर्ण का एक दूसरा द्वैतरूप है, जिसे इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं ।

बण्महाँ२ असि सूर्य बडादित्य महाँ२ असि ।

महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ२ असि ॥ १३ ॥

हे सूर्यरूप परमात्मन् ! तुम सत्य ही महान् हो । आदित्य ! तुम सत्य ही महान् हो । महान् और सद्रूप होने के कारण आपकी महिमा गायी जाती है । आप सत्य ही महान् हैं ।

बट् सूर्य श्रवसा महाँ२ असि सत्रा देव महाँ२ असि ।

मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४ ॥

हे सूर्य ! तुम सत्य ही यश से महान् हो । यज्ञ से महान् हो तथा महिमा से महान् हो । देवों के हितकारी एवं अग्रणी हो और अदम्य व्यापक ज्योतिवाले हो ।

श्रयन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ।

वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम् ॥ १५ ॥

जिन सूर्य का आश्रय करनेवाली किरणें इन्द्र की सम्पूर्ण वृष्टि-सम्पत्ति का भक्षण करती हैं और फिर उनको उत्पन्न करने अर्थात् वर्षण करने के समय यथाभाग उत्पन्न करती हैं, उन सूर्य को हम हृदय में धारण करते हैं ।

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।

तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६ ॥

हे देवो ! आज सूर्य का उदय हमारे पाप और दोष को दूर करे और मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी तथा स्वर्ग सब-के-सब मेरी इस वाणी का अनुमोदन करें ।

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च ।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ १७ ॥

सबके प्रेरक सूर्यदेव स्वर्णिम रथ में विराजमान होकर अन्धकारपूर्ण अन्तरिक्ष-पथ में विचरण करते हुए देवों और मानवों को उनके कार्यों में लगाते हुए लोकों को देखते हुए चले आ रहे हैं ।

शुक्ल यजुर्वेदोक्त सूर्यसूक्तम् भावार्थ सहित समाप्त॥

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