कुम्हलाये हैं फूल – ठाकुर गोपाल शरण सिंह
कुम्हलाये हैं फूल अभी–अभी तो खिल आये थे कुछ ही विकसित हो पाये थे वायु कहां से आकर इन पर...
कुम्हलाये हैं फूल अभी–अभी तो खिल आये थे कुछ ही विकसित हो पाये थे वायु कहां से आकर इन पर...
फूले फूल बबूल कौन सुख‚ अनफूले कचनार। वही शाम पीले पत्तों की गुमसुम और उदास वही रोज का मन का...
दांतों से नाखून काटने का छोटों को जबरदस्ती डांटने का पैसे वालों को गाली बकने का मूंगफली के ठेले से...
पत्र मुझको मिला तुम्हारा कल चाँदनी ज्यों उजाड़ में उतरे क्या बताऊँ मगर मेरे दिल पर कैसे पुरदर्द हादसे गुज़रे।...
अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है जार्जेट के पीले पल्ले–सी यह दोपहर नवम्बर की। आयीं गयीं ऋतुएँ...
मेरे आँसू तो किसी सीप का मोती न बने साथ मेरे न कभी आँख किसी की रोई ज़िन्दगी है इसकी...
इस डगर पर मोड़ सारे तोड़, ले चूका कितने अपरिचित मोड़। पर मुझे लगता रहा हर बार, कर रहा हूँ...
लो आ पहुँचा सूरज के चक्रों का उतार रह गई अधूरी धूप उम्र के आँगन में हो गया चढ़ावा मंद...
बर्तन की यह उठका पटकी यह बात बात पर झल्लाना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। यह थकी देह पर...
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए, कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए। जले जो रेत...
जिंदगी सारी कटी करते करते इंतजार सिर्फ अब बढती उम्र मेँ इंतजार का एहसास ज्यादा है। इंतजार पहले भी था...
जाने क्या हुआ कि दिन काला सा पड़ गया। चीज़ों के कोने टूटे बातों के स्वर डूब गये हम कुछ...