तुलसी स्तोत्र || Tulasi Stotra

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तुलसी के पत्र और पुष्प भगवान् श्रीविष्णु को बहुत ही प्रिय है। उसी प्रकार तुलसी के पुण्यमय स्तोत्र का श्रवण या पठन करने से भी श्रीहरि की कृपा प्राप्त होता और सभी पाप नष्ट होकर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। यहाँ पद्मपुराण खण्ड- १ (सृष्टिखण्ड) अध्याय- ६१में वर्णित तुलसी स्तोत्र को भावार्थ सहित दिया जा रहा है। जिसे की पूर्वकाल में ब्रह्माजी के मुख से तुलसीजी के स्तोत्र का श्रवण कर शतानंद अपने शिष्यों को सुना रहे हैं।

तुलसी स्तोत्रम्

शतानंद उवाच-

नामोच्चारे कृते तस्याः प्रीणात्यसुरदर्पहा।

पापानि विलयं यांति पुण्यं भवति चाक्षयम् ।।

सा कथं तुलसी लोकैः पूज्यते वंद्यते नहि ।

दर्शनादेव यस्यास्तु दानं कोटिगवां भवेत् ।।

धन्यास्ते मानवा लोके यद्गृहे विद्यते कलौ।

सालग्रामशिलार्थं तु तुलसी प्रत्यहं क्षितौ ।।

तुलसीं ये विचिन्वंति धन्यास्ते करपल्लवाः।

केशवार्थं कलौ ये च रोपयंतीह भूतले ।।

किं करिष्यति संरुष्टो यमोपि सह किंकरैः।

तुलसीदलेन देवेशः पूजितो येन दुःखहा ।।

तीर्थयात्रादिगमनैः फलैः सिध्यति किन्नरः।

स्नाने दाने तथा ध्याने प्राशने केशवार्चने ।।

तुलसी दहते पापं कीर्तने रोपणे कलौ।

तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिये ।।

केशवार्थं चिनोमि त्वां वरदा भव शोभने।

त्वदंगसंभवैर्नित्यं पूजयामि यथाहरिम् ।।

तथा कुरु पवित्रांगि कलौ मलविनाशिनि ।

मंत्रेणानेन यः कुर्याद्विचित्य तुलसीदलम् ।।

पूजनं वासुदेवस्य लक्षकोटिगुणं भवेत् ।

प्रभावं तव देवेशि गायंति सुरसत्तमाः ।।

मुनयः सिद्धगंधर्वाः पाताले नागराट्स्वयम् ।

न ते प्रभावं जानंति देवताः केशवादृते ।।

गुणानां परिमाणं तु कल्पकोटिशतैरपि।

कृष्णानंदात्समुद्भूता क्षीरोदमथनोद्यमे ।।

उत्तमांगे पुरा येन तुलसी विष्णुना धृता।

प्राप्यैतानि त्वया देवि विष्णोरंगानि सर्वशः ।।

पवित्रता त्वया प्राप्ता तुलसीं त्वां नमाम्यहम् ।

त्वदंगसंभवैः पत्रैः पूजयामि यथा हरिम् ।।

तथा कुरुष्व मेऽविघ्नं यतो यामि परां गतिम्।

रोपिता गोमतीतीरे स्वयं कृष्णेन पालिता ।।

जगद्धिताय तुलसी गोपीनां हितहेतवे।

वृंदावने विचरता सेविता विष्णुना स्वयम् ।।

गोकुलस्य विवृद्ध्यर्थं कंसस्य निधनाय च ।

वसिष्ठवचनात्पूर्वं रामेण सरयूतटे ।।

राक्षसानां वधार्थाय रोपिता त्वं जगत्प्रिये।

रोपिता तपसो वृद्ध्यै तुलसीं त्वां नमाम्यहम् ।।

वियोगे वासुदेवस्य ध्यात्वा त्वां जनकात्मजा ।

अशोकवनमध्ये तु प्रियेण सह संगता ।।

शङ्करार्थं पुरा देवि पार्वत्या त्वं हिमालये।

रोपिता तपसो वृद्ध्यै तुलसीं त्वां नमाम्यहम् ।।

सर्वाभिर्देवपत्नीभिः किन्नरैश्चापि नंदने।

दुःस्वप्ननाशनार्थाय सेविता त्वं नमोस्तु ते ।।

धर्मारण्ये गयायां च सेविता पितृभिः स्वयम् ।

सेविता तुलसी पुण्या आत्मनो हितमिच्छता ।।

रोपिता रामचंद्रेण सेविता लक्ष्मणेन च ।

पालिता सीतया भक्त्या तुलसी दंडके वने ।।

त्रैलोक्यव्यापिनी गंगा यथा शास्त्रेषु गीयते।

तथैव तुलसी देवी दृश्यते सचराचरे ।।

ऋश्यमूके च वसता कपिराजेन सेविता ।

तुलसी वालिनाशाय तारासंगम हेतवे ।।

प्रणम्य तुलसीदेवीं सागरोत्क्रमणं कृतम् ।

कृतकार्यः प्रहृष्टश्च हनूमान्पुनरागतः ।।

तुलसीग्रहणं कृत्वा विमुक्तो याति पातकैः।

अथवा मुनिशार्दूल ब्रह्महत्यां व्यपोहति ।।

तुलसीपत्रगलितं यस्तोयं शिरसा वहेत् ।

गंगास्नानमवाप्नोति दशधेनुफलप्रदम् ।।

प्रसीद देवि देवेशि प्रसीद हरिवल्लभे ।

क्षीरोदमथनोद्भूते तुलसि त्वां नमाम्यहम् ।।

तुलसी स्तोत्र फलश्रुति

द्वादश्यां जागरे रात्रौ यः पठेत्तुलसीस्तवम् ।

द्वात्रिंशदपराधांश्च क्षमते तस्य केशवः ।।

यत्पापं यौवने बाल्ये कौमारे वार्द्धके कृतम् ।

तत्सर्वं विलयं याति तुलसीस्तव पाठतः ।।

प्रीतिमायाति देवेशस्तुष्टो लक्ष्मीं प्रयच्छति।

कुरुते शत्रुनाशं च सुखं विद्यां प्रयच्छति।।

तुलसीनाममात्रेण देवा यच्छंति वांछितम् ।

गर्ह्याणमपि देवेशो मुक्तिं यच्छति देहिनाम् ।।

तुलसी स्तवसंतुष्टा सुखं वृद्धिं ददाति च ।

उद्गतं हेलया विद्धि पापं यमपथे स्थितम् ।।

यस्मिन्गृहे च लिखितो विद्यते तुलसीस्तवः।

नाशुभं विद्यते तस्य शुभमाप्नोति निश्चितम् ।।

सर्वं च मंगलं तस्य नास्ति किंचिदमंगलम् ।

सुभिक्षं सर्वदा तस्य धनं धान्यं च पुष्कलम् ।।

निश्चला केशवे भक्तिर्न वियोगश्च वैष्णवैः।

जीवति व्याधिनिर्मुक्तो नाधर्मे जायते मतिः ।।

द्वादश्यां जागरे रात्रौ यः पठेत्तुलसीस्तवम् ।

तीर्थकोटिसहस्रैस्तु यत्फलं लक्षकोटिभिः ।।

तत्फलं समवाप्नोति पठित्वा तुलसीस्तवम् ।।

तुलसी स्तोत्र समाप्त ।।
तुलसी स्तोत्र भावार्थ

शतानन्दजी बोले-शिष्यगण! तुलसी का नामोचारण करने पर असुरो का दर्प दलन करनेवाले भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उसे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। जिसके दर्शनमात्र से करोड़ों गोदान का फल होता है, उस तुलसी का पूजन और वन्दन लोग क्यों न करें। कलियुग के संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जिनके घर में शालग्राम-शिला का पूजन सम्पन्न करने के लिये प्रतिदिन तुलसी का वृक्ष भूतल पर लहलहाता रहता है। जो कलियुग में भगवान् श्रीकेशव की पूजा के लिये पृथ्वी पर तुलसी का वृक्ष लगाते हैं, उन पर यदि यमराज अपने किङ्करों सहित रुष्ट हो जाये तो भी वे उनका क्या कर सकते हैं। ‘तुलसी ! तुम अमृत से उत्पन्न हो और केशव को सदा ही प्रिय हो। कल्याणी ! मैं भगवान्की पूजा के लिये तुम्हारे पत्तों को चुनता हूँ। तुम मेरे लिये वरदायिनी बनो। तुम्हारे श्रीअङ्गों से उत्पन्न होनेवाले पत्रों और मञ्जरियों द्वारा मैं सदा ही जिस प्रकार श्रीहरि का पूजन कर सकूँ, वैसा उपाय करो। पवित्राङ्गी तुलसी ! तुम कलि-मल का नाश करनेवाली हो।’*इस भाव के मन्त्रों से जो तुलसीदलों को चुनकर उनसे भगवान् वासुदेव का पूजन करता है, उसकी पूजा का करोड़ोंगुना फल होता है। देवेश्वरी ! बड़े-बड़े देवता भी तुम्हारे प्रभाव का गायन करते हैं। मुनि, सिद्ध, गन्धर्व, पाताल-निवासी साक्षात् नागराज शेष तथा सम्पूर्ण देवता भी तुम्हारे प्रभाव को नहीं जानते; केवल भगवान् श्रीविष्णु ही तुम्हारी महिमा को पूर्णरूप से जानते हैं। जिस समय क्षीर-समुद्र के मन्थन का उद्योग प्रारम्भ हुआ था, उस समय श्रीविष्णु के आनन्दांश से तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ था। पूर्वकाल में श्रीहरि ने तुम्हें अपने मस्तक पर धारण किया था। देवि ! उस समय श्रीविष्णु के शरीर का सम्पर्क पाकर तुम परम पवित्र हो गयी थीं। तुलसी ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। तुम्हारे श्रीअङ्ग से उत्पन्न पत्रों द्वारा जिस प्रकार श्रीहरि की पूजा कर सकूँ, ऐसी कृपा करो, जिससे मैं निर्विघ्नतापूर्वक परम गति को प्राप्त होऊँ। साक्षात् श्रीकृष्ण ने तुम्हें गोमती तट पर लगाया और बढ़ाया था। वृन्दावन में विचरते समय उन्होंने सम्पूर्ण जगत् और गोपियों के हित के लिये तुलसी का सेवन किया। जगत्प्रिया तुलसी ! पूर्वकाल में वसिष्ठजी के कथनानुसार श्रीरामचन्द्रजी ने भी राक्षसों का वध करने के उद्देश्य से सरयू के तटपर तुम्हें लगाया था। तुलसीदेवी ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हैं। श्रीरामचन्द्रजी से वियोग हो जाने पर अशोकवाटिका में रहते हुए जनककिशोरी सीता ने तुम्हारा ही ध्यान किया था, जिससे उन्हें पुनः अपने प्रियतम का समागम प्राप्त हुआ। पूर्वकाल में हिमालय पर्वत पर भगवान् शङ्कर की प्राप्ति के लिये पार्वतीदेवी ने तुम्हें लगाया और अपनी अभीष्ट-सिद्धि के लिये तुम्हारा सेवन किया था। तुलसीदेवी ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। सम्पूर्ण देवाङ्गनाओं और किन्नरों ने भी दुःस्वप्र का नाश करने के लिये नन्दनवन में तुम्हारा सेवन किया था। देवि ! तुम्हें मेरा नमस्कार है। धर्मारण्य गया में साक्षात् पितरो ने तुलसी का सेवन किया था। दण्डकारण्य में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ने अपने हित-साधन की इच्छा से परम पवित्र तुलसी का वृक्ष लगाया तथा लक्ष्मण और सीता ने भी बड़ी भक्ति के साथ उसे पोसा था। जिस प्रकार शास्त्रों में गङ्गाजी को त्रिभुवनव्यापिनी कहा गया है, उसी प्रकार तुलसीदेवी भी सम्पूर्ण चराचर जगत्में दृष्टिगोचर होती हैं। तुलसी का ग्रहण करके मनुष्य पातकों से मुक्त हो जाता है। और तो और, मुनीश्वरो ! तुलसी के सेवन से ब्रह्महत्या भी दूर हो जाती है। तुलसी के पत्ते से टपकता हुआ जल जो अपने सिर पर धारण करता है, उसे गङ्गास्नान और दस गोदान का फल प्राप्त होता है। देवि ! मुझ पर प्रसन्न होओ। देवेश्वरि ! हरिप्रिये ! मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। क्षीरसागर के मन्थन से प्रकट हुई तुलसीदेवि ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।

तुलसी स्तोत्र फलश्रुति

द्वादशी की रात्रि जागरण करके जो इस तुलसीस्तोत्र का पाठ करता है, भगवान् श्रीविष्णु उसके बत्तीस अपराध क्षमा करते हैं। बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी और बुढ़ापे में जितने पाप किये होते हैं, वे सब तुलसी-स्तोत्र के पाठ से नष्ट हो जाते हैं।तुलसी के स्तोत्र से सन्तुष्ट होकर भगवान् सुख और अभ्युदय प्रदान करते हैं। जिस घर में तुलसी का स्तोत्र लिखा हुआ विद्यमान रहता है, उसका कभी अशुभ नहीं होता, उसका सब कुछ मङ्गलमय होता है, किञ्चित् भी अमङ्गल नहीं होता। उसके लिये सदा सुकाल रहता है। वह घर प्रचुर धन-धान्य से भरा रहता है। तुलसी-स्तोत्र का पाठ करनेवाले मनुष्य के हृदय में भगवान् श्रीविष्णु के प्रति अविचल भक्ति होती है। तथा उसका वैष्णवों से कभी वियोग नहीं होता । इतना ही नहीं, उसकी बुद्धि कभी अधर्म में नहीं प्रवृत्त होती। जो द्वादशी की रात्रि जागरण करके तुलसी-स्तोत्र का पाठ करता है, उसे करोड़ों तीर्थो के सेवन का फल प्राप्त होता है।

तुलसी स्तोत्र समाप्त ।।