बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग – Vaidyanatha Jyotirlinga temple

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बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग – Baba Baidyanath Temple
यह भगवान शिव के पवित्र 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर भारत के झारखण्ड जिले के देवगढ़ में बना हुआ है।

शास्त्रों में भी यहां की महिमा का उल्लेख है। मान्यता है कि सतयुग में ही यहां का नामकरण हो गया था। स्वयं भगवान ब्रह्मा और बिष्णु ने भैरव के नाम पर यहां का नाम बैद्यनाथ धाम रखा था ।

मंदिर के परिसर में बाबा बैद्यनाथ के मुख्य मंदिर के साथ-साथ दुसरे 21 मंदिर और भी है।

भारत के प्रसिद्ध शैव तीर्थस्थलों में झारखंड के देवघर का बैद्यनाथ धाम (बाबाधाम) अत्यंत प्रसिद्ध है।

बैद्यनाथ धाम का कामना लिंग द्वादश ज्योतिर्लिगों में सबसे अधिक महिमामंडित किया जाता है।

इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके शीर्ष पर त्रिशूल नहीं, ‘पंचशूल’ है, जिसे सुरक्षा कवच माना गया है ।

पंचशूल अजेय शक्ति प्रदान करता है ।

धार्मिक ग्रंथों इस बात का प्रमाण है कि भगवान शंकर ने अपने प्रिय शिष्य शुक्राचार्य को पंचवक्त्रम निर्माण की विधि बताई थी, जिनसे फिर लंका के राजा रावण ने इस विद्या को सिखा था ।

रावण ने लंका के चारों कोनों पर पंचशूल का निर्माण करवाया था, जिसे राम को तोड़ना मुश्किल हो रहा था ।

बाद में विभिषण द्वारा इस रहस्य को भगवान राम को बताया गया और तब जाकर अगस्त मुनि ने पंचशूल ध्वस्त करने का विधान भगवान राम को बताया था ।

त्रिशूल को भगवान का हथियार कहा जाता है, परंतु यहां पंचशूल है, जिसे सुरक्षा कवच के रूप में मान्यता है। सभी ज्योतिर्पीठों के मंदिरों के शीर्ष पर ‘त्रिशूल’ है, परंतु बाबा बैद्यनाथ के मंदिर में ही पंचशूल स्थापित है।

पंचशूल सुरक्षा कवच के कारण ही इस मंदिर पर आज तक किसी भी प्राकृतिक आपदा का असर नहीं हुआ है।

भगवान शिव को प्रिय मंत्र ‘ओम नम: शिवाय’ भी पंचाक्षर होता है। भगवान भोलेनाथ के रुद्र रूप में भी पंचमुख है ।

कई धर्माचार्यो का मानना है कि पंचशूल मानव शरीर में मौजूद पांच विकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह व ईष्र्या को नाश करने का प्रतीक है ।

एक मान्यता यह भी है कि यहां आने वाला श्रद्धालु अगर बाबा के दर्शन किसी कारणवश न कर पाए, तो मात्र पंचशूल के दर्शन से ही उसे समस्त पुण्य कर्मो के फल की प्राप्ति हो जाती है।

मुख्य मंदिर में स्वर्ण कलश के ऊपर लगे पंचशूल सहित यहां बाबा मंदिर परिसर के सभी 22 मंदिरों पर लगे पंचशूलों को साल में एक बार शिवरात्रि के दिन पूरे विधि-विधान से नीचे उतारा जाता है और सभी को एक निश्चित स्थान पर रखकर विशेष पूजा कर फिर से वहीं स्थापित कर दिया जाता है ।

पंचशूल को मंदिर से नीचे लाने और फिर ऊपर स्थापित करने का अधिकार स्थानीय एक ही परिवार को प्राप्त है ।

वर्ष भर शिवभक्तों की यहां भारी भीड़ लगी रहती है, परंतु सावन महीने में यह पूरा क्षेत्र केसरिया पहने शिवभक्तों से पट जाता है ।

भगवान भोलेनाथ के भक्त 105 किलोमीटर दूर बिहार के भागलपुर के सुल्तानगंज में बह रही उत्तर वाहिनी गंगा से जलभर कर पैदल यात्रा करते हुए यहां आते हैं और बाबा का जलाभिषेक करते हैं ।

बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर – Baba Baidyanath Temple ( Vaidyanatha Jyotirlinga )

हिन्दू मान्यताओ के अनुसार लंकापति राजा रावण ने वरदान पाने के लिए इसी मंदिर में भगवान शिव की पूजा-अर्चना की थी।

रावण ने एक-एक करके अपने दस सिर भगवान शिव पर समर्पित कर दिए थे। इससे खुश होकर भगवान शिव ने घायल रावण का इलाज किया।

उस समय भगवान शिव ने एक बैध का काम किया, इसीलिए उन्होंने वैद्य भी कहा जाता है। भगवान शिव के इसी काम की वजह से मंदिर का नाम बैद्यनाथ रखा गया।

एक मान्यता और भी है की शिवपुराण के शक्ति खंड में इस बात का उल्लेख है कि माता सती के शरीर के 52 खंडों की रक्षा के लिए भगवान शिव ने सभी जगहों पर भैरव को स्थापित किया था।

देवघर में माता का हृदय गिरा था। इसलिए इसे हृदय पीठ या शक्ति पीठ भी कहते हैं। माता के हृदय की रक्षा के लिए भगवान शिव ने यहां जिस भैरव को स्थापित किया था, उनका नाम बैद्यनाथ था ।

इसलिए जब रावण शिवलिंग को लेकर यहां पहुंचा, तो भगवान ब्रह्मा और बिष्णु ने भैरव के नाम पर उस शिवलिंग का नाम बैद्यनाथ रख दिया।

पंडितों की माने तो यहां के नामकरण के पीछे एक और मान्यता है । त्रेतायुग में बैजू नाम का एक शिव भक्त था।

उसकी भक्ति से भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि अपने नाम के आगे बैजू जोड़ लिया। इसी से यहां का नाम बैजनाथ पड़ा। कालातंर में यही बैजनाथ, बैद्यनाथ में परिवर्तित हुआ।

पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र के प्रहार से मां शक्ति के हृदय का भाग यहीं पर कट कर गिरा था। बैद्यनाथ दरबार माता शक्ति के 51 शक्तिपीठों में से एक है।

कहते हैं शिव और शक्ति के इस मिलन स्थल पर ज्योतिर्लिंग की स्थापना खुद देवताओं ने की थी। बैद्यनाथ धाम धाम के बारे में कहा जाता है यहां मांगी गई मनोकामना देर में सही लेकिन पूर्ण जरूर होती है।

भगवान श्री राम और महाबली हनुमान जी ने श्रावण के महीने में यहां कावड़ यात्रा भी की थी। बैद्यनाथ धाम धाम में स्थित भगवान भोले शंकर का ज्योतिर्लिंग यानी शिवलिंग नीचे की तरफ दबा हुआ है।

शिव पुराण और पद्म पुराण के पाताल खंड में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा गाई गई है। मंदिर के निकट एक विशाल तालाब स्थित है।

बाबा बैद्यनाथ का मुख्य मंदिर सबसे पुराना है, जिसके आसपास और भी अनेकों अन्य मंदिर बने हुए हैं।

भोलेनाथ का मंदिर माता पार्वती जी के मंदिर के साथ जुड़ा हुआ है। यहां प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के 2 दिन पूर्व बाबा मंदिर और मां पार्वती और लक्ष्मी नारायण के मंदिर से पंचसूल उतारे जाते हैं।

इस दौरान पंचसूल को स्पर्श करने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है।

बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर का इतिहास – Baidyanath Temple ( Vaidyanatha Jyotirlinga ) History
आंठवी शताब्दी में अंतिम गुप्त सम्राट आदित्यसेन गुप्त ने यहाँ शासन किया था। तभी से बाबा धाम मंदिर काफी प्रसिद्ध है।

अकबर के शासनकाल में मान सिंह अकबर के दरबार से जुड़े हुए थे। मानसिंह लंबे समय तक गिधौर साम्राज्य से जुड़े हुए थे और बिहार के बहुत से शासको से भी उन्होंने संबंध बना रखे थे।

मान सिंह को बाबाधाम में काफी रूचि थी, वहाँ उन्होंने एक टैंक भी बनवाया जिसे आज मानसरोवर के नाम से भी जाना जाता है।

मंदिर में लगे शिलालेखो से यह भी ज्ञात होता है की इस मंदिर का निर्माण पुजारी रघुनाथ ओझा की प्रार्थना पर किया गया था।

सूत्रों के अनुसार पूरण मल ने मंदिर की मरम्मत करवाई थी। रघुनाथ ओझा इन शिलालेखो से नाराज थे लेकिन वे पूरण मल का विरोध नही कर पाए।

जब पूरण मल चले गए तब उन्होंने वहाँ एक बरामदा बनवाया और खुद के शिलालेख स्थापित किये।

बैद्यनाथ की तीर्थयात्रा मुस्लिम काल में भी प्रसिद्ध थी। 1695 और 1699 AD के बीच खुलासती-त-त्वारीख में भी हमें बैद्यनाथ की यात्रा का उल्लेख दिखाई देता है।

खुलासती-त-त्वारीख में लिखी गयी जानकारी के अनुसार बाबाधाम के मंदिर को प्राचीन समय में भी काफी महत्त्व दिया जाता था।

18 वी शताब्दी में गिधौर के महाराजा को राजनितिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ा। इस समय उन्हें बीरभूम के नबाब से लड़ना पड़ा।

इसके बाद मुहम्मदन सरकार के अंतर्गत मंदिर के मुख्य पुजारी को बीरभूम के नबाब को एक निश्चित राशी प्रतिमाह देनी पड़ती और इसके बाद मंदिर का पूरा शासन प्रबंध पुजारी के हांथो में ही सौप दिया जाता था।

कुछ सालो तक नबाब ने बाबाधाम पर शासन किया। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद गिधौर के महाराजा ने नबाब को पराजित कर ही दिया और जबतक ईस्ट इंडिया कंपनी भारत नही आयी तब तक उन्होंने बाबाधाम पर शासन किया।

1757 में प्लासी के युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियो का ध्यान इस मंदिर पर पड़ा।

एक अंग्रेजी अधिकारी कीटिंग ने अपने कुछ आदमियों को मंदिर का शासन प्रबंध देखने के लिए भी भेजा।

बीरभूम के पहले अंग्रेजी कलेक्टर मिस्टर कीटिंग मंदिर के शासन प्रबंध में रूचि लेने लगे थे।

1788 में मिस्टर कीटिंग स्वयं बाबाधाम आए और उन्होंने पुजारी के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की निति को जबरदस्ती बलपूर्वक बंद करवा दिया।

इसके बाद उन्होंने मंदिर के सभी अधिकार और नियंत्रण की जिम्मेदारी सर्वोच्च पुजारी को सौंप दी थी ।

श्रावण मेला, देवगढ़ – Vaidyanatha Jyotirlinga Shrawan Mela

हर साल लाखो तीर्थयात्री इस धार्मिक स्थल के दर्शन के लिए आते है। जुलाई और अगस्त के बीच श्रावण महीने में यहाँ एक प्रसिद्ध मेले का आयोजन किया जाता है।

सुल्तानगंज से गंगा नदी का पानी लेकर भगवान शिव के पिण्ड को चढाते है, जो देवगढ और बैद्यनाथ से 108 किलोमीटर दूर है।

कावडीयो में कई लोग पैदल यात्रा कर (नंगे पाव चलकर) गंगा के पानी को लाते है। कावड़ियो की लम्बी कतार हमें यहाँ देखने मिलती है।

भगवे वस्त्र पहले लाखो लोग नंगे पाव पैदल चलकर 108 किलोमीटर की यात्रा करते है। यहाँ बैद्यनाथ मंदिर के दर्शन करने के बाद यात्री बासुकीनाथ मंदिर के भी दर्शन करते है।

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