वैराग्य क्या है, वैराग्य का स्वरूप, वैराग्य प्राप्ति के उपाय, वैराग्य का फल Vairagy Kya Hai, Vairagy ka Swarup, Vairagy Prapti Ke Upay, Vairagy Ka Fal

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कल्याण को चाहने वाले व्यक्ति को वैराग्य साधन की परम आवश्यकता होती है। बिना बैराग्य के आत्मा का उद्धार कभी नहीं हो सकता है। सच्चे वैराग्य से संसार के सभी भोग पदार्थों के प्रति लगाव नष्ट हो जाता है। और इस मोह के नष्ट हो जाने से ही परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ध्यान होता है।

ध्यान से ही परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का वास्तविक ज्ञान होता है। परमात्मा के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान होने से संसार के सभी पदार्थों के प्रति आसक्ति व लगाव समाप्त हो जाता है।वैराग्य उपरामता रहित ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं ,वह केवल वाचिक और शास्त्रीय ज्ञान है। जिसका फल मुक्ति नहीं प्रत्यूत और भी कठिन बंधन है।

जो अविद्या की उपासना करते हैं, वह अंधकार में प्रवेश करते हैं और जो विद्या में रत हैं ,वह उससे भी अधिक अंधकार में प्रवेश करते हैं।

ऐसा वाचिक ज्ञानी निर्भय होकर विषय भोगों में प्रवृत्त हो जाता है, वह पाप को भी पाप नहीं समझता, इसी से वह विषय रूपी दलदल में फंसकर प्रतीत हो जाता है।

ब्रह्मा ज्ञान जन्यो नहीं, कर्म दिए छिटकाय।
तुलसी ऐसी आत्मा, सहज नरक मह जाए।।

 वास्तव में ज्ञान के नाम पर महान अज्ञान ग्रहण कर लिया जाता है। यदि यथार्थ कल्याण की इच्छा हो तो साधक को सच्चा, दृढ़ बैराग्य उपार्जन करना चाहिए। किसी  स्वांग रचने का नाम वैराग्य नहीं है। किसी कारण से या अज्ञान से, स्त्री, पुत्र ,परिवार, धन का त्याग कर देना ,कपड़े रंग लेना, सिर मुड़वा लेना ,जटा बढ़ाना या अन्य वाह्य  चिन्हों को धारण करना वैराग्य नहीं कहलाता है।

मनसे विषयों में भ्रमण करते रहना और ऊपर से स्वांग बना लेना तो मिथ्याचार है।

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भगवान कहते हैं गीता में

जो अज्ञानी पुरुष कर्मेंद्रियों को हठ से रोककर इंद्रियों के भोगों का मन से चिंतन करता रहता है, वह मिथ्या चारी और दंभी कहा जाता है।

वैराग्य का वास्तविक अर्थ है घर परिवार, गृहस्थी, पुत्र ,पत्नी ,धन आदि के रहते हुए, अपनी इंद्रियों पर पूर्ण संयम होना ही बैराग्य है

वैराग्य बहुत ही रहस्य का विषय है,इसका वास्तविक तत्व तो विरक्त महानुभाव ही जानते हैं। वैराग्य की पराकाष्ठा उन्हीं पुरुषों में पाई जाती है जो जीवन मुक्त महात्मा है।जिन्होंने परमात्मा रूपी रस में डूबकर विषय रूपी रस से अपने को मुक्त कर लिया है।

वैराग्य का स्वरूप– Varagy ka Swarup

चार प्रकार के वैराग्य शास्त्र द्वारा बताए गए

भय से होने वाला बैराग्य

संसार के भोग भोगने से परिणाम में नर्क की प्राप्ति होगी। क्योंकि भोग में संग्रह की आवश्यकता है, संग्रह के लिए आरंभ आवश्यक है, आरंभ में पाप होता है। पाप का फल नरक या दुख है।इस तरह भोग के साधनों में पाप और पाप का परिणाम दुख समझ कर उसके भय से विषयों से अलग होना, भय से उत्पन्न होने वाला वैराग्य है।

विचार से होने वाला वैराग्य

जिन पदार्थों को भोग मानकर उनके संग से आनंद की भावना की जाती है। जिन की प्राप्ति में सुख की प्रतीति होती है, वे वास्तव में न भोग हैं, न सुख के साधन है, न उनमें सुख है।

इसी से वह सुख रूप देखते हैं, वास्तव में तो दुख या दुख के ही कारण हैं।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है । हे अर्जुन असत्य वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है, और सत्य का अभाव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है

इस प्रकार के विवेक द्वारा उत्पन्न बैराग्य, विचार से उत्पन्न होने वाला वैराग्य है।

साधन से होने वाला वैराग्य

जब मनुष्य साधन करते-करते प्रेम में विह्वल होकर भगवान के तत्व का अनुभव करने लगता है। तब उसके मन में भोगों के प्रति स्वतः  ही वैराग्य उत्पन्न होता है।

उस समय उसे संसार के समस्त भोग पदार्थ प्रत्यक्ष दुख रूप प्रतीत होने लगते हैं।सब विषय भगवत प्राप्ति में स्पष्ट बाधक दीखते हैं।

जो स्त्री पुत्र आदि अज्ञानी की दृष्टि में रमणीय, सुख प्रद प्रतीत होते हैं।वही उनकी दृष्टि में  दुख प्रद प्रतीत होने लगते हैं। धन, मकान, रूप ,गाड़ी, मोटर ,गौरव, पद ,शान ,सजावट आदि सभी में उनकी भावना हटने की बुद्धि हो जाती है।

और उनका साथ उन्हें बंधनकारी और दुखदाई प्रतीत होने लगता है। मान बड़ाई, पूजा प्रतिष्ठा, सत्कार सम्मान आदि से वह दूर भागने लगता है।जिस प्रशंसा, प्रतिष्ठा ,मान सम्मान ,की प्राप्ति में साधारण मनुष्य फूला नहीं समाता है, उन्हीं में उसको लज्जा ,संकोच और दुख होता है।

जो उसे मान बड़ाई देते हैं उनके संबंध में वह यही समझता है ,कि यह मेरे भोले भाई मेरी हित कामना से विपरीत आचरण कर रहे हैं। इस प्रकार की विवेक युक्त भावनाओं से भोगों के प्रति जो वैराग्य होता है। वह साधन द्वारा होने वाला वैराग्य है।

परमात्मा तत्व के ज्ञान से होने वाला वैराग्य

जब साधक को परमात्मा के तत्व की उपलब्धि हो जाती है, तब तो संसार के संपूर्ण पदार्थ उसे रसहीन और मायामात्र प्रतीत होने लगते हैं । फिर उसे भगवान की प्राप्ति के अलावा कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जैसे मृगतृष्णा के जल को मरीचि का जान लेने पर उसमें जल नहीं दिखाई देता।

जैसे नींद से जागने पर स्वप्न को स्वप्न समझ लेने पर स्वप्न के संसार का चिंतन करने पर भी उसमें सत्ता नहीं मालूम होती। उसी प्रकार तत्व ज्ञानी पुरुष को जगत के पदार्थों में सार और सत्ता की प्रतीति नहीं होती।

इस प्रकार के पराग एवं पुरुष की संसार के किसी भोग पदार्थ में आस्था ही नहीं होती, तब उसमें रमणीय था और सुख की भ्रांति तो हो ही कैसे सकती है? ऐसा ही पुरुष परमात्मा के परम पद का अधिकारी होता है।इस प्रकार के वैराग्य को परमात्मा के ज्ञान से होने वाला वैराग्य कहा गया है।

वैराग्य प्राप्ति के उपाय– Varagy Prapti ke Upay

सांसारिक विषय वस्तु के प्रति आसक्ति का अभाव के द्वारा ही वैराग्य  प्राप्त किया जा सकता है।

परमात्मा का नाम जप और उनके स्वरूप का निरंतर चिंतन करते रहने से हृदय का मैल जैसे-जैसे दूर होता जाता है वैसे ही उसमें उज्जवलता आती है।

 उज्जवल और शुद्ध अंतःकरण में वैराग्य की लहरें उठती हैं। जिनसे विषय अनुराग मन से स्वयं ही हट जाता है। जिस प्रकार मैले दर्पण को रुई से घिसने पर ज्यों-ज्यों उसका मैल दूर होता जाता है । त्यों त्यों वह चमकने लगता है।

 और प्रतिविंब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार परमात्मा के भजन से वह परमात्मा के चिंतन से मन में जमा हुआ मैल दूर हो जाता है। और परमात्मा में लगाव हो जाता है परमात्मा के सिवा कुछ दिखाई ही नहीं देता है ।व्यक्ति स्वयं परमात्मा का स्वरूप हो जाता है ।परमात्मा में लीन हो जाता है।

 वैराग्य का फल– Varagy Ka Fal

इस प्रकार एक परमात्मा का ज्ञान रह जाना ही अटल समाधि ,जीवन मुक्त अवस्था है। उसी के लक्षण है।ऐसे जीवनमुक्त पुरुष ,भगवान के भक्त ,संसार में किस प्रकार बिचरते हैं, उनकी कैसी स्थिति होती है।इसका वर्णन गीता के अध्याय 12 के श्लोक १३ से 19 तक किया गया है।

शांति को प्राप्त हुआ पुरुष जो सब में भगवान का स्वरूप ही देखता है। जिसमें न अहंकार है, न स्वार्थ है, सब के प्रति दया करने वाला है। सबको सुख पहुंचाने वाला है। जो सुख-दुख को समान रूप से देखता है और क्षमावान है।

अपराध करने वाले को भी अभय दान देने वाला है। जो ध्यान योग में युक्त हुआ निरंतर लाभ हानि में संतुष्ट है। मन और इंद्रियों सहित शरीर को बस में किए हुए हैं। मुझ में दृढ़ विश्वास वाला है। वह मुझ में अर्पण किए हुए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है। जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता एवं जो हर्ष ,अमर्श,भय, से रहित है।

 वह मुझे प्रिय है।मन, वाणी, शरीर ,द्वारा प्रारब्ध से होने वाले संपूर्ण स्वाभाविक कर्मों में कर्ता पन के अभिमान का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है। जिसने समस्त प्रकार की कामनाओं का त्याग कर दिया है। जो निरंतर मेरे भजन में ही और मेरी भक्ति में ही लगा रहता है वह पुरुष मुझे अत्यंत प्रिय है।

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