स्वामी विवेकानंद राजयोग: ध्यान और समाधि – Vivekananda’s Dhyan-Samadhi

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स्वामी विवेकानंद कृत राजयोग का पिछला अध्याय प्रत्याहार और धारणा की विवेचना करता है। इस अध्याय में स्वामी जी अष्टांग योग के अंतिम दो अंगों–ध्यान और समाधि–की व्याख्या कर रहे हैं। इस अध्याय में जानिए ध्यान और समाधि का सही अर्थ, इनकी प्राप्ति के साधन और परिणाम।

अब तक हम राजयोग के अंतरंग साधनों को छोड़ शेष सभी अंगों के संक्षिप्त विवरण समाप्त कर चुके हैं। इन अंतरंग साधनों का लक्ष्य एकाग्रता की प्राप्ति है। इस एकाग्रता-शक्ति को प्राप्त करना ही राजयोग का चरम लक्ष्य है। हम, मानव के नाते, देखते हैं कि हमारा समस्त ज्ञान, जिसे विचारजात् ज्ञान कहते हैं, अहं-बोध के अधीन है। मुझे इस मेज़ का बोध हो रहा है, तुम्हारे अस्तित्व का बोध हो रहा है, इसी प्रकार मुझे अन्यान्य वस्तुओं का भी बोध हो रहा है, और इस अहं-बोध के कारण ही मैं जान पा रहा हूँ कि तुम यहाँ हो, टेबुल यहाँ है, तथा और भी जो वस्तुएँ देख रहा हूँ, अनुभव कर रहा हूँ या सुन रहा हूँ, वे सब भी यहीं हैं। यह तो हुई एक ओर की बात। फिर एक दूसरी ओर यह भी देख रहा हूँ कि मेरी सत्ता कहने से जो कुछ बोध होता है, उसका अधिकारी मैं अनुभव नहीं कर सकता। शरीर के भीतर के सारे यंत्र, मस्तिष्क के विभिन्न अंश–इन सबका ज्ञान किसी को भी नहीं।

जब हम भोजन करते हैं, तब वह ज्ञानपूर्वक करते हैं, परन्तु जब हम उसका सार भाग भीतर ग्रहण करते हैं, तब हम वह अज्ञात् भाव से करते हैं। जब वह ख़ून के रूप में परिणत होता है, तब भी वह हमारे बिना जाने ही होता है। और जब इस ख़ून से शरीर के भिन्न-भिन्न अंग गठित होते हैं, तो वह भी हमारी जानकारी के बिना ही होता है। किन्तु यह सारा काम हमारे द्वारा ही होता है। इस शरीर के भीतर कोई अन्य दस-बीस लोग तो बैठे नहीं हैं, जो यह काम कर देते हों। पर यह किस तरह हमें मालूम हुआ कि हम इनको कर रहे हैं, दूसरा कोई नहीं? इस संबंध में अनायास ही यह कहा जा सकता है कि आहार करने के साथ ही हमारा सम्पर्क है, खाना पचाना और उससे देह तैयार करना तो हमारे लिए एक दूसरा कोई कर दे रहा है। पर यह हो नहीं सकता, क्योंकि यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अभी जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं, वे लगभग सभी साधना के बल से हमारे जाने साधित हो सकते हैं। ऐसा मालूम होता है कि हमारा हृदय-यंत्र अपने-आप ही चल रहा है, हम में से कोई उसको अपनी इच्छानुसार नहीं चला सकता, वह अपने ख़्याल से आप ही चल रहा है। परन्तु इस हृदय के कार्य भी अभ्यास के बल से इस प्रकार इच्छाधीन किए जा सकते हैं कि वे इच्छा-मात्र से शीघ्र या धीरे चलने लगेंगे, या लगभग बंद हो जायेंगे। हमारे शरीर के प्रायः सभी अंग वश में लाए जा सकते हैं। इससे क्या ज्ञात होता है? यही कि इस समय जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं, उन्हें भी हम ही कर रहे हैं, पर हाँ, हम उन्हें अज्ञात् भाव से कर रहे हैं, बस इतना ही। अतएव हम देखते हैं कि मानव-मन दो अवस्थाओं में रहकर कार्य करता है। पहली अवस्था को ‘ज्ञान-भूमि’ कह सकते हैं। जिन कामों को करते समय साथ-साथ, ‘मैं कर रहा हूँ’ यह ज्ञान सदा विद्यमान रहता है, वे कार्य ज्ञान-भूमि से साधित हो रहे हैं, ऐसा कहा जा सकता है। दूसरी भूमि को अज्ञान-भूमि कह सकते हैं। जो सब कार्य ज्ञान की निम्न भूमि से साधित होते हैं, जिसमें ‘मैं’-ज्ञान नहीं रहता, उसे अज्ञान-भूमि कह सकते हैं।

हमारे कार्यकलापों में से जिनमें ‘अहं’ मिला रहता है, उन्हें ज्ञानयुक्त क्रिया और जिनमें ‘अहं’ का लगाव नहीं, उन्हें ज्ञानरहित या अज्ञानपूर्वक क्रिया कहते हैं। निम्न जाति के प्राणियों में यह ज्ञानरहित क्रिया सहज ज्ञान (instinct) कहलाती है। उनकी अपेक्षा उच्चत्तर जीवों में और सबसे उच्च जो मनुष्य में यह दूसरे प्रकार की क्रिया, जिसमें ‘अहं’-भाव रहता है, अधिक दीख पड़ती है–इसी को ज्ञानयुक्त क्रिया कहते हैं।

परन्तु इतने से ही सारी भूमियों का उल्लेख नहीं हो गया। मन इन दोनों से भी ऊँची भूमि पर विचरण कर सकता है। मन ज्ञान की भी अतीत अवस्था में जा सकता है। जिस प्रकार अज्ञान-भूमि से जो कार्य होता है, वह ज्ञान की निम्न भूमि का कार्य है, वैसे ही ज्ञान की उच्च भूमि से भी ज्ञानातीत भूमि से भी कार्य होता है। उसमें भी किसी प्रकार का अहं-भाव नहीं रहता। यह ‘अहं’-भाव केवल बीच की अवस्था में रहता है। जब मन इस रेखा के ऊपर या नीचे विचरण करता है, तब किसी प्रकार का अहं-ज्ञान नहीं रहता, किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है। जब मन इस रेखा के ऊपर अर्थात् ज्ञान-भूमि के अतीत प्रदेश में गमन करता है, तब उसे समाधि, पूर्णचेतन-भूमि या ज्ञानातीत भूमि कहते हैं। यह समाधि-अवस्था ज्ञान के भी उस पार अवस्थित है। अब हम यह किस तरह समझें कि जो मनुष्य समाधि-अवस्था में जाता है, वह ज्ञान-भूमि के निम्न स्तर में नहीं चला जाता, बिल्कुल हीन दशापन्न नहीं हो जाता, वरन् ज्ञानातीत भूमि में चला जाता है। इन दोनों ही अवस्थाओं में तो अहं-भाव नहीं रहता। इसका उत्तर यह है कि कौन ज्ञान-भूमि के निम्न देश में और कौन ऊर्ध्व देश में गया? इसका निर्णय फल देखने पर ही हो सकता है। जब कोई गहरी नींद में सोया रहता है, तब वह ज्ञान की निम्न भूमि में चला जाता है। तब वह अज्ञातभाव से ही शरीर की सारी क्रियाएँ, श्वास-प्रश्वास, यहाँ तक कि शरीर-संचालन-क्रिया भी करता रहता है, उसके इन सब कामों में अहं-भाव का कोई लगाव नहीं रहता, तब वह अज्ञान से ढका रहता है। वह जब नींद से उठता है, तब वह सोने के पहले जैसा था, वैसा ही रहता है, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। उसके सोने से पहले उसकी जो ज्ञानसमष्टि थी, नींद टूटने के बाद भी ठीक वही रहती है, उसमें कुछ भी वृद्धि नहीं होती। उसके हृदय में कोई नया तत्त्व प्रकाशित नहीं होता। किन्तु जब मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर नीचे आता है।

अब सोच कर देखो, इस विभिन्नता का कारण क्या है? एक अवस्था से मनुष्य जैसा गया था वैसा ही लौट आया, और दूसरी अवस्था से लौटकर मनुष्य ने ज्ञानालोक प्राप्त किया–वह एक महान् साधु, एक सिद्ध पुरुष के रूप में परिणत हो गया, उसका स्वभाव बिल्कुल बदल गया, उसके जीवन में बिलकुल दूसरा रूप धारण कर लिया। दोनों अवस्थाओं के ये दो विभिन्न फल हैं। अब बात यह है कि फल अलग-अलग होने पर कारण भी अवश्य अलग-अलग होगा। और चूँकि समाधि-अवस्था से लब्ध यह ज्ञानालोक, अज्ञानावस्था से लौटने के बाद की अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त होता है अथवा साधारण ज्ञानावस्था में युक्ति-विचार द्वारा जो ज्ञान उपलब्ध होता है, उन दोनों से अत्यन्त उच्चतर है, इसलिए अवश्य वह ज्ञानातीत भूमि से आता है। इसीलिए समाधि को मैंने ज्ञानातीत भूमि के नाम से अभिहित किया है।

संक्षेप में समाधि का तात्पर्य यही है। हमारे जीवन में इस समाधि की उपयोगिता कहाँ है? समाधि की विशेष उपयोगिता है। हम जान-बूझकर जो काम करते हैं, जिसे हम विचार का क्षेत्र कहते हैं, वह संकीर्ण और सीमित है। मनुष्य की युक्ति एक छोटे से वृत्त में ही भ्रमण कर सकती है, वह कभी उससे बाहर नहीं जा सकती। हम जितना ही उसके बाहर जाने का प्रयत्न करते हैं, उतना ही वह असंभव-सा जान पड़ता है। ऐसा होते हुए भी, मनुष्य जिसे अत्यंत क़ीमती और सबसे प्रिय समझता है, वह तो उस युक्तिराज्य के बाहर ही अवस्थित है। अविनाशी आत्मा है या नहीं, ईश्वर है या नहीं, इस जगत् के नियन्ता–परमज्ञान-स्वरूप कोई है या नहीं?–इन सब तत्त्वों का निर्णय करने में युक्ति असमर्थ है। इन सब प्रश्नों का उत्तर युक्ति कभी नहीं दे सकती। युक्ति क्या कहती है? वह कहती है, “मैं अज्ञेयवादी हूँ। मैं किसी विषय में ‘हाँ’ भी नहीं कह सकती और ‘ना’ भी नहीं।” फिर भी इन सब प्रश्नों की मीमांसा तो हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है। इन प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर बिना मानव-जीवन उद्देश्यविहीन हो जायगा। इस युक्तिरूप वृत्त के बाहर से प्राप्त हुए समाधान ही हमारे सारे नैतिक मत, सारे नैतिक भाव, यही नहीं, बल्कि मानवस्वभाव में जो कुछ सुंदर तथा महान् है, उस सबकी नींव है। अतएव यह सबसे आवश्यक है कि हम इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर पा लें। यदि मनुष्य-जीवन केवल पाँच मिनट की चीज़ हो, और यदि जगत् कुछ परमाणुओं का आकस्मिक मिलन मात्र हो, तो फिर दूसरे का उपकार मैं क्यों करूँ? दया, न्यायपरता या सहानुभूति दुनिया में फिर क्यों रहे? तब तो हम लोगों का यही एकमात्र कर्तव्य हो जाता है कि जिसकी जो इच्छा हो वही करे, सब अपना-अपना देखें। तब तो यही कहावत चरितार्थ होने लगती है–”यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्…।” यदि हम लोगों के भविष्य अस्तित्व की आशा ही न रहे, तो मैं अपने भाई को क्यों प्यार करूँ? मैं उसका गला क्यों न काटूँ? यदि जगत् के अतीत कोई सत्ता न रहे, यदि मुक्ति नामक कोई चीज़ न हो, यदि कुछ कठोर, अभेद्य, जड़ नियम ही सर्वस्व हों, तब तो हमें इहलोक में ही सुखी होने की प्राणपण से चेष्टा करनी चाहिए। आजकल बहुत से लोगों के मतानुसार उपयोगितावाद (utility) ही नीति की नींव है, अर्थात् जिससे अधिक लोगों को अधिक परिमाण में सुख-स्वाच्छन्द्य मिले, वही नीति की नींव है। इन लोगो से मैं पूछता हूँ, हम इस नींव पर खड़े होकर नीति का पालन क्यों करें? क्यों? यदि अधिक मनुष्यों का अधिक मात्रा में अनिष्ट करने से मेरा मतलब सधता हो, तो मैं वैसा क्यों न करूँ? उपयोगितावादी इस प्रश्न का क्या जवाब देंगे? कौन अच्छा है और कौन बुरा, यह तुम कैसे जानो? मैं, अपनी सुख की वासना से परिचालित होकर उसकी तृप्ति करता हूँ, ऐसा करना मेरा स्वभाव है, मैं उससे अधिक कुछ नहीं जानता। मेरी ये वासनाएँ हैं, और मैं उनकी तृप्ति करूँगा ही, तुम्हें उसमें आपत्ति करने का क्या अधिकार है? मानव-जीवन के ये सब महान् सत्य, जैसे–नीति, आत्मा का अमरत्व, ईश्वर, प्रेम, सहानुभूति, साधुत्व और सर्वोपरि, सबसे महान् सत्य निःस्वार्थपरता–ये सब भाव हमें कहाँ से मिले हैं?

सारा नीतिशास्त्र, मनुष्य के सारे काम, मनुष्य के सारे विचार इस निःस्वार्थपरता-रूप एकमात्र भाव (भित्ति) पर स्थापित हैं। मानव-जीवन के सारे भाव इस निःस्वार्थपरतारूप एकमात्र भाव के अंदर डाले जा सकते हैं। मैं क्यों स्वार्थ-शून्य होऊँ? निःस्वार्थ होने की आवश्यकता क्या? और किस शक्ति के बल से मैं निःस्वार्थ होऊँ? तुम कहते हो, “मैं युक्तिवादी हूँ, मैं उपयोगितावादी हूँ।” लेकिन यदि तुम मुझे इसकी युक्ति न दिखला सको कि तुम जगत का कल्याण-साधन क्यों करोगे, तो मैं तुम्हें ‘अयौक्तिक’ कहूँगा। मैं क्यों निःस्वार्थ होऊँ? कारण बताओ, क्यों न मैं बुद्धिहीन पशु के समान आचरण करूँ? निःस्वार्थपरता कवित्व के हिसाब से अवश्य बहुत सुन्दर हो सकती है, किन्तु कवित्व तो युक्ति नहीं है। मुझे युक्ति दिखलाओ, मैं क्यों निःस्वार्थपर होऊँ? क्यों मैं भला बनूँ? यदि कहो, अमुक यह बात कहते हैं, इसलिए ऐसा करो तो यह कोई जवाब नहीं है। मैं ऐसे किसी व्यक्तिविशेष की बात नहीं मानता हूँ। मेरे निःस्वार्थ होने से मेरा कल्याण कहाँ? यदि ‘कल्याण’ से अधिक परिमाण में सुख समझा जाय, तब तो स्वार्थपर होने में ही मेरा कल्याण है। मैं तो दूसरों को धोखा देकर और दूसरे का सर्वस्व चुराकर सबसे अधिक सुख पा सकता हूँ। उपयोगितावादी इसका क्या उत्तर देंगे? वे इसका कुछ भी उत्तर नहीं दे सकते। इसका यथार्थ उत्तर यह है कि यह परिदृश्यमान जगत् अनंत समुद्र में एक छोटा-सा बुलबुला है–अनंत ज़ंजीर की एक छोटी-सी कड़ी है। जिन्होंने जगत् में निःस्वार्थपरता का प्रचार किया था और मानव-जाति को उसकी शिक्षा दी थी, उन्होंने यह तत्व कहाँ से पाया? हम जानते हैं कि यह सहज ज्ञान द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता। सहज ज्ञान से युक्त पशु तो इसे नहीं जानते। विचार-बुद्धि से भी यह नहीं मिल सकता–उससे इन सब तत्त्वों का कुछ भी नहीं जाना जाता। तो फिर वे सब तत्त्व उन्होंने कहाँ से पाए?

इतिहास के अध्ययन से मालूम होता है, संसार के सभी धर्म-शिक्षक तथा धर्म-प्रचारक कह गए हैं कि हमने ये सब सत्य जगत् के अतीत प्रदेश से पाए हैं। उनमें से बहुतेरे इस सम्बन्ध में अनभिज्ञ थे कि उन्होंने यह सत्य ठीक कहाँ से पाया। किसी ने कहा, “एक स्वर्गीय दूत ने पंख-युक्त मनुष्य के रूप में मेरे पास आकर मुझसे कहा, ‘हे मानव, सुनो, मैं स्वर्ग से यह शुभ समाचार लाया हूँ, ग्रहण करो।’” एक दूसरे ने कहा, “तेजपुंजकाय एक देवता ने मेरे सामने आविर्भूत होकर मुझे उपदेश दिया है।” एक तीसरे ने कहा, “मैंने स्वप्न में अपने एक पूर्वज को देखा, उन्होंने मुझे इन तत्त्वों का उपदेश दिया।” इसके आगे वे और कुछ न कह सके। इस तरह विभिन्न उपायों से तत्त्वलाभ की बात कहने पर भी उन सबों का इस विषय में यही मत है कि उन्होंने यह ज्ञान युक्ति-तर्क से नहीं पाया, वरन् उसके अतीत प्रदेश से ही उसे पाया है। इसके बारे में योगशास्त्र का मत क्या है? उसका मत यह है कि वे जो कहते हैं कि युक्ति-विचार के अतीत प्रदेश से उन्होंने उस ज्ञान को पाया है, यह सही है। किन्तु उनके अपने अंदर से ही वह ज्ञान उनके पास आया है।

योगीगण कहते हैं, इस मन की ही ऐसी एक उच्च अवस्था है, जो युक्ति-विचार के अधिकार के अतीत है, जो ज्ञानातीत भूमि है। उस उच्चावस्था में पहुँचने पर मनुष्य तर्क के अगम्य ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, और ऐसे मनुष्य को ही समस्त विषय-ज्ञान के अतीत परमार्थज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है। साधारण मानवीय स्वभाव के परे, समस्त तर्क-युक्ति के अतीन्द्रिय अवस्था कभी-कभी ऐसे व्यक्ति को अचानक प्राप्त हो जाती है, जो उसका विज्ञान नहीं जानता। वह मानो उस ज्ञानातीत राज्य मे ढकेल दिया जाता है। और जब उसे इस प्रकार अचानक अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है, तो वह साधारणतः सोचता है कि वह ज्ञान कहीं बाहर से आया है। इसी से यह स्पष्ट है कि यह पारमार्थिक ज्ञान सारे देशों में वस्तुतः एक होने पर भी, किसी देश में वह देवदूत से, किसी देश में देवविशेष से, अथवा फिर कहीं साक्षात् भगवान से प्राप्त हुआ क्यों सुना जाता है। इसका तात्पर्य क्या है? यही कि मन ने अपनी प्रकृति के अनुसार ही अपने भीतर से उस ज्ञान को प्राप्त किया है, किन्तु जिन्होंने उसे पाया है, उन्होंने अपनी-अपनी शिक्षा और विश्वास के अनुसार इस बात का वर्णन किया है कि उन्हें वह ज्ञान कैसे मिला। असल बात तो यह है कि ये सभी उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़े थे।

योगीगण कहते हैं कि उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़ने से एक भारी धोखे की आशंका रहती है। अनेक स्थलों में तो मस्तिष्क के बिल्कुल नष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। और भी देखोगे, जिन सब मनुष्यों ने अचानक इस अतीन्द्रिय ज्ञान को पाया है, पर उसके वैज्ञानिक तत्त्व को नहीं समझा, वे कितने भी बड़े क्यों न हों, सच पूछा जाय तो उन्होंने अंधेरे में टटोला है, और उनके उस ज्ञान के साथ कुछ-न-कुछ विचित्र कुसंस्कार मिला हुआ है। उन्होंने अपने आपको भ्रामक दर्शनों के लिए खोल रखा था।

जो हो, हम कई महापुरुषों के जीवन-चरित्र का अध्ययन करने पर देखते हैं कि अचानक इन्द्रियातीत राज्य में जा पड़ने से उपर्युक्त प्रकार के ख़तरे की आशंका रहती है। किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि उन सबने उस अवस्था की प्राप्ति की थी। जब कभी कोई महापुरुष केवल भावुकता के बल से इस अतीन्द्रिय अवस्था में जा पड़े हैं, तो वे उस अवस्था से कुछ सत्य ही नहीं लाए, पर साथ ही कुसंस्कार, कट्टरपन, ये सब भी लेते आए। उनकी शिक्षा में जो उत्कृष्ट अंश है, उससे जगत् का जैसा उपकार हुआ है, उन सब कट्टरता और अन्धविश्वासों से वैसे ही क्षति भी हुई है। मानव-जीवन नाना प्रकार के विपरीत भावों से ग्रस्त होने के कारण असामंजस्यपूर्ण है। इस असामंजस्य में कुछ सामंजस्य और सत्य प्राप्त करने के लिए हमें तर्क-युक्ति के अतीत जाना पड़ेगा। पर वह धीरे-धीरे करना होगा, नियमित साधना के द्वारा ठीक वैज्ञानिक उपाय से उसमें पहुँचना होगा, और सारे कुसंस्कारों को भी हमें छोड़ देना होगा। अन्य कोई विज्ञान सीखने के समय जैसा हम लोग करते हैं, इसमें भी ठीक उसी धारा का अनुसरण करना होगा। युक्तिविचार को ही अपनी नींव बनानी होगी। तर्क-युक्ति हमें जितनी दूर ले जा सकती है, उतनी दूर जायेंगे और जब तर्क-युक्ति नहीं चलेगी, तब वही हमें उस सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति का रास्ता दिखला देगी। अतः यदि कोई अपने को अनुप्राणित कहकर दावा करे, फिर साथ ही युक्ति के विरुद्ध भी अटपट बोलता रहे, तो उसकी बात मत सुनना। क्यों? इसलिए कि जिन तीन अवस्थाओं की बात कही गई है, जैसे–सहजज्ञान, विचारजातज्ञान और ज्ञानातीत अवस्था–ये तीनों एक ही मन की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। एक मनुष्य के तीन मन नहीं हैं, वरन् उस एक ही मन की एक अवस्था दूसरी अवस्थाओं में परिवर्तित हो जाती है। सहज ज्ञान विचारजातज्ञान में और विचारजातज्ञान ज्ञानातीत अवस्था में परिणत होता है। अतः इन अवस्थाओं में से कोई भी अवस्था दूसरी अवस्थाओं की विरोधी नहीं है। अतएव जब कभी तुम किसी को असम्बद्ध प्रलाप करते सुनो या युक्ति और सहज ज्ञान के विरुद्ध बातें कहते सुनो, तो निडर होकर उसका विरोध करना, क्योंकि यथार्थ अंतःप्रेरणा विचारजनित ज्ञान की अपूर्णता की पूर्णता मात्र करती है। पूर्वकालीन महापुरुषों ने जैसा कहा है, “हम विनाश करने नहीं आए, वरन् पूर्ण करने आए हैं”, इसी प्रकार अंतःप्रेरणा भी विचारजनितज्ञान की पूर्णता की साधक है। विचारजनितज्ञान के साथ उसका पूर्ण समन्वय है और जब कभी वह युक्ति की विरोधी हो, तो समझना कि वह यथार्थ अंतः प्रेरणा नहीं है।

ठीक वैज्ञानिक उपाय से उपर्युक्त अतीन्द्रिय या समाधि–अवस्था प्राप्त करने के लिए ही पूर्व-कथित सारे योगांग उपदिष्ट हुए हैं। यह भी समझ लेना विशेष आवश्यक है कि इस अतीन्द्रिय ज्ञान को प्राप्त करने की शक्ति प्राचीन महापुरुषों के समान प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव में है। वे महापुरुषगण हम लोगों से कोई सर्वथा भिन्न स्वभाव के जीव-विशेष नहीं थे, वे हमारे-तुम्हारे समान ही मनुष्य थे। वे अत्यंत उच्च कोटि के योगी थे। उन्होंने पूर्वोक्त ज्ञानातीत अवस्था प्राप्त कर ली थी, और प्रयत्न करने पर तुम और मैं भी उसकी प्राप्ति कर ले सकते हैं। वे कोई विशेष प्रकार के अद्भुत मनुष्य रहे हों, सो नहीं। यदि एक मनुष्य ने उस अवस्था की प्राप्ति की है, तो इसी से प्रमाणित होता है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए ही इस अवस्था को प्राप्त करना संभव है। यह केवल संभव ही नहीं, वरन् समय आने पर सभी इस अवस्था की प्राप्ति कर लेंगे। इस अवस्था को प्राप्त करना ही ‘धर्म’ है। केवल प्रत्यक्ष अनुभूति के द्वारा यथार्थ शिक्षा-लाभ होता है। हम लोग भले ही सारे जीवन भर तर्क-विचार करते रहें, पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किए बिना हम सत्य का कण मात्र भी न समझ सकेंगे। कुछ पुस्तकें पढ़ाकर तुम किसी मनुष्य से अस्त्र-चिकित्सक बनने की आशा नहीं कर सकते। तुम केवल एक नक्शा दिखाकर देश देखने का मेरा कौतूहल पूरा नहीं कर सकते। स्वयं वहाँ जाकर उस देश को प्रत्यक्ष देखने पर ही मेरा कौतूहल पूरा होगा। नक्शा केवल इतना कर सकता है कि वह देश के बारे में और भी अधिक अच्छी तरह से जानने की इच्छा उत्पन्न कर देगा। बस इसके अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं। सिर्फ़ पुस्तकों पर निर्भर रहने से मानव-मन केवल अवनति की ओर जाता है। यह कहने से और घोर नास्तिकता क्या हो सकती है कि ईश्वरीय ज्ञान केवल इस पुस्तक में या उस शास्त्र में आबद्ध है? मनुष्य इधर तो भगवान को अनंत कहता है, और उधर एक छोटे से ग्रंथ में उन्हें आबद्ध कर रखना चाहता है! क्या गर्व! पोथी पर विश्वास नहीं किया इसलिए लाखों आदमी मार डाले गए। एक ही ग्रन्थ में सारा ईश्वरीय ज्ञान निबद्ध है, इस पर विश्वास न करने से सहस्रों लोग मौत के घाट उतार दिए गए! भले ही आज उस हत्या आदि का समय नहीं रहा, पर फिर भी अभी तक जगत् इस ग्रंथ-विश्वास में ही आबद्ध है।

ठीक वैज्ञानिक उपाय से ज्ञानातीत अवस्था को प्राप्त करने के लिए, मैं तुम्हें ‘राजयोग’ के बारे में जो उपदेश दे रहा हूँ, उनमें से प्रत्येक की साधना में से तुम्हें जाना पड़ेगा। पहले के भाषण में प्रत्याहार और धारणा के संबंध में बताया गया है। अब ध्यान के बारे में चर्चा करूँगा।

देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में मन को कुछ समय तक स्थिर रखने की पुनः-पुनः चेष्टा करते रहने से, उनको उस दिशा में अविच्छिन्न गति में प्रवाहित होने की शक्ति प्राप्त होगी। इन अवस्था का नाम है ध्यान। जब ध्यानशक्ति काफ़ी तीव्र हो जाती है कि मन अनुभूति के बाहरी भाग को छोड़कर केवल उसके अन्तर्भाग या अर्थ की ही ओर सम्पूर्ण रुप से जाता है, तब उस अवस्था का नाम है समाधि। धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों को एक साथ लेने को संयम कहते हैं।

अर्थात् किसी का मन पहले किसी वस्तु में एकाग्र हो सकता है, फिर उस एकाग्रता की अवस्था में कुछ समय तक रह सकता है और उसके बाद ऐसी दीर्घ एकाग्रता की अवस्था में वह अनुभूति के केवल आभ्यन्तरिक भाग पर, जिसका कि वह वस्तु बाह्य प्रकाश है, अपने आपको लगाए रख सकता है, तो सभी कुछ ऐसे शक्ति-संपन्न मन के वशीभूत हो जाता है।

इन तत्त्वों को ध्यान में जान लेना आवश्यक है। मान लो, मैंने एक शब्द सुना। पहले बाहर से एक कंपन आया, उसके बाद स्नायविक गति उस कंपन को मन के पास ले गई, फिर मन से एक प्रतिक्रिया हुई और उसके साथ ही साथ मुझे बाह्य वस्तु का ज्ञान हुआ। यह बाह्य वस्तु ही आकाशीय कंपन से लेकर मानसिक प्रतिक्रिया तक सब भिन्न-भिन्न परिवर्तनों का कारण है। योगशास्त्र में इन तीनों को क्रमशः शब्द, अर्थ और ज्ञान कहते हैं। शारीरविधानशास्त्र की भाषा में उन्हें आकाशीय कंपन, स्नायु और मस्तिष्क में की गति तथा मानसिक प्रतिक्रिया कहते हैं। ये तीनों प्रतिक्रियाएँ सम्पूर्ण अलग होने पर भी इस समय इस तरह मिली हुई हैं कि उनका भेद समझा नहीं जाता। हम यथार्थ में अभी उन तीनों में से किसी का भी अनुभव नहीं कर सकते, अभी तो उनके सम्मिलन के फलस्वरूप केवल बाह्य वस्तु का अनुभव करते हैं। प्रत्येक अनुभव-क्रिया में ये तीन व्यापार होते हैं। हम भला उन्हें अलग क्यों न कर सकेंगे?

प्रथमोक्त योगांगों के अभ्यास से मन जब दृढ़ और संयत हो जाता है तथा सूक्ष्मतर अनुभव की शक्ति प्राप्त करता है, तब उसे ध्यान में लगाना चाहिए। पहले-पहल स्थूल वस्तु को लेकर ध्यान करना चाहिए। फिर क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ध्यान में हमारा अधिकार होगा, और अंत में हम विषयशून्य अर्थात् निर्विकल्प ध्यान में सफल हो जायेंगे। मन को पहले अनुभूति के बाह्य कारण अर्थात् विषय का, फिर स्नायुओं में होनेवाली गति का और उसके बाद उसकी अपनी प्रतिक्रियाओं का अनुभव करने के लिए नियुक्त करना होगा। जब मन अनुभूति के बाह्य उपकरणों अर्थात् विषयों को पृथक् रूप से जान सकेगा, तब उसमें समस्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थों, सारे सूक्ष्म शरीरों और सूक्ष्म रूपों को जानने की शक्ति आ जायगी। जब वह भीतर में होनेवाली गतियों को दूसरे सभी विषयों से अलग करके, उनके अपने स्वरूप में जानने में समर्थ होगा, तब वह सारी चित्तवृत्तियों पर उनके भौतिक शक्ति के रूप में परिणत होने से पूर्व ही अधिकार चला सकेगा—फिर वे चित्तवृत्तियाँ चाहे स्वयं अपनी हों, चाहे दूसरों की। और जब योगी केवल मानसिक प्रतिक्रिया को उसके अपने स्वरूप में अनुभव करने में समर्थ होंगे, तब वे सर्व पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, क्योंकि इन्द्रियगोचर प्रत्येक वस्तु, यहाँ तक कि प्रत्येक विचार भी, इस मानसिक प्रतिक्रिया का ही फल है। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर योगी अपने मन की मानो नींव तक का अनुभव कर लेते हैं, और तब मन उनके सम्पूर्ण वश में आ जाता है। योगी के पास तब नाना प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ (सिद्धियाँ) आने लगती हैं, पर यदि वे इन सब शक्तियों को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठें, तो उनकी भविष्य उन्नति का रास्ता रुक जाता है। भोग के पीछे दौड़ने से इतना अनर्थ होता है। किन्तु यदि वे इन सब अलौकिक शक्तियों को भी छोड़ सकें, तो वे मनरूप समुद्र में उठने वाले समस्त वृत्ति-प्रवाहों को पूर्णतः रोकने में समर्थ हो सकेंगे। और यही योग का चरम लक्ष्य है। तभी, मन के नाना प्रकार के विक्षेप एवं नाना प्रकार की दैहिक गतियों से विचलित न होकर आत्मा की महिमा अपनी पूर्ण ज्योति से प्रकाशित होगी। तब योगी ज्ञानघन, अविनाशी और सर्वव्यापी रूप से अपने स्वरूप की उपलब्धि करेंगे, और जान लेंगे कि वे अनादि काल से ऐसे ही हैं।

इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का, यही नहीं, प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। इसे निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यंत उन्नत देवता तक सभी, कभी-न-कभी, इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे, और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जायगी, तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है। तो फिर हम इस समय जो कर रहे हैं, ये सब क्या है? इनके सहारे हम उस अवस्था की ओर लगातार अग्रसर हो रहे हैं। जो धर्म नहीं मानता, उसमें और हममें अभी कोई विशेष अंतर नहीं। कारण, अतीन्द्रिय तत्त्वों के बारे में हमारी कोई प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं है। इस एकाग्रता की साधना का उद्देश्य है प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करना। इस समाधि को प्राप्त करने के प्रत्येक अंग पर गंभीर रूप से विचार किया गया है, उसे विशेष रूप से नियमित, श्रेणीबद्ध और वैज्ञानिक प्रणाली में संबद्ध किया गया है। यदि साधना ठीक-ठीक हो और पूर्ण निष्ठा के साथ की जाय, तो वह अवश्य हमें यथार्थ लक्ष्य-स्थल पर पहुँचा देगी। और तब सारे दुःख-कष्ट नष्ट हो जायेंगे, कर्म का बीज दग्ध हो जायगा और आत्मा चिरकाल के लिए मुक्त हो जायगी।

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