श्रीकृष्ण ने बताया है इतने प्रकार के होते हैं भक्त, आप कैसे हैं?
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते |
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् || गीता 9/15||
अर्थ : अन्य योगी ज्ञानयज्ञ द्वारा मुझे एकी भाव से पूजते हैं और दूसरे योगी बहुत प्रकार से मेरे विराट स्वरूप की पृथक भाव से उपासना करते हैं।
व्याख्या : ज्ञान योग में साधक आत्मा के ज्ञान द्वारा चित्त की सफाई कर आत्मा में ही स्थित हो जाता है और उसी भाव में वह परमात्मा को अपने अन्तरतम में अनुभव करने लगता है।
फिर यह परमात्म भाव उसका हमेशा एक जैसा बना रहता है और उसी भाव से वह योगी परमतत्त्व को पूजता रहता है, यह अद्वैत की साधना है, जिसमें योगी अपने भीतर ही परमात्मा को पूजता है।
एक दूसरे प्रकार के योगी होते हैं, जो परमात्मा के विराट स्वरूप की अलग-अलग रूपों की उपासना करते हैं, जिसको जो रूप प्रिय लगे वे उसी रूप में मुझ परमात्मा को भजने लगते हैं, यहां दोनों का लक्ष्य परमात्मा को ही पाना होता है।