अष्ट पदि २- मंगलगीतम् || Ashta Padi 2 Mangal Geetam मंगलम् अथवा हरि विजय मंगलाचरण

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श्रीगीतगोविन्दम्‌ प्रथम सर्ग सामोद-दामोदर द्वितीय सन्दर्भ अष्ट पदि २ में कवि श्रीजयदेव जी भगवान के विभिन्न रूपों के गुणों की महिमा का मंगल स्तुति किया है अतः इस अष्ट पदि को मंगलगीतम् अथवा मंगलम् अथवा हरि विजय मंगलाचरण कहते हैं । इस मेरा मनोहर मंगल गीत को सुनने-सुनाने वालों का आनन्द और  कल्याण की प्राप्ति होता है। इस मंगलाचरण के नौ श्लोकों में मंगल छन्द है और यह गुर्ज्जरी राग तथा निःसार ताल से गाया जाता है।

अष्ट पदि २ मंगलगीतम् अथवा मंगलम् अथवा हरि विजय मंगलाचरण

अथ द्वितीय सन्दर्भः।

गीतम् ॥2॥

गुर्ज्जरी राग निःसार तालाभ्यां गीयते ॥

अनुवाद- गुर्ज्जरी राग तथा निःसार तालसे यह द्वितीय प्रबन्ध गाया जाता है।

गुर्ज्जरी राग- श्यामा नायिका के समान जो शीतकाल में उष्ण और ग्रीष्मकाल में सुशीतल होती है, जिसके स्तनयुगल सम्यक् रूपेण कठोर हैं, जिसके पदस्पर्श मात्र से अशोक वृक्ष में असमय ही पुष्प प्रस्फुटित हो जाते हैं, जो मनोहर केशों को धारण करनेवाली, मलय तरुवर की कोमल पल्लवों द्वारा सुसज्जित शय्या में पहुँचती हैं, श्रुति के दाहिनी ओर से स्वरों को धारण करती है। इसमें निःसार ताल जैसे दो ताल द्रुत और दो ताल लघु होते हैं। इसको गुर्ज्जरी राग कहा जाता है।

श्रितकमलाकुच मण्डल! धृत-कुण्डल!

कलित-ललित-वनमाल!

जय जय देव हरे॥1॥ध्रुवम्॥

अन्वय- [इदानीं परव्योमनाथत्वेन धीरललितत्त्वमाह-हे श्रितकमलाकुचमण्डल (श्रितं धृतं कमलाया लक्ष्म्या: कुचमण्डलं स्तनयुगलं येन तत्सम्बुद्धौ) अनेन विदग्धत्वपरिहासविशारदत्व- प्रेयसीवशत्वनिश्चिन्तत्त्वानि सुचितानि] हे धृतकुण्डल (धृते कुण्डले तत्सम्बुद्धौ) हे कलितललितवनमाल (कलिता धृता ललिता सुन्दरी वनमाला येन तत्सम्बुद्धौ); [एतेन विशेषणद्वयेन नवतारुण्यत्वं सूचितम्, तेनैव वेशविन्याससिद्धे:] हे देव, हरे, जय जय (उत्कर्षमाविष्कुरु) [“विदग्धो नव-तारुण्य: परिहास- विशारद:। निश्चिन्तो धीरललित: स्यात्र प्राय: प्रेयसीवश:”] ॥1॥

अनुवाद- हे श्रीराधाजी के स्तन मण्डल का आश्रय लेनेवाले ! कानों में कुण्डल तथा अतिशय मनोहर वनमाला धारण करनेवाले हे हरे ! आपकी जय हो ।

अथवा

हे देव! हे हरे! हे कमला कुचमण्डल बिहारी! हे कुण्डल भूषण धारि! हे ललित मालाधर! आपकी जय हो ॥1॥

पद्यानुवाद

धृत कमला कुच मण्डल श्रुतिकुण्डल हे।

कलित ललित वनमाल जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी – कवि श्रीजयदेव जी श्रीकृष्ण को सबके उपास्य रूप में वर्णित कर अब दूसरे गीति-प्रबन्ध में एकमात्र चिन्तनीय स्वरूप ध्येय रूप में वर्णन हेतु धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरशान्त और धीर ललित आदि नायकत्व गुणों से समन्वित समस्त नायक-चूड़ामणि श्रीकृष्ण की सर्वश्रेष्ठता को प्रकटित करते हुए प्रार्थना करते हैं।

श्रित कमला कुचमण्डल हे- इस पद का विग्रह है- श्रित कमलाया: कुचमण्डलं येना सौ तत्सम्वुक्षै श्रितकमलाकुचमण्डल अर्थात् श्रीकृष्ण श्रीराधाजी के स्तन मण्डली की सेवा करने वाले हैं। वे लक्ष्मी जी के प्रिय हैं तथा श्रीलक्ष्मी जी उनकी प्रियतमा हैं। इस पद से यह भी सूचित होता है कि वे श्रीकृष्ण क्रीड़ाविलासी,विदग्ध, परिहास विशारद, प्रेयसीवश एवं निश्चिन्त हैं। कार आलाप मात्र है।

धृतकुण्डल ए, धृते कुण्डल येन स तथा तस्य सम्बुद्धि:, अर्थात् जिन्होंने कानों में कुण्डल धारण किया है, मकराकृति कुण्डल धारण करने से उनके मुखारविन्द की शोभा और भी बढ़ जाती है।

कलित ललित वनमाल आपने अतिशय मनोहर वनमाला को धारण किया है। विश्व कोषकार कहते हैं

आपादलम्बिनी माला वनमालेति तां विदु:।

पत्रपुष्पमयी माला वनमाला प्रकीर्त्तिता॥

अर्थात् पैर पर्यन्त लटकने वाली माला को वनमाला कहते हैं। वनमाला पत्र एवं पुष्पों से बनी हुई होती है।

इस प्रकार तीनों विशेषणों से श्रीकृष्ण का नवतारुण्य द्योतित होता है, उनका वेशविन्यास भी प्रकाशित होता है- नवकिशोर नटवर गोपवेश वेणुकर।

हरे- हे श्रीकृष्ण! आप सबके चित्त, मन एवं प्राणों को आकर्षित करते हैं, साथ ही सबके मध्य में अपनी लीला चमत्कारिता प्रकट करते हैं। इससे आपका उत्कर्ष उजागर हो रहा है।

इस गीति के प्रत्येक पद के अन्त में जय जय देव हरेइस ध्रुव पद की संयोजना है।

प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण का धीरललितत्त्व चित्रत हो रहा है, जैसाकि धीरललित नायक का लक्षण है-विदग्ध, नवतरुण, विशारद, निश्चिन्त एवं प्रेयसीवश्यता।

‘-कार का प्रयोग गान की वेला में रागपूर्त्ति के लिए हुआ है ॥1॥

दिनमणि-मण्डल-मण्डन! भवखण्डन!

मुनिजन-मानस-हंस!

जय जय देव हरे ॥2॥

अन्वय – [अथ सवितृमण्डलान्तर्ध्येयत्वेन धीरशान्तत्त्वमाह]- हे दिनमणिमण्डलमण्डन (हे सवितृमण्डलभूषण) [अनेन क्लेशसहत्वं विनयादिगुणोपेत्वञ्च सूचितम्) [अतएव] हे मुनिजनमानस-हंस (मुनिजनानां मानसं चित्तं तदाख्य: सरइव तत्र स्थित हंस) [हंसो जलचरजीवविशेष: तदाख्यपरममन्त्रस्वरूपश्च]; [अनेन समप्रकृतिकत्वं विनयादिगुणोपेतत्त्वञ्च सूचितम्]; हे भवखण्डन (भवं संसारं खण्डयतीति तत्सम्बुद्धौ), संसारबन्धखण्डनकृत्), हे देव, हरे, जय जय (उत्कर्षमाविष्कुरु) [“सम प्रकृतिकक्लेश- सहनश्च विवेचक:। विनयादिगुणोपेतो धीरशान्त उदीर्यते”] ॥2

अनुवाद – हे देव! हे हरे! हे सूर्य-मण्डल को विभूषित करने वाले, भव-बन्धन का छेदन करने वाले! मुनिजनों के मानस सरोवर में विहार करने वाले हंस! आपकी जय हो! जय हो ॥2॥

पद्यानुवाद

दिनमणि मण्डित भव खण्डित हे।

मुनिजन मानस हंस जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी – दिनमणि मण्डल मण्डन! श्रीभगवान का सूर्यमण्डल के भीतर अन्तर्यामी रूप में निवास है। वे ध्येय एवं चिन्तनीय हैं।

ध्येय: सदा सवितृमण्डल मध्यवर्त्ती, नारायण: सरसिजासन सन्निविष्ट:।

जैसे सूर्यमण्डल सभी के द्वारा पूज्य हैं, उसी प्रकार आप भी सबके द्वारा चिन्तनीय एवं उपास्य हैं। और भी कहा है ज्योतिरभ्यन्तरे श्याम सुन्दरमतुलं॥

भवखण्डन ए- एष आत्मा पहतपाष्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सो पिपास: सत्यकाम: सत्यसङ्कल्प:।

अर्थात् यह आत्मा स्वभाव से कर्म के बन्धन से रहित, जरा, मृत्यु, शोक, मोह, भूख, प्यास से रहित सत्य काम तथा सत्यसङ्कल्प है।

संसार बन्धन में पड़े रहने से ये गुण तिरोहित हो जाते हैं और भगवान की कृपा होने पर आविर्भूत हो जाते हैं। इसलिए भवखण्डनकहकर भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित किया है।

मुनिजनमानसहंस- मुनिजनानां मानसानि इव मानसानि तेषु हंस इव हंस अर्थात मननशील मुनियों के मानस रूप मानसरोवर में श्रीभगवान उसी प्रकार विहार करते हैं, जैसे राजहंस मान सरोवर में। आपके विहार करने से इन मुनियों में सदा स्फूर्त्ति होती रहती है।

ये मुनिगण सम प्रकृति होकर कष्ट सहन करते हैं और विनय आदि गुणों से सम्पन्न होकर भजन करते हैं। भगवान की कृपा होने से ये संसार से विरक्त हो जाते हैं।

देव-दिव्य गुणों से सम्पन्न होनेके कारण भगवान को देवशब्द से अभिहित किया है।

जय इस क्रियापद का प्रयोग कवि की आदरातिशयता का द्योतक है।

प्रस्तुत पद के नायक धीर शान्त हैं ॥2॥

कालिय-विषधर-गञ्जन जनरञ्जन!

यदुकुल-नलिन-दिनेश!

जय जय देव हरे ॥3॥

अन्वय- [ध्येयविशेषत्वेन धीरोद्धतत्त्वमाह द्वाभ्याम्]- हे कालियविषधरगञ्जन (कालियसर्पदमन) हे जनरञ्जन (जनसन्तोष) हे यदुकुल-नलिन-दिनेश (यदुकुलान्येव नलिनानि तेषां दिनेश: सूर्यइव तत्सम्बुद्धौ) हे देव, हरे जय जय “मात्सर्यवानहकंरी मायावी रोषणश्चल:। विकत्थनश्च विद्वद्भिर्धीरोद्धत उदाहृत।” अत्र कालियेत्यादिना मात्सर्यवत्त्वं जनरञ्जनेत्यादिना यदुकुलेत्यादिना च अहंकारित्वम् अहन्तया ममच जनरञ्जनादिसिद्धे:] ॥3॥

अनुवाद- हे देव! हे हरे! विषधर कालिय नाम के नाग का मद चूर्ण करने वाले, निजजनों को आह्लादित करने वाले, हे यदुकुलरूप कमल के प्रभाकर! आपकी जय हो! जय हो ॥3॥

पद्यानुवाद

कालिय विषधर गञ्जन जन रञ्जन हे।

यदुकुल नलिन दिनेश जय जय देव हरे ॥

बालबोधिनी- कवि श्रीकृष्ण को अपना उपास्य होने पर भी ध्येय विषय के रूप में स्तुति कर रहे हैं। इसमें श्रीकृष्ण का धीरोद्धत नायकत्व प्रस्तुत किया जा रहा है।

कालिय विषधर गञ्जन- श्रीकृष्ण भगवान ने यमुना में रहने वाले कालिय दह में कालिय नामक सौ फणवाले महा विषधर सर्प का गर्व खर्व (चूर्ण) कर दिया।

जन-रञ्जन ए- भगवान ने कालिय दमन से व्रजजनों को आह्लादित किया। श्रीकृष्ण भलीभाँति जानते हैं कि व्रजजन उनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहते, यहाँ तक कि वे मेरे बिना प्राण भी धारण नहीं कर सकते, उनकी रक्षा, उनका अनुरञ्जन श्रीकृष्ण को भी करणीय हो जाता है। हे जन अनुरञ्जन कारिन! आपकी जय हो!!

यदुकुल-नलिन-दिनेश- गोपगण ही यादव हैं। अतएव भगवान ही गोकुल के प्रकाशक हैं। जिस प्रकार भास्कर के उदित हो जाने पर अरविन्द प्रफुल्लित हो जाता है, उसी प्रकार श्रीभगवान के द्वारा यदुवंश में अवतार ग्रहण करने से यदुवंश विकसित हुआ है।

प्रस्तुत पद में श्रीभगवान को बलशाली, जन-आह्लादकारी गुण सम्पन्न एवं कुलीन बताया है। अत: हे देव! आप हम जैसे मात्सर्य भावयुक्त अहप्रारियों का अहप्रार चूर्ण कर हमारा अनुरञ्जन करें।

धीरोद्धत- मात्सर्यवान, अहप्रारी, मायावी, रोष-परायण, चञ्चल, विकथनकारी नायक को धीरोद्धत नायक कहा जाता है ॥3॥

मधु-मुर-नरक-विनाशन! गरुड़ासन!

सुरकुल-केलि-निदान!

जय जय देव हरे ॥4॥

अन्वय- हे मधु-मुर-नरकविनाशन! (मध्वादीनां विनाशकृत) गरुड़ासन! (गरुड़वाहन) सुरकुलकेलिनिदान! (सुराणां कुलं तस्य केलि: सच्छन्दविहार: तस्य निदान कारण); [असुराणां निधनेन तेषामकुतोभयत्वादिति भाव:]; [एतेन मायावित्वादि चतुष्टयमुक्तं भवति] हे देव, हरे, जय जय ॥4॥

अनुवाद- हे देव! हे हरे! हे मधुसूदन! हे मुरारे! हे नरकान्तकारी! हे गरुड़-वाहन! हे देवताओं के क्रीड़ा-विहार-निदान, आपकी जय हो! जय हो ॥4॥

पद्यानुवाद

मधु-मुर नरक विनाशन, गरुड़ासन हे।

सुरकुल केलि निदान, जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी- मधु-मुर-नरक विनाशन श्रीकृष्ण के तीन लोक हैं, जहाँ वे नित्य-लीलाविलास करते हैं। गोकुल, मथुरा एवं द्वारका। इन धामों में लीलाविलास करते हुए श्रीकृष्ण में नायकत्व के छियानवे लक्षण दिग्दर्शित हुए हैं। प्रस्तुत स्तवनांश में उनका धीरोद्धत्तत्त्व प्रकाशित हो रहा है। श्रीकृष्ण ने द्वारकापुरी में रहते हुए मधुदैत्य एवं नरकासुर आदि का संहार किया है।

इस भाव को मधु-मुर-नरक विनाशन पद से अभिव्यक्त किया है।

गरुड़ासन ए- गरुड़ आसनं यस्य तत्सम्बुद्धौ यह गरुड़ासन पद का विग्रह है। पक्षिराज गरुड़ का पृष्ठ भगवान का आसन है। अत: भगवान को गरुड़ासन अथवा गरुड़वाहन कहा जाता है।

सुरकुल- केलिनिदान- असुरों का संहार करने भगवान देवताओं का आनन्दवर्द्धन किया करते हैं। वे भक्तजनों के साथ आनन्द विहार करते हैं।

यहाँ श्रीकृष्ण का मायावित्व भी भासित हो रहा है। हे हरे! आपकी जय हो ॥4॥

अमल-कमल-दललोचन! भव मोचन!

त्रिभुवन भवन-निधान!

जय जय देव हरे ॥5॥

अन्वय- [सर्वतापोपशमनपूर्वकसर्वाभीष्टप्रदतया देवसहायक-रूपेण धीरोदात्तमाह] हे अमलकमलदललोचन; (प्रफुल्लपद्मपत्रे इवलोचने यस्य, हे तादृश) [एतेन तापशमकत्वम्] हे भवमोचन; (संसारक्लेशहर) [एतेन करुणत्वं] हे त्रिभुवन- भवननिधान (त्रिभुवनमेव भवनं गृहं तस्य निधानं निधिरिव अमूल्यरत्नमित्यर्थ:, तत्सम्बुद्धौ [एतेन विनयित्वम्] हे देव, हरे, जय जय। [“गम्भीरो विनयी क्षन्ता करुण: सुदृढ़व्रत:। अकत्थनो गूढ़गर्वो धीरोदात्त: सुसत्त्वभृत्”] ॥5॥

अनुवाद- हे देव! हे हरे! हे निर्मल कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाले, भव-दु:ख मोचन करने वाले, त्रिभुवनरूपभवन के आधार स्वरूप, आपकी जय हो, जय हो ॥5॥

पद्यानुवाद

अमल कमल दल लोचन, भव-मोचन हे।

त्रिभुवन भवन निधान, जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी- पाँचवें पद्य में श्रीकृष्ण के धीरोदात्त गुण को अभिव्यक्त कर रहे हैं।

अमल-कमल-दललोचन- अमले ये कमलदले ते इव लोचने यस्या सौ तथाविध: तत्र सम्बुद्धौ अर्थात्र जिनके नेत्र अमल कमल दल के समान निर्मल हैं। नेत्रयुगल सभी के तापों का प्रशमनकर चित्त, मन और प्राणों का हरण कर लेते हैं-

तेरछे नेत्रन्त वाण विन्धे गोपीगण-प्राण।

भवमोचन, सभी भक्तों के संसार बन्धन का मोचन करते हैं, जीवों की रक्षा करते हैं। इस पद से भगवान का कारुण्य भी द्योतित हो रहा है।

त्रिभुवन-भवन-निधान– श्रीहरि त्रिलोक्यव्यापक हैं, वे त्रिलोक्यरूपी भवन के निधिस्वरूप हैं, कारण हैं, जनक हैं- इस तरह आपमें विनयीत्व गुण का प्रकाश होता है। आपकी जय हो।

धीरोदात्त-गम्भीर, विनयी, क्षमाशील, करुण, सुहृदव्रती, अकथ्य कथनकारी, गुण गर्वीले तथा महान् सत्यपरायण आदि धीरोदात्त के गुण श्रीकृष्ण में विद्यमान हैं ॥5॥

जनक-सुता-कृतभूषण! जितदूषण!

समर-शमित-दशकण्ठ!

जय जय देव हरे ॥6॥

अन्वय- हे जनकसुताकृतभूषण; (जनकसुतया सीतया कृतं भूषणम् अलप्रार: यस्य यद्वा जनक सुताया: कृतं भूषणं येन तत्सम्बुद्धौ; हे सीताकृतालंकार यद्वा कृतसीतालंकार), [एतेन सुदृढ़व्रतत्त्वम्]; हे जितदूषण; (जित: दूषण: दण्डकारण्यचरो राक्षसविशेष: येन अथवा जितं दूषणं दोषजननं कार्यं येन तत्सम्बुद्धौ दूषणजयिन्र अथच दोषरहित), [एतेन अकत्थनत्वम्] [तथा] समरशमितदशकण्ठ; (समरे युद्धे शमित: नाशित: दशकण्ठो रावणो येन तत्सम्बुद्धौ) [एतेन क्षन्तृत्वगूढ़गर्वत्वसुसत्त्व-भृत्त्वानि] हे देव, हरे, जय जय॥6॥

अनुवाद- हे देव! हे हरे! श्रीरामावतार में सीता जी को विभूषित करने वाले, दूषण नामक राक्षस पर विजय प्राप्त करने वाले तथा युद्ध में दशानन रावण को वधकर शान्त करने वाले, आपकी जय हो! जय हो ॥6॥

पद्यानुवाद

जनक-सुता कृत भूषण, जितदूषण हे।

समर शमित दशकण्ठ, जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी- भगवान श्रीकृष्ण के श्रीरामावतार में धीरोदात्त नायकत्व है।

जनक-सुता-कृतभूषण- धीरोदात्त गुणों से विभूषित हे देव! आप जनकसुता को अपने हाथों से समलंकृत करते हैं। आप नव दुर्वादलस्वरूप श्याम हैं। आपके द्वारा स्वर्णांगी वैदेही विभूषित होती हैं। हे सुदृढ़ व्रतपरायण, आपकी जय हो।

जितदूषण ए- जितदूषणो येनाऽसौ- आपने दूषण नामक राक्षस का वध कर दिया है। वनवासकाल में दण्डकारण्य नामक वन में निवास करते हुए आप जितदूषण कहलाये।

समर-शमित-दशकण्ठ- राक्षसराज रावण, जो संग्राम में स्थिर रहने वाला संग्रामकारी और अकथ्य वचन बोलने वाला, ऐसे महावीर को आपने रणप्रांगण में धराशायी कर शान्त कर दिया। हे वीरों के अधिपति! हे हरे! गूढ़गर्व तथा क्षमा गुणों से विभूषित आपकी जय हो ॥6॥

अभिनव-जलधर-सुन्दर! धृतमन्दर!

श्रीमुखचन्द्रचकोर!

जय जय देव हरे॥7॥

अन्वय- [अधुना धीरललितमुख्यत्वप्रतिपादनाय अजित-रूपत्वेन सम्पुटितमिव पुनस्तमेवाह] हे अभिनव जलधर-सुन्दर नवजलधररूचे हे धृतमन्दर (मन्दरधारिन्) [आभ्यां नवतरुणत्वं तदधिगम:]; हे श्रीमुखचन्द्रचकोर (श्रिया: लक्ष्म्या: मुखमेव चन्द्र: तत्र चकोरइव तत्सम्बुद्धौ कमलावदनचन्द्रसुधापायिन् इत्यर्थ:) अनेन प्रेयसीवशत्वं सूचितम् हे देव, हे हरे, त्वं जय जय ॥7॥

अनुवाद- हे नवीन जलधर के समान वर्ण वाले श्यामसुन्दर! हे मन्दराचल को धारण करने वाले! श्रीराधारूप महालक्ष्मी के मुखचन्द्र पर आसक्त रहने वाले चकोर-स्वरूप! हे हरे! हे देव! आपकी जय हो! जय हो ॥7॥

पद्यानुवाद

अभिनव जलधर सुन्दर धृत मन्दर हे।

श्रीमुख चन्द्र चकोर, जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी- प्रस्तुत पद्य में धीरललित नायक का मुख्यत्व प्रतिपादन करते हुए भगवान् के विविध अवतारों की लीलाओं का प्रदर्शन किया है।

अभिनव-जलधर-सुन्दर- श्रीभगवान् अभिनव सुन्दर हैं, उनका दिव्यातिदिव्य मंगलमय विग्रह सजल मेघ के समान मनोहर है।

धृतमन्दर- क्षीरसागर के मन्थन काल में आपने मन्दराचल को धारण किया था। जब मन्दराचल ठहर नहीं रहा था, तब आप कच्छप बन गये थे अथवा श्रीराधा जी के हृदय देश को धारण करते हैं। दूसरे रूप में देवताओं के साथ समुद्र का मन्थन करते हैं।

श्रीमुखचन्द्र चकोर- श्रीराधा जी का मुखकमल भगवान् को आट्टादित करते रहने के कारण विधु सरीखा है। चकोर जैसे चन्द्रमा की ओर अस्पृह रूप में निर्निमेष नेत्रों से देखा करता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् भी श्रीराधा जी के मुख की मनोज्ञता को देखकर हर्षातिरेकता का अनुभव करते रहते हैं। हे देव! हे हरे! आपकी जय हो!!

नवजलधर सुन्दर पद से- भगवान् का नवतारुण्य द्योतित होता है। चकोर पद से उनकी प्रेयसीवश्यता सूचित होती है। धृतमन्दर पद से श्रीराधा जी के कुचयुगल को धारण करते हैं। हे प्रभो! आपकी जय हो ॥7॥

तव चरणे प्रणता वयम्र इति भावय।

कुरु कुशलं प्रणतेषु,

जय जय देव हरे ॥8॥

अन्वय- अथ श्रोतृषु वक्तृषुच प्रसादं प्रार्थयते- हे हरे! वयं तव चरणे प्रणता: इति भावय (चिन्तय जानीहि); [ज्ञात्वाच] प्रणतेषु (अस्माषु) कुशलं कुरु (देहि); त्वल्लीला-नुभवसमर्थं कुरु। (त्वल्लीलानुभवस्य त्वत्प्रसादं विनानुपपत्ते: परमानन्दरूपत्वादित्यर्थ:) हे देव, हरे जय जय ॥8॥

अनुवाद- हे भगवन! हम आपके चरणों में शरणागत हैं। आप प्रेमभक्ति प्रदान कर अपने प्रति प्रणतजनों का कुशल विधान करें। हे देव! हे हरे! आपकी जय हो! जय हो ॥8॥

पद्यानुवाद

तव चरणों में हम नत हे।

करो कुशल अखिलेश! जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी- प्रस्तुत पद्य में कवि अपने श्रोताओं और वक्ताओं के कल्याण के लिए श्रीकृष्ण के अनुग्रह की प्रार्थना कर रहे हैं। हे कल्याण गुणाकर! हम आपके चरणों में प्रणत हैं। अतएव आप हम शरणागतों का कल्याण करें। भक्तों के पाप और ताप का विनाश करें। आप परमानन्दस्वरूप हैं, वैसे ही आपकी लीला परमानन्दस्वरूप है, आप इन लीलाओं को हमारे हृदय में स्फूर्ति प्राप्त करवाकर हम सबका आनन्दवर्द्धन करें ॥8॥

श्रीजयदेवकवेरिदं कुरुते मुदम्।

मंगलमुज्ज्वलगीतम्,

जय जय देव हरे ॥9॥

अन्वय- श्रीजयदेवकवे: इदम् उज्ज्वलगीतं (उज्ज्वलं यथा तथा गीतं) मंगलं (मांगलिकं वचनम्र अथवा मंगलाचरणमांत्र कर्त्तृ) मुदं (हर्षं) कुरुते (जनयति; तव भक्तानां चेतसीति शेष:) हे देव हरे त्वं जय जय ॥9॥

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि प्रणीत यह मनोहर, उज्ज्वल गीतिमय मंगलाचरण आपका आनन्द वर्द्धन करें अथवा आपके गुणों के श्रवण कीर्तन करने वाले भक्तजनों को आनन्द प्रदान करें। आपकी जय हो! जय हो ॥9॥

पद्यानुवाद

श्रीजयदेव लिखित यह सुन्दर।

मंगल उज्ज्वल गीत जय जय देव हरे॥

बालबोधिनी- कवि श्रीजयदेव जी भगवान की स्तुति की समाप्ति पर निवेदन करते हैं कि मैंने मंगलाचरण में उज्ज्वल रस की गीति तथा श्रीराधामाधव के केलिविलास-वर्णन करने का संकल्प लिया तो इससे मेरा हृदय आनन्द से अतिशय तरंगायित हो उठा है। यदि मंगलाचरण में ही इतना आनन्द है, तब श्रीराधामाधव के केलिविलास वर्णन करने में न जाने कितना आनन्द होगा। यह मेरा मनोहर मंगल गीत आपके लिए आनन्दप्रद बने, सुनने-सुनाने वालों का भी कल्याणप्रद बने।

मंगलाचरण के इन नौ श्लोकों में मंगल छन्द है ॥9॥

अष्ट पदि २ मंगलगीतम् अथवा मंगलम् अथवा हरि विजय मंगलाचरण

पद्मापयोधर-तटी-परिरम्भ-लग्न-

काश्मीर-मुद्रितमुरो मधुसूदनस्य

व्यक्तानुरागमिव खेलदनङ्गखेद-

स्वेदाम्बु पूरमनुपुरयतु प्रियं व: ॥

अन्वय- एवं प्रार्थ्य श्रोतृन् प्रति आशिषमातनोति]- पद्मापयोधरतटी-परिरम्भ-लग्नकाश्मीरमुद्रितम् (पद्माया लक्ष्म्या या पयोधरतटी कुचपरिणाह: स्तन-परिसर इति यावत्र, तस्य परिरम्भणेन आलिनेन लग्नं यत्र काश्मीरं कुंकुमं तेन मुद्रितं चिह्नितं) [अत:] व्यक्तानुरागम् (व्यक्त: स्पष्टीभूतोऽनुराग आसक्ति: यत्र तादृशम्) इव तथा खेलदनंग-खेद-स्वेदाम्बुपूरम् (खेलन् क्रीड़न् य: अनंगस्तेन य: खेद: आयास: तेन स्वेदाम्बुपूरम: घर्मजलप्रवाह: यत्र तथाभूतं) मधुसूदनस्य उर: (वक्ष:) व: (युष्माकं) प्रियम् अनुपूरयतु (निरन्तरं विदधातु) [अन्तरुच्छलित: प्रिरनुरागो बहि: काश्मीररूपेण उरसि आविर्भूत इवेत्यर्थ: ॥

अनुवाद- पद्मा श्रीराधा जी के कुंकुम छाप से चिह्नित स्तन-युगल का परिरम्भण करने से जिन श्रीकृष्ण का वक्ष:स्थल अनुरञ्जित हो गया है, मानो हृदयस्थित अनुराग ही रञ्जित होकर व्यक्त होने लगा है, साथ ही कन्दर्पक्रीड़ा के कारण जात स्वेद-विन्दुओं से जिनका वक्ष:स्थल परिप्लुत हो गया है, ऐसे मधुसूदन का सम्भोगकालीन वक्ष:स्थल आप सबका (हम सबका) मनोरथ पूर्ण करें।

पद्यानुवाद-

हरि हरे व्यथा सब मनकी

जिनके वक्षस्थलपर अप्रित केशर कमला स्तनकी।

जिनपर छाई शोभा रतिके श्रमके मंजुलकणकी

हरि हरे व्यथा सब मनकी॥

बालबोधिनी- कवि श्रीजयदेव जी ने पूर्व गीति में प्रभु से प्रार्थना करने के उपरान्त श्रोताओं को आशीर्वाद प्रदान करने के लिए प्रस्तुत श्लोक की अवतारणा की है।

पद्मापयोधर तटी-जब व्रजविलासी श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा का आलिंगन करते हैं, तो उनके स्तनों के प्रान्त-भाग तक लगे हुए कुंकुम-केशर द्रव की छाप भगवान् के वक्ष:स्थल पर अप्रित हो जाती है। श्रीराधा जी से सर्वाधिक प्रीति रखने के कारण उनका हृदय राधिकानुराग से रञ्जित रहता है (अनुराग का रंग रक्तवर्ण होता है।) पयोधर तटी पद से स्तनों का उन्नतत्त्व तथा प्रान्त भाग को पर्वत की तलहटी के समान सूचित किया है।

परिरम्भ लग्न काश्मीर- स्तन तटों में लेपित काश्मीर द्रव से संलग्न श्रीकृष्ण का वक्ष:स्थल दीर्घकालपर्यन्त किये गये प्रगाढ़ आलिंगन को सूचित करता है।

मुद्रित मुरो- श्रीस्वामिनी जी का कुचकुंकुम श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल में मुद्रण यन्त्र की भाँति चिह्नित हो गया है। वह अमिट रूप से सुशोभित हो रहा है। अहो! धन्य है स्नेहातिशयता।

व्यक्तानुरागमिव- जो अनुरागविशिष्ट हृदय में सन्निहित (छिपा हुआ) था, वह अब स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हो गया। अब यह अनुरागरञजित हृदय अन्यत्र संलिप्त नहीं हो सकेगा, इसलिए इसे प्रकट कर दिया है।

खेलदनङ्गखेद स्वेदाम्बुपुरम- श्रीकृष्ण का अनुराग रंग से रञ्जित वक्ष:स्थल दीर्घकालीन कन्दर्पक्रीड़ा के कारण परिश्रान्त होने से स्वेदवारि से पूर्ण हो गया है अथवा श्रीश्याम के विशाल वक्ष:स्थल में घर्मबिन्दुओं (पसीने के बूँदों) से सिक्त कुंकुम राग उनके हृदयस्थित अनुराग को मानो काश्मीर-रंग के रूप में बाहर प्रकट कर रहा है।

अनुपुरयतु प्रियं व:- इस प्रकार अनुराग-केशर से रञजित श्रीकृष्ण का वक्षस्थल हमारे अभीष्ट को पूर्ण करे। हमारे हृदय में प्रेम का वर्द्धन करे। प्रस्तुत श्लोक वसन्त राग में गाया जाता है, इससे भगवान् के वासन्तिक स्वरूप का भी सप्रेत प्राप्त होता है। यहाँ नायिका मुग्धा, नायक कुशल, वसन्ततिलका वृत्त, आशी:, उत्प्रेक्षा एवं अनुप्रास अलंकार तथा श्रृंगार रस है ॥1॥

इति श्रीगीतगोविन्दे द्वितीय: सन्दर्भ:।

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