गीतगोविन्द द्वितीय सर्ग अक्लेश केशव || Geet Govinda Dvitiya Sarga Aklesh Keshav

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कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द  में बारह सर्ग हैं, जिनके प्रथम सर्ग का नाम सामोद-दामोदर है, इसके ४  सन्दर्भ में ४ अष्ट पदि का वर्णन हुआ है। अब इसके द्वितीय सर्ग का नाम अक्लेश- केशव है। जिसका अर्थ है कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण सदैव क्लेशरहित हैं। उनमें क्लेश का संक्लेश मात्र भी नहीं है।

श्रीगीतगोविन्द द्वितीय सर्ग अक्लेश केशव के पञ्चम प्रबन्ध के इस ५ वें अष्ट पदि का नाम मधुरिपुरत्नकण्ठिका है। यह प्रबन्ध गुर्जरी – राग तथा यति ताल से गाया जाता है।

श्रीगीतगोविन्दम्‌ द्वितीयः सर्गः अक्लेश केशवः

श्रीगीतगोविन्द द्वितीय सर्ग अक्लेश केशव पञ्चम प्रबन्ध

अथ अक्लेश – केशवः

विहरति वने राधा साधारण- प्रणये हरौ

विगलित-निजोत्कर्षादीर्ष्यावशेन गतान्यतः ।

क्वचिदपि लताकुञ्जे गुञ्जन्मधुव्रत- मण्डली–

मुखर – शिखरे लीना दीनाप्युवाच रहः सखीम् ॥१ ॥

अन्वय – [ अथ सखीवचनं निशम्य श्रीकृष्णस्य साधारण- विहरणं विलोक्य ईष्र्योदयात् तद्दर्शनमप्यसहमाना अन्यतोगता राधा सखीमुवाच ] – साधारण- प्रणये ( साधारणः समानः सर्वास्वेव गोपाङ्गनासु इति शेषः प्रणयः प्रीतिः यस्य तथाभूते ) हरौ (कृष्ण) वने विहरति ( विहारं कुर्वति सति) राधा विगलित- निजोत्कर्षात् (विगलितो निजोत्कर्षः अहमेव असाधारणी प्रिया इत्येवं रूपेण यतस्तस्मादित्यर्थः (ईर्षावशेन) (अन्योत्कर्षा- सहिष्णुतया) दीना (कातरा) [सती] [ प्रणयतारतम्यादपि विहारस्य साम्यव्यवहरणात् श्रीकृष्णस्य स्वभावान्यथात्वदर्शनाक्षमतया ] अन्यतः (अन्यस्मिन्) गुञ्जन्मधुव्रत – मण्डली – मुखर शिखरे (गुञ्जन्तो ये मधुव्रताः (भ्रमरास्तेषां मण्डलीभिः श्रेणीभिः मुखरं ध्वनितं शिखरम् अग्र यस्य तादृशे) क्वचिदपि लताकुञ्जे लीना लुक्कायिता सती) रहः (निर्जने) सखीम् [अत्यन्तगोप्यमपि] उवाच ॥ १ ॥

अनुवाद – समस्त गोपाङ्गनाओं के साथ एक समान स्नेहमय श्रीकृष्ण को वृन्दाविपिन में विहार करते हुए देखकर अन्य गोपिकाओं की अपेक्षा अपना वैशिष्ट्य न होने से प्रणय-कोप के आवेश में वहाँ से दूर जाकर भ्रमर – मण्डली से गुञ्जित दूसरे लताकुञ्ज में श्रीराधा छिप गयी एवं अति दीन होकर गोपनीय बातों को भी सखी से कहने लगी ।

पद्यानुवाद-

राधा बोल उठी मनकी

लख हरि गोपीजनकी क्रीड़ा निशिदिन वृन्दावनकी

अलिकुल- गुञ्जित लता – कुञ्जमें छिपकर जीवन – धनकी ।

लीलासे ईर्षाहत होकर भूली सुध-बुध तनकी

राधा बोल उठी मनकी ॥ १ ॥

बालबोधिनी – इस द्वितीय सर्ग का नाम अक्लेश- केशव है। तात्पर्य यह है कि स्वयं भगवान् रसिक – शेखर श्रीकृष्ण सदैव क्लेशरहित हैं। उनमें क्लेश का संक्लेश मात्र भी नहीं है। भगवान्‌ के दो असाधारण चिह्न हैं-

१. अखिलयप्रत्यनिकत्त्व, अर्थात् भगवान् से किसी प्रकार के क्लेश-कर्म विपाक आदि प्राकृतिक दोषों का सम्पर्क नहीं होता है। वे सभी दोषों के प्रत्यनीक हैं अर्थात् प्रबल शत्रु हैं।

योगसूत्रकार ने भी साधनपाद में कहा है-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ।

अर्थात् क्लेश कर्म, उनके परिणाम तथा वासनादि दोषों के सम्पर्क से रहित पुरुषविशेष को ईश्वर शब्द से अभिहित किया जाता है।

२. अखिल कल्याण गुणाकरत्व – श्रीकृष्ण सम्पूर्ण संसार का कल्याण करनेवाले अप्राकृत सद्गुणों के आकर हैं।

इन्हीं अर्थों के कारण इस सर्ग का नाम अक्लेश- केशव है।

मानवती श्रीराधा सखी के समझाये जानेपर श्रीकृष्ण के मदन- महोत्सव में सम्मिलित हो गयीं। इस मदन उत्सव में श्रीकृष्ण सभी सखियों के प्रति समान स्नेह रखते हुए विहार कर रहे थे। जब कि श्रीराधा को यह गर्व था कि मैं उनकी सर्वश्रेष्ठा वल्लभा हूँ, नित्य सहचरी हूँ, परन्तु आज अपने प्रति विशिष्ट स्नेह प्रदर्शित न होने से श्रीराधा प्रणय-कोप के आवेश में अन्यत्र एक कुञ्ज में चली आयीं और छिपकर बैठ गयीं। ईर्ष्याकषायिता श्रीराधा को वहाँ भी कहीं शान्ति नहीं मिली। इस लताकुञ्ज के शिखर पर पुष्पों में मँडराता हुआ अलिवृन्द गुञ्जार कर रहा था। उस समय श्रीराधा अपनी मानकी वेदना से पीड़ित होकर अपनी सखी से उन रहस्यात्मक बातों को कहने लगी, जिन्हें किसी के समक्ष कहा नहीं जाना चाहिए।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द है । हरिणी छन्द का लक्षण है –

रसयुग हयैः न्सी म्नौ स्लौ गो यदा हरिणी ।

नायिका प्रौढ़ा है। रतिभाव के उद्रेकातिशय के कारण रसवदलङ्कार तथा अनुप्रास अलङ्कार हैं।

अपि-सोत्कर्ष भावमयी राधा कुछ न बोल सकने की स्थिति में थीं, रहस्यमयी बातें बतलाने वाली नहीं थीं, यह अपिशब्द के द्वारा घोषित है। अतः अपि शब्द चमत्कारातिशय युक्त है।

गुर्जरी रागेण यति तालेन गीयते ॥ प्रबन्ध ५ ॥

प्रस्तुत श्लोक पञ्चम प्रबन्ध की पुष्पिका रूप है। दूसरे श्लोक से इसका समुचित प्रारम्भ है। यह प्रबन्ध गुर्जरी – राग

तथा यति ताल से गाया जाता है ॥ १ ॥

श्रीगीतगोविन्द द्वितीय सर्ग अक्लेश केशव अष्ट पदि ५ मधुरिपुरत्नकण्ठिका

गीतम् ॥५॥

गुर्जरीराग यतितालाभ्यां गीयते

सञ्चरदधर-सुधा-मधुर-ध्वनि-मुखरित-मोहन-वंशं

बलित-द्गञ्चल-चञ्चल-मौलि-कपोल-विलोल-वतंसम् ।

रासे हरिमिह विहित-विलासं

स्मरति मनो मम कृत-परिहासम् ॥१ ॥ध्रुवम् ॥

अन्वय- सखि, सञ्चरदधर – सुधा मधुर ध्वनि-मुखरित- मोहन वंशं (सञ्चरन्ती उद्गच्छन्ता अधरसुधा यत्र तेन मधुरेण ध्वनिना मुखरितः शब्दितः मोहनः मनोमोहकरः वंशः वेणु येन तादृशं) वलित- दृगञ्चल – चञ्चल-मौलि-कपोल- विलोल – वतंसं (वलितेन इतस्ततः प्रचलता द्गञ्चलेन दृशोः नेत्रयोः अञ्चलं चक्षुः प्रान्तभागः तेन कटाक्षेणेत्यर्थः योऽसौ चञ्चलमौलिः कम्पितशिरोभूषणं तेन कपोलयोः गण्डयोः विलोलौ चञ्चलौ वतंसौ मणिकुण्डले यस्य तादृशं ) इह रासे (शारदीय – रासलीलायां) विहितविलासं (विहितः कृतः विलासः हावभावो येन तादृशं ) [ तथा ] कृतपरिहासं (कृतः परिहासो येन तादृशं) हरिं मम मनः स्मरति ॥ १ ॥

अनुवाद – सखि, कैसी आश्चर्य की बात है कि इस शारदीय रासोत्सव में श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर अन्य कामिनियों के साथ कौतुक आमोद में विलास कर रहे हैं। फिर भी मेरा मन उनका पुनः पुनः स्मरण कर रहा है। वे सञ्चरणशील अपने मुखामृत को अपने करकमल में स्थित वेणु में भरकर फुत्कार के साथ सुमधुर मुखर स्वरों में बजा रहे हैं, अपाङ्ग भङ्गी के द्वारा अपने मणिमय शिरोभूषण को चञ्चलता प्रदान कर रहे हैं, उनके कानों के आभूषण कपोल देश में दोलायमान हो रहे हैं, उनके इस श्याम रूप का, उनके हास-परिहास का मुझे बारम्बार स्मरण हो रहा है ॥ १ ॥

पद्यानुवाद-

हे सखि !

कम्पित अधर मधु-ध्वनित वेणु-स्वर

चलित दृगञ्चल चञ्चल शिर, भर-

गति कपोल द्वय लोल वलय वर

रास विलास हास कृत मनहर

हरि मूरतका ध्यान,

हो आता अनजान ॥

बालबोधिनी – सखि ने कहा-प्रिय राधिके! जब श्रीकृष्ण ने तुम्हारा प्रत्याख्यान किया है, तब तुम क्यों उनके प्रेम में इतनी अधीर हो रही हो ?

सखी के द्वारा अपनी भर्त्सना सुनकर श्रीराधा अति दीन भाव से कहने लगी- सखि ! तुम ठीक कह रही हो, श्रीकृष्ण मेरा परित्याग कर दूसरी रमणियों के साथ अतिशय अनुरागयुक्त होकर विहार कर रहे हैं, तब उनके प्रति मेरा अनुराग प्रकाशित होना व्यर्थ ही है, पर मैं क्या करूँ? मुझे उनकी नर्मकेलिका अनुभव है, उनके विलासों का स्मरण हो रहा है, सखि ! ये ही केलिवन हैं, जहाँ हमने केलिसुख प्राप्त किया था, उनके प्रति मेरी प्रबल आसक्ति है, मुझसे उनका त्याग नहीं होता। सब समय उनके गुणों का ही स्मरण होता रहता है। मेरे हृदय में उनके दोष का लेशमात्र भी भाव नहीं उठता, मुझे सदैव सन्तुष्टि रहती है। जब श्यामसुन्दर रास-रजनी में व्रजाङ्गनाओं के साथ हास-परिहास करते हैं तब – सञ्चरदधर सुधा मधुर ध्वनि मुखरित विग्रहम् सञ्चरन्त्या अधरसुधया मधुरो ध्वनि यत्र तद् यथा स्याद् तथा मुखरिता मोहिनी वंशी येन तम्। वे जब अधरसुधा से संक्रान्त मधुर ध्वनि करनेवाली उस वंशी को बजाते हैं, जिसका मोहनकारित्व प्रख्यात है, उस समय मेरा मन अस्थिर हो जाता है, मैं अपना धैर्य खो बैठती हूँ। उनके अङ्गों का सौन्दर्य, चञ्चल शिरोभूषण, दोलायमान कर्णकुण्डल तथा विशेषकर गोप-युवतियों का आलिङ्गन चुम्बन स्मरण करते ही मैं सुधबुध खो बैठती हूँ – सखि मैं क्या करूँ ? ॥१ ॥

चन्द्रक-चारु-मयूर-शिखण्डक-मण्डल-वलयित-केशं ।

प्रचुर-पुरन्दर-धनुरनुरञ्जित-मेदुर-मुदिर-सुवेशं ॥

रासे हरिमिह ….. ॥२॥

अन्वय- सखि, चन्द्रक- चारु- मयूर – शिखण्डक-मण्डल- वलयितकेशं (चन्द्रकेण अर्द्धचन्द्राकारेण चारूणां मयूरशिखण्डकानां मयूरपुच्छानां मण्डलेन वलयितः वेष्टितः केशो यस्य तादृशं ) [अतएव] प्रचुरपुरन्दर – धनुरनुरञ्जित – चित्रितः मेदुरः स्निग्धो यो मुदिरो नवजलधरः तद्वत् सुशोभनो वेशो यस्य तादृशं ) [ रासे विहितविलासमित्यादि] ॥ २ ॥

अनुवाद – अर्द्धचन्द्रकार से सुशोभित अति मनोहर मयूर – पिच्छ से वेष्टित केशवाले तथा प्रचुर मात्रा में इन्द्रधनुषों से अनुरञ्जित नवीन जलधर पटल के समान शोभा धारण करनेवाले श्रीकृष्ण का मुझे अधिक स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद-

चन्द्रक चारु मयूर शिखण्डित

कोमल केश वलय आमण्डित ।

प्रचुर पुरन्दर धनु अनुरञ्जित

सघन मेघ – छवि वपु बहु सज्जित ॥

बालबोधिनी – मोर पंख के अन्तिम भाग में बने हुए वृत्ताकार मण्डल को चन्द्रककहा जाता है। चन्द्रमा के समान यह भी आह्लाददायक होता है। इन्हीं मधुर पिच्छों से श्रीकृष्ण का केशपाश वलयित हो रहा है। उससे उनका श्यामवर्ण ऐसे प्रतीत हो रहा है, मानो सजल मेघ अनेक इन्द्रधनुषों से सुसज्जित हो, उन्हीं के कमनीय दिव्य विग्रह का मुझे बारबार स्मरण हो रहा है ॥ २ ॥

गोप-कदम्ब-नितम्बवती-मुख-चुम्बन-लम्भित-लोभं ।

बन्धुजीव-मधुराधर-पल्लवमुल्लसित-स्मित-शोभम् ॥

रासे हरिमिह……॥३॥

अन्वय- सखि, गोप-कदम्ब – नितम्बवती – मुखचुम्बन- लम्भित- लोभम् (गोप-कदम्बस्य गोपकुलस्य या नितम्बवत्यः नितम्बिन्यः तरुण्यः तासां मुख – चुम्बने लम्भितः प्रापितः लोभः यस्य तं) [तथा ] बन्धुजीव- मधुराधर- पल्लवम् (बन्धुक- पुष्पवत् अरुणः मधुरः मनोहरश्च अधरपल्लवो यस्य तादृशम् ) [ तथा ] उल्लसित – स्मित- शोभम् (उल्लासिता परिवर्द्धिता स्मितेन मृदुमधुरहासेन शोभा यस्य तथोक्तम्) [ मम मनः रासे विहितविलासमित्यादि ] ॥ ३ ॥

अनुवाद गोपललनाओं के मुखकमल का चुम्बन करने की अभिलाषा से इस अनङ्ग उत्सव में अपने मुख को झुकाये हुए, उनका सुकुमार अधर पल्लव बन्धुक कुसुमवत् मनोहारी अरुण वर्णीय हो रहा है, स्फूर्तियुक्त मन्द मुस्कान की अपूर्व शोभा उनके सुन्दर मुखमण्डल में विस्तार प्राप्त कर रही है, ऐसे उन श्रीकृष्ण का मुझे अति स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद-

गोप वधू चुम्बन-रस लोभित

अधर वधूक स्मित मधु शोभित ।

पुलक युवति-भुज अति आलिङ्गित

पद – कर मणि-द्युति निशि-तमचूर्णित ॥

हरि मूरतका ध्यान

हो आता अनजान ॥

बालबोधिनी गोपवधुओं के मुख चुम्बन का लोभ धारण करनेवाले श्रीकृष्ण की मुझे याद आ रही है। जिस समय वे रहस्यमयी कुञ्जक्रीड़ा में निमग्न रहते हैं, उस समय उन गोपियों के मुख का बारंबार चुम्बन करने का लोभ बढ़ता जाता है। श्रीकृष्ण के बन्धुक अर्थात् दुपहरिया के पुष्प के समान लाल-लाल होंठ का मुझे स्मरण आता है। सखि ! मुस्कराने पर तो उनकी शोभा और भी बढ़ जाती है।

विपुल-पुलक-भुज-पल्लव-वलयित-वल्लव-युवति-सहस्त्र ।

कर-चरणोरसि-मणिगण-भूषण-किरण-विभिन्न-तमिस्त्रं-

रासे हरिमिह ……॥४॥

अन्वय- सखि, विपुल – पुलक- भुजपल्लव-वलयित- वल्लव-युवति- सहस्रं (विपुलाः अगाधाः पुलका रोमाञ्चा ययोस्ताभ्यां भुजपल्लवाभ्यां पल्लव- पेलव-भुजाभ्यां वलयितं परिवेष्टितम् आलिङ्गितमित्यर्थः वल्लव-युवतीनां गोप-तरुणीनां सहस्रं येन तम्; एकदानेकालिङ्गनात् नैकनिष्ठप्रेमाणमित्यर्थः); [तथा] करचरणोरसि (हस्तपदवक्षसि ) मणिगण-भूषण-किरण- विभिन्न- तमिस्रं (मणिगणभूषणानां मणिमयालङ्काराणां किरणेन विभिन्नं निराकृतं तमिस्रम् अन्धकारो येन तादृशम् ) [ मम मनः रासे विहितविलासमित्यादि ] ॥४॥

अनुवाद – अतिशय रोमाञ्च से परिप्लुत होकर अपने सुकोमल भुज-पल्लव के द्वारा हजारों-हजारों गोप-युवतियों को समालिङ्गित करनेवाले एवं कर, चरण और वक्षस्थल में ग्रथित मणिमय आभूषणों की किरणों से दिशाओं को आलोकित करनेवाले श्रीकृष्ण का मुझे स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद-

पुलक युवती भुज अति अलिङ्गित

पद कर मणि निशि तम चूर्णित ॥

हर मूरतका ध्यान

हो आता अनजान ॥

बालबोधिनी – इस समय श्यामसुन्दर के उन कोमल-कोमल पल्लवों के समान हस्तों का मुझे स्मरण हो रहा है, जो प्रभूत रोमाञ्च से युक्त हैं और जिनसे वे सहस्र गोपियों को परिवेष्टित कर उनका समालिङ्गन करते हैं। उनके कर, चरण तथा हृदयस्थल के आभूषणों के सौन्दर्य की किरणों से सम्पूर्ण अन्धकार विदूरित हो गया है ॥ ४ ॥

जलद-पटल-बलदिन्दु-विनिन्दक-चन्दन-तिलक-ललाटं ।

पीन-पयोधर-परिसर-मर्दन-निर्दय-हृदय-कवाटम्-

रासे हरिमिह……॥५॥

अन्वय- सखि, जलद – पटल – बलदिन्दु-विनिन्दक-चन्दन- तिलक ललाटं (जलद पटलेन मेघसमूहेन बलन् परिस्फुरन् यः इन्दुः चन्द्रः तस्य विनिन्दकः तिरस्कारकः चन्दनतिलकः ललाटे यस्य तादृशं ) [ तथा ] पीन – पयोधर परिसर-मर्दन- निर्दय- हृदय-कवाटम् (पीनयोः स्थूलयोः पयोधरयोः स्तनयोः यः परिसरः परिणाहः विस्तार इति यावत् तस्य मर्दनाय निर्दयः हृदयकवाटः विशालं वक्षः यस्य तादृशम्; अत्र हृदयस्य दृढत्व- विस्तीर्णत्वाभ्यां कवाटत्वेन निरूपणम्) [मम मनः रासे विहित- विलास – मित्यादि ] ॥५ ॥

अनुवाद – अपने ललाट में मनोहर चन्दन के तिलक को धारणकर नवीन जलद मण्डल में विद्यमान चञ्चल चन्द्रमा की महती शोभा को पराभूतकर अनिर्वचनीय सुषमा को धारण करनेवाले एवं वर युवतियों के पीन पयोधरों के अमूल्य प्रान्त भाग को अपने सुविशाल सुदृढ़ वक्षःस्थल से निपीड़ित करने में सतत अनुरक्त कवाटमय (किवाड़ स्वरूप) निर्दय हृदय श्रीकृष्ण का मुझे बार-बार स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद-

चन्दन तिलक ललाट विचर्चित,

जलद पटलमें विधु सम दर्शित ।

युवती पीन पयोधर मर्दित,

अपनी निर्दयता पर हर्षित ।

हरि मूरतका ध्यान,

हो आता अनजान ॥

बालबोधिनी – सजल बादलों के बीच चञ्चल चन्द्रमा की शोभा अत्यधिक प्रेक्षणीय होती है। श्रीकृष्ण के श्यामवर्ण का विस्तृत ललाट पटल ही सजल मेघतुल्य है और उस पर श्वेतवर्ण का चन्दन तिलक आह्लादप्रदायी चन्द्रमा की छटाओं का भी तिरस्कार करनेवाला है। रतिकाल में युवतियों के कोमल स्तनों को अपने विशाल वक्षःस्थल से बड़ी ही निर्दयतापूर्वक मर्दन करनेवाले श्रीकृष्ण का मुझे अतिशय स्मरण हो रहा है ॥५॥

मणिमय-मकर मनोहर-कुण्डल-मण्डित-गण्डमुदारं ।

पीतवसन मनुगत-मुनि-मनुज-सुरासुरवर-परिवारं-

…रासे हरिमिह ॥६॥

अन्वय- सखि, मणिमय- मकर- मनोहर – कुण्डल मण्डित – गण्ड (मणिमयाभ्यां मणिप्रचुराभ्यां मकराभ्यां मकराकार- मनोहर- कुण्डलाभ्यां मण्डितौ शोभितौ गण्डौ यस्य तम्) [तथा] अनुगत-मुनि-मनुज- सुरासुर- वर परिवारम् (अनुगताः सौन्दर्यादिना आकृष्टाः मुनि – मनुज- सुरासुराणां वराः श्रेष्ठाः परिवाराः परिग्रहाः येन तादृशम्) उदारं (महान्तम् ) पीत – वसनम् (पीताम्बरम् ) [हरिं मम मनः रासे विहितविलास – मित्यादि ॥ ६ ॥

अनुवाद – जिनके कपोल – युगल मणिमय मनोहर मकराकृति कुण्डलों के द्वारा सुशोभित हो रहे हैं, जिन्होंने कामिनी जनों के मनोभिलाष को पूर्ण करने में महान उदार भाव अर्थात् दक्षिण नायकत्व को धारण किया है, जिन पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण ने अपनी माधुरी का विस्तारकर सुर, असुर, मुनि, मनुष्य आदि अपने श्रेष्ठ परिवार को प्रेमरस में सराबोर कर दिया है, उन श्रीकृष्ण का मुझे बरबस ही स्मरण हो रहा है।

पद्यानुवाद-

युग्म कपोल रत्न-मणि मण्डित,

मकर मनोहर कुण्डल लम्बित

सुन्दर पीत वसन परिवेष्टित,

मुनि, सुर, असुर, पद्म-पद पूजित

हरि मूरतका ध्यान,

हो आता अनजान ॥

बालबोधिनी – श्रीकृष्ण के कानों में लटकनेवाले कुण्डल मकराकृति के हैं, जिनसे उनके कपोलद्वय समलंकृत हैं। दक्षिण नायक हैं, पीताम्बर धारण करते हैं। नारदादि मुनि, भीष्मादि मनुष्य, प्रह्लादादि असुर तथा इन्द्रादि देवगण उनका श्रेष्ठ परिवार है। ऐसे श्रीकृष्ण का मुझे स्मरण हो रहा है ॥६॥

विशद- कदम्बतले मिलितं कलि-कलुषभयं शमयन्तं

मामपि किमपि तरङ्गदनङ्गदृशा मनसा रमयन्तं-

रासे हरिमिह… … ॥७ ॥

अन्वय-विशद-कदम्बतले (पुष्पित-कदम्बतरुतले) मिलितं (मया सह सङ्गतं) कलि – कलुषभयं शमयन्तं (कलिः कलहः कलुषं मालिन्यः प्रेमकलहोद्भूतं चित्तमालिन्यं तदपनयन्तं चाटुभिरितिशेषः; यद्वा कलिजनित पाप तापभयं निवारयन्तं) किमपि (अनिर्वचनीयं यथा तथा ) तरङ्गदनङ्ग-दृशा (तरङ्ग इव आचरन् अनङ्गो यत्र तया दृशा दृष्ट्या) मामपि (मामेव) रमयन्तं (मया सह रतिं ध्यायन्तमित्यर्थः) [रासे विहित- विलासमित्यादि ] ॥७॥

अनुवाद – विशाल एवं सुविकसित कदम्ब वृक्ष के नीचे समागत होकर मेरी अपेक्षा में प्रतीक्षा करनेवाले विविध प्रकार के आश्वासनयुक्त चाटुवचनों के द्वारा विच्छेद भय को सम्यक् रूप से अपनयन (दूरीभूत) करनेवाले प्रबलतर अनङ्ग रस के द्वारा चञ्चल नेत्रों से तथा नितान्त स्पृहायुक्त मानस में मेरे साथ मन-ही-मन रमण करनेवाले श्रीकृष्ण का स्मरण कर मेरा हृदय विकल हो रहा है।

पद्यानुवाद-

विशद कदम्बतले उपवेष्टित,

जन मनसे कलि भय अपसारित

निज अपाङ्गसे मम मन पूरित,

सुन्दर मोहन कवि जय वर्णित

हरि मूरतका ध्यान,

हो आता अनजान ॥

बालबोधिनी – श्रीराधा कहती हैं- हे सखि ! वे अतिशय उत्कण्ठा के साथ इस विशाल कदम्ब के नीचे सङ्केत स्थान पर मेरी प्रतीक्षा करते रहते हैं। प्रणय कलह होने पर विच्छेद के भय से चाटु वाक्यों द्वारा मनाते रहते हैं। इस तरह वे मुझे अपनी सरस दृष्टि तथा सानुराग मन से आनन्दित करते रहते हैं।

मामपि‘ – मुझे भी आनन्दित करते रहते हैं, अर्थात् प्रियतम श्रीकृष्ण की चेष्टाएँ इतनी मनोज्ञ हैं कि उनको देखकर मैं भी हर्ष प्रकर्ष का अनुभव करती हूँ ॥७॥

श्रीजयदेव-भणितमतिसुन्दर-मोहन-मधुरिपु-रूपं ।

हरि-चरण-स्मरणं संप्रति पुण्यवतामनुरूपं ॥

रासे हरिमिह … …॥८॥

अन्वय- अति-सुन्दर-मोहन – मधु-रिपु-रूपं ( अतिशयेन सुन्दरं मोहनं मनोहरं मधुरिपोः श्रीकृष्णस्य रूपं यत्र तादृशं ) श्रीजयदेव – भणितं (श्रीजयदेवोक्तं) सम्प्रति (अधुना) पुण्यवतां (सुकृतिशालिनां भगवद्भक्तानां साधूनां ) हरि-चरण-स्मरणं प्रति अनुरूपं (योग्यं तादृशभावेन आस्वादनीयमिति भावः) [भवतु इति शेषः ] [ रासे विहितविलासमित्यादि ] ॥८ ॥

अनुवाद – श्रीजयदेव कवि ने सम्प्रति हरिचरण स्मृतिरूप इस काव्य को भगवद्-भक्तिमान पुण्यशाली पुरुषों के लिए प्रस्तुत किया है, जिसमें श्रीकृष्ण के अतिशय सुन्दर मोहन रूप का वर्णन हुआ है। इसका आस्वादन मुख्यरस के आश्रय में रहकर ही किया जाना चाहिये ।

बालबोधिनी – पञ्चम प्रबन्ध का उपसंहार करते हुए श्रीजयदेव कवि ने कहा है कि इस प्रबन्ध का प्रणयन प्रेमाभक्तियुक्त पुण्यवान पुरुषों के द्वारा श्रीकृष्ण के श्रीचरणकमलों का स्मरण करने के लिए किया गया है। चरणका अर्थ रासलीला आदि से है, जो भक्तों के लिए आज भी अनुकूल है। यह अतीव सुन्दर लीला है और वही श्रीकृष्ण के श्रीचरणकमलों के स्मरण का साधन है, जिसे श्रीराधा कभी भुला नहीं पाती। इस अष्टपदी प्रबन्ध में लय छन्द है ।

जिसका लक्षण है – मुनिर्यगणैर्लयमामनन्ति

इस पाँचवे प्रबन्ध का नाम है मधुरिपुरत्नकण्ठिका

इति श्रीगीतगोविन्दे पञ्चमः सन्दर्भः ।

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