ब्रह्मा स्तुति || Brahma Stuti
ब्रह्मा स्तुतिः ब्रह्मा की उत्पत्ति के विषय पर वर्णन किया गया है। ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु की नाभि से निकले कमल में स्वयंभू हुई थी। इसने चारों ओर देखा जिनकी वजह से उनके चार मुख हो गये। भारतीय दर्शनशास्त्रों में निर्गुण, निराकार और सर्वव्यापी माने जाने वाली चेतन शक्ति के लिए ब्रह्म शब्द प्रयोग किया गया है। इन्हें परब्रह्म या परम् तत्व भी कहा गया है। पूजा-पाठ करने वालों के लिए ब्राह्मण शब्द प्रयोग किया गया हैं।
|| श्री ब्रह्मा स्तुतिः ||
नमो नमस्ते जगदेककर्त्रे नमो नमस्ते जगदेकपात्रे ।
नमो नमस्ते जगदेकहर्त्रे रजस्तमःसत्वगुणाय भूम्ने ॥ १॥
जगत् के एकमात्र कर्ता तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है, जगत् के एकमात्र पालक तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है । जगत् के एकमात्र हर्ता और सत्व, रज एवं तमो गुण के लिए भूमि स्वरूप तुमको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ १ ॥
अण्डं चतुर्विंशतितत्त्वजातं तस्मिन्भवानेष विरञ्चिनामा ।
जगच्छरण्यो जगदुद्वमन्स्वयं पितामहस्त्वं परिगीयसे बुधैः ॥ २॥
चौबीस तत्त्वों से बने हुए अण्ड रूप जिस ब्रह्माण्ड में आप साक्षात् विरञ्चि नाम से जगत् को शरण देने वाले हैं । जगत् के स्वयं उद्वमन-कर्ता आप को विद्वान् लोग पितामह के नाम से कीर्तन करते हैं उन आपको नमस्कार है ॥ २ ॥
त्वं सर्वसाक्षी जगदन्तरात्मा हिरण्यगर्भो जगदेककर्ता ।
हर्ता तथा पालयितासि देव त्वत्तो न चान्यत्परमस्ति किञ्चित् ॥ ३॥
तुम सभी के साक्षी हो, जगत् के अन्तरात्मा, हिरण्यगर्भ, एवं जगत् के एकमात्र कर्ता, हर्ता तथा पालन करने वाले हे देव ! तुमसे दूसरा कोई श्रेष्ठ नहीं है ॥ ३ ॥
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः साक्षात् स्वयं ज्योतिरजः परेशः ।
त्वन्मायया मोहितचेतसो ये पश्यन्ति नानात्त्वमहो त्वयीशे ॥ ४॥
तुम आदि देव हो । तुम पुराण पुरुष हो । तुम साक्षात् रूप से स्वयं ज्योतिमान् हो, अज हो और श्रेष्ठ ईश्वर हो । तुम्हारी माया से ही मोहित चित्त होकर तुम्हारे में ही वे (पुरुष) नानात्व को देखते हैं ॥ ४ ॥
त्वमाद्यः पुरुषः पूर्णस्त्वमनन्तो निराश्रयः ।
सूजसि त्वं च भूतानि भूतैरेवात्ममायया ॥ ५॥
तुम आदि देव, पूर्ण पुरुष हो, तुम अनन्त एवं निराश्रय हो । तुम पञ्चमहाभूतों से अपनी माया से ही प्राणियों का सृजन करते हो ॥ ५ ॥
त्वया सृष्टमिदं विश्वं सचराचरमोजसा ।
कथं न पालयस्येतत् ज्वलदाकस्मिकाग्निना ॥ ६॥
आपके ओज से चराचर जगत् के सहित यह सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि हुई है । अतः आकस्मिक अग्नि की ज्वाला से जब यह जल रहा है तो आप इसका पालन क्यों नहीं करते हैं ? ॥ ६ ॥
विनाशमेष्यति जगत् त्वया सृष्टमिदं प्रभो ।
न जानीमो वयं तत्र कारणं तद्विचिन्त्यताम् ॥ ७॥
हे प्रभो ! आपके द्वारा सृष्ट यह जगत् विनाश को प्राप्त हो जायगा । हम लोग उसका कारण नहीं जानते हैं । अतः आप ही उस पर विचार करें ॥ ७ ॥
कोऽयं वह्निरपूर्वोऽयमुत्थितः परितो ज्वलन् ।
तेनोद्विग्नमिदं विश्वं ससुरासुरमानवम् ॥ ८॥
यह अपूर्व वह्नि कौन सी है, जो चारों ओर से जलते हुए उठ गई है ? उस अग्नि से देवता, राक्षस और मनुष्यों के सहित यह सम्पूर्ण विश्व उद्विग्न हो गया है ॥ ८ ॥
तस्य त्वं शमनोपायं विचारय महामते ।
न चेदद्य भविष्यन्ति लोका भस्मावशेषिताः ॥ ९॥
हे महा मतिमान् ! उस अग्नि के शमन का उपाय विचार करिए । नहीं तो आज ही ये लोक भस्मीभूत हो जायेंगे ॥ ९ ॥
इति तेषां च गृणतां देवानामातुरं वचः ।
विमृश्य ध्यानयोगेन तदिदं हृद्यवाप सः ॥ १०॥
इस प्रकार उन देवों की आतुरता पूर्ण वाणी को सुनकर अपने ध्यानयोग से जानकर उनके हृदय में इस प्रकार विचार प्राप्त हुआ ॥ १० ॥
इति श्रीमाहेश्वरतन्त्रान्तर्गता ब्रह्मास्तुतिः समाप्ता ।
|| देवकृत ब्रह्म स्तुतिः ||
मत्स्य पुराण अध्याय १५४ श्लोक ७-१५
त्वमोङ्कारोऽस्यङ्कुराय प्रसूतो विश्वस्यात्मानन्तभेदस्य पूर्वम् ।
सम्भूतस्यानन्तरं सत्त्वमूर्ते संहारेच्छोस्ते नमो रुद्रमूर्त्ते ॥ १॥
व्यक्तिं नीत्वा त्वं वपुः स्वं महिम्ना तस्मादण्डात् स्वाभिधानादचिन्त्यः ।
द्यावापृथिव्योरूर्ध्वखण्डावराभ्यां ह्यण्डादस्मात्त्वं विभागं करोषि ॥ २॥
व्यक्तं मेरौ यज्जनायुस्तवाभूदेवं विद्मस्त्वत्प्रणीतश्चकास्ति ।
व्यक्तं देवा जन्मनः शाश्वतस्य द्यौस्ते मूर्धा लोचने चन्द्रसूर्यौ ॥ ३॥
व्यालाः केशाः श्रोत्ररन्ध्रा दिशस्ते पादौ भूमिर्नाभिरन्ध्रे समुद्राः ।
मायाकारः कारणं त्वं प्रसिद्धो वेदैः शान्तो ज्योतिषा त्वं विमुक्तः ॥ ४॥
वेदार्थेषु त्वां विवृण्वन्ति बुद्ध्वा हृत्पद्मान्तः सन्निविष्टं पुराणम् ।
त्वामात्मानं लब्धयोगा गृणन्ति साङ्ख्यैर्यास्ताः सप्त सूक्ष्माः प्रणीताः ॥ ५॥
तासां हेतुर्याष्टमी चापि गीता तस्यां तस्यां गीयसे वै त्वमन्तम् ।
दृष्ट्वा मूर्तिं स्थूलसूक्ष्मां चकार देवैर्भावाः कारणैः कैश्चिदुक्ताः ॥ ६॥
सम्भूतास्ते त्वत्त एवादिसर्गे भूयस्तां तां वासनां तेऽभ्युपेयुः ।
त्वत्सङ्कल्पेनान्तमायाप्तिगूढः कालो मेयो ध्वस्तसङ्ख्याविकल्पः ॥ ७॥
भावाभावव्यक्तिसंहारहेतुस्त्वं सोऽनन्तस्तस्य कर्त्तासि चात्मन् ।
येऽन्ये सूक्ष्माः सन्ति तेभ्योऽभिगीतः स्थूला भावाश्चावृतारश्च तेषाम् ॥ ८॥
तेभ्यः स्थूलैस्तैः पुराणैः प्रतीतो भूतं भव्यं चैवमुद्भूतिभाजाम् ।
भावे भावे भावितं त्वा युनक्ति युक्तं युक्तं व्यक्तिभावान्निरस्य ॥
इत्थं देवो भक्तिभाजां शरण्यस्त्राता गोप्ता नो भवानन्तमूर्तिः ॥ ९॥
इति देवकृता ब्रह्मस्तुतिः सम्पूर्णा ।
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