गीता में बताया गया है ऐसे होता है सृष्टि का आरंभ और अंत
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् गीता।।9/7।।
अर्थ: हे कौन्तेय! सब भूत कल्पों के अंत में मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं, कल्प के प्रारंभ में उनको मैं पुनः उत्पन्न करता हूं।
व्याख्या: उत्पत्ति से लेकर प्रलय तक, सृष्टि अनेक कल्पों में बंटी है। जब अंतिम कल्प होगा, तब प्रलयकाल में सभी भूत और जो चराचर जगत है, वे सभी अपनी मूल प्रकृति में ही लीन हो जाएंगे, क्योंकि सृष्टि मूल प्रकृति से ही उत्पन्न होती है और प्रलय काल में वह फिर से मूल प्रकृति को ही प्राप्त हो जाती है।
प्रलय हो जाने के बाद फिर जब सृष्टि का निर्माण होना होगा, तब उसी मूल प्रकृति से फिर से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार यह सिलसिला अनंतकाल तक चलता ही रहता है।
जैसे बीज में पूरा पेड़ छिपा होता है, ऐसे ही मूल प्रकृति में पूरा यूनिवर्स समाया होता है। यह मूल प्रकृति और कुछ नहीं बल्कि परमात्मा की ही शक्ति है।