गीता ज्ञानः तब व्यक्ति को फिर जन्म नहीं लेना पड़ता

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बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:।। गीता 7/19।।

अर्थ : अनेक जन्मों के अंत में जो ज्ञानवान मेरी शरण आकर ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ इस प्रकार मुझको भजता है वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।

व्याख्या : इच्छाओं, वासनाओं, संस्कारों व कर्मों के फलों को भोगने के लिए नया जन्म लेना पड़ता है। जब तक हमारे द्वारा किए गए कर्मों के फलों को हम भोग नहीं लेते, तब तक जन्म-मरण का सिलसिला चलता रहता है।

लेकिन जब हमारी रुचि परमात्मा को जानने में होती है, तब आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है और इस यात्रा में व्यक्ति भक्तियोग की साधना से प्रारब्ध कर्म को स्वीकार करने लगता है। कर्मयोग से अपने कर्मों में निष्काम भाव ले आता है और निरंतर ज्ञान-ध्यान से चित्त में पड़े संचित कर्मों का नाश कर देता है।

इस प्रकार का जन्म साधक का अंतिम जन्म होता है, इसमें वह जान जाता है कि जो घट-घट में वास कर रहा है, वहीं वासुदेव है और इस भाव से वह जीवन जीता हुआ परमात्मा को निरंतर भजन करता रहता है। इसलिए ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।

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