माया क्या है, क्यों इससे बचना चाहिए?

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न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: |
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता: ||गीता 7/15||
अर्थ: माया ने जिनका ज्ञान हर लिया है ऐसे दुष्ट कर्म करने वाले मूढ़, नरों में अधम, और आसुरी स्वभाव वाले मेरी शरण में नहीं आते।

व्याख्या : माया का काम है फंसाना। माया का अर्थ केवल धन से नहीं होता बल्कि जिस चीज में हमारा मन अटकता है, वही हमारे लिए माया है। जैसे किसी का मन धन में अटकता है, किसी का भोग में, किसी का रूप में, किसी का शब्द में, किसी का स्वाद में, किसी का दुष्ट कर्मों में, किसी का अपने में और किसी का अपने वालों में आदि-आदि अनेक स्थानों या किसी एक स्थान पर भी यदि मन अटक जाता है वही उसके लिए माया है।

मन के माया में आते ही हमारी ऊर्जा बाहर की तरफ बहने लगती है, जिससे आत्मा का ज्ञान नष्ट हो जाता है और व्यक्ति संसार में बंधने वाले दुष्ट कर्म करने लगता है जिससे मूढ़ता को प्राप्त हो जाता है।

इस तरह के लोग आध्यात्मिक दृष्टि से सबसे निचले स्तर के होते हैं, ऐसे लोग आसुरी स्वभाव वाले कहलाते हैं। ये परमात्मा को पाने की चाह नहीं रखते, इसलिए प्रभु की शरण में नहीं आते।

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