बिना सदगुरु के जीवन में कभी नहीं मिल पाएंगे ये चीजें, हमेशा रहेंगे अधूरे

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किसी भी व्यक्ति के जीवन में झांक कर देखिए, तो पता चलेगा कि उसका जीवन कभी खुशी तो कभी गम, कभी खट्टे-मीठे, तो कभी चरपरे स्वादों का समागम है। कभी सीधा-सरल रास्ता, कभी रास्ते में आते मोड़, तो कभी घनी भीड़ भरे चौराहों से गुजरना पड़ता है। लेकिन किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति को विचलित न होकर इष्ट निष्ठा और दृढ़ विश्वास को कायम रखते हुए अपने सुनिश्चित उद्देश्य के लिए सदैव अग्रसर रहना चाहिए।

अभिमान से दूरी और स्वाभिमान की धुरी से होते हुए स्वस्थ चिंतन, गतिमान मंथन कर विवेकपूर्ण स्थिति में अपने लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास करते रहना चाहिए। जो व्यक्ति महत्वाकांक्षाओं से दूर होकर परिस्थितियों से समझौता करना सीख गया, जानो वह जीवन को सफलता पूर्वक जी गया। यही तो असली जीवन है। व्यक्ति को अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए धैर्य और प्रबल निष्ठा के साथ अपनी दैहिक और आत्मिक यात्रा निरंतर निश्चिंत भाव से जारी रखनी चाहिए, क्योंकि चिंता चिता से भी अधिक नुकसान कर जाती है। इसलिए कहते हैं, चिंता न कर, यह व्यक्ति को जीते जी जला देती है, जबकि चिता तो मरणोपरांत ही देह को जलाती है।

फिर कहते भी हैं, ‘तू फिक्र न कर तेरे पीछे है आसरा समर्थ, तेरा सत्यव्रत व ध्यान न जाएगा कभी व्यर्थ। किए जा हर पल तू अपने इष्टदेव का ध्यान, मिटा देगा काम, क्रोध, मोह और अभिमान।’

जैसे सूर्य के प्रकाश की पहली किरण ही रात्रि के घोर अंधकार को चेतावनी देकर मूल रूप से नष्ट कर देती है, इसी प्रकार सद्गुरुदेव का जीवन में प्राकट्य ही अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाकर जीवन को ज्ञान रूपी प्रकाश प्रदान करता है। इसलिए कभी भी गुरु में संशय न करें। गुरु ही तो जो हमारे सभी संशयों का मिटावन हारी है। गुरु ही तो है जो हमारे विश्वास, यानी भरोसे का स्तंभ है। इसीलिए तो कहा गया है, ‘गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते। अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः।’ गुरु शब्द ही स्वयं में योग और एक संयोग है। गु (अंधकार) और रु (प्रकाश) की संधि, यानी दोनों का योग ही तो गुरु है। जो व्यक्ति को आत्मा से परमात्मा के मिलन की यात्रा को सफलता प्रदान करे, उसका मूलाधार योग और सदगुरु ही है। उसके बिना सभी मार्ग, द्वार और ज्ञान अधूरे ही जानिए।

सदगुरु और शिष्य के मध्य आस्था, श्रद्धा, समर्पण ही पूजा की सामग्री है। जिसका प्रतिफल ज्ञान, सदाचरण, आध्यात्मिक उन्नति और गुरुवर की अहेतु (बिना कारण) कृपा है। इसके अतिरिक्त आप गुरुवर को कुछ दे नहीं सकते हैं। यह सब लेना-देना तो व्यक्ति के मन का भाव है, जिसके माध्यम से वह अपने जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है। व्यक्ति के कर्मों से ही व्यक्ति के प्रारब्ध की उत्पत्ति होती है, जो जन्म जन्मांतर व्यक्ति के कर्मों के भोग के लिए साथ-साथ रहते हैं। सब कुछ मिट सकता है, लेकिन कर्मों का लेखा-जोखा भगवान भी नहीं मिटाते। व्यक्ति को वह स्वयं भोगना ही होता है। कष्ट आने पर वह कह देता है कि मैंने अपनी याद में तो ऐसा कुछ किया नहीं, फिर भी जाने-अनजाने में कुछ हुआ हो तो पता नहीं। वह सब प्रारब्ध ही है। हंसकर, रोकर कैसे भी उसे पूरा करना ही होता है। सद्गुरु कृपा ही व्यक्ति के जीवन में सुविचार, सदगुण, सद्व्यवहार, सदाचरण और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है।

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