सब भूतों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूं

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बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ || गीता 7/11||

अर्थ : हे भरतश्रेष्ठ ! बलवानों का काम व राग रहित बल हूं और सब भूतों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूं ।

व्याख्या : अपनी ईश्वरीय विभूतियों का वर्णन करते हुए भगवान् अर्जुन को कह रहे हैं कि ‘मैं’ ही बलवानों का बल हूं, लेकिन ऐसा बल जिसमें काम और राग न हो क्योंकि शुद्ध बल ही परमात्मा है, लेकिन जब उस बल में इच्छाएं और आसक्ति जुड़ जाती है तब वह बल अशुद्ध हो जाता है, उस समय ईश्वरीय शक्ति उस बल में नहीं रहती।

असलियत में व्यक्ति के पास जो भौतिक चीजें नहीं है उसको पाने का भाव ही इच्छा कहलाती है और जो हमारे पास है उसको मन से पकड़कर रखना ही राग कहलाता है। अतः काम व राग होने पर ईश्वरीय विभूति से हम दूर हो जाते हैं। ऐसे ही व्यक्ति में धर्म के अनुकूल जो काम का भाव उठता है वह ‘मैं’ ही हूं। अर्थात धर्म पर चलने व अपने स्वरूप को पाने की जो इच्छा है, वह ‘मैं’ ही हूं। इसप्रकार पिछले चार श्लोकों में भगवान् ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया है।

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