हंसगुह्य स्तोत्र – Hansaguhya Stotra

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पहले प्रजापति दक्ष ने जल, थल और आकाश में रहने वाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजा की सृष्टि अपने संकल्प से ही की। जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचल के निकटवर्ती पर्वतों पर अघमर्षण तीर्थ में जाकर बड़ी घोर तपस्या की। प्रजापति दक्ष उस तीर्थ में त्रिकाल स्नान करते और तपस्या के द्वारा भगवान् की आराधना करते। प्रजापति दक्ष ने इंद्रियातीत भगवान की ‘हंसगुह्य’ नामक स्तोत्र से स्तुति की थी। उसी से भगवान उन पर प्रसन्न हुए थे। दक्ष प्रजापति ने इस प्रकार स्तुति की-

प्रजापतिरुवाच

नमः परायावितथानुभूतये

गुणत्रयाभासनिमित्तबन्धवे ।

अदृष्टधाम्ने गुणतत्त्वबुद्धिभि-

र्निवृत्तमानाय दधे स्वयम्भुवे ॥ १ ॥

दक्ष प्रजापति ने कहा – भगवन्! आपकी अनुभूति, आपकी चित्त-शक्ति अमोघ है। आप जीव और प्रकृति से परे, उनके नियन्ता और उन्हें सत्तास्फूर्ति देने वाले हैं। जिन जीवों ने त्रिगुणमयी सृष्टि को ही वास्तविक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर सके हैं; क्योंकि आप तक किसी भी प्रमाण की पहुँच नहीं है-आपकी कोई अवधि, कोई सीमा नहीं है। आप स्वयं प्रकाश और परात्पर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

न यस्य सख्यं पुरुषोऽवैति सख्युः

सखा वसन् संवसतः पुरेऽस्मिन् ।

गुणो यथा गुणिनो व्यक्तदृष्टे-

स्तस्मै महेशाय नमस्करोमि ॥ २ ॥

यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरे के सखा हैं तथा इसी शरीर में इकट्ठे ही निवास करते हैं; परन्तु जीव सर्वशक्तिमान् आपके सख्यभाव को नहीं जानता-ठीक वैसे ही, जैसे रूप, रस, गन्ध आदि विषय अपने प्रकाशित करने वाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियों को नहीं जानते। क्योंकि आप जीव और जगत् के द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं। महेश्वर! मैं आपके श्रीचरणों में नमस्कार करता हूँ।

देहोऽसवोऽक्षा मनवो भूतमात्रा

नात्मानमन्यं च विदुः परं यत् ।

सर्वं पुमान् वेद गुणांश्च तज्ज्ञो

न वेद सर्वज्ञमनन्तमीडे ॥ ३ ॥

देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरण की वृत्तियाँ, पंचमहाभूत और उनकी तन्मात्राएँ- ये सब जड़ होने के कारण अपने को और अपने से अतिरिक्त को भी नहीं जानते। परन्तु जीव इन सबको और इनके कारण सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों को भी जानता है। परन्तु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूप से आपको नहीं जान सकता। क्योंकि आप ही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं। इसलिये प्रभो! मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ।

यदोपरामो मनसो नामरूप-

रूपस्य दृष्टस्मृतिसम्प्रमोषात् ।

य ईयते केवलया स्वसंस्थया

हंसाय तस्मै शुचिसद्मने नमः ॥ ४ ॥

जब समाधिकाल में प्रमाण, विकल्प और विपर्यरूप विविध ज्ञान और स्मरणशक्ति का लोप हो जाने से इस नाम-रूपात्मक जगत् का निरूपण करने वाला मन उपरत हो जाता है, उस समय बिना मन के भी केवल सच्चिदानन्दमयी अपनी स्वरूप स्थिति के द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं। प्रभो! आप शुद्ध हैं और शुद्ध हृदय-मन्दिर ही आपका निवास स्थान है। आपको मेरा नमस्कार है।

मनीषिणोऽन्तर्हृदि सन्निवेशितं

स्वशक्तिभिर्नवभिश्च त्रिवृद्भिः ।

वह्निं यथा दारुणि पाञ्चदश्यं

मनीषया निष्कर्षन्ति गूढम् ॥ ५ ॥

जैसे याज्ञिक लोग काष्ठ में छिपे हुए अग्नि को सामिधेनीनाम के पन्द्रह मन्त्रों के द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताईस शक्तियों के भीतर गूढ़भाव से छिपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा हृदय में ही ढूँढ निकालते हैं।

स वै ममाशेषविशेषमाया-

निषेधनिर्वाणसुखानुभूतिः ।

स सर्वनामा स च विश्वरूपः

प्रसीदतामनिरुक्तात्मशक्तिः ॥ ६ ॥

जगत् में जितनी भिन्नताएँ देख पड़ती हैं, वे सब माया की ही हैं। माया का निषेध कर देने पर केवल परमसुख के साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परन्तु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूप में माया की उपलब्धि-निर्वचन नहीं हो सकता। अर्थात् माया भी आप ही हैं। अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं। प्रभो! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। मुझे आत्मप्रसाद से पूर्ण कर दीजिये।

यद्यन्निरुक्तं वचसा निरूपितं

धियाक्षभिर्वा मनसोऽत यस्य ।

मा भूत्स्वरूपं गुणरूपं हि तत्त-

त्स वै गुणापायविसर्गलक्षणः ॥ ७ ॥

प्रभो! जो कुछ वाणी से कहा जाता है अथवा जो कुछ मन, बुद्धि और इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणों की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान हैं। आपमें केवल उनकी प्रतीतिमात्र है।

यस्मिन् यतो येन च यस्य यस्मै

यद्यो यथा कुरुते कार्यते च ।

परावरेषां परमं प्राक्प्रसिद्धं

तद्ब्रह्म तद्धेतुरनन्यदेकम् ॥ ८ ॥

भगवन्! आपमें ही यह सारा जगत् स्थित है; आपसे ही निकला है और आपने-और किसी के सहारे नहीं-अपने-आप से ही इसका निर्माण किया है। यह आपका ही है और आपके लिये ही है। इसके रूप में बनने वाले भी आप हैं और बनाने वाले भी आप ही हैं। बनने-बनाने की विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेने वाले भी हैं। जब कार्य और कारण का भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंसिद्ध स्वरूप से स्थित थे। इसी से आप सबके कारण भी हैं। सच्ची बात तो यह है कि आप जीव-जगत के भेद और स्वगत भेद से सर्वथा रहित एक, अद्वितीय हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। आप मुझ पर प्रसन्न हों।

यच्छक्तयो वदतां वादिनां वै

विवादसंवादभुवो भवन्ति ।

कुर्वन्ति चैषां मुहुरात्ममोहं

तस्मै नमोऽनन्तगुणाय भूम्ने ॥ ९ ॥

प्रभो! आपकी ही शक्तियाँ वादी-प्रतिवादियों के विवाद और संवाद (ऐकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार मोह में डाल दिया करती हैं। आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणों से युक्त एवं स्वयं अनन्त हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

अस्तीति नास्तीति च वस्तुनिष्ठयो-

रेकस्थयोर्भिन्नविरुद्धधर्मयोः ।

अवेक्षितं किञ्चन योगसाङ्ख्ययोः

समं परं ह्यनुकूलं बृहत्तत् ॥ १० ॥

भगवन्! उपासक लोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादि से युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान् हस्त-पादादि विग्रह से रहित-निराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तु के दो परस्पर विरोधी धर्मों का वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी उसमें विरोध नहीं है। क्योंकि दोनों एक ही परमवस्तु में स्थित हैं। बिना आधार के हाथ-पैर आदि का होना सम्भव नहीं और निषेध की भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिये। आप वही आधार और निषेध की अवधि हैं। इसलिये आप साकार, निराकार दोनों से ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं।

योऽनुग्रहार्थं भजतां पादमूल-

मनामरूपो भगवाननन्तः ।

नामानि रूपाणि च जन्मकर्मभि-

र्भेजे स मह्यं परमः प्रसीदतु ॥ ११ ॥

प्रभो! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप; फिर भी जो आपके चरणकमलों का भजन करते हैं, उन पर अनुग्रह करने के लिये आप अनेक रूपों में प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन्! आप मुझ पर कृपा-प्रसाद कीजिये।

यः प्राकृतैर्ज्ञानपथैर्जनानां

यथाशयं देहगतो विभाति ।

यथानिलः पार्थिवमाश्रितो गुणं

स ईश्वरो मे कुरुतान्मनोरथम् ॥ १२ ॥

लोगों की उपासनाएँ प्रायः साधारण कोटि की होती हैं। अतः आप सबके हृदय में रहकर उनकी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप में प्रतीत होते रहते हैं-ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्ध का आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है; परन्तु वास्तव में सुगन्धित नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओं का अनुसरण करने वाले प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें।

इति हंसगुह्यस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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