कालिका पुराण अध्याय १० || Kalika Puran Adhyay 10 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय १० में सती से विवाह प्रस्ताव का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय १०         

॥ सती से विवाह प्रस्ताव ॥

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर सती ने पुनः शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि में उपवास किया था और आश्विन मास में देवेश्वर का भक्ति भाव से पूजन किया था। इस तरह से इस नन्दा व्रत के पूर्ण हो जाने पर नवमी तिथि में दिन के भाग में भक्तिभाव से परमाधिक विनम्र उस सती को भगवान् हर प्रत्यक्ष हो गये थे अर्थात् सती के समक्ष में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित हो गए थे । प्रत्यक्ष रूप से हर का अवलोकन करके सती आनन्द युक्त हृदय वाली हो गयी थी। फिर उस सती ने लज्जा से अवनत होते हुए विनम्र होकर उनके चरणों में प्रणाम किया था । इसके अनन्तर महादेवजी ने उस व्रत के धारण करने वाली सती से कहा था । शिव स्वयं भार्या के लिए उसकी इच्छा करने वाले होते हुए भी उसके आश्चर्य के फल के प्रदान कराने वाले हुए थे।

ईश्वर ने कहा- हे दक्ष की पुत्री ! आपके इस व्रत से मैं परम प्रसन्न हो गया हूँ। अब आप वरदान का वरण कर लो जो भी आपको अभिमत होवे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- जगत् के स्वामी महादेव उसके भाव को जानते हुए उस सती के वचनों के श्रवण करने की इच्छा से वरदान माँग लोयह बोले थे । वह सती भी लज्जा से समाविष्टा होती हुई जो कुछ भी हृदय में स्थित था उसके कहने में समर्थ न हो सकी थी क्योंकि बाला को जो भी मनोरथ अभीष्ट था वह लज्जा से समाच्छादित हो गया था अर्थात् लज्जावश उस अभीप्सित को मन में ही रखकर कुछ भी न बोल सकी थीं ।

इसी बीच में कामदेव उस समय में अभिप्राय के सहित हर की नेत्र मुख और व्यापार से चिन्हित प्राप्त करके विवर चाप का पुष्पहेति के द्वारा सन्धान करने वाला हो गया था। इसके अनन्तर हर्षण बाण के द्वारा उसने (कामदेव ने ) हर के हृदय बेधन किया था। इसक उपरान्त हर्षित शम्भु ने फिर एक बार सती को देखा था । उस समय में परमेश्वर शिव ने परब्रह्म के चिन्तन को एकदम भुला ही दिया था । फिर इस कामदेव ने मोहनबाण के द्वारा भगवान् हर को बेधित किया था । तब हर्षित होकर शम्भु उस अवसर पर बहुत ही अधिक मोहित हो गये थे । हे द्विजोत्तमों ! जब इन्होंने मोह और हर्ष को व्यक्त कर दिया था तो वह माया के द्वारा भी विमोहित हो गये थे। इसके अनन्तर सती ने अपनी लज्जा को स्तम्भित करके जिस समय में हर से वह बोली थी- हे वरद ! मेरे अभीष्ट वर इस अर्थ को करने वाले को प्रदान करिए। उस समय में सती के वाक्य के अवसान की प्रतीक्षा न करके ही वृषभध्वज ने दाक्षायणी से पुनः मेरी भार्या हो जाओकहला दिया था ।

हर के यह वचन सुनकर जो अभीष्ट के फल का भावना से युक्त था वह सती मनोगत वर की प्राप्ति करके परम प्रमुदित होती हुई मौन होकर स्थित हो गयी थी । हे द्विजोत्तमो ! कामवासना से समन्वित महादेवजी आगे वहाँ पर ब्रह्म चारुहास वाली सती ने अपने हावों और भावों से किया था । उस समय में अपने भावों का आदान-प्रदान करके शृंगार नामक रस ने उन दोनों में प्रवेश किया था । वे विप्रेन्द्रों ! भगवान् हर के आगे स्निग्ध भिन्न अंजन की प्रभा से समान प्रभा वाली, स्फटिक के समान उज्ज्वल कान्ति वाले हर के सामने चन्द्रमा के समीप में अंकलेख की तरह राजित हुई थी।

इसके अनन्तर दाक्षायणी पुनः उन महादेवजी से बोली थी- हे जगत्पते! मेरे पिता के सामने गोचर होकर मुझे ग्रहण कीजिए। उस समय में देवी सती ने इस प्रकार से जो स्मितयुक्त वचन कहा था कि मेरी भार्यां हो जाओयह महादेव जी ने कहा था। इसके अनन्तर कामदेव यह देखकर रति और अपने मित्र वसन्त के साथ प्रसन्नता से युक्त हो गया था और निरन्तर अपने आपको अभिनन्दित किया था ।

हे द्विजोत्तमों! इसके अनन्तर दाक्षायणी ने शम्भु को समाश्वसि करके हर्ष और मोह से समन्विता होती हुई वह सती माता के समीप गयी थी । भगवान् हर भी हिमालय के प्रस्थ से प्रवेश करके जो कि उनका आश्रम था दाक्षायणी के विप्रलम्भ (वियोग ) के दुःख से ध्यान में परायण हो गए थे । इसके उपरान्त विप्रलब्ध भी अर्थात् वियोग से युक्त होते हुए भी उन्होंने ब्रह्माजी के वाक्य का स्मरण किया था जो कि जाया के परिग्रहण के अर्थ में पद्मयोनि ने ( ब्रह्माजी ने ) कहा था। पहले विश्वास से ब्रह्मवाक्य के पर का स्मरण करके ही वृषभध्वज मन से ब्रह्माजी का चिन्तन करने लगे थे । इसके अनन्तर चिन्तन किए हुए यह परमेष्ठी (ब्रह्मा) त्रिशूली के आगे शीघ्र ही इष्ट की सिद्धि से प्रेरित हुए प्रविष्ट हुए थे जहाँ पर हिमालय के प्रस्थ में यह विप्रलब्ध भगवान् शम्भु विराजमान थे । सावित्री के सहित ब्रह्माजी वहाँ पर ही उपस्थित हो गए थे। इसके उपरान्त भगवान् हर ने सावित्री के सहित धाता को देखकर बड़ी ही उत्सुकता के साथ विप्रलब्ध शम्भु सती से बोले ।

ईश्वर ने कहा- हे ब्रह्माजी, विश्व के अर्थ जो दारा के परिग्रहण की कृति में आपने जो कहा था वह अब मुझे उस सार्थक की ही भाँति प्रतीत होता है । अत्यन्त भक्ति से दाक्षायणी के द्वारा मेरी आराधना की गयी है । जिस समय में उसके द्वारा प्रपूजित मैं उसको वरदान देने के लिए गया था तब उसके समीप कामदेव ने विशाल बाणों से वेध दिया था और मैं माया से मोहित हो गया था कि मैं उसका प्रतिकार शीघ्र ही करने में असमर्थ हो गया हूँ देवी का वाँच्छित मैंने यह भी देखा था। हे विभो ! व्रत की भक्ति से प्रसन्नता से समन्वित मैं उसका भर्त्ता हो जाऊँ। इससे हे प्रजापते ! अब आप विश्व के लिए और मेरे लिए ऐसा करें कि दक्ष प्रजापति मुझे आमन्त्रित करके अपनी पुत्री को मुझे शीघ्र ही प्रदान कर देवे । आप दक्ष भवन में गमन कीजिए और मेरा वचन उनसे कहिए कि जिस प्रकार से सती का वियोग भस्म हो जावे वैसा ही पुनः आप करें ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस प्रजापति के सकाश में महादेव जी ने यह इतना कहकर उन्होंने सावित्री का अवलोकन किया था तो उनको सती का विप्रयोग विशेष बढ़ गया था । लोकों के ईश ब्रह्माजी ने उनसे सम्भाषण करके वे आनन्द से संयुत कृत-कृत्य अर्थात् सफल हो गये थे और उन्होंने जगतों का हित तथा शिव का हित कर यह वचन कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे वृषभध्वज ! हे भगवान्! हे शम्भो ! जो आप कहते हैं उसमें विश्व का अर्थ तो सुनिश्चित ही है। इसमें आपका स्वार्थ नहीं है और न कोई मेरा स्वार्थ है । दक्ष तो अपनी पुत्री को आपके लिए स्वयं ही दे देगा और मैं भी आपके वाक्य को उसके ही समक्ष कह दूँगा ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा – लोक पितामह ब्रह्माजी ने यह महादेवजी से कहकर अतीव वेग वाले स्पन्दन द्वारा वे दक्ष प्रजापति के निवास स्थान पर गये थे। इसके अनन्तर उधर दक्ष भी सम्पूर्ण वृतान्त सती के मुख से सुनकर यह चिंता कर रहा था कि यह मेरी पुत्री शम्भु को कैसे दे दी जावे । आये हुए भी महादेव परम प्रसन्न होकर चले गए थे वह भी पुनः ही सुता के लिए कैसे इक्षित हैं अथवा मुझे उनके निकट शीघ्र ही कोई दूत भेजना चाहिए । यह योग्य नहीं है कि यदि विभु अपने लिए इसको न ग्रहण करें तो एक अनुचित ही बात होगी ।

मैं उन्हीं वृषभध्वज की पूजा करूँगा कि जिस तरह से वह स्वयं ही मेरी पुत्री के स्वामी हो जावें । वे भी इसी के द्वारा अत्यन्त प्रयत्न के साथ अतीव वांच्छा करती हुई से पूजित हुए हैं। शम्भु मेरे भर्ता होवे और इस प्रकार से उन्होंने उसे वर भी दिया । इस रीति से दक्ष चिन्तन कर रहे थे कि उसी समय में ब्रह्माजी उसके आगे समुपस्थित हो गये । वे हंसों के रथ में सावित्री के साथ ही विराजमान थे । प्रजापति दक्ष ने ब्रह्माजी को देखकर उनका प्रणिपात किया था और वह विनम्र होकर स्थित हो गया था। उसने उनको आसन दिया था और यथोचित रीति से सम्भाषण किया था। इसके अनन्तर उन सब लोकों के ईश से वहाँ पर आगमन का कारण दक्ष ने पूछा था । हे विपेन्द्रों ! वह दक्ष चिन्ता से आविष्ट भी था किन्तु हर्षित हो रहा था ।

दक्ष कहा- हे जगतों के गुरुवर ! यहाँ पर आपके आगमन का कारण बतलाइए ? आप पुत्र के स्नेह से अथवा किसी कार्य के वश में इस आश्रम में समागत हुए हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस प्रकार से महात्मा दक्ष के द्वारा पूछे गये सुरश्रेष्ठ (ब्रह्माजी ) ने उस प्रजापति दक्ष को आनन्दित करते हुए हँसकर यह वाक्य कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे दक्ष ! सुनिए, मैं तुम्हारे जिस कार्य के लिए यहाँ पर समागत हुआ हूँ वह कार्य लोकों का हितकर है तथा पथ्य है और आपका भी अभीप्सित है। तेरी पुत्री ने जगत् के पति महादेव की समाराधना करके जो वर प्राप्त करने की उनसे प्रार्थना की थी वह आज स्वयं ही गृह में समागत हुए है । शम्भु ने आपकी पुत्री के लिए आपके समीप में मुझे पुनः प्रस्थापित किया है जो कृत्य परम श्रेय है उसका अवधारण करिए। जिस समय वरदान देने को वे आए थे तभी से लेकर आपकी पुत्री के वियोग से शीघ्र ही कल्याण की प्राप्ति नहीं कर रहे हैं, कामदेव ने भी उस समय अत्यधिक बेधन किया था उसे जगत् के प्रभु का बेधन सभी पुष्कर बाणों से एक ही साथ किया था । वह कामदेव के द्वारा बाणों बिद्ध होकर आत्मा का परिचन्तन त्याग कर जैसे कोई सामान्य जन हो उसी भाँति अतीव व्याकुल वाणी को भुलाकर विप्रयोग से गणों आगे अन्य कृति में भी सती कहाँ हैयह बोला करते हैं ।

मैंने जो पूर्व में चाहा था और आपने तथा कामदेव ने इच्छा की थी एवं मरीचि आदि मुनिवरों ने जिसकी इच्छा की थी। हे पुत्र ! वह कार्य अब सिद्ध हो गया है । आपकी पुत्री के द्वारा शम्भु की आराधना की गई थी और वे भी उस तुम्हारी पुत्री विचिन्तन से हिमवगिरि में अनुमोदन करने के लिए इच्छुक हैं। जिस प्रकार से अनेक प्रकार के भावों के द्वारा सती ने नन्दा के व्रत से शम्भु की आराधना की थी ठीक उसी भाँति उनके द्वारा सती की आराधना की जा रही है । इसलिए हे दक्ष ! शम्भु के लिए परिकल्पित अपनी पुत्री सती को बिना विलम्ब किए हुए उनको दे दो उसी से आपकी कृतकृत्यता अर्थात् सफलता है मैं उनको नारद द्वारा आपके आलय में ले आऊँगा । उसके लिए आप भी इस सती को जो कि उन्हीं के लिए परिकल्पित है उन्हें दे दो ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- दक्ष ने ऐसा ही होगा‘, यह दक्ष ब्रह्माजी से कहा था और ब्रह्माजी भी वहाँ से उसी स्थान पर चले गए थे जहाँ पर भगवान् शम्भु विराजमान थे। ब्रह्माजी के चले जाने पर दक्ष प्रजापति भी अपनी दारा और तनया के साथ आनन्दयुक्त हो गया था और पीयूष से परिपूरित की ही भाँति पूर्ण देह वाला हो गया था ।

इसके अनन्तर कमलासन ब्रह्माजी भी मोद से प्रसन्न होकर महादेवजी के समीप प्राप्त हो गये थे जो कि हिमालय पर्वत पर संस्थित थे। वृषभध्वज ने उन आते हुए लोकों के स्रष्टा को देखकर वे सती की प्राप्ति में बारम्बार मन में संशय कर रहे थे । इसके अनन्तर दूर ही ही से साम से समन्वित ब्रह्माजी को महादेवजी ने जो कामवासना को भस्म में धारण किए थे और कामदेव के द्वारा उन्मादित हो गये थे, कहा था ।

ईश्वर ने कहा- हे ब्रह्माजी ! आपके पुत्र (दक्ष) ने सती के अर्थ में स्वयं क्या कहा था ? आप मुझे बतलाइए जिससे कामदेव के द्वारा मेरा हृदय विदीर्ण न किया जावे। बाधमान विप्रयोग सती के बिना मुझको हनन कर रहा है । हे सुरश्रेष्ठ! यह कामदेव अन्य सब प्राणियों का त्याग कर मेरे ही पीछे पड़ा हुआ है। हे ब्रह्माजी ! वह सती जिस तरह से भी मुझे प्राप्त हो जावे वही आप शीघ्र ही करिए ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे वृषभध्वज ! सती के अर्थ में जो मेरे पुत्र (दक्ष ) ने कह दिया था उसको आप सुनिए और अपना साध्य सिद्ध हो गया, यही अवधारित कर लीजिए ।

उसने कहा था कि मुझे मेरी पुत्री उन्हीं के लिए देने के योग्य है और उनके लिए ही वह परिकल्पिता है । यह कर्म तो मुझे भी अभीष्ट था ही किन्तु अब आपके वाक्य से पुनः अधिक अभीप्सित हो गया है । मेरी पुत्री के द्वारा शिव समाराधित किए गए हैं और इसी के लिए उसने स्वयं ही ऐसा किया है और वे शिव भी उनकी इच्छा करते हैं अर्थात् सती को भार्या के रूप में पाना चाहते हैं। इसी कारण से मुझे इसको हर के ही लिए देना चाहिए । अर्थात् मैं उन्हीं को दूँगा । वे शिव किसी शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न में मेरे समीप में आ जावें । हे ब्रह्माजी, उसी समय में मैं भिक्षार्थ में शम्भु के लिए अपनी पुत्री सती को दे दूँगा ।

वृषभध्वज ! दक्ष ने यही प्रसन्नता के साथ कहा था । इसलिए आप किसी परम शुभ मुहूर्त में उस सती की अनुयाचना करने के लिए उन (दक्ष) के समीप में गमन कीजिए।

ईश्वर ने कहा- मैं आपके साथ तथा महात्मा नारद जी के साथ ही यहाँ से गमन करूँगा । हे जगतों के द्वारा पूज्य ! इस कारण से आप शीघ्रताशीघ्र ही नारद जी का स्मरण करिए । मरीचि आदि दस मानस पुत्रों को भी स्मरण करिए । उन सबके ही साथ मैं अपने गणों सहित दक्ष के निवास स्थान पर जाऊँगा । इसके अनन्तर कमलासन प्रभु द्वारा वे सब स्मरण किए गए थे जो मन के समान वेग वाले ब्रह्माजी के पुत्र नारद के ही सहित थे ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे सती विवाह प्रस्तावनाम दसमोऽध्यायः ॥ १० ॥

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