कालिका पुराण अध्याय ८ || Kalika Puran Adhyay 8 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय ८ में श्री हरि द्वारा शिव का अनुनयन का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ८       

॥ सती की उत्पत्ति ॥

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने भी पुनः कामदेव से यह वचन कहा था । हे तपोधने ! ब्रह्माजी ने योगनिद्रा के वाक्य का स्मरण करके और निश्चय करके ही यह कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- यह योगनिद्रा अवश्य ही भगवान् शम्भु की पत्नी होगी । जितनी भी आपकी शक्ति है उसी के अनुसार आप भी इन योगनिद्र की सहायता करिए। आप अब अपने गणों के साथ ही वहीं पर चले जाइए जहां पर भगवान् शंकर समवस्थित हैं । हे कामदेव ! आप भी अपने सखा वसन्त के साथ वहाँ पर शीघ्र ही गमन करिए जिस स्थान पर शम्भु विराजमान हैं और अहर्निश के चतुर्थ भाग में नित्य ही जगत् का मोहन करो और शेष तीन भाग में गणों के साथ सदा भगवान् शम्भु के समीप संस्थित रहो ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इतना कहकर लोकों के स्वामी ब्रह्माजी वहीं पर अन्तर्धान हो गये थे और कामदेव अपने गणों के सहित उसी समय में भगवान् शम्भु के समीप चला गया था । इसी बीच में प्रजापति दक्ष चिरकाल तक तपस्या में रत होता हुआ बहुत प्रकार के नियमों से सुन्दर व्रतधारी होकर देवी की समाराधना में निरत गया था।

हे मुनि सत्तमों! फिर नियमों से युक्त और योगनिद्रा देवी का यजन करने वाले दक्ष प्रजापति के समक्ष में चण्डिका देवी प्रत्यक्ष हुई थी। इसके अनन्तर प्रजापति दक्ष प्रत्यक्ष रूप से जगन्मयी विष्णुमाया का दर्शन प्राप्त करके अपने आपको कृतकृत्य अर्थात् पूर्णतया सफल मानने लगा था ।

अब भगवती के रूप का वर्णन किया जाता है कि

सिंहस्थाङ्कालिकाकृष्णाम्पीनोत्तुङ्गपयोधराम् ॥

चतुर्भुजाञ्चारुवक्रान्नीलोत्पलधरां शुभाम् ॥ ९ ॥

वरदाऽभयदाङ्खड्गहस्तां सर्व्वगुणान्विताम् ॥

आरक्तनयनाञ्चारु मुक्तकेशीम्मनोहराम् ॥ १० ॥

वह देवी बालिका परम स्त्रिग्ध, कृष्ण वर्ण के संयुत, पीन (स्थूल) और उन्नत स्तनों वाली थी। उसकी चार भुजायें थीं तथा परमाधिक सुन्दर उसका मुख था और नीलकमल को धारण करने वाली परमशुभ थी । वरदान तथा अभयदान देने वाली, हाथ में खड्ग धारण करती हुई सभी गुणों से समन्विता थी । उसके नयन थोड़ी रक्तिमा लिए हुए थे और सुन्दर और खुले हुए केशों वाली थीं एवं परम मनोहर थीं ।

प्रजापति दक्ष ने उनका दर्शन प्राप्त करके परम प्रीति से युक्त होकर विनम्रता उस देवी की स्तुति की थी।

कालिका पुराण अध्याय ८  

मार्कण्डेय मुनि ने कहा – इस रीति से प्रयत आत्मा वाले दक्ष के द्वारा स्तुति की गई महामाया दक्ष से बोली, यद्यपि उस दक्ष के अभीष्ट को स्वयं जानती हुई भी थी तथापि देवी ने उससे पूछा था ।

भगवती ने कहा- हे दक्ष! आपके द्वारा अत्यधिक की गई इस मेरी भक्ति से मैं आपसे परम प्रसन्न हूँ । अब तुम वरदान का वरण कर लो जो भी आपका अभीप्सित हो वह मैं स्वयं ही तुझे दे दूंगी। हे प्रजापते ! आपके नियम से, तपों से और आपकी स्तुतियों से मैं बहुत अधिक प्रसन्न हो गयी हूँ । आप वरदान का वरण करो मैं उसी वर को दे दूँगी ।

दक्ष ने कहा- हे जगन्मयि ! हे महामाये ! यदि आप मुझे वरदान देने वाली हैं तो आप ही स्वयं मेरी पुत्री होकर भगवान् शंकर की पत्नी बन जाइए । हे देवि! यह वर केवल मेरा ही नहीं है अपितु समस्त जगती का है। हे प्रजेश्वरि ! यह वर लोकों के ईश ब्रह्माजी का है तथा भगवान् विष्णु का है और भगवान् शिव का भी है।

देवी ने कहा- हे प्रजापते ! मैं आपकी पुत्री होकर आपकी जाया (पत्नी) में जन्म धारण करने वाली होऊँगी तथा भगवान् शंकर की पत्नी हो जाऊँगी और इसमें विलम्ब नहीं होगा । जिस समय से आप फिर मेरे विषय में मन्द आदर वाले हो जाओगे तब मैं सुखिनी भी अथवा तुरन्त ही अपने देह का त्याग कर दूँगी । हे प्रजापते ! यह वर प्रतिसर्ग में आपको दे दिया है कि मैं आपकी सुता होकर भगवान् हर की प्रिया होऊँगा । हे प्रजापते ! मैं महादेव को उस प्रकार से सम्मोहित करूँगी कि वे प्रतिसर्ग में निराकुल मोह को समाप्त करेंगे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस प्रकार से प्रजापति दक्ष से महामाया ने कहा और इसके उपरान्त वह देवी भली-भाँति दक्ष के देखते-देखते ही वहीं पर अन्तर्हित हो गई थीं। उस महामाया के अन्तर्धान हो जाने पर प्रजापति दक्ष की अपने आश्रम को चले गए और उन्होंने परम आनन्द प्राप्त किया था कि महामाया उनकी पुत्री होकर जन्म धारण करेगी। इसके अनन्तर बिना ही स्त्री के संगम के उन्होंने प्रजा का उत्पादन किया था । संकल्प, अविर्भावों के द्वारा तथा मन से और चिन्तन के द्वारा ही प्रजोत्पादन किया था । हे द्विज श्रेष्ठों ! वहाँ पर उनके बहुत से पुत्र समुत्पन्न हुए और वे सब देवर्षि नारदजी के उपदेश से इस पृथ्वी पर भ्रमण किया करते हैं। उनके बार-बार जो पुत्र उत्पन्न हुए थे वे सभी अपने भाइयों के ही मार्ग पर नारद जी के वचन से चले गये थे ।

हे द्विजोत्तमों! आप लोग सभी पृथ्वी मण्डल में सृष्टि के करने वाले हैं । यही देवर्षि नारद का वाक्य था जिसके द्वारा दक्ष पुत्र प्रेरित किए गए थे । वे आज तक भी इस पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए वहीं वापिस हुए हैं।

इसके अनन्तर मैथुन से समुत्पन्न होने वाली प्रजा का सम्पादन करने के लिए प्रजापति दक्ष ने वीरण की पुत्री के साथ विवाह किया था जो कि परम सुन्दर कन्या थी । हे द्विजसत्तमो ! उसका नाम वीरणी था और अस्किनी यह भी था । उसमें सब प्रजापति का प्रथम संकल्प हुआ । हे द्विजोत्तमो ! उस समय में उसमें सद्योजाता महामाया हुई। उसके जन्म होते ही प्रजापति अत्यन्त प्रसन्न हुआ था । उसको तेज से उज्जवला देखकर उस समय में उसने (दक्ष ) यह वही है, ऐसा मान लिया था । जिस समय में वह समुत्पन्न हुई थी, पुष्पों की वर्षा आकाश से हुई थी और मेघों जल वृष्टि की थी। उस अवसर पर सभी दिशाऐं उसके जन्म धारण करने पर परम शान्त समुद्गत हो गयी थीं। आकाश में गमन करके देवगणों ने परमशुभ वाद्यों को बजाया था । हे नरोत्तमो ! उस सती के समुत्पन्न होने पर शान्त अग्नियाँ भी प्रज्ज्वलित हो गयी थीं । वीरणी के द्वारा लक्षित दक्ष प्रजापति ने उस जगदीश्वरी का दर्शन प्राप्त करके महामाया को परमार्थिक भक्ति की भावना से तोषित किया था ।

कालिका पुराण अध्याय ८  

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- महान् आत्मा वाले दक्ष के द्वारा इस रीति से स्तुति की गयी । जगन्माता उस अवसर पर उसी भाँति दक्ष प्रजापति से बोली जैसे माता सुनती ही नहीं हो । वहाँ पर स्थित सबको सम्मोहित करके जिस तरह से दक्ष वह सुनता है उस प्रकार अन्य माया से नहीं श्रवण करता है उस समय में अम्बिका ने कहा । हे मुनिसत्तम! जिसके लिए पूर्व भी मेरी आराधना की थी वह आपका अभिष्ट कार्य सिद्ध हो गया है।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस प्रकार से कहकर उस समय में देवी ने अपनी माया से दक्ष को समझाया था और फिर वह शैशव भाव में समास्थित होकर जननी के समीप रोदन करने लगी थी। इसके अनन्तर वीरणी ने बड़े ही यत्न से यथोचित रूप से सुसंस्कार करके शिशु के पालन की विधि से उनको स्तन दिया था अर्थात् शगुन का दुग्ध पिलाया था । इसके अनन्तर वीरणी के द्वारा पालित की गयी थी तथा महात्मा दक्ष के द्वारा शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा जिस तरह से प्रतिदिन वृद्धि वाला हुआ करता है उसी भाँति वह बड़ी हो गयी थी । हे द्विज श्रेष्ठों ! उस देवी में सब सद्गुणों ने प्रवेश कर लिया था जिस तरह से चन्द्रमा में शैशव में भी समस्त मनोहर कलायें प्रवेश किया करती हैं।

वह निज भाव से जिस समय में सखियों के मध्य गमन करके रमण करती थी । वह जिस समय में गीतों का गान करती है जो कि बचपन के लिए समुचित थे उस समय से स्मरमानसा वह उग्रस्थाणु, हर और रुद्र इन नामों का स्मरण किया करती थी । हे द्विज सत्तमों! दक्ष प्रजापति ने उस बालिका स्वरूप में स्थित देवी का सतीयह नाम रखा था। जो कि समस्त गुणों के द्वारा सत्व से भी और तप से भी परम प्रशस्ता थी । दक्ष और वीरणी दोनों की प्रतिदिन अनुपम करुणा बढ़ रही थी । उन दोनों दक्ष और वीरणी की करुणा की वृद्धि का कारण यही था कि वह सती बचपन में ही परमभक्ता थी अतएव उन दोनों की बारम्बार नित्य करुणा की वृद्धि हो रही थी । हे नरोत्तमों! वह समस्त परमसुन्दर गुणों से समाक्रान्त थी और सदा ही नवशालिनी थी अतएव उसने (सती ने अपने माता-पिता को परमाधिक सन्तोष दिया था अर्थात् वे अतीव सन्तुष्ट थे । इसके अनन्तर एक बार ऐसी घटना घटित हुई थी कि उस सती को अपने पिता दक्ष के पार्श्व में समय स्थित हुई को ब्रह्मा, नारद इन दोनों ने देखा था जो कि इस भूमण्डल में परम शुभा और रत्न भूता थी ।

वह सती भी उन दोनों का दर्शन प्राप्त करके समुत्पन्न हुई थी और उस समय विनम्रता से अवनत हो गयी थी। इसके अनन्तर उस सती ने देव ब्रह्माजी और देवर्षि ने उसी सती को प्रणाम किया था । प्रणाम करने के अन्त में ब्रह्माजी ने उस सती को विनय से अवनत स्वरूप का दर्शन किया था । तब नारदजी ने उस सती को यह आशीर्वाद कहा था कि जो तुम्हारी प्राप्ति की कामना करता है और जिसको तुम अपना पति बनाने की कामना किया करती हो उन सर्वज्ञ जगदीश्वर देव को अपने पति के स्वरूप में प्राप्त करो। जो अन्य किसी भी नारी को ग्रहण करने वाले नहीं हुए थे और न ग्रहण करते हैं तथा अन्य जाया को ग्रहण करेंगे भी नहीं । हे शुभे ! वही आपके पति होवें, जो अनन्य सदृश हैं अर्थात् जिनके सरीखा अन्य कोई भी नहीं है । इतना कहकर वे दोनों (ब्रह्मा और नारद) फिर दक्ष प्रजापति के आश्रय में स्थित होकर हे द्विजसत्तमो ! उस दक्ष के द्वारा पूजित किए गए थे और वे दोनों अपने स्थान पर चले गए थे ।

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