कालिका पुराण अध्याय ११ || Kalika Puran Adhyay 11 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय ११ में तीनों देवों का एकत्व प्रतिपादन का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ११          

॥ तीनों देवों का एकत्व प्रतिपादन ॥

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- फिर वहाँ पर देवर्षि नारद जी के सहित सभी मानस पुत्र समागत हो गये थे । ये सब ब्रह्माजी के द्वारा किए हुए केवल स्मरण से ही बात के द्वारा विशेष प्रेरित जैसे होवें वैसे ही सब वहाँ उपस्थित हो गए थे । उनके साथ और ब्रह्माजी के साथ में अपने गणों के साथ में लेकर भगवान् शम्भु मोह से संगत होते हुए दक्ष के निवास मन्दिर में गये थे । इसके अनन्तर उनके कर्म के योगी काल के आने पर गणों ने शंख, पट्टह, डिण्डिम, सूर्यवंशी को वादित किया था और आनन्द से युक्त हुए वे सब शंकर का अनुगमन करते हैं । कुछ ताल बजा रहे थे और कोई करतलों के द्वारा अम्रितल की ध्वनि कर रहे थे । वे सब अपने अति वेग वाले विमानों के द्वारा वृषभध्वज का अनुगमन करते हैं। अनेक तरह की आकृतियों वाले गण भारी कोलाहल करते हुए तथा बुरी तरह की ध्वनि को करने वाले शब्दों के योग से ही वहाँ से अर्थात् शिव के आश्रम से निर्गत हुए थे । इसके उपरान्त आनन्द से युक्त देव, गन्धर्व और अप्सराओं के गण वाद्यों के द्वारा मोह को करते हुए तथा नृत्यों से समन्वित हुए वृषभध्वज का अनुगमन कर रहे थे । हे विपेन्द्रों ! गन्धर्वों तथा गणों के उस शब्द से सब दिशायें तथा समस्त वसुन्धरा परिपूरति हो गए थे अर्थात् वह ध्वनि सर्वत्र फैलकर भर गई थी ।

कामदेव भी अपने गणों के सहित श्रृंगार रस आदि के साथ काम को मोहित करता हुआ अनुगत हुआ था । भार्या के लिए भगवान् हर गमन करने पर उस समय में समस्त सुर ब्रह्मा आदि स्वयं ही मनोहर शब्द कर रहे थे । हे द्विजश्रेष्ठों! सभी दिशायें सुप्रसन्न हुई थीं । परम शान्त अग्नियाँ प्रज्वलित हो गयी थीं और आकाश से पुष्पों से समन्वित हो गए थे । जो कोई अस्वस्थ भी थे वे भी सभी प्राणी स्वस्थ हो गये थे । हंस और सारसों के समुदाय नील कम्बु और चकोर ईश्वर की प्रेरणा करते हुए के ही समान परम मधुर शब्दों को कर रहे थे । शिवजी को भुजंग (सर्प), बाघम्बर, जटाजूट, चन्द्रकला भूषणता को प्राप्त हुए थे वह इन भूषणों से भी अधिक दीप्त हो रहे थे। इसके अनन्तर एक क्षण में बलवान् और वेग वाले बलीवर्द (बैल) के द्वारा ब्रह्मा और नारद आदि के सहित शिव दक्ष के निवास स्थान पर पहुँच गए थे ।

इसके उपरान्त महान तेजस्वी प्रजापति दक्ष ने स्वयं शिव का स्वागत करके ब्रह्मा आदिक के लिए उनके लिए जैसे भी उचित थे, आसन दिए थे। उसी भाँति अर्घ्य, पाद्य आदि से उन सबकी समुचित पूजा करके जैसी भी योग्य थी फिर दक्ष मानस मुनियों के साथ संविद किया था । हे द्विजसत्तमों! इसके उपरान्त शुभमुहूर्त्त और लग्न में प्रजापति दक्ष ने बड़े ही हर्ष से अपनी पुत्री सती को शम्भु भगवान् के लिए प्रदान किया था । शम्भु ने भी सभी विधि से हर्षित होकर सती का परिग्रहण किया था। वृषभध्वज ने परम श्रेष्ठ तनु वाली दाक्षायणी से उस समय में पाणि का ग्रहण किया । ब्रह्मा और नारद आदि मुनियों ने सामवेद की गीतियों से ऋचाओं से तथा सुश्राव्य यजुर्वेद के मन्त्रों से ईश्वर को तोषित किया था । सब गणों ने वाद्यों का वादन किया था और अप्सराओं के गणों ने नृत्य किया था । आकाश में संगत मेघ ने पुष्पों की वृष्टि की थी। इसके अनन्तर भगवान् गरुड़ध्वज कमला (लक्ष्मी) के साथ में अत्यन्त वेग वाले गरुड़ द्वारा भगवान् शम्भु के समीप उपस्थित होकर यह वचन बोले थे ।

श्री भगवान् ने कहा- हे हर ! जिस प्रकार से लक्ष्मी के साथ से मैं शोभायमान होता हूँ ठीक उसी भाँति स्त्रिग्ध नील अंजन के समान श्वास शोभा से समन्वित दाक्षायणी के साथ आप शोभा को प्राप्त हो रहे हैं । आप इसी सती के साथ में विराजमान होकर देवों की अथवा मानवों की रक्षा करो। इस सती के साथ संसार वालों का सदा मंगल करो । हे शंकर! यथायोग्य दस्युओं का हनन करेगा। अभिलाषा के सहित जो भी इसको देखकर अथवा श्रवण करेगा । हे भूतेश ! उसका हनन करोगे इसमें कुछ भी विचारणा नहीं है अर्थात् इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे द्विजो ! प्रीति से प्रसन्न मुख वाले सर्वज्ञ प्रभु ने प्रसन्न मन वाले परमेश्वर से ऐसा ही होवेयह कहा था । इसके अनन्तर उस समय से ब्रह्माजी ने चारु (सुन्दर ) हास वाली दक्ष की पुत्री सती का दर्शन करके कामदेव से आविष्टा मन वाले होते हुए उसके मुख को देखने लगे थे। उस समय ब्रह्माजी ने बारम्बार सती के मुख का अवलोकन किया था और फिर अवश होते हुए उस समय में इन्द्रियों के विकार को प्राप्त हुए थे ।

हे द्विजोत्तम! इसके अनन्तर उनका तेज शीघ्र ही भूमि पर गिर गया था जो कि मुनि के आगे उस समय में वह जल दहन की आभा वाला था। हे द्विजसत्तमों! इसके उपरान्त उससे मेघ शब्द से संयुत हो गए थे।

अब उन सुसज्जित मेघों के नाम बतलाए जाते हैं- सम्वर्त्त, अव, पुष्कर और द्रोण । वे गर्जना करते हुए और जलों को मोचित करने वाले थे । उन मेघों के द्वारा आकाश के संच्छादित हो जाने पर अर्थात् सर्व आकाश मेघों के द्वारा घिरा हुआ हो जाने पर भगवान् शंकर कामवासना से मोहित होते हुए दाक्षायणी देवी को अतीव देखते हुए कामदेव के द्वारा मोहित हुए । इसके उपरान्त उस समय में भगवान् विष्णु के वचन का स्मरण करते हुए शंकर ने शूल को उठाकर ब्रह्माजी का हनन करने की इच्छा की थी । हे द्विजोत्तमों ! शम्भु के द्वारा ब्रह्माजी को मारने के लिए त्रिशूल के उद्यमित करने पर अर्थात् उठाये जाने पर मरीचि और नारद आदि सब उस समय में हाहाकार करने लगे थे । प्रजापति दक्ष ऐसा मत करो, ऐसा मत करो, कह कहते हुए शंकित होते हाथ को उठाकर शीघ्र ही आगे समागत होकर भूतेश्वर प्रभु को निवारित किया था । इसके उपरान्त उस समय में महेश्वर ने दक्ष को मलिन देखकर भगवान् विष्णु की वाणी को स्मरण कराते हुए यह प्रिय वचन बोला था ।

ईश्वर ने कहा- हे विपेन्द्र ! नारायण ने जो इस समय में कहा था, हे प्रजापते ! वह यहाँ पर ही मैंने भी अंगीकार किया था। जो भी इस सती को कामवासना की अभिलाषा से युक्त होते हुए देखता है उसको आप मार डालेंगे। मैं इस वचन को इसका हनन करे सफल करता हूँ । ब्रह्माजी ने अभिलाषा अर्थात् कामवासना की इच्छा से समन्वित होकर क्यों सती का अवलोकन किया था। वह तेज के त्याग करने वाले हो गये थे इसी से उसका हनन मैं करता हूँ क्योंकि वे अपराध (पाप) करने वाले हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-इस रीति से बोलने वाले उनके आगे स्थित होकर भगवान् विष्णु ने बड़ी शीघ्रता की थी। समस्त जगत के प्रभु ने उनको मारने का निवारण करते हुए यह वचन कहा था।

श्री भगवान् ने कहा- हे भूतेश्वर ! जगतों के सृजन करने वाले और परमश्रेष्ठ ब्रह्माजी का हनन नहीं करोगे क्योंकि इन्होंने ही आपको भार्या के लिए सती को परिकल्पित किया था । हे शम्भो ! यह चतुर्मुख ( ब्रह्माजी ) प्रजाओं के सृजन करने के लिए प्रादुर्भूत हुए थे । इनके मारे जाने पर जगत का सृजन करने वाला अन्य कोई अब प्राकृत नहीं है । फिर हम किस तरह से सृजन, पालन और संहार के कर्मों को करेंगे क्योंकि इनके द्वारा वह मेरे आपके द्वारा ही सामञ्जस्य से ये कर्म हुआ करते हैं। एक के निहित हो जाने पर इनमें कौन हैं जो उस कर्म को करेगा । हे वृषभध्वज ! इस कारण से आपके द्वारा विधाता वध करने के योग्य नहीं है।

ईश्वर ने कहा- मैं इन चतुरानन ब्रह्मा को मारकर अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करूँगा । बाकी रही प्रजा सृजन की बात सो मैं अकेला ही प्रजाओं का जो भी स्थावर और जंगम हैं सृजन कर दूँगा। मैं अन्य विधाता का सृजन कर दूँगा अथवा मैं ही अपने तेज से कर दूँगा और मेरे द्वारा निर्मित एवं सृजित विधाता सृष्टि के करने वाले होंगे जो सर्वदा मेरी अनुज्ञा से ही करेगा। वे विभो ! मैं ही उसको मारकर अर्थात् ब्रह्मा का वध करके अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए हे चतुर्भुज ! एक सृजन करने वाले का सृजन करूँगा । आप मुझे वारित न करिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- भगवान् चतुर्भुज ने गिरीश के इस वचन का श्रवण करके मन्द मुस्कान से युक्त प्रसन्न मुख वाले होते हुए फिर भी ऐसा मत करो‘ – यह कहते हुए बोले की प्रतिज्ञा की पूर्ति आत्मा में करना योग्य नहीं होता है। हे द्विजोत्तमों! ईश्वर के मुख के सामने ही विष्णु ने कहा था । इसके उपरान्त शिव ने कहा था कि मेरे शम्भु रूप से ब्रह्मा मेरी आत्मा किस तरह से हैं । यह तो प्रत्यक्ष रूप से आगे स्थित होते हुए भिन्न ही दिखलाई दे रहे हैं। इसके अनन्तर उस समय मुनियों के सामने भगवान् ने हँसकर गरुड़ध्वज ने महादेव को दोष देते हुए कहा था ।

श्री भगवान् ने कहा-ब्रह्माजी आपसे भिन्न नहीं हैं और न शम्भु ही ब्रह्माजी से भिन्न हैं और दोनों से मैं भी भिन्न नहीं हूँ। यह हम तीनों की अभिन्नता तो सनातन अर्थात् सदा से ही चली आने वाली है। भाग अभाग स्वरूप वाले प्रधान और अप्रधान का ज्योतिर्मय का मेरा भाग आप दोनों हैं और मैं अशंक हूँ। कौन तो आप हैं, कौन मैं हूँ, कौन ब्रह्मा हैं वे तीनों ही परमात्मा मेरे ही अंश हैं । सृजन, पालन और संहार के कारण ये भिन्न होते हैं। आप अपनी आत्मा में ही संस्तव करो । ब्रह्मा, विष्णु और शम्भु को एकत्रित हुए हृदयत करो। जिस तरह एक ही धर्मी के शिर, ग्रीवा आदि के भेद से अंग होते हैं। हे हर ! ठीक उसी भाँति मेरे एक के ही ये तीनों भाग हैं। जो ज्योति सबसे उत्तम है, जो अपने और पराये प्रकाश रूप हैं, कूटस्थ, अव्यक्त और अनन्त रूप से युक्त हैं और नित्य हैं तथा दीर्घ आदि विशेषणों से हीन तथा वह पर है उसी रीति से हम तीनों अभिन्न हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उन भगवान् के इस वचन को श्रवण करके महादेव विमोहित हो गये थे । वह अभिन्नता का ज्ञान रखते हुए भी अन्य चिन्तन से सदा ही विस्मृति होने से ही उनको अभिन्नता का ज्ञान नहीं हो रहा था । उन्होंने फिर भी गोविन्द से त्रिभेदियों की अभिन्नता को पूछा था। ब्रह्मा, विष्णु और त्र्यम्बकों का और एक का विशेषक को पूछा। इसके अनन्तर पूछे गए नारायण ने शम्भु से कहा था और तीनों देवों का अनन्यता और एकता को प्रदर्शित किया था । इसके उपरान्त विष्णु भगवान् के मुख कमल से कोश से अनन्यता का श्रवण करके तथा विष्णु-विधि और ईश के तत्व में स्वरूप को देखकर मृड (शिव) ने पुष्प, मधु से प्रकाश विधाता इसको नहीं मारा था ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे त्रीदेव:एकत्वनाम दसमोऽध्यायः ॥ ११ ॥

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