कालिका पुराण अध्याय ७ || Kalika Puran Adhyay 7 Chapter

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कालिका पुराण अध्याय ७ में मदन वाक्य का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ७      

मदन वाक्य वर्णन

मार्कण्डेय मुनि ने कहा – इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने महामाया के स्वरूप का प्रतिपादन करके महादेव से फिर कहा था कि वह भगवान् शंकर के सम्मोहन करने में युक्ता हैं।

ब्रह्माजी ने कहा- विष्णुमाया ने पहले ही यह स्वीकार कर लिया है जैसे महादेव दारा का परिग्रहण करेंगे। वह ऐसा करना अंगीकार कर चुकी हैं । हे कामदेव ! उन्होंने स्वयं ही ऐसा कहा था कि वह अवश्य ही प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म धारण करके महात्मा शम्भु की द्वितीया अर्थात् पत्नी रति और अपने सखा बसन्त के साथ मिलकर वैसा ही कर्म करो जिससे भगवान् शम्भु दारा को ग्रहण करने की इच्छा कर लेवें । भगवान् शंकर के द्वारा दारा के ग्रहण किए जाने पर हम कृत-कृत्य अर्थात् सफल हो जायेंगे और फिर यह सृष्टि अविच्छिन्न अर्थात् बीच में न टूटने वाली हो जायेगी।

श्री मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे द्विजश्रेष्ठो! कामदेव ने लोकों के ईश ब्रह्माजी से उसी भाँति मधुरतापूर्वक कहा जो भी कुछ महादेवजी को मोहित करने के लिए उसने किया था ।

कामदेव ने कहा- हे ब्रह्माजी ! आप अब श्रवण कीजिए जो भी कुछ हमारे द्वारा महादेव जी के मोहन करने में किया जा रहा है उनके परोक्ष में अथवा प्रत्यक्ष में जो भी किया जा रहा है उसे बतलाते हुए मुझसे आप श्रवण कीजिए। इन्द्रियों को जीत लेने वाले भगवान् शम्भु ज्योंही जिस समय समाधि का समाश्रय ग्रहण करके स्थित हुए थे उसी समय विशुद्ध वेग वाले अर्थात् सुमन्द और सुगन्धित तथा शीतल वायु के द्वारा हे लोकेश ! जो कि नित्य ही मोहन के करने वाली हैं उनसे उन शम्भु को विजित करूँगा कि अपने शरासन का ग्रहण करके अपने बाणों का मैं उनके गणों को मोहित करते हुए उनके समीप में भ्रमित करूंगा। मैं वहाँ पर सिद्धों के द्वन्द्वों को अहर्निश रमण कराता हूँ और निश्चय ही हाव और भाव सब प्रवेश किया करते हैं । हे पितामह ! यदि शम्भु के समीप में प्रविष्ट होने पर कौन सा प्राणी बारम्बार वहाँ पर भाव को नहीं किया करता है। मेरे केवल प्रवेश के होने ही से सभी जीव-जन्तु उस प्रकार का गमन करते हैं तो उसी समय में मैं वहीं पर हे ब्रह्माजी ! अपनी पत्नी रति और मित्र वसन्त के साथ चला जाऊँगा । यदि यह मेरु पर चले जाते हैं अथवा जिस समय तारकेश्वर में पहुँच जाते हैं या कैलाश गिरि पर गमन करते हैं तो उस समय में मैं भी वहीं पर चला जाऊँगा।

जिस अवसर पर भगवान् हर अपनी समाधि का परित्याग करके एक क्षण को भी स्थित होते हैं तो फिर मैं उनके ही आगे चक्रवाक के दम्पत्ति को योजित कर दूँगा । हे ब्रह्माजी ! वह चक्रवाक का जोड़ा बार-बार हाव-भाव से संयुत अनेक प्रकार के भाव से उत्तम दाम्पत्य के क्रम को करेगा। उनके आगे फिर जाया के सहित नीलकण्ठों को भी समीप ही में हैं सम्मोहित करूंगा और समीप ही मृगों तथा अन्य पक्षियों को भी मोहयुक्त कर डालूँगा । यह सब जिस समय में एक अति अद्भुत भाव को देखकर कौन-सा प्राणी है जो उस समय में उत्सुकता से रहित बना रहे अर्थात् कोई भी चेतना ऐसा नहीं है जिसे उत्सुकता न हो और उनके ही आगे मृग अपनी प्रणयिनियों के साथ उत्सुकता वाले हो जाते हैं! और उनके पार्श्व में तथा समीप में अतीव रुचिर भाव कहते हैं तो मेरा शर कदाचित् भी इसके विवर को नहीं देखता है । जिस मय में वह देह से गिराया जाता है जो कि मेरे ही द्वारा फेंका जाया करता है। आप तो सभी लोकों के धारण करने वाले हैं अर्थात् यह सभी कुछ का ज्ञान रखते हैं । प्रायः यह निश्चित ही ज्ञात होना चाहिए कि रामा के संग के बिना हर का मैं सहसाय भी निष्फल सम्मोहित करने के लिए समर्थ एवं पर्याप्त हूँ और यह सफल ही है ।

मेरा मित्र मधु अर्थात् बसन्त तो जो-जो भी उसके विमोहन की क्रिया करने में कर्म होंगे वह किया ही करता है । हे महाभाग ! जो नित्य ही उसके लिए उचित है उसका पुनः आप श्रवण कीजिए । जहाँ पर भी भगवान् शंकर स्थित होकर रहेंगे वहीं पर मेरा मित्र वह वसन्त चम्पकों, केशरों, आम्रों, वरुणों, पाटलों, नाग, केसर, मुन्नागों, किंशुकों, धनों, माधवी, मल्लिका, पर्णधारों, कुवरकों इन सबको वह विकसित कर दिया करता है । समस्त सरोवर ऐसे कर देता है कि उसमें कमल पूर्ण विकसित हो जाया करते हैं और वह मलय की ओर से आवाहन करने वाली परमाधिक सुगन्धित वायु में वीक्षन करते हुए यत्नपूर्वक भगवान् शंकर आश्रम को सुगन्धित कर दे। समस्त वृक्षों का समुदाय विकसित हो जायेगा। वे लतायें परम रुचिर भाव से दाम्पत्य को प्रकट करती हुई वहाँ पदमेक्षों को विष्टित करेंगे अर्थात् वृक्षों से लिपट जायेंगे । पुष्पों वाले उन वृक्षों को उन सुगन्धित समीरणों से संयुत देखकर वहाँ पर मुनि भी कामकला के वश में हो जाया करते हैं जो अपनी इन्द्रियों का दमन किए हुए हैं । हे लोकों के स्वामिन् अनेक परम शोभन भावों के द्वारा अनेक गण, सुर और सिद्ध तथा परम तपस्वी गण भी जो-जो दमनशील हैं वे सभी वश में आ जाया करते हैं ।

उनके आगे हमने मोह का कोई भी कारण नहीं देखा है । भगवान् शंकर तो काम से उत्थित भाव को भी नहीं किया करते हैं । यह सभी कुछ मैंने देखकर और भगवान् शंकर की भावना का ज्ञान प्राप्त करके मैं तो शम्भु को मोहित करने की क्रिया से विमुख हो गया हूँ । यह नियत ही है कि बिना माया के यह कार्य कभी भी नहीं हो सकता है । इतना तो मैं सब कुछ कर चुका हूँ किन्तु शम्भु के मोहन के कार्य में मैं विफल ही रहा हूँ किन्तु पुनः आपके वचनादेश को श्रवण करके जो योगनिद्रा के द्वारा उदित है । उस योगनिद्रा का प्रभाव सुनकर तथा गणों सहित देखकर मेरे द्वारा शंकर के विमोहन करने के लिए फिर एक बार उद्यम किया जाता है। कृपा करके हे त्रिलोकेश ! योगनिद्रा को पुनः शीघ्र ही जिस प्रकार से शम्भु की जाया (पत्नी) हो जावें वैसा ही कीजिए । शम्भु के यम-नियम और नित्य ही होने वाले प्राणायाम तथा महेश के आसन और गोचर में प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि में विघ्नों को सम्भव होना मैं तो यह मानता हूँ कि मैं तो क्या मुझ जैसे सैकड़ों के द्वारा भी नहीं किया जा सकता है । तो भी यह कामदेव के गण भगवान् शंकर के यम नियमादि उपर्युक्त अंगों के विकाररूपी विघ्न करे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने भी पुनः कामदेव से यह वचन कहा था । हे तपोधने ! ब्रह्माजी ने योगनिद्रा के वाक्य का स्मरण करके और निश्चय करके ही यह कहा था ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे मदनवाक्यवर्णननाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

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