कालिका पुराण अध्याय ९ || Kalika Puran Adhyay 9 Chapter, कालिकापुराण नवाँ अध्याय

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कालिका पुराण अध्याय ९ में श्री हरि द्वारा शिव का अनुनयन का वर्णन है।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ९        

॥ श्री हरि द्वारा शिव का अनुनयन ॥

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा-सती देवी अपना बचपन व्यतीत करके फिर परमाधिक शोभन यौवन को प्राप्त हो गई थी और अत्यधिक रूप लावण्य से सुसम्पन्न वह समस्त अंगों के द्वारा सुमनोहर अर्थात् बहुत ही अधिक मन को हरण करने वाली सुन्दरी थी । दक्ष प्रजापति ने जो लोकों का ईश था उस सती को देखा कि वह यौवन से सुसम्पन्न पूर्ण युवती हो गई हैं । तब उसने यह चिन्ता की थी कि इस सती भी प्रतिदिन स्वयं ही भगवान् शम्भु को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाली हो गयी थी । उस सती ने अपनी माता की आज्ञा से भगवान् शम्भु की आराधना की थी जो अपने घर में स्थित होकर की गयी थी। आश्विन मास में नन्दाकाख्या में गुड़ और ओदन से सहित लवणों से हर का योजन करके इसके पश्चात् उसने वन्दना की थी। कार्तिक मास की चतुर्दशी तिथि में पुओं के सति प्रपायसों (खीर) से जो समाकीर्ण थे भगवान् हर समाराधना करके फिर परमेश्वर प्रभु शम्भु का स्मरण किया था। मार्गशीर्ष मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि में तिलों के सहित यव और ओदनों से भगवान् हर का पूजन करके फिर नीलों के द्वारा दिवस को व्यतीत करती । पौष मास में कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि के दिन में रात्रि में जागरण करके प्रातः काल में शिव का उस सती ने कृसरान्न द्वारा यजन किया था ।

माघ मास की पूर्णमासी में रात्रि में जागरण करके गीले वस्त्र धारण करती हुई नदी के तट पर भगवान् हर का पूजन करती थी । उस पूरे मास में भगवान् शम्भु में नियत मन वाली ने नियत आहार किया था जो अनेक प्रकार के फलों और पुष्पों से ही किया गया था जो भी उस काल में समुत्पन्न होने वाले थे। माघ मास में विशेष रूप से कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में रात्रि जागरण करके देव का विल्व पत्रों के द्वारा यजन किया करती थी । चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी में पलाश के पुष्पों से भगवान् शिव की पूजा की थी और दिन तथा रात में उनका स्मरण करते हुए समय को व्यतीत किया था । वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन में यवों के सहित ओदनों के द्वारा देव शम्भु का यजन करके द्रव्यों पूरे मास अनचरण किया करती थी । वृषवाहन प्रभु का स्मरण करती हुई उस सती ने निराहार रहकर ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा तिथि में वृषवाहन देव का यजन करके वसनों से और पुष्पों के द्वारा उसको पूर्ण किया था । आषाढमास की चतुर्दशी तिथि में जो कि शुक्ल पक्ष की थी कृतिवासा देव का वृहती के पुष्पों के द्वारा यजन करके उसने उसी भाँति पूजन किया था ।

श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन और चतुर्दशी में उसने पवित्र यज्ञोपवीतों तथा वस्त्रों के द्वारा देव का पूजन किया था । भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में नाना भाँति के फल तथा पुष्पों के द्वारा भली-भाँति देव का भजन करके चतुर्दशी में जल का ही भोजन किया था।

इस प्रकार से जो पूर्व में व्रत सती ने आरम्भ किया था उसी समय में सावित्री के सहित ब्रह्माजी भगवान् शम्भु के समीप हुए थे । भगवान् वासुदेव भी अपनी लक्ष्मी देवी के सहित उनके सन्निधि में गए थे। जहाँ पर भगवान् शम्भु हिमालय गिरि के प्रस्थ पर अपने गणों के सहित विराजमान थे । भगवान् शम्भु के उन दोनों ब्राह्मणों की ओर भगवान् कृष्ण को देखकर जो अपनी पत्नियों के साथ संगत हुए वहाँ पर प्राप्त हुए थे जैसा भी समुचित शिष्टाचार था उसी के अनुसार उनसे सम्भाषण करके उनके यहाँ पर समागमन का कारण शंकर प्रभु ने पूछा था। इस प्रकार से उन दोनों का दर्शन करके जो दाम्पत्य भाव से संगत थे, शम्भु ने भी दारा से परिग्रहण करने की इच्छा मन में की थी। इसके उपरान्त तात्विक रूप से अपने आगमन का कारण पूछा कि आप लोग यहाँ पर किस प्रयोजन को सुसम्पादित किए जाने के लिए समागत हुए हैं और आपका यहाँ पर क्या कार्य हैं ? इसी रीति से भगवान् शम्भु के द्वारा पूछे गए वे दोनों में से लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने भगवान् विष्णु के द्वारा प्रेरित होकर महादेव जी से कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे त्रिलोचन ! जिस कार्य के सम्पादन कराने के लिए यहाँ पर हम दोनों ही आये हैं उसका अब आप श्रवण कीजिए । हे वृषभध्वज ! विशेष रूप से तो हम दोनों का आगमन देव अर्थात् आपके ही लिए है और सम्पूर्ण विश्व के लिए भी है । हे शम्भो ! मैं तो केवल सृजन करने के ही कार्य में निरत रहता हूँ और यह भगवान् हरि उस सृष्टि के पालन करने के कार्य संलग्न में रहा करते हैं और आप इस सृष्टि का संहार करने में रत हुआ करते हैं यही प्रतिसर्ग में जगत् का कार्य होता रहता है । उस कर्म में सदैव मैं आप दोनों के सहित समर्थ हूँ। यह हरि मेरे और आपके सहयोग के बिना समर्थन नहीं होते हैं । आप संहार करने में हम दोनों के सहयोग के बिना समर्थ नहीं होते हैं । इस कारण हे वृषभध्वज ! परस्पर के कृत्यों में सभी की सहायता आवश्यक है । हमारी सहायता सदा योग्य ही है अन्यथा यह जगत् नहीं होता है। कुछ ऐसे हैं आपके वीर्य से समुत्पन्न होने वाले के द्वारा वध के योग्य हैं और मेरे अंश से समुत्पन्न के द्वारा वध के लायक होते हैं। दूसरे ऐसे हैं जो माया के द्वारा देवों के बैरी असुर वध के योग्य होते हैं ।

आप तो जब योग से मुक्त होते हैं और राग-द्वेष से मुक्त हैं तथा केवल प्राणियों पर ही दया करने में निरत रहा करते हैं तो आपके द्वारा असुर वध करने के योग्य नहीं हो सकते हैं । हे ईश ! उनके अबाधित रहने पर यह सृष्टि और स्थिति कैसे संभव हो सकते हैं ? हे हर ! जब सृजन, पालन और संहार के कर्म न करने योग्य होंगे तब हमारा शरीर भेद और माया का भी युक्त नहीं होता है। वैसे हम सब एक ही स्वरूप वाले हैं अर्थात् तात्पर्य यह है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर इन तीनों का एक ही शक्ति स्वरूप हैं। हम सब कार्यों के विभिन्न होने ही से भिन्न रूप वाले होते हैं । यदि कार्यों का भेद सिद्ध नहीं होता है तो यह रूपों का भेद भी प्रयोजन से रहित ही है। वैसे एक ही तीनों रूपों में होकर हम विभिन्न स्वरूप वाले होते हे महेश्वर ! यह सनातन अर्थात् सदा से चला आया तत्व है इसको जान लीजिए। यह माया भी भिन्न रूपों से कमला नाम वाली अर्थात् महालक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री तथा सन्ध्या कार्यों के भेद से ही भिन्न हुई हैं। हे महेश्वर ! अनुराग की प्रवृति का मूल नारी ही है। रामा के परिग्रह से ही पीछे काम, क्रोध आदि का उद्भव (जन्म) होता है ।

काम क्रोध आदि के कारणस्वरूप अनुराग के होने पर यहाँ पर जन्तुगण विराग के हेतु का यत्नपूर्वक सान्त्वन किया करते हैं । अनुराग के वृक्ष से संग ही सर्वप्रथम महान् फल होता है । उसी संग से काम की समुत्पत्ति हुआ करती है । काम से क्रोध उत्पन्न होता है । स्वाभाविक ज्ञान से ही वैराग्य और निवृत्ति होती है । संसार की विमुखता से सनातन हेतु असंग ही होती है। हे महेश्वर ! यहाँ पर दया नित्य ही हुआ करती हैं अर्थात् जो संसार से विमुख हैं उसमें नित्य ही दया का होना आवश्यक है और दया के साथ-साथ शान्ति भी होती है। अहिंसा और तप, शान्ति ज्ञानमार्ग का अनुसाधन है । आपके तपोनिष्ठ, विसंगी अर्थात् संगरहित तथा दया से संयुत होने पर अहिंसा तथा शान्ति आपको सदा ही होगी। इसके न करने पर जो-जो दोष हैं वे सभी आपको बतला दिए गए हैं। हे जगत्पते! इस कारण से आप विश्व के और देवों के हित के लिए भार्यार्थ में एक परमशोभना वामा का परिग्रहण करें । जिस प्रकार से लक्ष्मी भगवान् विष्णु की पत्नी है और सावित्री मेरी पत्नी है उसी भाँति शम्भु की जो सहचारिणी होवे उसका ही आप परिग्रहण कीजिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस तरह से हर के आगे ब्रह्माजी के वचन का श्रवण कर मन्द मुस्कराहट के सहित मुख वाले हरि ने उस समय में लोकों के ईश ब्रह्माजी से कहा ।

ईश्वर ने कहा- जो आपने कहा है वह इसी प्रकार से तथ्य है । ब्रह्माजी ! यह विश्व के ही निमित्त से होना ही चाहिए किन्तु स्वार्थ से भली-भाँति ब्रह्मा के चिन्तन करने मेरी प्रवृत्ति नहीं होती है । तो भी वह मैं करूंगा जो जगत् की भलाई के लिए आप कहेंगे । सो हे महाभाग ! आप श्रवण कीजिए। जो मेरे तेज को सहन करने में भागशः समर्थ हो यहाँ पर भार्या के ग्रहण करने में उसी को आप बतलाइये जो योगिनी और कामरूपिणी दोनों ही होवे । जब मैं योग में युक्त होऊँ उस अवसर पर उसी भाँति वह भी योगिनी हो जावेगी और जिस समय में कामवासना में आसक्त होऊँ तो उस अवसर पर वह मोहिनी ही होवेगी । हे ब्रह्माजी ! भार्या के लिए उसी को आप बतलाइए जो वरवर्णिनी होवे । वेदों के ज्ञाता महामनीषीगण जो अक्षर को जानते हैं अर्थात् जिस अक्षर का ज्ञान रखते हैं उसी परमज्योति के स्वरूप वाले को जो सनातन है मैं चिन्तन करूँगा ।

हे ब्रह्माजी ! मैं उसी की चिन्ता में सदा आसक्त होता हुआ भावना को गमन किया करता हूँ अर्थात् भावना में निमग्न हो जाता हूँ । उस भावना में जो विघ्न डालने वाली हो वह मेरी होने वाली वाम न होवे । हे महाभाग ! आप अथवा विष्णु भगवान् या मैं भी सब पर ब्रह्मा के रूप वाले हैं और एक दूसरे के अंगभूत हैं । जो योग्य हो उसका ही अनुचिन्तन करो। हे कमलासन ! उसकी चिन्ता के बिना मैं स्थित नहीं रहूँगा उस कारण से ऐसी ही जाया को बतलाइए जो सदा मेरे कर्म के ही अनुगत रहने वाली होवे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- सम्पूर्ण जगतों के स्वामी ब्रह्माजी ने यह उनके वचन का श्रवण कर स्थिति के सहित प्रसन्न मन वाले ने यह वचन कहा था।

ब्रह्माजी ने कहा- हे महादेव ! जैसी आपने वर्णित की है वैसी ही एक है जो प्रजापति दक्ष की तनया (पुत्री) हुई है जिसका नाम सतीहै और वह परम शोभना है । वह ऐसी सुधीमती आपकी भार्या होगी। उसी को जो आपको पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कामिनी है । उसको आप जान लीजिए। हे देवेश्वर! आप तो सभी आत्माओं में वर्तमान रहने वाले हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा – इनके अनन्तर ब्रह्माजी के वचन के उपरान्त भगवान् मधुसूदन ने कहा कि जो कुछ भी ब्रह्माजी ने कहा है वह सब आप करिए। उन शंकर प्रभु के द्वारा मैं वही करूंगा‘, ऐसा कहने पर वे दोनों (ब्रह्मा और विष्णु ) अपने-अपने आश्रमों को चले गए थे। ब्रह्माजी और हरि भगवान् बहुत ही प्रसन्न हुए जो कि सावित्री और कमला से संयुत थे । कामदेव भी महादेव जी के वचन का श्रवण करके अपने मित्र (बसन्त) के सहित और पत्नी रति के साथ आमोद से युक्त हो गया था । उसने विविक्त रूप वाला होकर शम्भु को प्राप्त कर निरन्तर बसन्त को विनियोजित कर वहीं पर स्थित हो गया ।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

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