लक्ष्मी चरित्र Laxmi Charitra लक्ष्मी चरित्रम्

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तन्त्र श्रृंखला में श्रीविष्णुपुराण और सौभाग्यलक्ष्मीतन्त्र के प्रथम अध्याय में यह लक्ष्मी चरित्र का वर्णन है जिसमे कि- लक्ष्मी का आवास स्थल, लक्ष्मी के लिए वर्जनीय स्थल, लक्ष्मी के प्रिय के लिए वर्जनीय तथा लक्ष्मी के प्रिय व्यक्ति के लिए परिवर्जनीय को बताया गया है।

|| लक्ष्मी चरित्रम् ||

प्रथमोऽध्यायः

॥श्रीः॥

अथ सौभाग्यलक्ष्मीतन्त्रम्

शुक उवाच-

मेरुपृष्ठे सुखासीनां लक्ष्मीं पप्रच्छ केशवः ।

केनोपायेन देवि त्वं नृणां भवसि निश्चला ॥1 ॥

शुकदेव ने कहा- भगवान केशव (विष्णु) ने सुमेरु पर्वत पर सुख के साथ अवस्थिता लक्ष्मीदेवी से जिज्ञासा किया हे देवि ! किस उपाय से (= उपाय के अवलम्बन करने से) आप मनुष्यों के निकट स्थिर होकर अवस्थान करती हैं ।। 1 ।।

शुक्लाः पारावता यत्र गोहिनी यत्र चोज्ज्वला ।

अकलहा स्थिता यत्र तत्र कृष्ण वसाभ्यहम् ॥2 ॥

लक्ष्मी देवी ने कहा- हे कृष्ण ! जहाँ पर सफेद कबूतर रहते हैं एवं जहाँ पर गृहिणी रूपवती एवं कलह-शून्या बनकर विद्यमान रहती है, वहीं पर मैं निवास करती हूँ ।।2।।

धान्यं सुवर्णसदृशं तण्डुलं रजतोपमम् ।

अन्नं चैवातुषं यत्र तत्र कृष्ण वसाम्यहम् ॥3॥

हे कृष्ण ! जहाँ पर सुवर्ण-सदृश वर्ण – विशिष्ट धान्य, रजत के वर्ण- सदृश वर्ण-विशिष्ट चावल एवं तुषहीन अन्न (= पक्वान्न) विद्यमान रहता है, मैं वहीं पर निवास करती हूँ ।।3।।

यः सद्विभागी प्रियवाक्यभाषी वृद्धोपसेवी प्रियदर्शनश्च ।

अल्पप्रलापी न च दीर्घसूत्री तस्मिन् सदाहं पुरुषे वसामि ॥4॥

हे कृष्ण ! जो पुरुष सत् पात्र में अन्नादि का दान करते हैं, प्रिय वाक्य बोलते हैं, ज्ञानियों की सेवा करते हैं, अल्पभावी हैं, फिर भी दीर्घसूत्री (= जो स्वल्प समय लेने वाले कार्य को बहुत समय में पूरा करते हैं) नहीं हैं, मैं वैसे (पुरुष के निकट) सर्वदा निवास करती हूँ ।।4।।

यो धर्मशीलो विजितेन्द्रियश्च विद्याविनीतो न परोपतापी ।

अगर्वितो यश्च जनानुरागी तस्मिन् सदाहं पुरुषे वसामि ॥5॥

जो धार्मिक, जितेन्द्रिय तथा विद्या वश विनीत हैं, दूसरे को क्लेश-प्रदान नहीं करते हैं, गर्वशून्य हैं, देश के लोगों के प्रति अनुराग सम्पन्न हैं, उस पुरुष में (= उस पुरुष के निकट ) मैं सर्वदा निवास करती हूँ ।।5।।

चिरं स्नाति द्रुतं भुङ्क्ते पुष्पं प्राप्य न जिघ्रति ।

यो न पश्येत् स्त्रिय नग्नां नियतं स च मे प्रियः ॥6॥

जो मनुष्य स्नान में अधिक समय तथा भोजन में अल्प समय व्यय करते हैं, पुष्प को प्राप्त कर उसका आघ्राण नहीं लेते एवं जो नग्ना स्त्री का दर्शन नहीं करते हैं, वह (मनुष्य) सर्वदा मेरे प्रिय हैं।।6।।

त्यागः सत्यञ्च शौचञ्च त्रयमिति महागुणाः ।

यः प्राप्नोति गुणानेतान् श्रद्धावान् स च मे प्रियः ॥ 7 ॥

त्याग, सत्य एवं शौच – ये तीन महान् गुण हैं । जो श्रद्धाशील व्यक्ति इन तीन गुणों को प्राप्त होते हैं, वह मेरे प्रिय हैं।।7।।

सर्वलक्षण मध्ये तु त्याग एव विशिष्यते ।

काले देशे च पात्रे च स च त्यागः प्रशस्यते ॥8 ॥

समस्त लक्षणों (= गुणी के लक्षणों) में त्याग (= दान) ही श्रेष्ठ है। फिर, वह त्याग अर्थात् दान यादि पुण्यकाल में, पुण्य देश में एवं सत् पात्र में प्रयुक्त होता है, तो वह (दान) प्रशस्त बन जाता है ।।8।।

नित्यमामलके लक्ष्मीर्नित्यं तिष्ठति गोमये ।

नित्यं शङ्खे च पद्मे च नित्यं श्रीः शुक्लवाससि ॥9॥

लक्ष्मी देवी आँवले के वृक्ष में, गोमय में, शङ्ख में, पद्म में एवं शुभ्रवस्त्र में सर्वदा अवस्थान करती हैं ।।9।।

वसामि पद्मोत्पल-शङ्ख-मध्ये वसामि चन्द्रे च महेश्वरे च ।

नारायणे चैव वसुन्धरायां वसामि नित्योत्सव- मन्दिरे षु ॥10॥

मैं (लक्ष्मी देवी) श्वेतपद्म, नीलपद्म एवं शङ्ख में, चन्द्र में, महादेव में, नारायण में, पृथिवी में एवं जहाँ नित्य उत्सव होता है – ऐसे मन्दिर में निवास करती हूँ ।।10।।

यथोपदिष्टं गुरुभक्तियुक्ता पत्युर्वचो नाक्रमते च नित्यम् ।

नित्यञ्च भुङ्क्ते पतिभुक्तशेषं तस्याः शरीरे नियतं वसामि ॥11॥

जो स्त्री शास्त्रोपदेश के अनुसार गुरु में भक्ति-युक्ता है, कदापि पति के वाक्य की अवहेलना नहीं करती, प्रतिदिन पति के भोजन कर लेने के उपरान्त स्वयं भोजन करती है, उसके शरीर में मैं सर्वदा निवास करती हूँ ।।11।।

तुष्टा च धीरा प्रियवादिनी च सौभाग्ययुक्ता च सुशोभना च ।

लावण्ययुक्ता प्रियदर्शना या पतिव्रता या च वसामि तासु ॥12 ॥

जो स्त्री सन्तुष्टा, धीरा, प्रियवादिनी, सौभाग्य सम्पन्ना, उत्तमस्वभावा, लावण्यमयी, प्रियदर्शिनी एवं पतिव्रता है मैं उन समस्त स्त्रियों में निवास करती हूँ ।।12।।

श्यामा मृगाक्षी कृशमध्यभागा सुभ्रूः सुकेशी सुगतिः सुशीला ।

गम्भीरनाभिः समदन्त पङ्क्तिस्तस्याः शरीरे नियतं वसामि ॥13॥

जो स्त्री श्यामवर्णा है, जिसकी आँखें मृग के आँखों के समान है, जिसके शरीर का मध्यभाग कृश (पतला) है, जो उत्तम भू-सम्पन्ना है, जिसके केश रमणीय हैं, जो उत्तम गमनशीला, सुचरित्रा, सुगंभीर नाभि-सम्पन्ना, एवं समान दन्त – पङ्कति- सम्पन्ना हैं, मैं उस स्त्री के शरीर में नित्य वास करती हूँ ।।13।।

लक्ष्मी चरित्रम्

Laxmi charitra
लक्ष्मी चरित्र – लक्ष्मी के लिए वर्जनीय स्थल

सौभाग्यलक्ष्मीतन्त्रम् प्रथमोऽध्यायः

या पापयुक्ता पिशुनस्वभावा स्वाधीनकान्तं परिभूतये च ।

अमर्षकामा कुचरित्रशीला तामङ्गनां प्रेतमुखीं त्यज्यामि ॥14॥

जो स्त्री पापशीला, खलस्वभावा, पति को अपने अधीन बनाकर तिरस्कार करने के लिए क्रोध करने के इच्छुक, असच्चरित्रा उस प्रेतमुखी (= असच्चरित्रा स्त्री प्रेतमुख सदृशी है) स्त्री का मैं परित्याग करती हूँ ।।14।।

पुष्पं पर्युषितं पूति शयनं बहुभिः सह ।

भग्नासनं कुनारीञ्च दूरतः परिवर्जयेत् ॥15 ॥

वासी एवं सड़ा हुआ फूल, अनेक लोगों के साथ शयन, छिन्न आसन- वाली एवं असच्चरित्रा स्त्री को दूर से ही परित्याग करें ।।15।।

चिताङ्गारकमस्थीनि वह्निं भस्म द्विजञ्च गाम् ।

न पादेन स्पृशेत् पादं कार्पासास्थि तुषं गुरुम् ॥16॥

चिता के अङ्गार, अस्थि, वह्नि, भस्म, ब्राह्मण, गाय, कार्पास-बीज, तुष, गुरु एवं अपने पैर को (अपने दूसरे) पैर के द्वारा स्पर्श न करें ।।16।।

नखकेशोदकञ्चैव मैथुनं पर्वसन्ध्ययोः ।

वर्जयेन्नग्नशायित्वमेकाकी मिष्टभोजनम् ॥17॥

नख या केश- युक्त-जल, पर्वकाल एवं सन्ध्याकाल में मैथुन, नग्न होकर शयन, एकाकी मिष्टान्न- भोजन का परित्याग करें ।।17।।

शिरःसु पुष्पं चरणौ सुपूजितौ वराङ्गनामैथुनमल्पभोजनम् ।

अनग्नशायित्वमपर्वमैथुनं चिरं प्रनष्टां श्रियमानयन्ति षट् ॥18 ॥

मस्तक पर पुष्पविन्यास, पादद्वय को धौतादि के द्वारा शुद्ध, उत्तम स्त्री मैथुन, अल्प भोजन, अनग्न अवस्था में शयन एवं पर्वकाल से भिन्न समय में मैथुन – ये छः (गुण) दीर्घकाल से नष्ट हुई श्री को मनुष्य को पुनः प्राप्त करा देती हैं ।।18।।

सम्मार्जनीरजो-वातं निर्गुण्डीं कुचं तथा ।

रात्रौ बिल्वञ्च शाक्ञ्च कपित्थं वर्जयेद्दधि ॥19॥

झाडू से उड़नेवाली धूल, झाडू की हवा, नील शेफालिका, डेहुआ का तथा रात्रिकाल में बेल, शाक, कयेद्वेल (कपित्थ) एवं दधि का वर्जन करें ।।19।।

स्वगात्रासनयो र्वाद्यतं मूर्द्धपादयोः ।

उच्छिष्ट स्पर्शनं मूर्ध्नि स्नानाभ्यङ्गञ्च वर्जयेत् ॥20॥

अपने शरीर में एवं आसन में वाद्य (जैसा) बजाना, मस्तक में एवं पैर में अपवित्र-रूप में (वाद्य जैसा) बजाना, मस्तक में उच्छिष्ट (झूठा भोजनादि) का स्पर्श करना एवं स्नान के बाद तैलादि को लगान ( इन कार्यों का) वर्जन करें ।।20।।

शयनञ्चान्धकारे च रात्रिवासो दिने तथा ।

म्लानाम्बरं कुवेषञ्च वर्जयेच्छुष्क- भोजनम् ॥21॥

अँधेरे घर में सोना, दिन के समय रात्रिवास को परिधान करना, मलिन वस्त्र को परिधान करना, खराब वेशभूषा को धारण करना एवं शुष्क भोजन- (इन) का परित्याग करें ।।21।।

परेणोद्वर्तितं वक्षः स्वयं माल्यापकर्षणम् ।

आलस्यमवसादञ्च न कुर्याल्लोष्ठमर्दनम् ॥22॥

दूसरे को द्वारा अपने वक्ष का मर्दन (मालिश) करवाना, स्वयं अपने गलदेश से माला को उतारना, ढेले को घिसते रहना तथा आलस्य एवं अवसाद – इनका वर्जन करें ।।22।।

शुक्रवारे च यत्तैलं शिलापिष्टञ्च दशके ।

स्वयं वामेन मूर्धानं पाणिना नैव संस्पृशेत् ॥23॥

शुक्रवार को तैल, अमावस्या में गन्धद्रव्य, अपने वाम हस्त के द्वारा अपने मस्तक का स्पर्श – (ये कार्य) न करें ।।23।।

लक्ष्मी चरित्रम्

Laxmi charitra
लक्ष्मी चरित्र – लक्ष्मी के प्रिय के लिए वर्जनीय

सौभाग्यलक्ष्मीतन्त्रम् प्रथमोऽध्यायः

तारकां पुष्पवन्तौ च न पश्येदशुचिः पुमान् ।

नेक्षेद् गुह्यं परस्त्रीणां नास्तं यान्तं दिवाकरम् ॥24॥

पुरुष अशुचि अवस्था में नक्षत्र, चन्द्र एवं सूर्य का दर्शन न करें । पुरुष परस्त्री के गुप्त अङ्ग का दर्शन न करें। अस्तगामी सूर्य का दर्शन न करें ।।24।।

कुर्यान्नान्यधनाकाङ्क्षां परस्त्रीणां तथैव च ।

परेषां प्रतिकुल्यञ्च उदितार्के प्रबोधकम् ॥25॥

दूसरे के धन एवं स्त्री की अभिलाषा न करें। दूसरे की प्रतिकूलता (= प्रतिकूल व्यवहार) न करें। सूर्य के उदित हो जाने के बाद जागरण न करें अर्थात् सूर्योदय के पूर्व ही निद्रा का त्याग करें ।।25।।

नखकण्टकरक्तैश्च मृत्तिकाङ्गार-वारिभिः ।

वृथा विलेखनं भूमौ न कुर्यान्मम काङ्क्षया ॥26॥

जो मेरी (= लक्ष्मी की) आकाङ्क्षा करता है, वह नख, कण्टक, खून, मृत्तिका, अङ्गार एवं जल के द्वारा पृथिवी पर वृथा अङ्कन न करें ।।26।।

ग्रथितञ्च स्वयं माल्यं स्वयं घृष्टञ्च चन्दनम् ।

नापितस्य गृहे क्षौरं शत्रादपि हरेच्छ्रियम् ॥27॥

स्वयं माला गूँथकर स्वंय उस माला को धारण करना, स्वयं चन्दन घिसकर अपने अङ्गों में लेप करना, नापित (नाऊ) के घर में क्षौर कर्म करना ये कार्य इन्द्र के श्री का भी हरण कर लेते हैं ।।27।।

न निन्दा गणके विप्रे पादयोर्नतनं तथा ।

प्रतिकूलं चरेत् स्त्रीणां भुक्त्वा च दन्तधावनम् ॥28॥

ज्योतिषी ब्राह्मण की निन्दा, पाद-द्वय को नचाना, स्त्रीगणों के लिए प्रतिकूल आचरण करना एवं भोजन करने के बाद दन्त धावन करना (इन्हें ) न करें ।।28।।

अनृतं मांससूपं च नग्नां चैव स्त्रियं तथा ।

भक्षणाद्दर्शनाच्चैव शत्रादपि हरेच्छ्रियम् ॥29॥

मिथ्या वाक्य कहना, मांस का सूप पीना एवं नग्ना स्त्री का दर्शन करना इन कार्यों को करने से इन्द्र की श्री भी हरण कर ली जाती है ।।29 ।।

मन्त्रैरयुक्तः परदारसेवी आच्चारहीनः परसेवकश्च ।

संकीर्णचारी परिवादशीलस्तं निष्ठुरं दम्भमहं त्यजामि ॥30॥

जो व्यक्ति मन्त्रजपहीन, परस्त्रीसेवी, आचारशून्य, दूसरे (हीन व्यक्ति) का सेवक, संकीर्ण आचरणकारी, परनिन्दाशील है, उस निष्ठुर दाम्भिक का मैं (लक्ष्मीदेवी) परित्याग करती हूँ ।।30।।

लक्ष्मी चरित्रम्

Laxmi charitra

लक्ष्मी चरित्र – लक्ष्मी के प्रिय व्यक्ति के लिए परिवर्जनीय

सौभाग्यलक्ष्मीतन्त्रम् प्रथमोऽध्यायः

शयनं चार्द्रपादेन रात्रिवासो दिने तथा ।

उत्तरीयमधः कुर्याच्छुष्कपादेन भोजनम् ॥31॥

अशुचिम्लान वस्त्रञ्च दुर्गन्धमसुखावहम् ।

अभूषणामपुष्पाञ्च न कुर्यादात्मनस्तनुम् ॥32॥

भींगे पैर सोना, दिन के समय रात्रि वास (= वस्त्र) का परिधान, उत्तीरय वस्त्र को अधो अङ्ग में धारण, सूखे पैर भोजन करना, अशुचि, गन्दा, दुर्गन्धयुक्त एवं दुःखजनक वस्त्र का परिधान, अपने शरीर को अलङ्कार-शून्य एवं पुष्पादि शून्य रखना – ऐसा न करें ।।31-32।।

कर्णे च वदने घ्राणे तथा करतलेऽपिच ।

पादे पृष्ठे तथा नेत्रे न कुर्यादनुलेपनम् ॥33॥

कर्ण, मुख, घ्राण, करतल, पाद, पृष्ठ एवं नेत्र पर चन्दनादि का अनुलेपन न करें ।।33।।

चक्षुर्लग्ने हतं श्रेयो मुखलग्ने धनक्षयः ।

दारिद्रयं कण्ठलग्ने च पादपृष्टे वयःक्षयः ॥34॥

करे च नासिकारन्ध्रे बुद्धिनाशोऽनुलेपनम् ।

तस्मात् वर्जयेदेताननुलेपनभाजिनः ॥35॥

चक्षु पर गन्धादि का अनुलेपन करने पर श्रेय नष्ट हो जाता है; मुख (गन्धादि का) अनुलेपन करने पर धनक्षय हो जाता है; कण्ठ में (गन्धादि का ) अनुलेपन करने पर दारिद्रय होता है; पैर एवं पृष्ठ पर (गन्धादि के) अनुलेपन से आयु-क्षय हो जाता है; हस्त एवं नासिका रन्ध्र में (गन्धादि के) अनुलेपन से बुद्धिनाश हो जाता है । इसलिए अनुलेपन के सम्बन्ध में इन समस्त अङ्कों का वर्जन करें ।।34-35।।

गन्धं पुष्पं तथा तोयं रत्नं चैव महोदधिम् ।

गृहीतं प्रथमं वस्त्रं वर्जयेन्न कदाचन ॥36॥

गन्ध, पुष्प, जल, रत्न, महासागर एवं वस्त्र प्रथम प्राप्त होने पर, उसका कदापि परित्याग न करें ।।36।।

अजारजः खररजस्तथा सम्मार्जनीरजः ।

स्त्रीणां पादर जो राजञ्छक्रादपि हरेच्छ्रियम् ॥37॥

हे राजन् ! बकरी के खुर से स्पृष्ट धूल, गदहे के खुर से स्पृष्ट धूल, झाड़ू का धुल, स्त्रियों के पादों से स्पृष्ट धूल- ये सभी इन्द्र की श्री का भी हरण कर लेते हैं ।।37।।

कुचैलिनं दन्तमलप्रधारिणं बह्वाशिनं निष्ठुरवाक्य भाषिणम् ।

सूर्योदये चास्तमिते च शायिनं विमुञ्चति श्रीरति चक्रपाणिनम् ॥38॥

मलिन वस्त्र परिधानकारी, दन्त में, मलधानी अर्थात् जो दन्तों को साफ नहीं करता है, बहुभोजी कटुभाषणकारी, सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय शयनकारी चक्रपाणि भगवान् का भी लक्ष्मीदेवी परित्याग कर देती हैं ।।38।।

नित्यं छेदस्तृणानां क्षितिनखलिखनं पादयोरल्पपूजा ।

दन्तानामल्पशौचं वसनमलिनता रुक्षता मूर्धजानाम् ।

द्वे सन्ध्ये चापि निद्रा विवसनशयनं ग्रास हासातिरेकः ।

स्वाङ्गे पीठे च वाद्यं हरति धनपतेः केशवस्यापि लक्ष्मीम् ॥39॥

सर्वदा तृणच्छेदन करना, नाखून से जमीन पर लिखना, पादद्वय को अपरिच्छन्न रखना, दाँतों को अच्छी प्रकार से न माँजकर थोड़ा-थोड़ा साफ करना, कपड़े (= वस्त्र) को गन्दा रखना, बालों को रुखा रखना (अर्थात् बालों में तेल न लगाना), प्रातःकाल एवं सांयकाल सोना, नग्न होकर शयन करना, अधिक भोजन करना, उच्च हास्य करना, अपने अंग में एवं बैठने के पीढ़े पर बजाना – ये सभी कार्य कुबेर के, यहाँ तक कि विष्णु के भी लक्ष्मी (= सम्पत्ति) का हरण कर लेते हैं ।।39।।

एवं यः कुरुते नित्यं मयोक्तानि च केशव ।

तुष्टा भवामि तस्याहं त्वय्येव निश्चला यथा ॥40॥

हे केशव ! मैंने जो कुछ बताया है – इनका, जो व्यक्ति सर्वदा पालन करता है, मैं जिस प्रकार आप में अचल रहती हूँ, उसी प्रकार उस व्यक्ति पर सन्तुष्ट होकर उसमें भी अचल रहती हूँ ।।40।।

श्रीभाषितमिदं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।

तद्गृहं विपुलं रम्यं नित्यं भवति नान्यथा ॥41॥

जो प्रातःकाल उठकर लक्ष्मी के द्वारा कथित इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसका गृह सर्वदा विपुल ऐश्वर्य से समन्वित एवं सुन्दर बन जाता है। इसकी कभी अन्यथा नहीं होती है ।।41।।

व्याधितो मुच्यते रोगाद् बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।

आपदस्तस्य नश्यन्ति तमः सूर्योदये यथा ॥ 42 ॥

(लक्ष्मी के द्वारा कथित स्तोत्र का नित्य प्रातः काल पाठ करने पर) रोगी रोग से मुक्त हो जाता है; बद्ध (व्यक्ति) बन्धन से मुक्त हो जाता है; सूर्योदय के होने पर जिस प्रकार अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार लक्ष्मी स्तोत्र – पाठकारी (व्यक्ति) का भी समस्त आपद् नष्ट हो जाता है ।।42।।

इति श्रीविष्णुपुराणे लक्ष्मी-केशव-संवादे लक्ष्मीचरित्रं समाप्तम् ॥ 1 ॥

इति सौभाग्यलक्ष्मीतन्त्र का प्रथम अध्याय समाप्त ॥1 ॥

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