दुनिया से नफरत मिटाना है तो मान लीजिए श्रीकृष्ण की यह बात

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श्रीमद भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने प्राणियों में समानता की शिक्षा दी है। आज बंटे हुए समाज में गीता की उपादेयता और भी बढ़ जाती है। श्रीमद भगवद गीता के पंद्रहवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं- इस संसार में सारे जीव मेरे अंश हैं। वे छह इंद्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है। श्रीकृष्ण इसे और स्पष्ट करते हैं- विनम्र पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण सभी को समान दृष्टि से देखता है। अर्थात जब हम किसी भी भूखे की भूख मिटाते हैं तो भगवान की भूख मिटाते हैं। प्रत्येक प्राणी में ईश्वर है। फिर भेद कैसा? किसी भी जीव को प्रताड़ित करना, कष्ट देना ईश्वर को कष्ट पहुंचाना है। गीता में समानता का यह स्वर सभी जगह मिलता है।

छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है।’ स्पष्ट है कि हमारे सांसारिक संबंध कैसे भी हों, पर हमारे व्यवहार में समानता का भाव होना चाहिए।

दुनिया में समानता का विचार आधुनिक काल की देन माना जाता है, किंतु भारत में श्रीमद‌्भगवद‌्गीता में समानता का विचार अद्भुत ढंग से प्रस्तुत हुआ है। हालांकि कोई धर्म आपस में भेदभाव के लिए प्रेरित नहीं करता। फिर भी आज पढ़े-लिखे समाज में भी जाति भेद शिखर पर है। मनुष्य समय पड़ने पर अपनी नस्ल, जाति, भाषा और धर्म से अलग व्यक्ति पर प्रतिकूल टिप्पणी करता है। हिन्दू-मुस्लिम, ब्राह्मण-शूद्र, शाकाहारी-मांसाहारी, साधारण जाति-अनुसूचित जाति, उच्चवर्ग-निम्नवर्ग भाषाओं की अलग तना-तनी है।

धर्म के नाम पर आज समाज बंटा हुआ है। एक जाति के लोग दूसरी जाति से भेदभाव रखते हैं, उन्हें लगता है कि सिर्फ उनके धर्म? संप्रदाय? समाज का व्‍यक्ति ही उनका हित कर सकता है। यह सोच बिलकुल गलत है और इसी विभेद का लाभ उठाया जाता है। बंटे हुए समाज को और बांटने का प्रबंध किया जाता है। धर्म को लेकर अक्सर लोगों में वाद-विवाद होता रहता है।

इसी का नतीजा है कि हम एक बार फिर से उस दोराहे पर खड़े हैं, जहां देश में आध्यात्मिकता की एक लहर की अनिवार्यता महसूस होने लगी है। आध्यात्मिकता की लहर का मतलब है एकता की भावना। कुछ ऐसा हो कि हर कोई दूसरों से ऐक्य महसूस करने लगे। अध्यात्म के प्रभाव में ऐसा होना कोई मुश्किल नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है- सभी धर्मों का गंतव्य स्थान एक है। जिस प्रकार विभिन्न मार्गों से बहती हुई नदियां समुद्र में जाकर गिरती हैं, उसी प्रकार सब मत-मतांतर परमात्मा की ओर ले जाते हैं। मानव धर्म एक है, मानव जाति एक है।

हमारी पवित्र पुस्तकें कुरान, गीता, रामायण या बाइबल में इंसानियत की सीख दी गई है। फिर इस अमूल्य सीख से बेखबर हमारे धर्माधिकारी तक विवादास्पद बयान दे देते हैं जिसका ज्यादा नुकसान मासूम आवाम को होता है। ऐसा समाज जहां इंसानियत ही हमारा धर्म हो, इसके लिए जरूरी है कि हम पहले इंसान बन जाएं। जो सब धर्मों से ऊपर है। आज स्थिति इसके विपरीत है। सबसे बुद्धिमान कहा जाने वाला मनुष्य ही आज शांति के चमन को भेद-भाव की दूषित मानसिकता से नष्ट कर रहा है। यह हमारे अज्ञानता में जीने का सबूत नहीं तो और क्या है?

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